वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 35
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (सर्ग 35)
तारा का लक्ष्मण को युक्तियुक्त वचनों द्वारा शान्त करना
तथा ब्रूवाणं सौमित्रिं प्रदीप्तमिव तेजसा।
अब्रवील्लक्ष्मणं तारा ताराधिपनिभानना॥१॥
सुमित्राकुमार लक्ष्मण अपने तेज के कारण प्रज्वलित-से हो रहे थे। वे जब उपर्युक्त बात कह चुके, तब चन्द्रमुखी तारा उनसे बोली- ॥१॥
नैवं लक्ष्मण वक्तव्यो नायं परुषमर्हति।
हरीणामीश्वरः श्रोतुं तव वक्त्राद् विशेषतः॥२॥
‘कुमार लक्ष्मण! आपको सुग्रीव से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। ये वानरों के राजा हैं; अतः इनके प्रति कठोर वचन बोलना उचित नहीं है। विशेषतः आप जैसे सुहृद् के मुख से तो ये कदापि कटु वचन सुनने के अधिकारी नहीं हैं॥२॥
नैवाकृतज्ञः सुग्रीवो न शठो नापि दारुणः।
नैवानृतकथो वीर न जिह्मश्च कपीश्वरः॥३॥
‘वीर! कपिराज सुग्रीव न कृतघ्न हैं, न शठ हैं, न क्रूर हैं, न असत्यवादी हैं और न कुटिल ही हैं॥३॥
उपकारं कृतं वीरो नाप्ययं विस्मृतः कपिः।
रामेण वीर सुग्रीवो यदन्यैर्दुष्करं रणे॥४॥
‘वीर लक्ष्मण! श्रीरामचन्द्रजी ने इनका जो उपकार किया है, वह युद्ध में दूसरों के लिये दुष्कर है। उसे इन वीर कपिराज ने कभी भुलाया नहीं है॥ ४॥
रामप्रसादात् कीर्तिं च कपिराज्यं च शाश्वतम्।
प्राप्तवानिह सुग्रीवो रुमां मां च परंतप॥५॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले सुमित्रानन्दन ! श्रीरामचन्द्रजी के कृपाप्रसाद से ही सुग्रीव ने वानरों के अक्षय राज्य को, यश को, रुमा को तथा मुझको भी प्राप्त किया है।
सुदुःखशयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम्।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः॥
‘पहले इन्होंने बड़ा दुःख उठाया है। अब इस उत्तम सुख को पाकर ये इसमें ऐसे रम गये कि इन्हें प्राप्त हुए समय का ज्ञान ही नहीं रहा। ठीक उसी तरह, जैसे विश्वामित्र मुनि को मेनका में आसक्त हो जाने के कारण समय की सुध-बुध नहीं रह गयी थी* ॥ ६॥
* यह प्रसंग बालकाण्ड के तिरसठवें सर्ग में आया है।
घृताच्यां किल संसक्तो दश वर्षाणि लक्ष्मण।
अहोऽमन्यत धर्मात्मा विश्वामित्रो महामुनिः॥७॥
‘लक्ष्मण! कहते हैं, धर्मात्मा महामुनि विश्वामित्र ने घृताची (मेनका) नामक अप्सरा में आसक्त होने के कारण दस वर्ष के समय को एक दिन ही माना था। ७॥
स हि प्राप्तं न जानीते कालं कालविदां वरः।
विश्वामित्रो महातेजाः किं पुनर्यः पृथग्जनः॥ ८॥
‘काल का ज्ञान रखने वालों में श्रेष्ठ महातेजस्वी विश्वामित्र को भी जब भोगासक्त होने पर काल का ज्ञान नहीं रह गया, तब फिर दूसरे साधारण प्राणी को कैसे रह सकता है ? ॥ ८॥
देहधर्मगतस्यास्य परिश्रान्तस्य लक्ष्मण।
अवितृप्तस्य कामेषु रामः क्षन्तुमिहार्हति॥९॥
‘कुमार लक्ष्मण! आहार, निद्रा और मैथुन आदि जो देह के धर्म हैं, (जो पशुओं में भी समान रूप से पाये जाते हैं) उनमें स्थित हुए ये सुग्रीव पहले तो चिरकालतक दुःख भोगने के कारण थके-माँदे एवं खिन्न थे। अब भगवान् श्रीराम की कृपा से इन्हें जो काम-भोग प्राप्त हुए हैं, उनसे अभी तक इनकी तृप्ति नहीं हुई (इसीलिये इनसे कुछ असावधानी हो गयी); अतः परम कृपालु श्रीरघुनाथजी को यहाँ इनका अपराध क्षमा करना चाहिये॥९॥
न च रोषवशं तात गन्तुमर्हसि लक्ष्मण।
निश्चयार्थमविज्ञाय सहसा प्राकृतो यथा॥१०॥
‘तात लक्ष्मण! आपको यथार्थ बात जाने बिना साधारण मनुष्य की भाँति सहसा क्रोध के अधीन नहीं होना चाहिये॥ १०॥
सत्त्वयुक्ता हि पुरुषास्त्वद्विधाः पुरुषर्षभ।
अविमृश्य न रोषस्य सहसा यान्ति वश्यताम्॥ ११॥
‘पुरुषप्रवर! आप-जैसे सत्त्वगुणसम्पन्न पुरुष विचार किये बिना ही सहसा रोष के वशीभूत नहीं होते हैं।॥ ११॥
प्रसादये त्वां धर्मज्ञ सुग्रीवार्थं समाहिता।
महान् रोषसमुत्पन्नः संरम्भस्त्यज्यतामयम्॥१२॥
‘धर्मज्ञ! मैं एकाग्र हृदय से सुग्रीव के लिये आपसे कृपा की याचना करती हूँ। आप क्रोध से उत्पन्न हुए इस महान् क्षोभ का परित्याग कीजिये॥ १२ ॥
रुमां मां चाङ्गदं राज्यं धनधान्यपशूनि च।
रामप्रियार्थं सुग्रीवस्त्यजेदिति मतिर्मम॥१३॥
‘मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने के लिये रुमा का, मेरा, कुमार अङ्गद का तथा धन-धान्य और पशुओं सहित सम्पूर्ण राज्य का भी परित्याग कर सकते हैं॥ १३॥
समानेष्यति सुग्रीवः सीतया सह राघवम्।
शशाङ्कमिव रोहिण्या हत्वा तं राक्षसाधमम्॥ १४॥
‘सुग्रीव उस अधम राक्षस का वध करके श्रीराम को सीता से उसी तरह मिलायेंगे, जैसे चन्द्रमा का रोहिणी के साथ संयोग हुआ हो॥१४॥
शतकोटिसहस्राणि लङ्कायां किल रक्षसाम्।
अयुतानि च षट्त्रिंशत्सहस्राणि शतानि च॥ १५॥
‘कहते हैं कि लङ्का में सौ हजार करोड़, छत्तीस अयुत, छत्तीस हजार और छत्तीस सौ राक्षस रहते हैं*॥
* आधुनिक गणना के अनुसार यह संख्या दस खरब तीन लाख निन्यानबे हजार छः सौ होती है।
अहत्वा तांश्च दुर्धर्षान् राक्षसान् कामरूपिणः।
न शक्यो रावणो हन्तुं येन सा मैथिली हृता॥ १६॥
‘वे सब-के-सब राक्षस इच्छानुसार रूप धारण करने वाले तथा दुर्जय हैं। उन सबका संहार किये बिना रावण का, जिसने मिथिलेशकुमारी सीता का अपहरण किया है, वध नहीं हो सकता॥ १६ ॥
ते न शक्या रणे हन्तुमसहायेन लक्ष्मण।
रावणः क्रूरकर्मा च सुग्रीवेण विशेषतः॥१७॥
‘लक्ष्मण! किसीकी सहायता लिये बिना अकेले किसी वीर के द्वारा न तो उन राक्षसों का संग्राम में वध किया जा सकता है और न क्रूरकर्मा रावण का ही इसलिये सुग्रीव से सहायता लेने की विशेष आवश्यकता है॥ १७॥
एवमाख्यातवान् वाली स ह्यभिज्ञो हरीश्वरः।
आगमस्तु न मे व्यक्तः श्रवात् तस्य ब्रवीम्यहम्॥ १८॥
‘वानरराज वाली लङ्का के राक्षसों की इस संख्या से परिचित थे, उन्होंने मुझे उनकी इस तरह गणना बतायी थी। रावण ने इतनी सेना का संग्रह कैसे किया? यह तो मुझे नहीं मालूम है। किंतु इस संख्या को मैंने उनके मुँह से सुना था। वह इस समय मैं आपको बता रही हूँ॥१८॥
त्वत्सहायनिमित्तं हि प्रेषिता हरिपुङ्गवाः।
आनेतुं वानरान् युद्धे सुबहून् हरिपुङ्गवान्॥१९॥
‘आपकी सहायता के लिये सुग्रीव ने बहुतेरे श्रेष्ठ वानरों को युद्ध के निमित्त असंख्य वानर वीरों की सेना एकत्र करने के लिये भेज रखा है॥ १९॥
तांश्च प्रतीक्षमाणोऽयं विक्रान्तान् सुमहाबलान्।
राघवस्यार्थसिद्ध्यर्थं न निर्याति हरीश्वरः॥२०॥
‘वानरराज सुग्रीव उन महाबली और पराक्रमी वीरों के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अतएव भगवान् श्रीराम का कार्य सिद्ध करने के लिये अभी नगर से बाहर नहीं निकल सके हैं।॥ २०॥
कृता सुसंस्था सौमित्रे सुग्रीवेण पुरा यथा।
अद्य तैर्वानरैः सर्वैरागन्तव्यं महाबलैः॥२१॥
‘सुमित्रानन्दन! सुग्रीव ने उन सबके एकत्र होने के लिये पहले से ही जो अवधि निश्चित कर रखी है, उसके अनुसार उन समस्त महाबली वानरों को आज ही यहाँ उपस्थित हो जाना चाहिये॥ २१॥
ऋक्षकोटिसहस्राणि गोलाङ्गलशतानि च।
अद्य त्वामुपयास्यन्ति जहि कोपमरिंदम।
कोट्योऽनेकास्तु काकुत्स्थ कपीनां दीप्ततेजसाम्॥ २२॥
‘शत्रुदमन लक्ष्मण! आज आपकी सेवा में कोटि सहस्र (दस अरब) रीछ, सौ करोड़ (एक अरब) लंगूर तथा और भी बढ़े हुए तेजवाले कई करोड़ वानर उपस्थित होंगे। इसलिये आप क्रोध को त्याग दीजिये॥ २२॥
तव हि मुखमिदं निरीक्ष्य कोपात् क्षतजसमे नयने निरीक्षमाणाः।
हरिवरवनिता न यान्ति शान्तिं प्रथमभयस्य हि शङ्किताः स्म सर्वाः ॥२३॥
‘आपका मुख क्रोध से तमतमा उठा है और आँखें रोष से लाल हो गयी हैं। यह सब देखकर हम वानरराज की स्त्रियों को शान्ति नहीं मिल रही है। हम सबको प्रथम भय (वालिवध) के समान ही किसी अनिष्ट की आशङ्का हो रही है ॥ २३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चत्रिंशः सर्गः॥ ३५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३५॥