वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 39 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 39
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 39)
श्रीरामचन्द्रजी का सुग्रीव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा विभिन्न वानरयूथपतियों का अपनी सेनाओं के साथ
आगमन इति ब्रुवाणं सुग्रीवं रामो धर्मभृतां वरः।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य प्रत्युवाच कृताञ्जलिम्॥१॥
सुग्रीव के ऐसा कहने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीराम ने अपनी दोनों भुजाओं से उनका आलिङ्गन किया और हाथ जोड़कर खड़े हुए उनसे इस प्रकार कहा— ॥ १॥
यदिन्द्रो वर्षते वर्षं न तच्चित्रं भविष्यति।
आदित्योऽसौ सहस्रांशुः कुर्याद् वितिमिरं नभः॥२॥
चन्द्रमा रजनी कुर्यात् प्रभया सौम्य निर्मलाम्।
त्वद्विधो वापि मित्राणां प्रीतिं कुर्यात् परंतप॥
‘सखे! इन्द्र जो जल की वर्षा करते हैं, सहस्रों किरणों से शोभा पाने वाले सूर्यदेव जो आकाश का अन्धकार दूर कर देते हैं तथा सौम्य! चन्द्रमा अपनी प्रभा से जो अँधेरी रात को भी उज्ज्वल कर देते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि यह उनका स्वाभाविक गुण है। शत्रुओं को संताप देनेवाले सुग्रीव! इसी तरह तुम्हारे समान पुरुष भी यदि अपने मित्रों का उपकार करके उन्हें प्रसन्न कर दें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं मानना चाहिये॥२-३॥
एवं त्वयि न तच्चित्रं भवेद् यत् सौम्य शोभनम्।
जानाम्यहं त्वां सुग्रीव सततं प्रियवादिनम्॥४॥
‘सौम्य सुग्रीव! इसी प्रकार तुममें जो मित्रों का हित साधन रूप कल्याणकारी गुण है, वह आश्चर्य का विषय नहीं है; क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम सदा प्रिय बोलने वाले हो—यह तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। ४॥
त्वत्सनाथः सखे संख्ये जेतास्मि सकलानरीन्।
त्वमेव मे सुहृन्मित्रं साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥५॥
‘सखे! तुम्हारी सहायता से सनाथ होकर मैं युद्ध में समस्त शत्रुओं को जीत लूँगा। तुम्हीं मेरे हितैषी मित्र हो और मेरी सहायता कर सकते हो॥५॥
जहारात्मविनाशाय मैथिली राक्षसाधमः।
वञ्चयित्वा तु पौलोमीमनुलादो यथा शचीम्॥६॥
‘राक्षसाधम रावण ने अपना नाश करने के लिये ही मिथिलेशकुमारी को धोखा देकर उसका अपहरण किया है। ठीक उसी तरह, जैसे अनुह्लाद ने अपने विनाश के लिये ही पुलोमपुत्री शची को छलपूर्वक हर लिया था* ॥ ६॥
* पुलोम दानव की कन्या शची इन्द्रदेव के प्रति अनुरक्त थीं, परंतु अनुह्लाद ने उनके पिता को फुसलाकर अपने पक्ष में कर लिया और उसकी अनुमति से शची को हर लिया। जब इन्द्र को इसका पता लगा, तब वे अनुमति देने वाले पुलोम को और अपहरण करने वाले अनुह्लाद को भी मारकर शची को अपने घर ले आये। यह पुराणप्रसिद्ध कथा है(रामायणतिलक से)
नचिरात् तं वधिष्यामि रावणं निशितैः शरैः।
पौलोम्याः पितरं दृप्तं शतक्रतुरिवारिहा॥७॥
‘जैसे शत्रुहन्ता इन्द्रने शचीके घमंडी पिताको मार डाला था, उसी प्रकार मैं भी शीघ्र ही अपने तीखे बाणोंसे रावणका वध कर डालूँगा’॥७॥
एतस्मिन्नन्तरे चैव रजः समभिवर्तत।
उष्णतीव्रां सहस्रांशोश्छादयद् गगने प्रभाम्॥८॥
श्रीराम और सुग्रीव में जब इस प्रकार बातें हो रही थीं, उसी समय बड़े जोर की धूल उठी, जिसने आकाश में फैलकर सूर्य की प्रचण्ड प्रभा को ढक दिया॥८॥
दिशः पर्याकुलाश्चासंस्तमसा तेन दूषिताः।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना॥८॥
फिर तो उस धूलजनित अन्धकार से सम्पूर्ण दिशाएँ दूषित एवं व्याप्त हो गयीं तथा पर्वत, वन और काननों के साथ समूची पृथ्वी डगमग होने लगी॥९॥
ततो नगेन्द्रसंकाशैस्तीक्ष्णदंष्टैर्महाबलैः।
कृत्स्ना संछादिता भूमिरसंख्येयैः प्लवंगमैः॥१०॥
तदनन्तर पर्वतराज के समान शरीर और तीखी दाढ़वाले असंख्य महाबली वानरों से वहाँ की सारी भूमि आच्छादित हो गयी॥ १० ॥
निमेषान्तरमात्रेण ततस्तैर्हरियूथपैः ।
कोटीशतपरीवारैर्वानरैर्हरियूथपैः॥११॥
पलक मारते-मारते अरबों वानरों से घिरे हुए अनेकानेक यूथपतियों ने वहाँ आकर सारी भूमि को ढक लिया॥ ११॥
नादेयैः पार्वतेयैश्च सामुद्रैश्च महाबलैः।
हरिभिर्मेघनि दैरन्यैश्च वनवासिभिः॥१२॥
नदी, पर्वत, वन और समुद्र सभी स्थानों के निवासी महाबली वानर जुट गये, जो मेघों की गर्जना के समान उच्च स्वर से सिंहनाद करते थे॥ १२॥
तरुणादित्यवर्णैश्च शशिगौरैश्च वानरैः।
पद्मकेसरवर्णैश्च श्वेतैर्हेमकृतालयैः॥१३॥
कोई बालसूर्य के समान लाल रंग के थे तो कोई चन्द्रमा के समान गौर वर्ण के कितने ही वानर कमल के केसरों के समान पीले रंग के थे और कितने ही हिमाचलवासी वानर सफेद दिखायी देते थे॥ १३॥
कोटीसहस्रर्दशभिः श्रीमान् परिवृतस्तदा।
वीरः शतबलिर्नाम वानरः प्रत्यदृश्यत॥१४॥
उस समय परम कान्तिमान् शतबलि नामक वीर वानर दस अरब वानरों के साथ दृष्टिगोचर हुआ। १४॥
ततः काञ्चनशैलाभस्ताराया वीर्यवान् पिता।
अनेकैर्बहुसाहौः कोटिभिः प्रत्यदृश्यत॥१५॥
तत्पश्चात् सुवर्णशैल के समान सुन्दर एवं विशाल शरीर वाले तारा के महाबली पिता कई सहस्र कोटि वानरों के साथ वहाँ उपस्थित देखे गये॥ १५ ॥
तथापरेण कोटीनां सहस्रेण समन्वितः।
पिता रुमायाः सम्प्राप्तः सुग्रीवश्वशुरो विभुः॥१६॥
इसी प्रकार रुमा के पिता और सुग्रीव के श्वशुर, जो बड़े वैभवशाली थे, वहाँ उपस्थित हुए। उनके साथ भी दस अरब वानर थे॥१६॥
पद्मकेसरसंकाशस्तरुणार्कनिभाननः।
बुद्धिमान् वानरश्रेष्ठः सर्ववानरसत्तमः॥१७॥
अनेकैर्बहुसाहस्त्रैर्वानराणां समन्वितः।
पिता हनुमतः श्रीमान् केसरी प्रत्यदृश्यत॥१८॥
तदनन्तर हनुमान जी के पिता कपिश्रेष्ठ श्रीमान् केसरी दिखायी दिये। उनके शरीर का रंग कमल के केसरों की भाँति पीला और मुख प्रातःकाल के सूर्य के समान लाल था। वे बड़े बुद्धिमान् और समस्त वानरों में श्रेष्ठ थे। वे कई सहस्र वानरों से घिरे हुए थे। १७-१८॥
गोलाङ्गलमहाराजो गवाक्षो भीमविक्रमः।
वृतः कोटिसहस्रेण वानराणामदृश्यत॥१९॥
फिर लंगूर-जातिवाले वानरों के महाराज भयंकर पराक्रमी गवाक्ष का दर्शन हुआ। उनके साथ दस अरब वानरों की सेना थी॥ १९॥
ऋक्षाणां भीमवेगानां धूम्रः शत्रुनिबर्हणः।
वृतः कोटिसहस्राभ्यां द्वाभ्यां समभिवर्तत॥२०॥
शत्रुओं का संहार करने वाले धूम्र भयंकर वेगशाली बीस अरब रीछों की सेना लेकर आये॥२०॥
महाचलनिभैोरैः पनसो नाम यूथपः।
आजगाम महावीर्यस्तिसृभिः कोटिभिर्वृतः॥२१॥
महापराक्रमी यूथपति पनस तीन करोड़ वानरों के साथ उपस्थित हुए। वे सब-के-सब बड़े भयंकर तथा महान् पर्वताकार दिखायी देते थे॥२१॥
नीलाञ्जनचयाकारो नीलो नामैष यूथपः।
अदृश्यत महाकायः कोटिभिर्दशभिर्वृतः॥२२॥
यूथपति नील का शरीर भी बड़ा विशाल था। वे नीले कज्जल गिरि के समान नीलवर्ण के थे और दस करोड़ कपियों से घिरे हुए थे॥२२॥
ततः काञ्चनशैलाभो गवयो नाम यूथपः।
आजगाम महावीर्यः कोटिभिः पञ्चभिर्वृतः॥२३॥
तदनन्तर यूथपति गवय, जो सुवर्णमय पर्वत मेरु के समान कान्तिमान् और महापराक्रमी थे, पाँच करोड़ वानरों के साथ उपस्थित हुए॥ २३ ॥
दरीमुखश्च बलवान् यूथपोऽभ्याययौ तदा।
वृतः कोटिसहस्रेण सुग्रीवं समवस्थितः॥२४॥
उसी समय वानरों के बलवान् सरदार दरीमुख भी आ पहुँचे। वे दस अरब वानरों के साथ सुग्रीव की सेवा में उपस्थित हुए थे॥२४॥
मैन्दश्च द्विविदश्चोभावश्विपुत्रौ महाबलौ।
कोटिकोटिसहस्रेण वानराणामदृश्यताम्॥२५॥
अश्विनीकुमारों के महाबली पुत्र मैन्द और द्विविद, ये दोनों भाई भी दस-दस अरब वानरों की सेना के साथ वहाँ दिखायी दिये॥ २५ ॥
गजश्च बलवान् वीरस्तिसृभिः कोटिभिर्वृतः।
आजगाम महातेजाः सुग्रीवस्य समीपतः॥२६॥
तदनन्तर महातेजस्वी बलवान् वीर गज तीन करोड़ वानरों के साथ सुग्रीव के पास आया॥२६॥
ऋक्षराजो महातेजा जाम्बवान्नाम नामतः।
कोटिभिर्दशभिर्व्याप्तः सुग्रीवस्य वशे स्थितः॥२७॥
रीछों के राजा जाम्बवान् बड़े तेजस्वी थे। वे दस करोड़ रीछों से घिरे हुए आये और सुग्रीव के अधीन होकर खड़े हुए ॥२७॥
रुमणो नाम तेजस्वी विक्रान्तैर्वानरैर्वृतः।
आगतो बलवांस्तूर्णं कोटीशतसमावृतः॥२८॥
रुमण (रुमण्वान्) नामक तेजस्वी और बलवान् वानर एक अरब पराक्रमी वानरों को साथ लिये बड़ी तीव्र गति से वहाँ आया॥२८॥
ततः कोटिसहस्राणां सहस्रेण शतेन च।
पृष्ठतोऽनुगतः प्राप्तो हरिभिर्गन्धमादनः॥२९॥
इसके बाद यूथपति गन्धमादन उपस्थित हुए। उनके पीछे एक पद्म वानरों की सेना आयी थी॥ २९॥
ततः पद्मसहस्रेण वृतः शङ्कशतेन च।
युवराजोऽङ्गदः प्राप्तः पितुस्तुल्यपराक्रमः॥३०॥
तत्पश्चात् युवराज अङ्गद आये। ये अपने पिता के समान ही पराक्रमी थे। इनके साथ एक सहस्र पद्म और सौ शंकु (एक पद्म) वानरों की सेना थी (इनके सैनिकों की कुल संख्या दस शंख एक पद्म थी)। ३०॥
ततस्ताराद्युतिस्तारो हरिभिर्भीमविक्रमैः।
पञ्चभिर्हरिकोटीभिर्दूरतः पर्यदृश्यत॥३१॥
तदनन्तर तारों के समान कान्तिमान् तार नामक वानर पाँच करोड़ भयंकर पराक्रमी वानर वीरों के साथ दूर से आता दिखायी दिया॥३१॥
इन्द्रजानुः कविर्वीरो यूथपः प्रत्यदृश्यत।
एकादशानां कोटीनामीश्वरस्तैश्च संवृतः॥३२॥
इन्द्रजानु (इन्द्रभानु) नामक वीर यूथपति, जो बड़ा ही विद्वान् एवं बुद्धिमान् था, ग्यारह करोड़ वानरों के साथ उपस्थित देखा गया। वह उन सबका स्वामी था॥ ३२॥
ततो रम्भस्त्वनुप्राप्तस्तरुणादित्यसंनिभः।
अयुतेन वृतश्चैव सहस्रेण शतेन च॥३३॥
इसके बाद रम्भ नामक वानर उपस्थित हुआ, जो प्रातःकाल के सूर्य की भाँति लाल रंगका था। उसके साथ ग्यारह हजार एक सौ वानरों की सेना थी॥ ३३॥
ततो यूथपतिर्वीरो दुर्मुखो नाम वानरः।
प्रत्यदृश्यत कोटीभ्यां दाभ्यां परिवृतो बली॥३४॥
तत्पश्चात् वीर यूथपति दुर्मुख नामक बलवान् वानर उपस्थित देखा गया, जो दो करोड़ वानर सैनिकों से घिरा हुआ था॥ ३४॥
कैलासशिखराकारैर्वानरैर्भीमविक्रमैः।
वृतः कोटिसहस्रेण हनुमान् प्रत्यदृश्यत॥ ३५॥
इसके बाद हनुमान जी ने दर्शन दिया। उनके साथ कैलासशिखर के समान श्वेत शरीर वाले भयंकर पराक्रमी वानर दस अरब की संख्या में मौजूद थे। ३५॥
नलश्चापि महावीर्यः संवृतो द्रुमवासिभिः।
कोटीशतेन सम्प्राप्तः सहस्रेण शतेन च॥३६॥
फिर महापराक्रमी नल उपस्थित हुए, जो एक अरब एक हजार एक सौ द्रुमवासी वानरों से घिरे हुए थे॥
ततो दधिमुखः श्रीमान् कोटिभिर्दशभिर्वृतः।
सम्प्राप्तोऽभिनदस्तस्य सुग्रीवस्य महात्मनः॥३७॥
तदनन्तर श्रीमान् दधिमुख दस करोड़ वानरों के साथ गर्जना करते हुए किष्किन्धा में महात्मा सुग्रीव के पास आये॥ ३७॥
शरभः कुमुदो वह्निर्वानरो रंह एव च।
एते चान्ये च बहवो वानराः कामरूपिणः॥३८॥
आवृत्य पृथिवीं सर्वां पर्वतांश्च वनानि च।
यूथपाः समनुप्राप्ता येषां संख्या न विद्यते॥३९॥
इनके सिवा शरभ, कुमुद, वह्नि तथा रंह—ये और दूसरे भी बहुत-से इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानरयूथपति सारी पृथ्वी, पर्वत और वनों को आवृत करके वहाँ उपस्थित हुए, जिनकी कोई गणना नहीं की जा सकती॥ ३८-३९॥
आगताश्च निविष्टाश्च पृथिव्यां सर्ववानराः।
आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
अभ्यवर्तन्त सुग्रीवं सूर्यमभ्रगणा इव॥४०॥
वहाँ आये हुए सभी वानर पृथ्वी पर बैठे। वे सबके-सब उछलते, कूदते और गर्जते हुए वहाँ सुग्रीव के चारों ओर जमा हो गये। जैसे सूर्य को सब ओर से घेरकर बादलों के समूह छा रहे हों॥ ४० ॥
कुर्वाणा बहुशब्दांश्च प्रकृष्टा बाहुशालिनः।
शिरोभिर्वानरेन्द्राय सुग्रीवाय न्यवेदयन्॥४१॥
अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले बहुतेरे श्रेष्ठ वानरों ने (जो भीड़ के कारण सुग्रीव के पास तक न पहुँच सके थे) अनेक प्रकार की बोली बोलकर तथा मस्तक झुकाकर वानरराज सुग्रीव को अपने आगमन की सूचना दी॥ ४१॥
अपरे वानरश्रेष्ठाः संगम्य च यथोचितम्।
सुग्रीवेण समागम्य स्थिताः प्राञ्जलयस्तदा॥४२॥
बहुत-से श्रेष्ठ वानर उनके पास गये और यथोचित रूप से मिलकर लौटे तथा कितने ही वानर सुग्रीव से मिलने के बाद उनके पास ही हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥४२॥
सुग्रीवस्त्वरितो रामे सर्वांस्तान् वानरर्षभान्।
निवेदयित्वा धर्मज्ञः स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥४३॥
धर्म के ज्ञाता वानरराज सुग्रीव ने वहाँ आये हुए उन सब वानरशिरोमणियों का समाचार निवेदन करके श्रीरामचन्द्रजी को शीघ्रतापूर्वक उनका परिचय दिया, फिर हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये। ४३॥
यथासुखं पर्वतनिर्झरेषु वनेषु सर्वेषु च वानरेन्द्राः ।
निवेशयित्वा विधिवद् बलानि बलं बलज्ञः प्रतिपत्तुमीष्टे ॥४४॥
उन वानर-यूथपतियों ने वहाँ के पर्वतीय झरनों के आस-पास तथा समस्त वनों में अपनी सेनाओं को यथोचितरूप से सुखपूर्वक ठहरा दिया। तत्पश्चात् सब सेनाओं के ज्ञाता सुग्रीव उनका पूर्णतः ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सके।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥ ३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३९॥
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