वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 38 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 38
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टात्रिंशः सर्गः (सर्ग 38)
सुग्रीव का भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम, सुग्रीव का अपने किये हुए सैन्य संग्रह विषयक उद्योग को बताना और उसे सुनकर श्रीराम का प्रसन्न होना
प्रतिगृह्य च तत् सर्वमुपायनमुपाहृतम्।
वानरान् सान्त्वयित्वा च सर्वानेव व्यसर्जयत्॥ १॥
उनके लाये हुए उन समस्त उपहारों को ग्रहण करके सुग्रीव ने सम्पूर्ण वानरों को मधुर वचनों द्वारा सान्त्वना दी फिर सबको विदा कर दिया॥१॥
विसर्जयित्वा स हरीन् सहस्रान् कृतकर्मणः।
मेने कृतार्थमात्मानं राघवं च महाबलम्॥२॥
कार्य पूरा करके लौटे हुए उन सहस्रों वानरों को विदा करके सुग्रीव ने अपने-आपको कृतार्थ मानाऔर महाबली श्रीरघुनाथजी का भी कार्य सिद्ध हुआ ही समझा ॥२॥
स लक्ष्मणो भीमबलं सर्ववानरसत्तमम्।
अब्रवीत् प्रश्रितं वाक्यं सुग्रीवं सम्प्रहर्षयन्॥३॥
तत्पश्चात् लक्ष्मण समस्त वानरों में श्रेष्ठ भयंकर बलशाली सुग्रीव का हर्ष बढ़ाते हुए उनसे यह विनीत वचन बोले- ॥३॥
किष्किन्धाया विनिष्क्राम यदि ते सौम्य रोचते।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य सुभाषितम्॥४॥
सुग्रीवः परमप्रीतो वाक्यमेतदुवाच ह।
‘सौम्य ! यदि तुम्हारी रुचि हो तो अब किष्किन्धा से बाहर निकलो।’ लक्ष्मण की यह सुन्दर बात सुनकर सुग्रीव अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले- ॥ ४ १/२॥
एवं भवतु गच्छाम स्थेयं त्वच्छासने मया॥५॥
तमेवमुक्त्वा सुग्रीवो लक्ष्मणं शुभलक्षणम्।
विसर्जयामास तदा ताराद्याश्चैव योषितः॥६॥
‘अच्छा, ऐसा ही हो चलिये, चलें। मुझे तो आपकी आज्ञा का पालन करना है।’ शुभ लक्षणों से युक्त लक्ष्मण से ऐसा कहकर सुग्रीव ने तारा आदि सब स्त्रियों को तत्काल विदा कर दिया॥५-६॥
एहीत्युच्चैर्हरिवरान् सुग्रीवः समुदाहरत्।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा हरयः शीघ्रमाययुः॥७॥
बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे ये स्युः स्त्रीदर्शनक्षमाः।
इसके बाद सुग्रीव ने शेष वानरों को ‘आओ, आओ’ कहकर उच्च स्वर से पुकारा। उनकी वह पुकार सुनकर सब वानर, जो अन्तःपुर की स्त्रियों को देखने के अधिकारी थे, दोनों हाथ जोड़े शीघ्रतापूर्वक उनके पास आये॥ ७ १/२॥
तानुवाच ततः प्राप्तान् राजार्कसदृशप्रभः॥८॥
उपस्थापयत क्षिप्रं शिबिकां मम वानराः।
पास आये हुए उन वानरों से सूर्यतुल्य तेजस्वी राजा सुग्रीव ने कहा—’वानरो! तुमलोग शीघ्र मेरी शिबिका को यहाँ ले आओ’ ॥ ८ १/२॥
श्रुत्वा तु वचनं तस्य हरयः शीघ्रविक्रमाः॥९॥
समुपस्थापयामासुः शिबिकां प्रियदर्शनाम्।
उनकी बात सुनकर शीघ्रगामी वानरों ने एक सुन्दर शिबिका (पालकी) वहाँ उपस्थित कर दी॥९ १/२ ॥
तामुपस्थापितां दृष्ट्वा शिबिकां वानराधिपः॥१०॥
लक्ष्मणारुह्यतां शीघ्रमिति सौमित्रिमब्रवीत्।
पालकी को वहाँ उपस्थित देख वानरराज सुग्रीव ने सुमित्राकुमार से कहा—’कुमार लक्ष्मण! आप शीघ्र इस पर आरूढ़ हो जायँ’ ॥ १० १/२॥
इत्युक्त्वा काञ्चनं यानं सुग्रीवः सूर्यसंनिभम्॥११॥
बहुभिर्हरिभिर्युक्तमारुरोह सलक्ष्मणः।
ऐसा कहकर लक्ष्मणसहित सुग्रीव उस सूर्य की-सी प्रभावाली सुवर्णमयी पालकी पर, जिसे ढोने के लिये बहुत-से वानर लगे थे, आरूढ़ हुए॥ ११ १/२ ॥
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि॥१२॥
शुक्लैश्च वालव्यजनै—यमानैः समन्ततः।
शंखभेरीनिनादैश्च बन्दिभिश्चाभिनन्दितः॥१३॥
निर्ययौ प्राप्य सुग्रीवो राज्यश्रियमनुत्तमाम्।
उस समय सुग्रीव के ऊपर श्वेत छत्र लगाया गया और सब ओर से सफेद चँवर डुलाये जाने लगे। शङ्ख और भेरी की ध्वनि के साथ वन्दीजनों का अभिनन्दन सुनते हुए राजा सुग्रीव परम उत्तम राजलक्ष्मी को पाकर किष्किन्धापुरी से बाहर निकले॥ १२-१३ १/२॥
स वानरशतैस्तीक्ष्णैर्बहुभिः शस्त्रपाणिभिः॥१४॥
परिकीर्णो ययौ तत्र यत्र रामो व्यवस्थितः।
हाथ में शस्त्र लिये तीक्ष्ण स्वभाव वाले कई सौ वानरों से घिरे हुए राजा सुग्रीव उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान् श्रीराम निवास करते थे॥ १४ १/२॥
स तं देशमनुप्राप्य श्रेष्ठं रामनिषेवितम्॥१५॥
अवातरन्महातेजाः शिबिकायाः सलक्ष्मणः।
आसाद्य च ततो रामं कृताञ्जलिपुटोऽभवत्॥
श्रीरामचन्द्रजी से सेवित उस श्रेष्ठ स्थान में पहुंचकर लक्ष्मणसहित महातेजस्वी सुग्रीव पालकी से उतरे और श्रीराम के पास जा हाथ जोड़कर खड़े हो गये। १५-१६॥
कृताञ्जलौ स्थिते तस्मिन् वानराश्चाभवंस्तथा।
तटाकमिव तं दृष्ट्वा रामः कुड्मलपङ्कजम्॥ १७॥
वानराणां महत् सैन्यं सुग्रीवे प्रीतिमानभूत्।
वानरराज के हाथ जोड़कर खड़े होने पर उनके अनुयायी वानर भी उन्हीं की भाँति अञ्जलि बाँधे खड़े हो गये। मुकुलित कमलों से भरे हुए विशाल सरोवर की भाँति वानरों की उस बड़ी भारी सेना को देखकर श्रीरामचन्द्रजी सुग्रीव पर बहुत प्रसन्न हुए॥ १७ १/२॥
पादयोः पतितं मूर्ना तमुत्थाप्य हरीश्वरम्॥१८॥
प्रेम्णा च बहुमानाच्च राघवः परिषस्वजे।
वानरराज को चरणों में मस्तक रखकर पड़ा हुआ देख श्रीरघुनाथजी ने हाथ से पकड़कर उठाया और बड़े आदर तथा प्रेम के साथ उन्हें हृदय से लगाया॥ १८ १/२ ॥
परिष्वज्य च धर्मात्मा निषीदेति ततोऽब्रवीत्॥१९॥
निषण्णं तं ततो दृष्ट्वा क्षितौ रामोऽब्रवीत् ततः।
हृदय से लगाकर धर्मात्मा श्रीराम ने उनसे कहा — ‘बैठो’ उन्हें पृथ्वी पर बैठा देख श्रीराम बोले— ॥
धर्ममर्थं च कामं च काले यस्तु निषेवते॥२०॥
विभज्य सततं वीर स राजा हरिसत्तम।
हित्वा धर्मं तथार्थं च कामं यस्तु निषेवते॥२१॥
स वृक्षाग्रे यथा सुप्तः पतितः प्रतिबुध्यते।
‘वीर! वानरशिरोमणे! जो धर्म, अर्थ और काम के लिये समय का विभाग करके सदा उचित समय पर उनका (न्याययुक्त) सेवन करता है, वही श्रेष्ठ राजा है। किंतु जो धर्म-अर्थ का त्याग करके केवल काम का ही सेवन करता है, वह वृक्ष की अगली शाखा पर सोये हुए मनुष्य के समान है गिरने पर ही उसकी आँख खुलती है॥ २०-२१ १/२॥
अमित्राणां वधे युक्तो मित्राणां संग्रहे रतः॥२२॥
त्रिवर्गफलभोक्ता च राजा धर्मेण युज्यते।
‘जो राजा शत्रुओं के वध और मित्रों के संग्रह में संलग्न रहकर योग्य समय पर धर्म, अर्थ और काम का (न्याययुक्त) सेवन करता है, वह धर्म के फल का भागी होता है॥ २२ १/२॥
उद्योगसमयस्त्वेष प्राप्तः शत्रुनिषूदन॥२३॥
संचिन्त्यतां हि पिङ्गेश हरिभिः सह मन्त्रिभिः।
‘शत्रुसूदन! यह हमलोगों के लिये उद्योग का समय आया है। वानरराज! तुम इस विषय में इन वानरों और मन्त्रियों के साथ विचार करो’ ॥ २३ १/२ ॥
एवमुक्तस्तु सुग्रीवो रामं वचनमब्रवीत्॥२४॥
प्रणष्टा श्रीश्च कीर्तिश्च कपिराज्यं च शाश्वतम्।
त्वत्प्रसादान्महाबाहो पुनः प्राप्तमिदं मया ॥२५॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर सुग्रीव ने उनसे कहा’महाबाहो! मेरी श्री, कीर्ति तथा सदा से चला आने वाला वानरों का राज्य–ये सब नष्ट हो चुके थे। आपकी कृपा से ही मुझे पुनः इन सबकी प्राप्ति हुई है॥ २४-२५॥
तव देव प्रसादाच्च भ्रातुश्च जयतां वर।
कृतं न प्रतिकुर्याद् यः पुरुषाणां हि दूषकः॥२६॥
‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ देव! आप और आपके भाई की कृपा से ही मैं वानर-राज्यपर पुनः प्रतिष्ठित हुआ हूँ। जो किये हुए उपकार का बदला नहीं चुकाता है, वह पुरुषों में धर्म को कलङ्कित करने वाला माना गया है॥२६॥
एते वानरमुख्याश्च शतशः शत्रुसूदन।
प्राप्ताश्चादाय बलिनः पृथिव्यां सर्ववानरान्॥२७॥
‘शत्रुसूदन! ये सैकड़ों बलवान् और मुख्य वानर भूमण्डल के सभी बलशाली वानरों को साथ लेकर यहाँ आये हैं॥ २७॥
ऋक्षाश्च वानराः शूरा गोलाङ्गलाश्च राघव।
कान्तारवनदुर्गाणामभिज्ञा घोरदर्शनाः॥२८॥
‘रघुनन्दन! इनमें रीछ हैं, वानर हैं और शौर्यसम्पन्न गोलाङ्गल (लङ्गर) हैं। ये सब-के-सब देखने में बड़े भयंकर हैं और बीहड़ वनों तथा दुर्गम स्थानों के जानकार हैं॥ २८॥
देवगन्धर्वपुत्राश्च वानराः कामरूपिणः।
स्वैः स्वैः परिवृताः सैन्यैर्वर्तन्ते पथि राघव॥२९॥
‘रघुनाथजी! जो देवताओं और गन्धर्वो के पुत्र हैं और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं, वे श्रेष्ठ वानर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ चल पड़े हैं और इस समय मार्ग में हैं॥ २९॥
शतैः शतसहस्रैश्च वर्तन्ते कोटिभिस्तथा।
अयुतैश्चावृता वीर शङ्कभिश्च परंतप॥३०॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! इनमें से किसी के साथ सौ, किसी के साथ लाख, किसी के साथ करोड़, किसी के साथ अयुत (दस हजार) और किसी के साथ एक शंकु वानर हैं ॥ ३० ॥
अर्बुदैरर्बुदशतैर्मध्यैश्चान्त्यैश्च वानराः।
समुद्राश्च परार्धाश्च हरयो हरियूथपाः॥३१॥
‘कितने ही वानर अर्बुद (दस करोड़), सौ अर्बुद (दस अरब), मध्य (दस पद्म) तथा अन्त्य (एक पद्म) वानर-सैनिकों के साथ आ रहे हैं। कितने ही वानरों तथा वानर-यूथपतियों की संख्या समुद्र (दस नील) तथा परार्ध (शंख) तक पहुँच गयी है* ॥३१॥
* यहाँ अर्बुद, शंकु, अन्त्य और मध्य आदि संख्या वाचक शब्दों का आधुनिक गणित के अनुसार मान समझने के लिये प्राचीन संज्ञाओं का पूर्ण रूप से उल्लेख किया जाता है और कोष्ठ में उसका आधुनिक मान दिया जा रहा है—एक (इकाई), दश (दहाई), शत (सैकड़ा), सहस्र (हजार), अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), प्रयुत (दस लाख), कोटि (करोड़), अर्बुद (दस करोड़), अब्ज (अरब), खर्व (दस अरब), निखर्व (खर्व), महापद्म (दस खर्व), शंकु (नील), जलधि (दस नील), अन्त्य (पद्म), मध्य (दस पद्म), परार्ध (शंख)–ये संख्या बोधक संज्ञाएँ उत्तरोत्तर दस गुनी मानी गयी हैं (नारदपुराण से)
आगमिष्यन्ति ते राजन् महेन्द्रसमविक्रमाः।
मेघपर्वतसंकाशा मेरुविन्ध्यकृतालयाः॥३२॥
‘राजन्! वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी तथा मेघों और पर्वतों के समान विशालकाय वानर, जो मेरु और विन्ध्याचल में निवास करते हैं, यहाँ शीघ्र ही उपस्थित होंगे॥३२॥
ते त्वामभिगमिष्यन्ति राक्षसं योद्धमाहवे।
निहत्य रावणं युद्धे ह्यानयिष्यन्ति मैथिलीम्॥३३॥
‘जो युद्ध में रावण का वध करके मिथिलेश-कुमारी सीता को लङ्का से ला देंगे, वे महान् शक्तिशाली वानर संग्राम में उस राक्षस से युद्ध करने के लिये अवश्य आपके पास आयेंगे’ ॥ ३३॥
ततः समुद्योगमवेक्ष्य वीर्यवान् हरिप्रवीरस्य निदेशवर्तिनः।
बभूव हर्षाद् वसुधाधिपात्मजः प्रबुद्धनीलोत्पलतुल्यदर्शनः॥ ३४॥
यह सुनकर परम पराक्रमी राजकुमार श्रीराम अपनी आज्ञा के अनुसार चलने वाले वानरों के प्रमुख वीर सुग्रीव का यह सैन्य-विषयक उद्योग देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे और प्रफुल्ल नील कमल के समान दिखायी देने लगे॥३४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टात्रिंशः सर्गः॥ ३८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३८॥