वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 30 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 30
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः (सर्ग 30)
शरद्-ऋतु का वर्णन तथा श्रीराम का लक्ष्मण को सुग्रीव के पास जाने का आदेश देना
गृहं प्रविष्टे सुग्रीवे विमुक्ते गगने घनैः।
वर्षरात्रे स्थितो रामः कामशोकाभिपीडितः॥१॥
पूर्वोक्त आदेश देकर सुग्रीव तो अपने महल में चले गये और उधर श्रीरामचन्द्रजी, जो वर्षा की रातों में प्रस्रवणगिरि पर निवास करते थे, आकाश के मेघों से मुक्त एवं निर्मल हो जाने पर सीता से मिलने की उत्कण्ठा लिये उनके विरहजन्य शोक से अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करने लगे॥१॥
पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम्।
शारदीं रजनीं चैव दृष्ट्वा ज्योत्स्नानुलेपनाम्॥२॥
उन्होंने देखा, आकाश श्वेत वर्ण का हो रहा है, चन्द्रमण्डल स्वच्छ दिखायी देता है तथा शरद्ऋतु की रजनी के अङ्गों पर चाँदनी का अङ्गराग लगा हुआ है। यह सब देखकर वे सीता से मिलने के लिये व्याकुल हो उठे॥
कामवृत्तं च सुग्रीवं नष्टां च जनकात्मजाम्।
दृष्ट्वा कालमतीतं च मुमोह परमातुरः॥३॥
उन्होंने सोचा ‘सुग्रीव काम में आसक्त हो रहा है, जनककुमारी सीता का अब तक कुछ पता नहीं लगा हैऔर रावण पर चढ़ाई करने का समय भी बीता जा रहा है।’ यह सब देखकर अत्यन्त आतुर हुए श्रीराम का हृदय व्याकुल हो उठा॥३॥
स तु संज्ञामुपागम्य मुहूर्तान्मतिमान् नृपः।
मनःस्थामपि वैदेहीं चिन्तयामास राघवः॥४॥
दो घड़ी के बाद जब उनका मन कुछ स्वस्थ हुआ, तब वे बुद्धिमान् नरेश श्रीरघुनाथजी अपने मन में बसी हुई विदेहनन्दिनी सीता का चिन्तन करने लगे॥ ४॥
दृष्ट्वा च विमलं व्योम गतविद्युबलाहकम्।
सारसारावसंघुष्टं विललापार्तया गिरा॥५॥
उन्होंने देखा, आकाश निर्मल है न कहीं बिजलीकी गड़गड़ाहट है न मेघों की घटा। वहाँ सब ओर सारसों की बोली सुनायी देती है। यह सब देखकर वे आर्तवाणी में विलाप करने लगे॥५॥
आसीनः पर्वतस्याग्रे हेमधातुविभूषिते।
शारदं गगनं दृष्ट्वा जगाम मनसा प्रियाम्॥६॥
सुनहरे रंग की धातुओं से विभूषित पर्वतशिखर पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी शरत्काल के स्वच्छ आकाश की ओर दृष्टिपात करके मन-ही-मन अपनी प्यारी पत्नी सीता का ध्यान करने लगे॥६॥
सारसारावसंनादैः सारसारावनादिनी।
याऽऽश्रमे रमते बाला साद्य मे रमते कथम्॥७॥
वे बोले—’जिसकी बोली सारसों की आवाज के समान मीठी थी तथा जो मेरे आश्रम पर सारसों द्वारा परस्पर एक-दूसरे को बुलाने के लिये किये गये मधुर शब्दों से मन बहलाती थी, वह मेरी भोलीभाली स्त्री सीता आज किस तरह मनोरञ्जन करती होगी? ॥ ७॥
पुष्पितांश्चासनान् दृष्ट्वा काञ्चनानिव निर्मलान्।
कथं सा रमते बाला पश्यन्ती मामपश्यती॥८॥
‘सुवर्णमय वृक्षों के समान निर्मल और खिले हुए असन नामक वृक्षों को देखकर बार-बार उन्हें निहारती हुई भोली-भाली सीता जब मुझे अपने पास नहीं देखती होगी, तब कैसे उसका मन लगता होगा?॥ ८॥
या पुरा कलहंसानां कलेन कलभाषिणी।
बुध्यते चारुसर्वाङ्गी साद्य मे रमते कथम्॥९॥
‘जिसके सभी अङ्ग मनोहर हैं तथा जो स्वभाव से ही मधुर भाषण करनेवाली है, वह सीता पहले कलहंसों के मधुर शब्द से जागा करती थी; किंतु आज वह मेरी प्रिया वहाँ कैसे प्रसन्न रहती होगी? ॥ ९॥
निःस्वनं चक्रवाकानां निशम्य सहचारिणाम्।
पुण्डरीकविशालाक्षी कथमेषा भविष्यति॥१०॥
‘जिसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान शोभा पाते हैं, वह मेरी प्रिया जब साथ विचरने वाले चकवों की बोली सुनती होगी, तब उसकी कैसी दशा हो जाती होगी? ॥ १०॥
सरांसि सरितो वापीः काननानि वनानि च।
तां विना मृगशावाक्षीं चरन्नाद्य सुखं लभे॥
‘हाय! मैं नदी, तालाब, बावली, कानन और वन सब जगह घूमता हूँ; परंतु कहीं भी उस मृगशावकनयनी सीता के बिना अब मुझे सुख नहीं मिलता है॥ ११॥
अपि तां मद्वियोगाच्च सौकुमार्याच्च भामिनीम्।
सुदूरं पीडयेत् कामः शरद्गुणनिरन्तरः॥१२॥
‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि शरद् ऋतु के गुणों से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने वाला काम भामिनी सीता को अत्यन्त पीड़ित कर दे; क्योंकि ऐसी सम्भावना के दो कारण हैं—एक तो उसे मेरे वियोग का कष्ट है, दूसरे वह अत्यन्त सुकुमारी होने के कारण इस कष्ट को सहन नहीं कर पाती होगी’ ॥ १२ ॥
एवमादि नरश्रेष्ठो विललाप नृपात्मजः।
विहंग इव सारङ्गः सलिलं त्रिदशेश्वरात्॥१३॥
इन्द्र से पानी की याचना करने वाले प्यासे पपीहे की भाँति नरश्रेष्ठ नरेन्द्रकुमार श्रीराम ने इस तरह की बहुत सी बातें कहकर विलाप किया॥१३॥
ततश्चञ्चूर्य रम्येषु फलार्थी गिरिसानुषु।
ददर्श पर्युपावृत्तो लक्ष्मीवाल्लक्ष्मणोऽग्रजम्॥ १४॥
उस समय शोभाशाली लक्ष्मण फल लेने के लिये गये थे। वे पर्वत के रमणीय शिखरों पर घूम-फिरकर जब लौटे तब उन्होंने अपने बड़े भाई की अवस्था पर दृष्टिपात किया॥१४॥
स चिन्तया दुस्सहया परीतं विसंज्ञमेकं विजने मनस्वी।
भ्रातुर्विषादात् त्वरितोऽतिदीनः समीक्ष्य सौमित्रिरुवाच दीनम्॥१५॥
वे दुस्सह चिन्ता में मग्न होकर अचेत-से हो गये थे और एकान्त में अकेले ही दुःखी होकर बैठे थे। उस समय मनस्वी सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने जब उन्हें देखा तब वे तुरंत ही भाई के विषाद से अत्यन्त दुःखी हो गये और उनसे इस प्रकार बोले- ॥ १५ ॥
किमार्य कामस्य वशंगतेन किमात्मपौरुष्यपराभवेन ।
अयं ह्रिया संह्रियते समाधिः किमत्र योगेन निवर्तते न॥१६॥
‘आर्य! इस प्रकार काम के अधीन होकर अपने पौरुष का तिरस्कार करने से—पराक्रम को भूल जाने से क्या लाभ होगा? इस लज्जाजनक शोक के कारण आपके चित्त की एकाग्रता नष्ट हो रही है। क्या इस समय योग का सहारा लेने से—मन को एकाग्र करने से यह सारी चिन्ता दूर नहीं हो सकती? ॥ १६॥
क्रियाभियोगं मनसः प्रसाद समाधियोगानुगतं च कालम्।
सहायसामर्थ्यमदीनसत्त्वः स्वकर्महेतुं च कुरुष्व तात॥१७॥
‘तात! आप आवश्यक कर्मों के अनुष्ठान में पूर्णरूप से लग जाइये, मन को प्रसन्न कीजिये और हर समय चित्त की एकाग्रता बनाये रखिये। साथ ही, अन्तःकरण में दीनता को स्थान न देते हुए अपने पराक्रम की वृद्धि के लिये सहायता और शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न कीजिये॥
न जानकी मानववंशनाथ त्वया सनाथा सुलभा परेण।
न चाग्निचूडां ज्वलितामुपेत्य न दह्यते वीर वराह कश्चित्॥१८॥
‘मानववंश के नाथ तथा श्रेष्ठ पुरुषों के भी पूजनीय वीर रघुनन्दन! जिनके स्वामी आप हैं, वे जनकनन्दिनी सीता किसी भी दूसरे पुरुष के लिये सुलभ नहीं हैं; क्योंकि जलती हुई आग की लपट के पास जाकर कोई भी दग्ध हुए बिना नहीं रह सकता’॥ १८॥
सलक्षणं लक्ष्मणमप्रधृष्यं स्वभावजं वाक्यमुवाच रामः।
हितं च पथ्यं च नयप्रसक्तं ससामधर्मार्थसमाहितं च॥१९॥
निस्संशयं कार्यमवेक्षितव्यं क्रियाविशेषोऽप्यनुवर्तितव्यः।
न तु प्रवृद्धस्य दुरासदस्य कुमार वीर्यस्य फलं च चिन्त्यम्॥२०॥
लक्ष्मण उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता था। भगवान् श्रीरामने उनसे यह स्वाभाविक बात कही—’कुमार! तुमने जो बात कही है, वह वर्तमान समय में हितकर, भविष्य में भी सुख पहुँचाने वाली, राजनीति के सर्वथा अनुकूल तथा सामके साथ-साथ धर्म और अर्थ से भी संयुक्त है। निश्चय ही सीता के अनुसंधान कार्य पर ध्यान देना चाहिये तथा उसके लिये विशेष कार्य या उपाय का भी अनुसरण करना चाहिये; किंतु प्रयत्न छोड़कर पूर्णरूप से बढ़े हुए दुर्लभ एवं बलवान् कर्म के फलपर ही दृष्टि रखना उचित नहीं है’ ॥ १९-२० ॥
अथ पद्मपलाशाक्षीं मैथिलीमनुचिन्तयन्।
उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता॥२१॥
तदनन्तर प्रफुल्ल कमलदल के समान नेत्रवाली मिथिलेशकुमारी सीता का बार-बार चिन्तन करते हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण को सम्बोधित करके सूखे हुए (उदास) मुँह से बोले- ॥२१॥
तर्पयित्वा सहस्राक्षः सलिलेन वसुंधराम्।
निवर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः॥ २२॥
‘सुमित्रानन्दन! सहस्रनेत्रधारी इन्द्र इस पृथ्वी को जल से तृप्त करके यहाँ के अनाजों को पकाकर अब कृतकृत्य हो गये हैं ॥ २२॥
दीर्घगम्भीरनिर्घोषाः शैलद्रुमपुरोगमाः।
विसृज्य सलिलं मेघाः परिशान्ता नृपात्मज॥ २३॥
‘राजकुमार! देखो, जो अत्यन्त गम्भीर स्वर से गर्जना किया करते और पर्वतों, नगरों तथा वृक्षों के ऊपर से होकर निकलते थे, वे मेघ अपना सारा जल बरसाकर शान्त हो गये हैं ॥ २३॥
नीलोत्पलदलश्यामाः श्यामीकृत्वा दिशो दश।
विमदा इव मातङ्गाः शान्तवेगाः पयोधराः॥ २४॥
‘नील कमलदल के समान श्यामवर्णवाले मेघ दसों दिशाओं को श्याम बनाकर मदरहित गजराजों के समान वेगशून्य हो गये हैं; उनका वेग शान्त हो गया है॥ २४॥
जलगर्भा महावेगाः कुटजार्जुनगन्धिनः।
चरित्वा विरताः सौम्य वृष्टिवाताः समुद्यताः॥ २५॥
‘सौम्य! जिनके भीतर जल विद्यमान था तथा जिनमें कुटज और अर्जुन के फूलों की सुगन्ध भरी हुई थी, वे अत्यन्त वेगशाली झंझावात उमड़-घुमड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में विचरण करके अब शान्त हो गये हैं।
घनानां वारणानां च मयूराणां च लक्ष्मण।
नादः प्रस्रवणानां च प्रशान्तः सहसानघ ॥२६॥
‘निष्पाप लक्ष्मण! बादलों, हाथियों, मोरों और झरनों के शब्द इस समय सहसा शान्त हो गये हैं। २६॥
अभिवृष्टा महामेधैर्निर्मलाश्चित्रसानवः।
अनुलिप्ता इवाभान्ति गिरयश्चन्द्ररश्मिभिः॥ २७॥
‘महान् मेघों द्वारा बरसाये हुए जल से घुल जाने के कारण ये विचित्र शिखरों वाले पर्वत अत्यन्त निर्मल हो गये हैं। इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो चन्द्रमा की किरणों द्वारा इनके ऊपर सफेदी कर दी गयी है॥२७॥
शाखासु सप्तच्छदपादपानां प्रभासु तारार्कनिशाकराणाम्।
लीलासु चैवोत्तमवारणानां श्रियं विभज्याद्य शरत्प्रवृत्ता॥२८॥
‘आज शरद्-ऋतु सप्तच्छद (छितवन) की डालियों में, सूर्य, चन्द्रमा और तारोंकी प्रभामें तथा श्रेष्ठ गजराजों की लीलाओं में अपनी शोभा बाँटकर आयी है॥२८॥
सम्प्रत्यनेकाश्रयचित्रशोभा लक्ष्मीः शरत्कालगुणोपपन्ना।
सूर्याग्रहस्तप्रतिबोधितेषु पद्माकरेष्वभ्यधिकं विभाति॥२९॥
‘इस समय शरत्काल के गुणों से सम्पन्न हुई लक्ष्मी यद्यपि अनेक आश्रयों में विभक्त होकर विचित्र शोभा धारण करती हैं, तथापि सूर्य की प्रथम किरणों से विकसित हुए कमल-वनों में वे सबसे अधिक सुशोभित होती हैं।
सप्तच्छदानां कुसुमोपगन्धी षट्पादवृन्दैरनुगीयमानः।
मत्तद्विपानां पवनानुसारी दर्प विनेष्यन्नधिकं विभाति॥३०॥
‘छितवन के फूलों की सुगन्ध धारण करने वाला शरत्काल स्वभावतः वायु का अनुसरण कर रहा है। भ्रमरों के समूह उसके गुणगान कर रहे हैं। वह मार्ग के जल को सोखता और मतवाले हाथियों के दर्प को बढ़ाता हुआ अधिक शोभा पा रहा है॥ ३० ॥
अभ्यागतैश्चारुविशालपक्षैः स्मरप्रियैः पद्मरजोऽवकीर्णैः ।
महानदीनां पुलिनोपयातैः क्रीडन्ति हंसाः सह चक्रवाकैः॥३१॥
‘जिनके पंख सुन्दर और विशाल हैं, जिन्हें कामक्रीडा अधिक प्रिय है, जिनके ऊपर कमलों के पराग बिखरे हुए हैं, जो बड़ी-बड़ी नदियों के तटों पर उतरे हैं और मानसरोवर से साथ ही आये हैं, उन चक्रवाकों के साथ हंस क्रीडा कर रहे हैं॥ ३१॥
मदप्रगल्भेषु च वारणेषु गवां समूहेषु च दर्पितेषु।
प्रसन्नतोयासु च निम्नगासु विभाति लक्ष्मीबहुधा विभक्ता॥३२॥
‘मदमत्त गजराजों में, दर्प-भरे वृषभों के समूहों में तथा स्वच्छ जलवाली सरिताओं में नाना रूपों में विभक्त हुई लक्ष्मी विशेष शोभा पा रही है॥ ३२॥
नभः समीक्ष्याम्बुधरैर्विमुक्तं विमुक्तबर्हाभरणा वनेषु।
प्रियास्वरक्ता विनिवृत्तशोभा गतोत्सवा ध्यानपरा मयूराः॥३३॥
‘आकाश को बादलों से शून्य हुआ देख वनों में पंखरूपी आभूषणों का परित्याग करने वाले मोर अपनी प्रियतमाओं से विरक्त हो गये हैं। उनकी शोभा नष्ट हो गयी है और वे आनन्दशून्य हो ध्यानमग्न होकर बैठे
मनोज्ञगन्धैः प्रियकैरनल्पैः पुष्पातिभारावनतानशाखैः।
सुवर्णगौरैर्नयनाभिरामैरुद्योतितानीव वनान्तराणि॥३४॥
‘वन के भीतर बहुत-से असन नामक वृक्ष खड़े हैं, जिनकी डालियों के अग्रभाग फूलों के अधिक भार से झुक गये हैं। उनपर मनोहर सुगन्ध छा रही है। वे सभी वृक्ष सुवर्ण के समान गौर तथा नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं। उनके द्वारा वनप्रान्त प्रकाशित-से हो रहे हैं॥ ३४॥
प्रियान्वितानां नलिनीप्रियाणां वने प्रियाणां कुसुमोद्गतानाम्।
मदोत्कटानां मदलालसानां गजोत्तमानां गतयोऽद्य मन्दाः॥ ३५॥
‘जो अपनी प्रियतमाओं के साथ विचरते हैं, जिन्हें कमल के पुष्प तथा वन अधिक प्रिय हैं, जो छितवन के फूलों को सूंघकर उन्मत्त हो उठे हैं, जिनमें अधिक मद है तथा जिन्हें मदजनित कामभोग की लालसा बनी हुई है, उन गजराजों की गति आज मन्द हो गयी है॥ ३५॥
व्यक्तं नभः शस्त्रविधौतवर्णं कृशप्रवाहानि नदीजलानि।
कलारशीताः पवनाः प्रवान्ति तमो विमुक्ताश्च दिशः प्रकाशाः॥३६॥
‘इस समय आकाश का रंग शान पर चढ़े हुए शस्त्र की धार के समान स्वच्छ दिखायी देता है, नदियों के जल मन्दगति से प्रवाहित हो रहे हैं, श्वेत कमल की सुगन्ध लेकर शीतल मन्द वायु चल रही है, दिशाओं का अन्धकार दूर हो गया है और अब उनमें पूर्ण प्रकाश छा रहा है। ३६ ।।
सूर्यातपक्रामणनष्टपङ्का भूमिश्चिरोद्घाटितसान्द्ररेणुः।
अन्योन्यवरेण समायुतानामुद्योगकालोऽद्य नराधिपानाम्॥३७॥
‘घाम लगने से धरती का कीचड़ सूख गया है। अब उस पर बहुत दिनों के बाद घनी धूल प्रकट हुई है। परस्पर वैर रखने वाले राजाओं के लिये युद्ध के निमित्त उद्योग करने का समय अब आ गया है॥३७॥
शरद्गुणाप्यायितरूपशोभाः प्रहर्षिताः पांसुसमुत्थिताङ्गाः।
मदोत्कटाः सम्प्रति युद्धलुब्धा वृषा गवां मध्यगता नदन्ति॥ ३८॥
‘शरद्-ऋतु के गुणों ने जिनके रूप और शोभा को बढ़ा दिया है, जिनके सारे अङ्गों पर धूल छा रही है, जिनके मद की अधिक वृद्धि हुई है तथा जो युद्ध के लिये लुभाये हुए हैं, वे साँड़ इस समय गौओं के बीच में खड़े होकर अत्यन्त हर्षपूर्वक हँकड़ रहे हैं। ३८॥
समन्मथा तीव्रतरानुरागा कुलान्विता मन्दगतिः करेणुः।
मदान्वितं सम्परिवार्य यान्तं वनेषु भर्तारमनुप्रयाति ॥ ३९॥
‘जिसमें कामभाव का उदय हुआ है, इसीलिये जो अत्यन्त तीव्र अनुराग से युक्त है और अच्छे कुल में उत्पन्न हुई है, वह मन्दगति से चलने वाली हथिनी वनों में जाते हुए अपने मदमत्त स्वामी को घेरकर उसका अनुगमन करती है॥ ३९॥
त्यक्त्वा वराण्यात्मविभूषितानि बर्हाणि तीरोपगता नदीनाम्।
निर्भय॑माना इव सारसौघैः प्रयान्ति दीना विमना मयूराः॥४०॥
‘अपने आभूषण रूप श्रेष्ठ पंखों को त्यागकर नदियों के तटों पर आये हुए मोर मानो सारस-समूहों की फटकार सुनकर दुःखी और खिन्नचित्त हो पीछे लौट जाते हैं।
वित्रास्य कारण्डवचक्रवाकान् महारवैर्भिन्नकटा गजेन्द्राः।
सरस्सुबद्धाम्बुजभूषणेषु विक्षोभ्य विक्षोभ्य जलं पिबन्ति॥४१॥
‘जिनके गण्डस्थल से मद की धारा बह रही है, वे गजराज अपनी महती गर्जना से कारण्डवों तथा चक्रवाकों को भयभीत करके विकसित कमलों से विभूषित सरोवरों में जल को हिलोर-हिलोरकर पी रहे हैं॥४१॥
व्यपेतपङ्कासु सवालुकासु प्रसन्नतोयासु सगोकुलासु।
ससारसारावविनादितासु नदीषु हंसा निपतन्ति हृष्टाः॥४२॥
‘जिनके कीचड़ दूर हो गये हैं। जो बालुकाओं से सुशोभित हैं, जिनका जल बहुत ही स्वच्छ है तथा गौओं के समुदाय जिनके जल का सेवन करते हैं, सारसों के कलरवों से गूंजती हुई उन सरिताओं में हंस बड़े हर्ष के साथ उतर रहे हैं॥ ४२ ॥
नदीघनप्रस्रवणोदकानामतिप्रवृद्धानिलबर्हिणानाम्।
प्लवंगमानां च गतोत्सवानां ध्रुवं रवाः सम्प्रति सम्प्रणष्टाः॥४३॥
‘नदी, मेघ, झरनों के जल, प्रचण्ड वायु, मोर और हर्षरहित मेढकों के शब्द निश्चय ही इस समय शान्त हो गये हैं। ४३॥
अनेकवर्णाः सुविनष्टकाया नवोदितेष्वम्बुधरेषु नष्टाः।
क्षुधार्दिता घोरविषा बिलेभ्यश्चिरोषिता विप्रसरन्ति सर्पाः॥४४॥
‘नूतन मेघों के उदित होने पर जो चिरकाल से बिलों में छिपे बैठे थे, जिनकी शरीरयात्रा नष्टप्राय हो गयी थी और इस प्रकार जो मृतवत् हो रहे थे, वे भयंकर विषवाले बहुरंगे सर्प भूख से पीड़ित होकर अब बिलों से बाहर निकल रहे हैं॥४४॥
चञ्चच्चन्द्रकरस्पर्शहर्षोन्मीलिततारका।
अहो रागवती संध्या जहाति स्वयमम्बरम्॥४५॥
‘शोभाशाली चन्द्रमा की किरणों के स्पर्शसे होने वाले हर्ष के कारण जिसके तारे किंचित् प्रकाशित हो रहे हैं (अथवा प्रियतम के कर स्पर्शजनित हर्ष से जिसके नेत्रों की पुतली किंचित् खिल उठी है) वह रागयुक्त संध्या (अथवा अनुरागभरी नायिका) स्वयं ही अम्बर (आकाश अथवा वस्त्र) का त्याग कर रही है, यह कैसे आश्चर्य की बात है ! * ॥ ४५ ॥
* यहाँ संध्या में कामुकी नायिका के व्यवहार का आरोप होने से समासोक्ति अलंकार समझना चाहिये।
रात्रिः शशाङ्कोदितसौम्यवक्त्रा तारागणोन्मीलितचारुनेत्रा।
ज्योत्स्नांशुकप्रावरणा विभाति नारीव शुक्लांशुकसंवृताङ्गी॥४६॥
‘चाँदनी की चादर ओढ़े हुए शरत्काल की यह रात्रि श्वेत साड़ी से ढके हुए अङ्गवाली एक सुन्दरी नारी के समान शोभा पाती है। उदित हुआ चन्द्रमा ही उसका सौम्य मुख है और तारे ही उसकी खुली हुई मनोहर आँखें हैं॥ ४६॥
विपक्वशालिप्रसवानि भुक्त्वा प्रहर्षिता सारसचारुपङ्क्तिः ।
नभः समाक्रामति शीघ्रवेगा वातावधूता ग्रथितेव माला॥४७॥
‘पके हुए धान की बालोंको खाकर हर्ष से भरी हुई और तीव्र वेग से चलने वाली सारसों की वह सुन्दर पंक्ति वायुकम्पित गुंथी हुई पुष्पमाला की भाँति आकाश में उड़ रही है॥४७॥
सुप्तैकहंसं कुमुदैरुपेतं महाह्रदस्थं सलिलं विभाति।
घनैर्विमुक्तं निशि पूर्णचन्द्रं तारागणाकीर्णमिवान्तरिक्षम्॥४८॥
‘कुमुद के फूलों से भरा हुआ उस महान् तालाब का जल जिसमें एक हंस सोया हुआ है, ऐसा जान पड़ता है मानो रात के समय बादलों के आवरण से रहित आकाश सब ओर छिटके हुए तारों से व्याप्त होकर पूर्ण चन्द्रमा के साथ शोभा पा रहा हो॥४८॥
प्रकीर्णहंसाकुलमेखलानां प्रबुद्धपद्मोत्पलमालिनीनाम्।
वाप्युत्तमानामधिकाद्य लक्ष्मीर्वराङ्गनानामिव भूषितानाम्॥४९॥
‘सब ओर बिखरे हुए हंस ही जिनकी फैली हुई मेखला (करधनी) हैं, जो खिले हुए कमलों और उत्पलों की मालाएँ धारण करती हैं। उन उत्तम बावड़ियों की शोभा आज वस्त्राभूषणों से विभूषित हुई सुन्दरी वनिताओं के समान हो रही है॥ ४९॥
वेणुस्वरव्यञ्जिततूर्यमिश्रः प्रत्यूषकालेऽनिलसम्प्रवृत्तः।।
सम्मूर्छितो गर्गरगोवृषाणामन्योन्यमापूरयतीव शब्दः॥५०॥
‘वेणु के स्वर के रूपमें व्यक्त हुए वाद्यघोषसे मिश्रित और प्रातःकाल की वायु से वृद्धि को प्राप्त होकर सब ओर फैला हुआ दही मथने के बड़े-बड़े भाण्डों और साँड़ों का शब्द, मानो एक-दूसरे का पूरक हो रहा है॥५०॥
नवैर्नदीनां कुसुमप्रहासै फ्धूयमानैर्मृदुमारुतेन।
धौतामलक्षौमपटप्रकाशैः कूलानि काशैरुपशोभितानि॥५१॥
‘नदियों के तट मन्द-मन्द वायु से कम्पित, पुष्परूपी हास से सुशोभित और धुले हुए निर्मल रेशमी वस्त्रों के समान प्रकाशित होने वाले नूतन कासों से बड़ी शोभा पा रहे हैं। ५१॥
वनप्रचण्डा मधुपानशौण्डाः प्रियान्विताः षट्चरणाः प्रहृष्टाः।
वनेषु मत्ताः पवनानुयात्रां कुर्वन्ति पद्मासनरेणुगौराः॥५२॥
‘वन में ढिठाई के साथ घूमने वाले तथा कमल और असन के परागों से गौरवर्ण को प्राप्त हुए मतवाले भ्रमर, जो पुष्पों के मकरन्द का पान करने में बड़े चतुर हैं, अपनी प्रियाओं के साथ हर्ष में भरकर वनों में (गन्ध के लोभ से) वायु के पीछे-पीछे जा रहे हैं॥५२॥
जलं प्रसन्नं कुसुमप्रहासं क्रौञ्चस्वनं शालिवनं विपक्वम्।
मृदुश्च वायुर्विमलश्च चन्द्रः शंसन्ति वर्षव्यपनीतकालम्॥५३॥
‘जल स्वच्छ हो गया है, धान की खेती पक गयी है, वायु मन्दगति से चलने लगी है और चन्द्रमा अत्यन्त निर्मल दिखायी देता है ये सब लक्षण उस शरत्काल के आगमन की सूचना देते हैं। जिसमें वर्षा की समाप्ति हो जाती है, क्रौञ्च पक्षी बोलने लगते हैं और फूल उस ऋतु के हास की भाँति खिल उठते हैं ॥ ५३॥
मीनोपसंदर्शितमेखलानां नदीवधूनां गतयोऽद्य मन्दाः।
कान्तोपभुक्तालसगामिनीनां प्रभातकालेष्विव कामिनीनाम्॥५४॥
‘रात को प्रियतम के उपभोग में आकर प्रातःकाल अलसायी गति से चलने वाली कामिनियों की भाँति उन नदीस्वरूपा वधुओं की गति भी आज मन्द हो गयी है, जो मछलियों की मेखला-सी धारण किये हुए हैं। ५४॥
सचक्रवाकानि सशैवलानि काशैर्दुकूलैरिव संवृतानि।
सपत्ररेखाणि सरोचनानि वधूमुखानीव नदीमुखानि॥५५॥
‘नदियों के मुख नव वधुओं के मुँह के समान शोभा पाते हैं। उनमें जो चक्रवाक हैं, वे गोरोचन द्वारा निर्मित तिलक के समान प्रतीत होते हैं, जो सेवार हैं, वे वधू के मुखपर बनी हुई पत्रभङ्गी के समान जान पड़ते हैं तथा जो काश हैं, वे ही मानो श्वेत दुकूल बनकर नदीरूपिणी वधू के मुँह को ढके हुए हैं।॥ ५५ ॥
प्रफुल्लबाणासनचित्रितेषु प्रहृष्टषट्पादनिकूजितेषु।
गृहीतचापोद्यतदण्डचण्डः प्रचण्डचापोऽद्य वनेषु कामः॥५६॥
‘फूले हुए सरकण्डों और असन के वृक्षों से जिनकी विचित्र शोभा हो रही है तथा जिनमें हर्षभरे भ्रमरों की आवाज गूंजती रहती है, उन वनों में आज प्रचण्ड धनुर्धर कामदेव प्रकट हुआ है, जो धनुष हाथ में लेकर विरही जनों को दण्ड देने के लिये उद्यत हो अत्यन्त कोप का परिचय दे रहा है॥५६॥
लोकं सुवृष्टया परितोषयित्वा नदीस्तटाकानि च पूरयित्वा।
निष्पन्नसस्यां वसुधां च कृत्वा त्यक्त्वा नभस्तोयधराः प्रणष्टाः॥५७॥
‘अच्छी वर्षा से लोगों को संतुष्ट करके नदियों और तालाबों को पानी से भरकर तथा भूतल को परिपक्व धान की खेती से सम्पन्न करके बादल आकाश छोड़कर अदृश्य हो गये॥ ५७॥
दर्शयन्ति शरन्नद्यः पुलिनानि शनैः शनैः।
नवसंगमसव्रीडा जघनानीव योषितः॥५८॥
‘शरद् ऋतु की नदियाँ धीरे-धीरे जल के हटने से अपने नग्न तटों को दिखा रही हैं। ठीक उसी तरह जैसे प्रथम समागम के समय लजीली युवतियाँ शनैःशनैः अपने जघन-स्थल को दिखाने के लिये विवश होती हैं।
प्रसन्नसलिलाः सौम्य कुरराभिविनादिताः।
चक्रवाकगणाकीर्णा विभान्ति सलिलाशयाः॥ ५९॥
‘सौम्य! सभी जलाशयों के जल स्वच्छ हो गये हैं। वहाँ कुरर पक्षियों के कलनाद गूंज रहे हैं और चक्रवाकों के समुदाय चारों ओर बिखरे हुए हैं। इस प्रकार उन जलाशयों की बड़ी शोभा हो रही है॥ ५९॥
अन्योन्यबद्धवैराणां जिगीषूणां नृपात्मज।
उद्योगसमयः सौम्य पार्थिवानामुपस्थितः॥६०॥
‘सौम्य! राजकुमार! जिनमें परस्पर वैर बँधा हुआ है और जो एक-दूसरे को जीतने की इच्छा रखते हैं, धान की खेती से सम्पन्न करके बादल आकाश छोड़कर अदृश्य हो गये॥ ५७॥
दर्शयन्ति शरन्नद्यः पुलिनानि शनैः शनैः।
नवसंगमसव्रीडा जघनानीव योषितः॥५८॥
‘शरद् ऋतु की नदियाँ धीरे-धीरे जल के हटने से अपने नग्न तटों को दिखा रही हैं। ठीक उसी तरह जैसे प्रथम समागम के समय लजीली युवतियाँ शनैःशनैः अपने जघन-स्थल को दिखाने के लिये विवश होती हैं।
प्रसन्नसलिलाः सौम्य कुरराभिविनादिताः।
चक्रवाकगणाकीर्णा विभान्ति सलिलाशयाः॥ ५९॥
‘सौम्य! सभी जलाशयों के जल स्वच्छ हो गये हैं। वहाँ कुरर पक्षियों के कलनाद गूंज रहे हैं और चक्रवाकों के समुदाय चारों ओर बिखरे हुए हैं। इस प्रकार उन जलाशयों की बड़ी शोभा हो रही है॥ ५९॥
अन्योन्यबद्धवैराणां जिगीषूणां नृपात्मज।
उद्योगसमयः सौम्य पार्थिवानामुपस्थितः॥६०॥
‘सौम्य! राजकुमार! जिनमें परस्पर वैर बँधा हुआ है और जो एक-दूसरे को जीतने की इच्छा रखते हैं, उन भूमिपालों के लिये यह युद्ध के निमित्त उद्योग करने का समय उपस्थित हुआ है॥ ६०॥
इयं सा प्रथमा यात्रा पार्थिवानां नृपात्मज।
न च पश्यामि सुग्रीवमुद्योगं च तथाविधम्॥ ६१॥
‘नरेशनन्दन! राजाओं की विजय-यात्रा का यह प्रथम अवसर है, किंतु न तो मैं सुग्रीव को यहाँ उपस्थित देखता हूँ और न उनका कोई वैसा उद्योग ही दृष्टिगोचर होता है॥ ६१॥
असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः।
दृश्यन्ते बन्धुजीवाश्च श्यामाश्च गिरिसानुषु॥ ६२॥
‘पर्वत के शिखरों पर असन, छितवन, कोविदार, बन्धु-जीव तथा श्याम तमाल खिले दिखायी देते हैं।६२॥
हंससारसचक्रावैः कुररैश्च समन्ततः।
पुलिनान्यवकीर्णानि नदीनां पश्य लक्ष्मण॥
‘लक्ष्मण! देखो तो सही, नदियों के तटों पर सब ओर हंस, सारस, चक्रवाक और कुरर नामक पक्षी फैले हुए हैं॥ ६३॥
चत्वारो वार्षिका मासा गता वर्षशतोपमाः।
मम शोकाभितप्तस्य तथा सीतामपश्यतः॥६४॥
‘मैं सीता को न देखने के कारण शोक से संतप्त हो रहा हूँ; अतः ये वर्षा के चार महीने मेरे लिये सौ वर्षों के समान बीते हैं॥ ६४॥
चक्रवाकीव भर्तारं पृष्ठतोऽनुगता वनम्।
विषमं दण्डकारण्यमुद्यानमिव चाङ्गना॥६५॥
‘जैसे चकवी अपने स्वामी का अनुसरण करती है, उसी प्रकार कल्याणी सीता इस भयंकर एवं दुर्गम दण्डकारण्य को उद्यान-सा समझकर मेरे पीछे यहाँ तक चली आयी थी॥६५॥
प्रियाविहीने दुःखार्ते हृतराज्ये विवासिते।
कृपां न कुरुते राजा सुग्रीवो मयि लक्ष्मण॥ ६६॥
‘लक्ष्मण! मैं अपनी प्रियतमा से बिछुड़ा हुआ हूँ। मेरा राज्य छीन लिया गया है और मैं देश से निकाल दिया गया हूँ। इस अवस्था में भी राजा सुग्रीव मुझपर कृपा नहीं कर रहा है॥६६॥
अनाथो हृतराज्योऽहं रावणेन च धर्षितः।
दीनो दूरगृहः कामी मां चैव शरणं गतः॥६७॥
इत्येतैः कारणैः सौम्य सुग्रीवस्य दुरात्मनः।
अहं वानरराजस्य परिभूतः परंतपः॥६८॥
‘सौम्यलक्ष्मण! मैं अनाथ हूँ राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ। रावण ने मेरा तिरस्कार किया है। मैं दीन हूँ। मेरा घर यहाँ से बहुत दूर है। मैं कामना लेकर यहाँ आया हूँ तथा सुग्रीव यह भी समझता है कि राम मेरी शरण में आये हैं। इन्हीं सब कारणों से वानरों का राजा दुरात्मा सुग्रीव मेरा तिरस्कार कर रहा है। किंतु उसे पता नहीं है कि मैं सदा शत्रुओं को संताप देने में समर्थ हूँ॥६७-६८॥
स कालं परिसंख्याय सीतायाः परिमार्गणे।
कृतार्थः समयं कृत्वा दुर्मति ववुध्यते॥६९॥
‘उसने सीता की खोज के लिये समय निश्चित कर दिया था; किंतु उसका तो अब काम निकल गया है, इसीलिये वह दुर्बुद्धि वानर प्रतिज्ञा करके भी उसका कुछ खयाल नहीं कर रहा है॥ ६९॥
स किष्किन्धां प्रविश्य त्वं ब्रूहि वानरपुङ्गवम्।
मूर्ख ग्राम्यसुखे सक्तं सुग्रीवं वचनान्मम॥७०॥
‘अतः लक्ष्मण ! तुम मेरी आज्ञा से किष्किन्धापुरी में जाओ और विषयभोग में फँसे हुए मूर्ख वानरराज सुग्रीव से इस प्रकार कहो- ॥ ७० ॥
अर्थिनामुपपन्नानां पूर्वं चाप्युपकारिणाम्।
आशां संश्रुत्य यो हन्ति स लोके पुरुषाधमः॥ ७१॥
‘जो बल-पराक्रम से सम्पन्न तथा पहले ही उपकार करने वाले कार्यार्थी पुरुषों को प्रतिज्ञापूर्वक आशा देकर पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसार के सभी पुरुषों में नीच है॥ ७१॥
शुभं वा यदि वा पापं यो हि वाक्यमुदीरितम्।
सत्येन परिगृह्णाति स वीरः पुरुषोत्तमः॥७२॥
‘जो अपने मुख से प्रतिज्ञा के रूप में निकले हुए भले या बुरे सभी तरह के वचनों को अवश्य पालनीय समझकर सत्य की रक्षा के उद्देश्य से उनका पालन करता है, वह वीर समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ माना जाता है॥७२॥
कृतार्था ह्यकृतार्थानां मित्राणां न भवन्ति ये।
तान् मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान् नोपभुञ्जते॥ ७३॥
‘जो अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर, जिनके कार्य नहीं पूरे हुए हैं। उन मित्रों के सहायक नहीं होते उनके कार्य को सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करते, उन कृतघ्न पुरुषों के मरने पर मांसाहारी जन्तु भी उनका मांस नहीं खाते हैं।
नूनं काञ्चनपृष्ठस्य विकृष्टस्य मया रणे।
द्रष्टुमिच्छसि चापस्य रूपं विद्युद्गणोपमम्॥ ७४॥
‘सुग्रीव! निश्चय ही तुम युद्ध में मेरे द्वारा खींचे गये सोने की पीठवाले धनुष का कौंधती हुई बिजली के समान रूप देखना चाहते हो॥७४॥
घोरं ज्यातलनिर्घोषं क्रुद्धस्य मम संयुगे।
निर्घोषमिव वज्रस्य पुनः संश्रोतुमिच्छसि॥७५॥
‘संग्राम में कुपित होकर मेरे द्वारा खींची गयी प्रत्यञ्चा की भयंकर टङ्कार को, जो वज्र की गड़गड़ाहट को भी मात करने वाली है, अब फिर तुम्हें सुनने की इच्छा हो रही है। ७५ ॥
काममेवंगतेऽप्यस्य परिज्ञाते पराक्रमे।
त्वत्सहायस्य मे वीर न चिन्ता स्यान्नृपात्मज॥ ७६॥
‘वीर राजकुमार! सुग्रीव को तुम-जैसे सहायक के साथ रहने वाले मेरे पराक्रम का ज्ञान हो चुका है, ऐसी दशा में भी यदि उसे यह चिन्ता न हो कि ये वाली की भाँति मुझे मार सकते हैं तो यह आश्चर्य की ही बात है!॥
यदर्थमयमारम्भः कृतः परपुरंजय।
समयं नाभिजानाति कृतार्थः प्लवगेश्वरः॥७७॥
‘शत्रु-नगरी पर विजय पाने वाले लक्ष्मण! जिसके लिये यह मित्रता आदि का सारा आयोजन किया गया, सीता की खोजविषयक उस प्रतिज्ञा को इस समय वानरराज सुग्रीव भूल गया है-उसे याद नहीं कर रहा है; क्योंकि उसका अपना काम सिद्ध हो चुका॥ ७७॥
वर्षाः समयकालं तु प्रतिज्ञाय हरीश्वरः।
व्यतीतांश्चतुरो मासान् विहरन् नावबुध्यते॥ ७८॥
‘सुग्रीव ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा का अन्त होते ही सीता की खोज आरम्भ कर दी जायगी, किंतु वह क्रीड़ा-विहार में इतना तन्मय हो गया है कि इन बीते हुए चार महीनों का उसे कुछ पता ही नहीं है। ७८ ॥
सामात्यपरिषत्क्रीडन् पानमेवोपसेवते।
शोकदीनेषु नास्मासु सुग्रीवः कुरुते दयाम्॥ ७९॥
‘सुग्रीव मन्त्रियों तथा परिजनों सहित क्रीडाजनित आमोद-प्रमोद में फँसकर विविध पेय पदार्थों का ही सेवन कर रहा है। हमलोग शोक से व्याकुल हो रहे हैं। तो भी वह हम पर दया नहीं करता है॥ ७९ ॥
उच्यतां गच्छ सुग्रीवस्त्वया वीर महाबल।
मम रोषस्य यद्रूपं ब्रूयाश्चैनमिदं वचः॥८०॥
‘महाबली वीर लक्ष्मण! तुम जाओ सुग्रीव से बात करो। मेरे रोष का जो स्वरूप है, वह उसे बताओ और मेरा यह संदेश भी कह सुनाओ॥८०॥
न स संकुचितः पन्था येन वाली हतो गतः।
समये तिष्ठ सुग्रीव मा वालिपथमन्वगाः॥८१॥
सुग्रीव! वाली मारा जाकर जिस रास्ते से गया है, वह आज भी बंद नहीं हुआ है। इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहो। वाली के मार्ग का अनुसरण न करो॥ ८१॥
एक एव रणे वाली शरेण निहतो मया।
त्वां तु सत्यादतिक्रान्तं हनिष्यामि सबान्धवम्॥ ८२॥
‘वाली तो रणक्षेत्र में अकेला ही मेरे बाण से मारा गया था, परंतु यदि तुम सत्य से विचलित हुए तो मैं तुम्हें बन्धु-बान्धवों सहित काल के गाल में डाल दूंगा।८२॥
यदेवं विहिते कार्ये यद्धितं पुरुषर्षभ।
तत् तद् ब्रूहि नरश्रेष्ठ त्वर कालव्यतिक्रमः॥८३॥
‘पुरुषप्रवर! नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! जब इस तरह कार्य बिगड़ने लगे, ऐसे अवसर पर और भी जो-जो बातें कहनी उचित हों— जिनके कहने से अपना हित होता हो, वे सब बातें कहना। जल्दी करो; क्योंकि कार्य आरम्भ करनेका समय बीता जा रहा है। ८३॥
कुरुष्व सत्यं मम वानरेश्वर प्रतिश्रुतं धर्ममवेक्ष्य शाश्वतम्।
मा वालिनं प्रेतगतो यमक्षये त्वमद्य पश्येर्मम चोदितः शरैः॥ ८४॥
‘सुग्रीव से कहो–’वानरराज! तुम सनातन धर्म पर दृष्टि रखकर अपनी की हुई प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाओ, अन्यथा ऐसा न हो कि तुम्हें आज ही मेरे बाणों से प्रेरित हो प्रेतभाव को प्राप्त होकर यमलोक में वाली का दर्शन करना पड़े’।। ८४॥
स पूर्वजं तीव्रविवृद्धकोपं लालप्यमानं प्रसमीक्ष्य दीनम्।
चकार तीव्रां मतिमुग्रतेजा हरीश्वरे मानववंशवर्धनः॥ ८५॥
मानव-वंश की वृद्धि करने वाले उग्र तेजस्वी लक्ष्मण ने जब अपने बड़े भाई को दुःखी, बढ़े हुए तीव्र रोष से युक्त तथा अधिक बोलते देखा, तब वानरराज सुग्रीव के प्रति कठोर भाव धारण कर लिया॥ ८५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिंशः सर्गः॥३०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३०॥
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