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वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 31 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 31

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (सर्ग 31)

सुग्रीव पर लक्ष्मण का रोष, लक्ष्मण का किष्किन्धा के द्वार पर जाकर अङ्गद को सुग्रीव के पास भेजना, प्लक्ष और प्रभाव का सुग्रीव को कर्तव्य का उपदेश देना

 

स कामिनं दीनमदीनसत्त्वं शोकाभिपन्नं समुदीर्णकोपम्।
नरेन्द्रसूनुर्नरदेवपुत्रं रामानुजः पूर्वजमित्युवाच॥१॥

श्रीराम के छोटे भाई नरेन्द्रकुमार लक्ष्मण ने उस समय सीता की कामना से युक्त, दुःखी, उदारहृदय, शोकग्रस्त तथा बढ़े हुए रोषवाले ज्येष्ठ भ्राता महाराजपुत्र श्रीराम से इस प्रकार कहा— ॥१॥

न वानरः स्थास्यति साधुवृत्ते न मन्यते कर्मफलानुषङ्गान्।
न भोक्ष्यते वानरराज्यलक्ष्मी तथा हि नातिक्रमतेऽस्य बुद्धिः॥२॥

‘आर्य! सुग्रीव वानर है, वह श्रेष्ठ पुरुषों के लिये उचित सदाचार पर स्थिर नहीं रह सकेगा। सुग्रीव इस बात को भी नहीं मानता है कि अग्नि को साक्षी देकर श्रीरघुनाथजी के साथ मित्रता-स्थापन रूप जो सत्-कर्म किया गया है, उसी के फल से मुझे निष्कण्टक राज्यभोग प्राप्त हुए हैं। अतः वह वानरों की राज्यलक्ष्मी का पालन एवं उपभोग नहीं कर सकेगा; क्योंकि उसकी बुद्धि मित्रधर्म के पालन के लिये अधिक आगे नहीं बढ़ रही है॥२॥

मतिक्षयाद् ग्राम्यसुखेषु सक्तस्तव प्रसादात् प्रतिकारबुद्धिः।
हतोऽग्रजं पश्यतु वीरवालिनं न राज्यमेवं विगुणस्य देयम्॥३॥

‘सुग्रीव की बुद्धि मारी गयी है, इसलिये वह विषयभोगों में आसक्त हो गया है। आपकी कृपा से जो उसे राज्य आदि का लाभ हुआ है, उस उपकार का बदला चुकाने की उसकी नीयत नहीं है। अतः अब वह भी मारा जाकर अपने बड़े भाई वीरवर वाली का दर्शन करे। ऐसे गुणहीन पुरुष को राज्य नहीं देना चाहिये॥३॥

न धारये कोपमुदीर्णवेगं निहन्मि सुग्रीवमसत्यमद्य।
हरिप्रवीरैः सह वालिपुत्रो नरेन्द्रपुत्र्या विचयं करोतु॥४॥

‘मेरे क्रोध का वेग बढ़ा हुआ है। मैं इसे रोक नहीं सकता। असत्यवादी सुग्रीव को आज ही मारे डालता हूँ। अब वालिकुमार अङ्गद ही राजा होकर प्रधान वानर-वीरों के साथ राजकुमारी सीता की खोज करे’॥ ४॥

तमात्तबाणासनमुत्पतन्तं निवेदितार्थं रणचण्डकोपम्।
उवाच रामः परवीरहन्ता स्ववीक्षितं सानुनयं च वाक्यम्॥५॥

यों कहकर लक्ष्मण धनुष-बाण हाथ में ले बड़े वेग से चल पड़े। उन्होंने अपने जाने का प्रयोजन स्पष्ट शब्दों में निवेदन कर दिया था। युद्ध के लिये उनका प्रचण्ड कोप बढ़ा हुआ था तथा वे क्या करने जा रहे हैं, इस पर उन्होंने अच्छी तरह विचार नहीं किया था। उस समय विपक्षी वीरों का संहार करने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें शान्त करने के लिये यह अनुनययुक्त बात कही— ॥५॥

नहि वै त्वद्विधो लोके पापमेवं समाचरेत्।
कोपमार्येण यो हन्ति स वीरः पुरुषोत्तमः॥६॥

‘सुमित्रानन्दन! तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुष को संसार में ऐसा (मित्रवधरूप) निषिद्ध आचरण नहीं करना चाहिये। जो उत्तम विवेक के द्वारा अपने क्रोध को मार देता है, वह वीर समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ है॥६॥

नेदमत्र त्वया ग्राह्यं साधुवृत्तेन लक्ष्मण।
तां प्रीतिमनुवर्तस्व पूर्ववृत्तं च संगतम्॥७॥

‘लक्ष्मण! तुम सदाचारी हो। तुम्हें इस प्रकार सुग्रीव के मारने का निश्चय नहीं करना चाहिये। उसके प्रति जो तुम्हारा प्रेम था, उसी का अनुसरण करो और उसके साथ पहले जो मित्रता की गयी है, उसे निबाहो॥७॥

सामोपहितया वाचा रूक्षाणि परिवर्जयन्।
वक्तुमर्हसि सुग्रीवं व्यतीतं कालपर्यये॥८॥

‘तुम्हें सान्त्वनापूर्ण वाणी द्वारा कटु वचनों का परित्याग करते हुए सुग्रीव से इतना ही कहना चाहिये कि तुमने सीता की खोज के लिये जो समय नियत किया था, वह बीत गया (फिर भी चुप क्यों बैठे हो)’॥ ८॥

सोऽग्रजेनानुशिष्टार्थो यथावत् पुरुषर्षभः।
प्रविवेश पुरी वीरो लक्ष्मणः परवीरहा॥९॥

अपने बड़े भाई के इस प्रकार यथोचित रूप से समझाने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले पुरुषप्रवर वीर लक्ष्मण ने किष्किन्धापुरी में प्रवेश (करनेका विचार) किया॥

ततः शुभमतिः प्राज्ञो भ्रातुः प्रियहिते रतः।
लक्ष्मणः प्रतिसंरब्धो जगाम भवनं कपेः॥१०॥

भाई के प्रिय और हित में तत्पर रहने वाले शुभ बुद्धि से युक्त बुद्धिमान् लक्ष्मण रोष में भरे हुए ही वानरराज सुग्रीव के भवन की ओर चले॥१०॥

शक्रबाणासनप्रख्यं धनुः कालान्तकोपमम्।
प्रगृह्य गिरिशृङ्गाभं मन्दरः सानुमानिव॥११॥

उस समय वे इन्द्रधनुष के समान तेजस्वी, काल और अन्तक के समान भयंकर तथा पर्वत-शिखर के समान विशाल धनुष को हाथ में लेकर शृङ्गसहित मन्दराचल के समान जान पड़ते थे॥११॥

यथोक्तकारी वचनमुत्तरं चैव सोत्तरम्।
बृहस्पतिसमो बुद्धया मत्वा रामानुजस्तदा॥१२॥

श्रीराम के अनुज लक्ष्मण अपने बड़े भाई की आज्ञा का यथोक्त रूप से पालन करने वाले तथा बृहस्पति के समान बुद्धिमान् थे। वे सुग्रीव से जो बात कहते, सुग्रीव उसका जो कुछ उत्तर देते और उस उत्तर का भी ये जो कुछ उत्तर देते, उन सबको अच्छी तरह समझ-बूझकर वहाँ से प्रस्थित हुए थे॥ १२॥

कामक्रोधसमुत्थेन भ्रातुः क्रोधाग्निना वृतः।
प्रभञ्जन इवाप्रीतः प्रययौ लक्ष्मणस्ततः॥१३॥

सीता की खोजविषयक जो श्रीराम की कामना थी और सुग्रीव की असावधानी के कारण उसमें बाधा पड़ने से जो उन्हें क्रोध हुआ था, उन दोनों के कारण लक्ष्मण की भी क्रोधाग्नि भड़क उठी थी। उस क्रोधाग्नि से घिरे हुए लक्ष्मण सुग्रीव के प्रति प्रसन्न नहीं थे। वे उसी अवस्था में वायु के समान वेग से चले॥ १३॥

सालतालाश्वकर्णाश्च तरसा पातयन् बलात्।
पर्यस्यन् गिरिकूटानि द्रुमानन्यांश्च वेगितः॥ १४॥

उनका वेग ऐसा बढ़ा हुआ था कि वे मार्ग में मिलने वाले साल, ताल और अश्वकर्ण नामक वृक्षों को उसी वेग से बलपूर्वक गिराते तथा पर्वतशिखरों एवं अन्य वृक्षों को उठा-उठाकर दूर फेंकते जाते थे॥ १४॥

शिलाश्च शकलीकुर्वन् पद्भ्यां गज इवाशुगः।
दूरमेकपदं त्यक्त्वा ययौ कार्यवशाद् द्रुतम्॥ १५॥

शीघ्रगामी हाथी के समान अपने पैरों की ठोकर से शिलाओं को चूर-चूर करते और लंबी-लंबी डगें भरते हुए वे कार्यवश बड़ी तेजी के साथ चले ॥ १५ ॥

तामपश्यद् बलाकीर्णां हरिराजमहापुरीम्।
दुर्गामिक्ष्वाकुशार्दूलः किष्किन्धां गिरिसंकटे॥ १६॥

इक्ष्वाकुकुल के सिंह लक्ष्मण ने निकट जाकर वानरराज सुग्रीव की विशाल पुरी किष्किन्धा देखी, जो पहाड़ों के बीच में बसी हुई थी। वानरसेना से व्याप्त होने के कारण वह पुरी दूसरों के लिये दुर्गम थी॥ १६॥

रोषात् प्रस्फुरमाणोष्ठः सुग्रीवं प्रति लक्ष्मणः।
ददर्श वानरान् भीमान् किष्किन्धायां बहिश्चरान्॥१७॥

उस समय लक्ष्मण के ओष्ठ सुग्रीव के प्रति रोष से फड़क रहे थे। उन्होंने किष्किन्धा के पास बहुतेरे भयंकर वानरों को देखा जो नगर के बाहर विचर रहे थे॥ १७॥

तं दृष्ट्वा वानराः सर्वे लक्ष्मणं पुरुषर्षभम्।
शैलशृङ्गाणि शतशः प्रवृद्धाश्च महीरुहान्।
जगृहुः कुञ्जरप्रख्या वानराः पर्वतान्तरे॥१८॥

उन वानरों के शरीर हाथियों के समान विशाल थे। उन समस्त वानरों ने पुरुषप्रवर लक्ष्मण को देखते ही पर्वत के अंदर विद्यमान सैकड़ों शैल-शिखर और बड़े-बड़े वृक्ष उठा लिये॥ १८॥

तान् गृहीतप्रहरणान् सर्वान् दृष्ट्वा तु लक्ष्मणः।
बभूव द्विगुणं क्रुद्धो बह्विन्धन इवानलः॥१९॥

उन सबको हथियार उठाते देख लक्ष्मण दूने क्रोध से जल उठे, मानो जलती आग में बहुत-सी सूखी लकड़ियाँ डाल दी गयी हों॥ १९॥

तं ते भयपरीताङ्गा क्षुब्धं दृष्ट्वा प्लवंगमाः।
कालमृत्युयुगान्ताभं शतशो विद्रुता दिशः॥२०॥

क्षुब्ध हुए लक्ष्मण काल, मृत्यु तथा प्रलयकालीन अग्नि के समान भयंकर दिखायी देने लगे। उन्हें देखकर उन वानरों के शरीर भय से काँपने लगे और वे सैकड़ों की संख्या में चारों दिशाओं में भाग गये॥२०॥

ततः सुग्रीवभवनं प्रविश्य हरिपुंगवाः।
क्रोधमागमनं चैव लक्ष्मणस्य न्यवेदयन्॥२१॥

तदनन्तर कई श्रेष्ठ वानरों ने सुग्रीव के महल में जाकर लक्ष्मण के आगमन और क्रोध का समाचार निवेदन किया॥

तारया सहितः कामी सक्तः कपिवृषस्तदा।
न तेषां कपिसिंहानां शुश्राव वचनं तदा ॥ २२॥

उस समय काम के अधीन हुए वानरराज सुग्रीव भोगासक्त हो तारा के साथ थे। इसलिये उन्होंने उन श्रेष्ठ वानरों की बातें नहीं सुनीं॥ २२॥

ततः सचिवसंदिष्टा हरयो रोमहर्षणाः।
गिरिकुञ्जरमेघाभा नगरान्निर्ययुस्तदा ॥२३॥

तब सचिव की आज्ञा से पर्वत, हाथी और मेघ के समान विशालकाय वानर जो रोंगटे खड़े कर देने वाले थे, नगर से बाहर निकले ॥२३॥

नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे वीरा विकृतदर्शनाः।
सर्वे शार्दूलदंष्ट्राश्च सर्वे विवृतदर्शनाः॥२४॥

वे सब-के-सब वीर थे। नख और दाँत ही उनके आयुध थे। वे बड़े विकराल दिखायी देते थे। उन सबकी दाढ़ें व्याघ्रों की दाढ़ों के समान थीं और सबके नेत्र खुले हुए थे (अथवा उन सबका वहाँ स्पष्ट दर्शन होता था—कोई छिपे नहीं थे) ॥२४॥

दशनागबलाः केचित् केचिद् दशगुणोत्तराः।
केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यवर्चसः॥ २५॥

किन्हीं में दस हाथियों के बराबर बल था तो कोई सौ हाथियों के समान बलशाली थे तथा किन्हीं किन्हीं का तेज (बल और पराक्रम) एक हजार हाथियों के तुल्य था॥२५॥

ततस्तैः कपिभिर्व्याप्तां द्रुमहस्तैर्महाबलैः।
अपश्यल्लक्ष्मणः क्रुद्धः किष्किन्धां तां दुरासदाम्॥२६॥

हाथ में वृक्ष लिये उन महाबली वानरों से व्याप्त हुई किष्किन्धापुरी अत्यन्त दुर्जय दिखायी देती थी। लक्ष्मण ने कुपित होकर उस पुरी की ओर देखा॥२६॥

ततस्ते हरयः सर्वे प्राकारपरिखान्तरात्।
निष्क्रम्योदग्रसत्त्वास्तु तस्थुराविष्कृतं तदा ॥२७॥

तदनन्तर वे सभी महाबली वानर पुरी की चहारदीवारी और खाईं के भीतर से निकलकर प्रकटरूप से सामने आकर खड़े हो गये॥ २७॥

सुग्रीवस्य प्रमादं च पूर्वजस्यार्थमात्मवान्।
दृष्ट्वा क्रोधवशं वीरः पुनरेव जगाम सः॥२८

आत्मसंयमी वीर लक्ष्मण सुग्रीव के प्रमाद तथा अपने बड़े भाई के महत्त्वपूर्ण कार्य पर दृष्टिपात करके पुनः वानरराज के प्रति क्रोध के वशीभूत हो गये।२८॥

स दीर्घोष्णमहोच्छ्वासः कोपसंरक्तलोचनः।
बभूव नरशार्दूलः सधूम इव पावकः॥२९॥

वे अधिक गरम और लंबी साँस खींचने लगे। उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उस समय पुरुषसिंह लक्ष्मण धूमयुक्त अग्नि के समान प्रतीत हो रहे थे। २९॥

बाणशल्यस्फुरज्जिह्वः सायकासनभोगवान्।
स्वतेजोविषसम्भूतः पञ्चास्य इव पन्नगः॥३०॥

इतना ही नहीं, वे पाँच मुखवाले सर्प के समान दिखायी देने लगे। बाण का फल ही उस सर्प की लपलपाती हुई जिह्वा जान पड़ता था, धनुष ही उसका विशाल शरीर था तथा वे सर्परूपी लक्ष्मण अपने तेजोमय विष से व्याप्त हो रहे थे॥३०॥

तं दीप्तमिव कालाग्निं नागेन्द्रमिव कोपितम्।
समासाद्याङ्गदस्त्रासाद् विषादमगमत् परम्॥ ३१॥

उस अवसर पर कुमार अङ्गद प्रज्वलित प्रलयाग्नि तथा क्रोध में भरे हुए नागराज शेष की भाँति दृष्टिगोचर होने वाले लक्ष्मण के पास डरते-डरते गये। वे अत्यन्त विषाद में पड़ गये थे॥३१॥

सोऽङ्गदं रोषताम्राक्षः संदिदेश महायशाः।
सुग्रीवः कथ्यतां वत्स ममागमनमित्युत॥३२॥
एष रामानुजः प्राप्तस्त्वत्सकाशमरिंदम।
भ्रातुर्व्यसनसंतप्तो द्वारि तिष्ठति लक्ष्मणः॥३३॥
तस्य वाक्यं यदि रुचिः क्रियतां साधु वानर।
इत्युक्त्वा शीघ्रमागच्छ वत्स वाक्यमरिंदम॥ ३४॥

महायशस्वी लक्ष्मण ने क्रोध से लाल आँखें करके अङ्गद को आदेश दिया—’बेटा! सुग्रीव को मेरे आने की सूचना दो। उनसे कहना—शत्रुदमन वीर! श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई लक्ष्मण अपने भ्राता के दुःख से दुःखी होकर आपके पास आये हैं और नगर द्वार पर खड़े हैं। वानरराज! यदि आपकी इच्छा हो तो उनकी आज्ञा का अच्छी तरह पालन कीजिये। शत्रुदमन वत्स अङ्गद! बस, इतना ही कहकर तुम शीघ्र मेरे पास लौट आओ’ ॥ ३२–३४॥

लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा शोकाविष्टोऽङ्गदोऽब्रवीत्।
पितुः समीपमागम्य सौमित्रिरयमागतः॥ ३५॥

लक्ष्मण की बात सुनकर शोकाकुल अङ्गद ने पिता सुग्रीव के समीप आकर कहा—’तात! ये सुमित्रानन्दन लक्ष्मण यहाँ पधारे हैं ॥ ३५ ॥

अथाङ्गदस्तस्य सुतीव्रवाचा सम्भ्रान्तभावः परिदीनवक्त्रः।
निर्गत्य पूर्वं नृपतेस्तरस्वी ततो रुमायाश्चरणौ ववन्दे॥३६॥

(अब इसी बात को कुछ विस्तार के साथ कहते हैं —) लक्ष्मण की कठोर वाणी से अङ्गद के मन में बड़ी घबराहट हुई। उनके मुख पर अत्यन्त दीनता छा गयी। उन वेगशाली कुमार ने वहाँ से निकलकर पहले वानरराज सुग्रीव के, फिर तारा तथा रुमा के चरणों में प्रणाम किया॥३६॥

संगृह्य पादौ पितुरुग्रतेजा जग्राह मातुः पुनरेव पादौ।
पादौ रुमायाश्च निपीडयित्वा निवेदयामास ततस्तदर्थम्॥३७॥

उग्र तेजवाले अङ्गद ने पहले तो पिता के दोनों पैर पकड़े फिर अपनी माता तारा के दोनों चरणों का स्पर्श किया। तदनन्तर रुमा के दोनों पैर दबाये इसके बाद पूर्वोक्त बात कही॥ ३७॥

स निद्राक्लान्तसंवीतो वानरो न विबुद्धवान्।
बभूव मदमत्तश्च मदनेन च मोहितः॥ ३८॥

किंतु सुग्रीव मदमत्त एवं काम से मोहित होकर पड़े थे। निद्रा ने उनके ऊपर पूरा अधिकार जमा लिया था इसलिये वे जाग न सके॥३८॥

ततः किलकिलां चक्रुर्लक्ष्मणं प्रेक्ष्य वानराः।
प्रसादयन्तस्तं क्रुद्धं भयमोहितचेतसः॥ ३९॥

इतने में बाहर क्रोध में भरे हुए लक्ष्मण को देखकर भय से मोहितचित्त हुए वानर उन्हें प्रसन्न करने के लिये दीनतासूचक वाणी में किलकिलाने लगे॥ ३९॥

ते महौघनिभं दृष्ट्वा वज्राशनिसमस्वनम्।
सिंहनादं समं चक्रुर्लक्ष्मणस्य समीपतः॥४०॥

लक्ष्मण पर दृष्टि पड़ते ही उन वानरों ने सुग्रीव के निकटवर्ती स्थान में एक साथ ही महान् जलप्रवाह तथा वज्र की गड़गड़ाहट के समान जोर-जोर से सिंहनाद किया (जिससे सुग्रीव जाग उठे) ॥ ४० ॥

तेन शब्देन महता प्रत्यबुध्यत वानरः।
मदविह्वलताम्राक्षो व्याकुलः स्रग्विभूषणः॥ ४१॥

वानरों की उस भयंकर गर्जना से कपिराज सुग्रीव की नींद खुल गयी। उस समय उनके नेत्र मद से चञ्चल और लाल हो रहे थे। मन भी स्वस्थ नहीं था उनके गले में सुन्दर पुष्पमाला शोभा दे रही थी॥४१॥

अथाङ्गदवचः श्रुत्वा तेनैव च समागतौ।
मन्त्रिणौ वानरेन्द्रस्य सम्मतोदारदर्शनौ॥४२॥
प्लक्षश्चैव प्रभावश्च मन्त्रिणावर्थधर्मयोः।
वक्तुमुच्चावचं प्राप्तं लक्ष्मणं तौ शशंसतुः॥ ४३॥

अङ्गद की पूर्वोक्त बात सुनकर उन्हींके साथ आये हुए दो मन्त्री प्लक्ष और प्रभाव ने भी, जो वानरराज के सम्मानपात्र और उदार दृष्टिवाले थे तथा राजा को अर्थ और धर्म के विषय में ऊँच-नीच समझाने के लिये नियुक्त थे, लक्ष्मण के आगमन की सूचना दी। ४२-४३॥

प्रसादयित्वा सुग्रीवं वचनैः सार्थनिश्चितैः।
आसीनं पर्युपासीनौ यथा शक्रं मरुत्पतिम्॥४४॥
सत्यसंधौ महाभागौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
मनुष्यभावं सम्प्राप्तौ राज्याही राज्यदायिनौ॥ ४५॥

राजा के निकट खड़े हुए उन दोनों मन्त्रियों ने देवराज इन्द्र के समान बैठे हुए सुग्रीव को खूब सोचविचार कर निश्चित किये हुए सार्थक वचनों द्वारा प्रसन्न किया और इस प्रकार कहा—’राजन् ! महाभाग श्रीराम और लक्ष्मण-दोनों भाई सत्यप्रतिज्ञ हैं। (वे वास्तव में भगवत्स्वरूप हैं) उन्होंने स्वेच्छा से मनुष्य-शरीर धारण किया है। वे दोनों समस्त त्रिलोकी का राज्य चलाने के योग्य हैं। वे ही आपके राज्यदाता हैं। ४४-४५॥

तयोरेको धनुष्पाणिर्दारि तिष्ठति लक्ष्मणः।
यस्य भीताः प्रवेपन्तो नादान् मुञ्चन्ति वानराः॥ ४६॥

उनमें से एक वीर लक्ष्मण हाथ में धनुष लिये किष्किन्धा के दरवाजे पर खड़े हैं, जिनके भय से काँपते हुए वानर जोर-जोर से चीख रहे हैं॥ ४६॥

स एष राघवभ्राता लक्ष्मणो वाक्यसारथिः।
व्यवसायरथः प्राप्तस्तस्य रामस्य शासनात्॥ ४७॥

‘श्रीराम का आदेशवाक्य ही जिनका सारथि और कर्तव्य का निश्चय ही जिनका रथ है, वे लक्ष्मण श्रीराम की आज्ञा से यहाँ पधारे हैं॥४७॥

अयं च तनयो राजस्ताराया दयितोऽङ्गदः।
लक्ष्मणेन सकाशं ते प्रेषितस्त्वरयानघ॥४८॥

‘राजन्! निष्पाप वानरराज! लक्ष्मण ने तारादेवी के इन प्रिय पुत्र अङ्गद को आपके निकट बड़ी उतावली के साथ भेजा है॥४८॥

सोऽयं रोषपरीताक्षो द्वारि तिष्ठति वीर्यवान्।
वानरान् वानरपते चक्षुषा निर्दहन्निव॥४९॥

‘वानरपते! पराक्रमी लक्ष्मण क्रोध से लाल आँखें किये नगरद्वार पर उपस्थित हैं और वानरों की ओर इस तरह देख रहे हैं, मानो वे अपनी नेत्राग्नि से उन्हें दग्ध कर डालेंगे॥४९॥

तस्य मूर्ना प्रणामं त्वं सपुत्रः सहबान्धवः।
गच्छ शीघ्रं महाराज रोषो ह्यद्योपशाम्यताम्॥ ५०॥

‘महाराज! आप शीघ्र चलें तथा पुत्र और बन्धुबान्धवों के साथ उनके चरणों में मस्तक नवावें और इस प्रकार आज उनका रोष शान्त करें॥ ५० ॥

यथा हि रामो धर्मात्मा तत्कुरुष्व समाहितः।
राजंस्तिष्ठ स्वसमये भव सत्यप्रतिश्रवः॥५१॥

‘राजन्! धर्मात्मा श्रीराम जैसा कहते हैं, सावधानीके साथ उसका पालन कीजिये। आप अपनी दी हुई बातपर अटल रहिये और सत्यप्रतिज्ञ बनिये’ ॥ ५१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः॥३१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३१॥


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Shivangi

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