वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 37 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 37
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः (सर्ग 37)
सुग्रीव का हनुमान् जी को वानरसेना के संग्रह के लिये दोबारा दूत भेजने की आज्ञा देना, समस्त वानरों का किष्किन्धा के लिये प्रस्थान
एवमुक्तस्तु सुग्रीवो लक्ष्मणेन महात्मना।
हनूमन्तं स्थितं पार्वे वचनं चेदमब्रवीत्॥१॥
महात्मा लक्ष्मण ने जब ऐसा कहा, तब सुग्रीव अपने पास ही खड़े हुए हनुमान् जी से यों बोले- ॥ १॥
महेन्द्रहिमवद्भिन्ध्यकैलासशिखरेषु च।
मन्दरे पाण्डुशिखरे पञ्चशैलेष ये स्थिताः॥२॥
तरुणादित्यवर्णेषु भ्राजमानेषु नित्यशः।
पर्वतेषु समुद्रान्ते पश्चिमस्यां तु ये दिशि॥३॥
आदित्यभवने चैव गिरौ संध्याभ्रसंनिभे।
पद्माचलवनं भीमाः संश्रिता हरिपुंगवाः॥४॥
अञ्जनाम्बुदसंकाशाः कुञ्जरेन्द्रमहौजसः।
अञ्जने पर्वते चैव ये वसन्ति प्लवंगमाः॥५॥
महाशैलगुहावासा वानराः कनकप्रभाः।
मेरुपार्श्वगताश्चैव ये च धूम्रगिरिं श्रिताः॥६॥
तरुणादित्यवर्णाश्च पर्वते ये महारुणे।
पिबन्तो मधु मैरेयं भीमवेगाः प्लवंगमाः॥७॥
वनेषु च सुरम्येषु सुगन्धिषु महत्सु च।
तापसाश्रमरम्येषु वनान्तेषु समन्ततः॥८॥
तांस्तांस्त्वमानय क्षिप्रं पृथिव्यां सर्ववानरान्।
सामदानादिभिः कल्पैर्वानरैर्वेगवत्तरैः॥९॥
‘महेन्द्र, हिमवान्, विन्ध्य, कैलास तथा श्वेत शिखर वाले मन्दराचल-इन पाँच पर्वतों के शिखरों पर जो श्रेष्ठ वानर रहते हैं, पश्चिम दिशा में समुद्र के परवर्ती तटपर प्रातःकालिक सूर्य के समान कान्तिमान्
और नित्य प्रकाशमान पर्वतों पर जिन वानरों का निवास है, भगवान् सूर्य के निवासस्थान तथा संध्याकालिक मेघसमूह के समान अरुण वर्णवाले उदयाचल एवं अस्ताचल पर जो वानर वास करते हैं,
पद्माचलवर्ती वन का आश्रय लेकर जो भयानक पराक्रमी वानर-शिरोमणि निवास करते हैं, अञ्जनपर्वत पर जो काजल और मेघ के समान काले तथा गजराज के समान महाबली वानर रहते हैं, बड़े
बड़े पर्वतों की गुफाओं में निवास करने वाले तथा मेरुपर्वत के आस-पास रहने वाले जो सुवर्ण की-सीकान्ति वाले वानर हैं, जो धूम्रगिरि का आश्रय लेकर रहते हैं, मैरेय मधु का पान करते हुए जो महारुण पर्वत पर प्रातःकाल के सूर्य की भाँति लाल रंग के भयानक वेगशाली वानर निवास करते हैं तथा सुगन्ध से परिपूर्ण एवं तपस्वियों के आश्रमों से सुशोभित बड़े-बड़े रमणीय वनों और वनान्तों में चारों ओर जो वानर रहते हैं, भूमण्डल के उन सभी वानरों को तुम शीघ्र यहाँ ले आओ। शक्तिशाली तथा अत्यन्त वेगवान् वानरों को भेजकर उनके द्वारा साम, दान आदि उपायों का प्रयोग करके उन सबको यहाँ बुलवाओ॥२-९॥
प्रेषिताः प्रथमं ये च मयाऽऽज्ञाता महाजवाः।
त्वरणार्थं तु भूयस्त्वं सम्प्रेषय हरीश्वरान्॥१०॥
‘मेरी आज्ञा से पहले जो महान् वेगशाली वानर भेजे गये हैं, उनको जल्दी करने के लिये प्रेरणा देने के निमित्त तुम पुनः दूसरे श्रेष्ठ वानरों को भेजो॥ १० ॥
ये प्रसक्ताश्च कामेषु दीर्घसूत्राश्च वानराः।
इहानयस्व तान् शीघ्रं सर्वानेव कपीश्वरान्॥११॥
‘जो वानर कामभोग में फँसे हए हों तथा जो दीर्घसूत्री (प्रत्येक कार्य को विलम्ब से करने वाले) हों, उन सभी कपीश्वरों को शीघ्र यहाँ ले आओ।॥ ११ ॥
अहोभिर्दशभिर्ये च नागच्छन्ति ममाज्ञया।
हन्तव्यास्ते दुरात्मानो राजशासनदूषकाः॥१२॥
‘जो मेरी आज्ञा से दस दिन के भीतर यहाँ न आ जायँ, राजाज्ञा को कलङ्कित करने वाले उन दुरात्मा वानरों को मार डालना चाहिये॥१२॥
शतान्यथ सहस्राणि कोट्यश्च मम शासनात्।
प्रयान्तु कपिसिंहानां निदेशे मम ये स्थिताः॥१३॥
‘जो मेरी आज्ञा के अधीन रहते हों, ऐसे सैकड़ों, हजारों तथा करोड़ों वानरसिंह मेरे आदेश से जाएँ। १३॥
मेघपर्वतसंकाशाश्छादयन्त इवाम्बरम्।
घोररूपाः कपिश्रेष्ठा यान्तु मच्छासनादितः॥ १४॥
‘जो मेघ और पर्वत के समान अपने विशालशरीर से आकाश को आच्छादित-सा कर लेते हैं, वे घोर रूपधारी श्रेष्ठ वानर मेरा आदेश मानकर यहाँ से यात्रा करें॥ १४॥
ते गतिज्ञा गतिं गत्वा पृथिव्यां सर्ववानराः।
आनयन्तु हरीन् सर्वांस्त्वरिताः शासनान्मम॥१५॥
‘वानरों के निवासस्थानों को जानने वाले सभी वानर तीव्र गति से भूमण्डल में चारों ओर जाकर मेरे आदेश से उन-उन स्थानों के सम्पूर्ण वानरगणों को तुरंत यहाँ ले आवे’॥
तस्य वानरराजस्य श्रुत्वा वायुसुतो वचः।
दिक्षु सर्वासु विक्रान्तान् प्रेषयामास वानरान्॥१६॥
वानरराज सुग्रीव की बात सुनकर वायुपुत्र हनुमान् जी ने सम्पूर्ण दिशाओं में बहुत-से पराक्रमी वानरों को भेजा॥१६॥
ते पदं विष्णुविक्रान्तं पतत्त्रिज्योतिरध्वगाः।
प्रयाताः प्रहिता राज्ञा हरयस्तु क्षणेन वै॥१७॥
राजा की आज्ञा पाकर वे सब वानर तत्काल आकाश में पक्षियों और नक्षत्रों के मार्ग से चल दिये॥ १७॥
ते समुद्रेषु गिरिषु वनेषु च सरस्सु च।
वानरा वानरान् सर्वान् रामहेतोरचोदयन्॥१८॥
उन वानरों ने समुद्रों के किनारे, पर्वतो पर, वनों में और सरोवरों के तटों पर रहने वाले समस्त वानरों को श्रीरामचन्द्रजी का कार्य करने के लिये चलने को कहा। १८॥
मृत्युकालोपमस्याज्ञां राजराजस्य वानराः।
सुग्रीवस्याययुः श्रुत्वा सुग्रीवभयशङ्किताः॥१९॥
अपने सम्राट् सुग्रीव का, जो मृत्यु एवं काल के समान भयानक दण्ड देने वाले थे, आदेश सुनकर वे सभी वानर उनके भय से थर्रा उठे और तुरंत ही किष्किन्धा की ओर प्रस्थित हुए॥ १९॥
ततस्तेऽञ्जनसंकाशा गिरेस्तस्मान्महाबलाः।
तिस्रः कोट्यः प्लवंगानां निर्ययुर्यत्र राघवः॥
तदनन्तर कज्जल गिरि से काजल के ही समान काले और महान् बलवान् तीन करोड़ वानर उस स्थान पर जाने के लिये निकले, जहाँ श्रीरघुनाथजी विराजमान थे॥२०॥
अस्तं गच्छति यत्रार्कस्तस्मिन् गिरिवरे रताः।
संतप्तहेमवर्णाभास्तस्मात् कोट्यो दश च्युताः॥ २१॥
जहाँ सूर्यदेव अस्त होते हैं, उस श्रेष्ठ पर्वतपर रहने वाले दस करोड़ वानर, जिनकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान थी, वहाँ से किष्किन्धा के लिये चले॥
कैलासशिखरेभ्यश्च सिंहकेसरवर्चसाम्।
ततः कोटिसहस्राणि वानराणां समागमन्॥२२॥
कैलास के शिखरों से सिंह के अयाल की-सी श्वेत कान्ति वाले दस अरब वानर आये॥२२॥
फलमूलेन जीवन्तो हिमवन्तमुपाश्रिताः।
तेषां कोटिसहस्राणां सहस्रं समवर्तत॥२३॥
जो हिमालय पर रहकर फल-मूल से जीवन निर्वाह करते थे, वे वानर एक नील की संख्या में वहाँ आये।२३॥
अङ्गारकसमानानां भीमानां भीमकर्मणाम्।
विन्ध्याद् वानरकोटीनां सहस्राण्यपतन् द्रुतम्॥ २४॥
विन्ध्याचल पर्वत से मङ्गल के समान लाल रंगवाले भयानक पराक्रमी भयंकर रूपधारी वानरों की दस अरब सेना बड़े वेग से किष्किन्धा में आयी॥ २४ ॥
क्षीरोदवेलानिलयास्तमालवनवासिनः।
नारिकेलाशनाश्चैव तेषां संख्या न विद्यते॥२५॥
क्षीरसमुद्र के किनारे और तमाल वन में नारियल खाकर रहने वाले वानर इतनी अधिक संख्या में आये कि उनकी गणना नहीं हो सकती थी॥२५॥
वनेभ्यो गह्वरेभ्यश्च सरिद्भ्यश्च महाबलाः।
आगच्छद् वानरी सेना पिबन्तीव दिवाकरम्॥ २६॥
वनों से, गुफाओं से और नदियों के किनारों से असंख्य महाबली वानर एकत्र हुए वानरों की वह सारी सेना सूर्यदेव को पीती (आच्छादित करती) हुई सी आयी॥२६॥
ये तु त्वरयितुं याता वानराः सर्ववानरान्।
ते वीरा हिमवच्छैले ददृशुस्तं महाद्रुमम्॥२७॥
जो वानर समस्त वानरों को शीघ्र आने के लिये प्रेरित करने के निमित्त किष्किन्धा से दुबारा भेजे गये थे, उन वीरों ने हिमालय पर्वत पर उस प्रसिद्ध विशाल वृक्ष को देखा (जो भगवान् शंकर की यज्ञशाला में स्थित था) ॥ २७॥
तस्मिन् गिरिवरे पुण्ये यज्ञो माहेश्वरः पुरा।
सर्वदेवमनस्तोषो बभूव सुमनोरमः॥२८॥
उस पवित्र एवं श्रेष्ठ पर्वत पर पूर्वकाल में भगवान् शंकर का यज्ञ हुआ था, जो सम्पूर्ण देवताओं के मन को संतोष देने वाला और अत्यन्त मनोरम था। २८॥
अन्ननिस्यन्दजातानि मूलानि च फलानि च।
अमृतस्वादुकल्पानि ददृशुस्तत्र वानराः॥२९॥
उस पर्वत पर खीर आदि अन्न (होमद्रव्य) से घृत आदि का स्राव हुआ था, उससे वहाँ अमृत के समान स्वादिष्ट फल और मूल उत्पन्न हुए थे। उन फलों को उन वानरों ने देखा॥ २९॥
तदन्नसम्भवं दिव्यं फलमूलं मनोहरम्।
यः कश्चित् सकृदश्नाति मासं भवति तर्पितः॥३०॥
उक्त अन्न से उत्पन्न हुए उस दिव्य एवं मनोहर फल-मूल को जो कोई एक बार खा लेता था, वह एक मासतक उससे तृप्त बना रहता था॥ ३० ॥
तानि मूलानि दिव्यानि फलानि च फलाशनाः।
औषधानि च दिव्यानि जगृहुर्हरिपुंगवाः॥३१॥
फलाहार करने वाले उन वानरशिरोमणियों ने उन दिव्य मूल-फलों और दिव्य औषधों को अपने साथ ले लिया॥
तस्माच्च यज्ञायतनात् पुष्पाणि सुरभीणि च।
आनिन्युनिरा गत्वा सुग्रीवप्रियकारणात्॥३२॥
वहाँ जाकर उस यज्ञ-मण्डप से वे सब वानर सुग्रीव का प्रिय करने के लिये सुगन्धित पुष्प भी लेते आये॥३२॥
ते तु सर्वे हरिवराः पृथिव्यां सर्ववानरान्।
संचोदयित्वा त्वरितं यूथानां जग्मुरग्रतः॥३३॥
वे समस्त श्रेष्ठ वानर भूमण्डल के सम्पूर्ण वानरों को तुरंत चलने का आदेश देकर उनके यूथों के पहुँचने के पहले ही सुग्रीव के पास आ गये॥ ३३॥ ।
ते तु तेन मुहूर्तेन कपयः शीघ्रचारिणः।
किष्किन्धां त्वरया प्राप्ताः सुग्रीवो यत्र वानरः॥ ३४॥
वे शीघ्रगामी वानर उसी मुहूर्त में चलकर बड़ी उतावली के साथ किष्किन्धापुरी में जहाँ वानरराज सुग्रीव थे, जा पहुँचे॥ ३४॥
ते गृहीत्वौषधीः सर्वाः फलमूलं च वानराः।
तं प्रतिग्राहयामासुर्वचनं चेदमब्रुवन्॥ ३५॥
उस सम्पूर्ण ओषधियों और फल-मूलों को लेकर उन वानरों ने सुग्रीव की सेवा में अर्पित कर दिया और इस प्रकार कहा— ॥ ३५ ॥
सर्वे परिसृताः शैलाः सरितश्च वनानि च।
पृथिव्यां वानराः सर्वे शासनादपयान्ति ते॥३६॥
‘महाराज! हमलोग सभी पर्वतों, नदियों और वनों में घूम आये। भूमण्डल के समस्त वानर आपकी आज्ञा से यहाँ आ रहे हैं’॥ ३६॥
एवं श्रुत्वा ततो हृष्टः सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
प्रतिजग्राह च प्रीतस्तेषां सर्वमुपायनम्॥ ३७॥
यह सुनकर वानरराज सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उनकी दी हुई सारी भेंट-सामग्री सानन्द ग्रहण की॥ ३७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः॥३७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३७॥