वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 32 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 32
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः (सर्ग 32)
हनुमान जी का चिन्तित हुए सुग्रीव को समझाना
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवः सचिवैः सह।
लक्ष्मणं कुपितं श्रुत्वा मुमोचासनमात्मवान्॥१॥
मन्त्रियों सहित अङ्गद का वचन सुनकर और लक्ष्मण के कुपित होने का समाचार पाकर मन को वश में रखने वाले सुग्रीव आसन छोड़कर खड़े हो गये॥१॥
स च तानब्रवीद् वाक्यं निश्चित्य गुरुलाघवम्।
मन्त्रज्ञान् मन्त्रकुशलो मन्त्रेषु परिनिष्ठितः॥२॥
वे मन्त्रणा (कर्तव्यविषयक विचार) के परिनिष्ठित विद्वान् होनेके कारण मन्त्रप्रयोगमें अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी महत्ता और अपनी लघुताका विचार करके मन्त्रज्ञ मन्त्रियोंसे कहा- ॥२॥
न मे दुर्व्याहृतं किंचिन्नापि मे दुरनुष्ठितम्।
लक्ष्मणो राघवभ्राता क्रुद्धः किमिति चिन्तये॥ ३॥
‘मैंने न तो कोई अनुचित बात मुँह से निकाली है और न कोई बुरा काम ही किया है। फिर श्रीरघुनाथजी के भ्राता लक्ष्मण मुझपर कुपित क्यों हुए हैं? इस बात पर मैं बारंबार विचार करता हूँ॥३॥
असुहृद्भिर्ममामित्रैर्नित्यमन्तरदर्शिभिः।
मम दोषानसम्भूतान् श्रावितो राघवानुजः॥४॥
‘जो सदा मेरे छिद्र देखने वाले हैं तथा जिनका हृदय मेरे प्रति शुद्ध नहीं है, उन शत्रुओं ने निश्चय ही श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई लक्ष्मण से मेरे ऐसे दोष सुनाये हैं जो मेरे भीतर कभी प्रकट नहीं हुए थे॥ ४॥
अत्र तावद् यथाबुद्धिः सर्वैरेव यथाविधि।
भावस्य निश्चयस्तावद् विज्ञेयो निपुणं शनैः॥
‘लक्ष्मण के कोप के विषय में पहले तुम सब लोगों को धीरे-धीरे कुशलतापूर्वक उनके मनोभाव का विधिवत् निश्चय कर लेना चाहिये, जिससे उनके कोप के कारण का यथार्थ रूप से ज्ञान हो जाय॥५॥
न खल्वस्ति मम त्रासो लक्ष्मणान्नापि राघवात्।
मित्रं स्वस्थानकुपितं जनयत्येव सम्भ्रमम्॥६॥
‘अवश्य ही मुझे लक्ष्मण से तथा श्रीरघुनाथजी से कोई भय नहीं है, तथापि बिना अपराध के कुपित हुआ मित्र हृदय में घबराहट उत्पन्न कर ही देता है। ६॥
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम्।
अनित्यत्वात् तु चित्तानां प्रीतिरल्पेऽपि भिद्यते॥ ७॥
“किसी को मित्र बना लेना सर्वथा सुकर है, परंतु उस मैत्री को पालना या निभाना बहुत ही कठिन है; क्योंकि मन का भाव सदा एक-सा नहीं रहता। किसी के द्वारा थोड़ी-सी भी चुगली कर दी जाने पर प्रेम में अन्तर आ जाता है।
अतो निमित्तं त्रस्तोऽहं रामेण तु महात्मना।
यन्ममोपकृतं शक्यं प्रतिकर्तुं न तन्मया॥८॥
‘इसी कारण मैं और भी डर गया हूँ; क्योंकि महात्मा श्रीराम ने मेरा जो उपकार किया है, उसका बदला चुकाने की मुझमें शक्ति नहीं है’ ॥ ८॥
सुग्रीवेणैवमुक्ते तु हनूमान् हरिपुंगवः।
उवाच स्वेन तर्केण मध्ये वानरमन्त्रिणाम्॥९॥
सुग्रीव के ऐसा कहने पर वानरों में श्रेष्ठ हनुमान् जी अपनी युक्ति का सहारा लेकर वानरमन्त्रियों के बीच में बोले- ॥९॥
सर्वथा नैतदाश्चर्यं यत् त्वं हरिगणेश्वर।
न विस्मरसि सुस्निग्धमुपकारं कृतं शुभम्॥१०॥
‘कपिराज! मित्रके द्वारा अत्यन्त स्नेहपूर्वक किये गये उत्तम उपकार को जो आप भूल नहीं रहे हैं, इसमें सर्वथा कोई आश्चर्य की बात नहीं है (क्योंकि अच्छे पुरुषों का ऐसा स्वभाव ही होता है) ॥१०॥
राघवेण तु वीरेण भयमुत्सृज्य दूरतः।
त्वत्प्रियार्थं हतो वाली शक्रतुल्यपराक्रमः॥११॥
सर्वथा प्रणयात् क्रुद्धो राघवो नात्र संशयः।
भ्रातरं सम्प्रहितवाँल्लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम्॥१२॥
‘वीरवर श्रीरघुनाथजी ने तो लोकापवाद के भय को दूर हटाकर आपका प्रिय करने के लिये इन्द्रतुल्य पराक्रमी वाली का वध किया है; अतः वे निःसंदेह आप पर कुपित नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने शोभासम्पत्ति की वृद्धि करने वाले अपने भाई लक्ष्मण को जो आपके पास भेजा है, इसमें सर्वथा आपके प्रति उनका प्रेम ही कारण है॥ ११-१२ ।।
त्वं प्रमत्तो न जानीषे कालं कालविदां वर।
फुल्लसप्तच्छदश्यामा प्रवृत्ता तु शरच्छुभा॥ १३॥
‘समय का ज्ञान रखने वालों में श्रेष्ठ कपिराज! आपने सीता की खोज करने के लिये जो समय निश्चित किया था, उसे आप इन दिनों प्रमाद में पड़ जाने के कारण भूल गये हैं। देखिये न, यह सुन्दर शरद्-ऋतु आरम्भ हो गयी है, जो खिले हुए छितवन के फूलों से श्यामवर्ण की प्रतीत होती है॥ १३॥
निर्मलग्रहनक्षत्रा द्यौः प्रणष्टबलाहका।
प्रसन्नाश्च दिशः सर्वाः सरितश्च सरांसि च॥ १४॥
‘आकाश में अब बादल नहीं रहे। ग्रह, नक्षत्र निर्मल दिखायी देते हैं। सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश छा गया है तथा नदियों और सरोवरों के जल पूर्णतः स्वच्छ हो गये हैं।
प्राप्तमुद्योगकालं तु नावैषि हरिपुंगव।
त्वं प्रमत्त इति व्यक्तं लक्ष्मणोऽयमिहागतः॥ १५॥
‘वानरराज! राजाओं के लिये विजय-यात्रा की तैयारी करने का समय आ गया है; किंतु आपको कुछ पता ही नहीं है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि आप प्रमाद में पड़ गये हैं। इसीलिये लक्ष्मण यहाँ आये हैं। १५॥
आर्तस्य हृतदारस्य परुषं पुरुषान्तरात्।
वचनं मर्षणीयं ते राघवस्य महात्मनः॥१६॥
‘महात्मा श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी का अपहरण हुआ है, इसलिये वे बहुत दुःखी हैं। अतः यदि लक्ष्मण के मुख से उनका कठोर वचन भी सुनना पड़े तो आपको चुपचाप सह लेना चाहिये॥१६॥
कृतापराधस्य हि ते नान्यत् पश्याम्यहं क्षमम्।
अन्तरेणाञ्जलिं बद्ध्वा लक्ष्मणस्य प्रसादनात्॥ १७॥
‘आपकी ओर से अपराध हुआ है। अतः हाथ जोड़कर लक्ष्मण को प्रसन्न करने के सिवा आपके लिये और कोई उचित कर्तव्य मैं नहीं देखता॥१७॥
नियुक्तैर्मन्त्रिभिर्वाच्यो ह्यवश्यं पार्थिवो हितम्।
इत एव भयं त्यक्त्वा ब्रवीम्यवधृतं वचः॥१८॥
‘राज्य की भलाई के काम पर नियुक्त हुए मन्त्रियों का यह कर्तव्य है कि राजा को उसके हित की बात अवश्य बतावें। अतएव मैं भय छोड़कर अपना निश्चित विचार बता रहा हूँ॥ १८॥
अभिक्रुद्धः समर्थो हि चापमुद्यम्य राघवः।
सदेवासुरगन्धर्वं वशे स्थापयितुं जगत्॥१९॥
‘भगवान् श्रीराम यदि क्रोध करके धनुष हाथ में ले लें तो देवता-असुर-गन्धर्वोसहित सम्पूर्ण जगत् को अपने वश में कर सकते हैं ॥ १९ ॥
न स क्षमः कोपयितुं यः प्रसाद्यः पुनर्भवेत्।
पूर्वोपकारं स्मरता कृतज्ञेन विशेषतः॥२०॥
‘जिसे पीछे हाथ जोड़कर मनाना पड़े, ऐसे पुरुषको क्रोध दिलाना कदापि उचित नहीं है। विशेषतः वह पुरुष जो मित्रके किये हुए पहले उपकारको याद रखता हो और कृतज्ञ हो, इस बातका अधिक ध्यान रखे ॥२०॥
तस्य मूर्जा प्रणम्य त्वं सपुत्रः ससुहृज्जनः।
राजंस्तिष्ठ स्वसमये भर्तुर्भार्येव तदशे॥२१॥
‘राजन्! इसलिये आप पुत्र और मित्रों के साथ मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम कीजिये और अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहिये। जैसे पत्नी अपने पति के वश में रहती है, उसी प्रकार आप सदा श्रीरामचन्द्रजी के अधीन रहिये॥२१॥
न रामरामानुजशासनं त्वया कपीन्द्र युक्तं मनसाप्यपोहितुम्।
मनो हि ते ज्ञास्यति मानुषं बलं सराघवस्यास्य सुरेन्द्रवर्चसः॥ २२॥
‘वानरराज! श्रीराम और लक्ष्मण के आदेश की आपको मन से भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी के अलौकिक बल का ज्ञान तो आपके मन को है ही’॥ २२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः॥३२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३२॥