वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 4
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (सर्ग 4)
लक्ष्मण का हनुमान जी से श्रीराम के वन में आने और सीताजी के हरे जाने का वृत्तान्त बताना, हनुमान् जी का उन्हें आश्वासन देकर उन दोनों भाइयों को अपने साथ ले जाना
ततः प्रहृष्टो हनुमान् कृत्यवानिति तद्वचः।
श्रुत्वा मधुरभावं च सुग्रीवं मनसा गतः॥१॥
श्रीरामजी की बात सुनकर तथा सुग्रीव के विषय में उनका सौम्यभाव जानकर और साथ ही यह समझकर कि इन्हें भी सुग्रीव से कोई आवश्यक काम है, हनुमान जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मनही-मन सुग्रीव का स्मरण किया॥१॥
भाव्यो राज्यागमस्तस्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
यदयं कृत्यवान् प्राप्तः कृत्यं चैतदुपागतम्॥२॥
‘अब अवश्य ही महामना सुग्रीव को राज्य की प्राप्ति होने वाली है; क्योंकि ये महानुभाव किसी कार्य या प्रयोजन से यहाँ आये हैं और यह कार्य सुग्रीव के ही द्वारा सिद्ध होने वाला है॥२॥
ततः परमसंहृष्टो हनूमान् प्लवगोत्तमः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं रामं वाक्यविशारदः॥३॥
तत्पश्चात् बातचीत में कुशल वानरश्रेष्ठ हनुमान जी अत्यन्त हर्ष में भरकर श्रीरामचन्द्रजी से बोले- ॥३॥
किमर्थं त्वं वनं घोरं पम्पाकाननमण्डितम्।
आगतः सानुजो दुर्गं नानाव्यालमृगायुतम्॥४॥
‘पम्पा-तटवर्ती कानन से सुशोभित यह वन भयंकर और दुर्गम है। इसमें नाना प्रकार के हिंसक जन्तु निवास करते हैं। आप अपने छोटे भाई के साथ यहाँ किसलिये आये हैं ?’ ॥ ४॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणो रामचोदितः।
आचचक्षे महात्मानं रामं दशरथात्मजम्॥५॥
हनुमान जी का यह वचन सुनकर श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने दशरथनन्दन महात्मा श्रीराम का इस प्रकार परिचय देना आरम्भ किया— ॥५॥
राजा दशरथो नाम द्युतिमान् धर्मवत्सलः।
चातुर्वण्र्यं स्वधर्मेण नित्यमेवाभिपालयन्॥६॥
‘विद्वन्! इस पृथ्वी पर दशरथ नाम से प्रसिद्ध जो धर्मानुरागी तेजस्वी राजा थे, वे सदा ही अपने धर्म के अनुसार चारों वर्गों की प्रजाका पालन करते थे॥६॥
न द्वेष्टा विद्यते तस्य स तु द्वेष्टि न कंचन।
स तु सर्वेषु भूतेषु पितामह इवापरः॥७॥
‘इस भूतल पर उनसे द्वेष रखने वाला कोई नहीं था और वे भी किसी से द्वेष नहीं रखते थे। वे समस्त प्राणियों पर दूसरे ब्रह्माजी के समान स्नेह रखते थे। ७॥
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टवानाप्तदक्षिणैः।
तस्यायं पूर्वजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः॥८॥
‘उन्होंने पर्याप्त दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि यज्ञों का अनुष्ठान किया था। ये उन्हीं महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं। लोग इन्हें श्रीराम कहते हैं॥ ८॥
शरण्यः सर्वभूतानां पितुर्निर्देशपारगः।
ज्येष्ठो दशरथस्यायं पुत्राणां गुणवत्तरः॥९॥
‘ये सब प्राणियों को शरण देने वाले और पिता की आज्ञा का पालन करने वाले हैं। महाराज दशरथ के चारों पुत्रों में ये सबसे अधिक गुणवान् हैं॥९॥
राजलक्षणसंयुक्तः संयुक्तो राज्यसम्पदा।
राज्याद् भ्रष्टो मया वस्तुं वने सार्धमिहागतः॥ १०॥
‘ये राजा के उत्तम लक्षणों से सम्पन्न हैं। जब इन्हें राज्य-सम्पत्ति से संयुक्त किया जा रहा था, उस समय कुछ ऐसा कारण आ पड़ा, जिससे ये राज्य से वञ्चित हो गये और वन में निवास करने के लिये मेरे साथ यहाँ आ गये॥१०॥
भार्यया च महाभाग सीतयानुगतो वशी।
दिनक्षये महातेजाः प्रभयेव दिवाकरः॥११॥
‘महाभाग! जैसे दिन का क्षय होने पर सायंकाल महातेजस्वी सूर्य अपने प्रभा के साथ अस्ताचल को जाते हैं, उसी प्रकार ये जितेन्द्रिय श्रीरघुनाथजी अपनी पत्नी सीता के साथ वन में आये थे।॥ ११॥
अहमस्यावरो भ्राता गुणैर्दास्यमुपागतः।
कृतज्ञस्य बहुज्ञस्य लक्ष्मणो नाम नामतः॥१२॥
‘मैं इनका छोटा भाई हूँ। मेरा नाम लक्ष्मण है। मैं अपने कृतज्ञ और बहुज्ञ भाई के गुणों से आकृष्ट होकर इनका दास हो गया हूँ॥ १२ ॥
सुखार्हस्य महार्हस्य सर्वभूतहितात्मनः।
ऐश्वर्येण विहीनस्य वनवासे रतस्य च॥१३॥
रक्षसापहृता भार्या रहिते कामरूपिणा।
तच्च न ज्ञायते रक्षः पत्नी येनास्य वा हृता॥ १४॥
‘सम्पूर्ण भूतों के हित में मन लगाने वाले, सुख भोगने के योग्य, महापुरुषों द्वारा पूजनीय, ऐश्वर्य से हीन तथा वनवास में तत्पर मेरे भाई की पत्नी को इच्छानुसार रूप धारण करने वाले एक राक्षस ने सूने आश्रम से हर लिया। जिसने इनकी पत्नी का हरण किया है, वह राक्षस कौन है और कहाँ रहता है ? इत्यादि बातों का ठीक-ठीक पता नहीं लग रहा है॥ १३-१४ ॥
दनु म दितेः पुत्रः शापाद् राक्षसतां गतः।
आख्यातस्तेन सुग्रीवः समर्थो वानराधिपः॥१५॥
स ज्ञास्यति महावीर्यस्तव भार्यापहारिणम्।
एवमुक्त्वा दनुः स्वर्ग भ्राजमानो दिवं गतः॥ १६॥
‘दनु नामक एक दैत्य था, जो शापसे राक्षसभाव को प्राप्त हुआ था। उसने सुग्रीव का नाम बताया और कहा- ‘वानरराज सुग्रीव सामर्थ्यशाली और महान् पराक्रमी हैं। वे आपकी पत्नी का अपहरण करने वाले राक्षस का पता लगा देंगे।’ ऐसा कहकर तेज से प्रकाशित होता हुआ दनु स्वर्गलोक में पहुँचने के लिये आकाश में उड़ गया॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं याथातथ्येन पृच्छतः।
अहं चैव च रामश्च सुग्रीवं शरणं गतौ॥१७॥
‘आपके प्रश्न के अनुसार मैंने सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। मैं और श्रीराम दोनों ही सुग्रीव की शरण में आये हैं।
एष दत्त्वा च वित्तानि प्राप्य चानुत्तमं यशः।
लोकनाथः पुरा भूत्वा सुग्रीवं नाथमिच्छति॥ १८॥
‘ये पहले बहुत-से धन-वैभव का दान करके परम उत्तम यश प्राप्त कर चुके हैं। जो पूर्वकाल में सम्पूर्ण जगत् के नाथ (संरक्षक) थे, वे आज सुग्रीव को अपना रक्षक बनाना चाहते हैं ॥ १८॥
सीता यस्य स्नुषा चासीच्छरण्यो धर्मवत्सलः।
तस्य पुत्रः शरण्यश्च सुग्रीवं शरणं गतः॥१९॥
‘सीता जिनकी पुत्रवधू है, जो शरणागतपालक और धर्मवत्सल रहे हैं, उन्हीं महाराज दशरथ के पुत्र शरणदाता श्रीराम आज सुग्रीव की शरण में आये हैं। १९॥
सर्वलोकस्य धर्मात्मा शरण्यः शरणं पुरा।
गुरुर्मे राघवः सोऽयं सुग्रीवं शरणं गतः॥२०॥
‘जो मेरे धर्मात्मा बड़े भाई श्रीरघुनाथजी पहले सम्पूर्ण जगत् को शरण देने वाले तथा शरणागतवत्सल रहे हैं, वे इस समय सुग्रीव की शरण में आये हैं॥ २०॥
यस्य प्रसादे सततं प्रसीदेयुरिमाः प्रजाः।
स रामो वानरेन्द्रस्य प्रसादमभिकांक्षते॥२१॥
‘जिनके प्रसन्न होने पर सदा यह सारी प्रजा प्रसन्नता से खिल उठती थी, वे ही श्रीराम आज वानरराज सुग्रीव की प्रसन्नता चाहते हैं ॥२१॥
येन सर्वगुणोपेताः पृथिव्यां सर्वपार्थिवाः।
मानिताः सततं राज्ञा सदा दशरथेन वै॥२२॥
तस्यायं पूर्वजः पुत्रस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
सुग्रीवं वानरेन्द्रं तु रामः शरणमागतः॥२३॥
‘जिन राजा दशरथ ने सदा अपने यहाँ आये हुए भूमण्डल के सर्वसद्गुणसम्पन्न समस्त राजाओं का निरन्तर सम्मान किया, उन्हीं के ये त्रिभुवनविख्यात ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम आज वानरराज सुग्रीव की शरण में आये हैं।
शोकाभिभूते रामे तु शोकार्ते शरणं गते।
कर्तुमर्हति सुग्रीवः प्रसादं सह यूथपैः॥२४॥
‘श्रीराम शोक से अभिभूत और आर्त होकर शरण में आये हैं। यूथपतियोंसहित सुग्रीव को इन पर कृपा करनी चाहिये॥॥ २४॥
एवं ब्रुवाणं सौमित्रिं करुणं साश्रुपातनम्।
हनूमान् प्रत्युवाचेदं वाक्यं वाक्यविशारदः॥ २५॥
नेत्रों से आँसू बहाकर करुणाजनक स्वर में ऐसी बातें कहते हुए सुमित्राकुमार लक्ष्मण से कुशल वक्ता हनुमान जी ने इस प्रकार कहा- ॥ २५ ॥
ईदृशा बुद्धिसम्पन्ना जितक्रोधा जितेन्द्रियाः।
द्रष्टव्या वानरेन्द्रेण दिष्ट्या दर्शनमागताः॥ २६॥
‘राजकुमारो! वानरराज सुग्रीव को आप-जैसे बुद्धिमान्, क्रोधविजयी और जितेन्द्रिय पुरुषों से मिलने की आवश्यकता थी। सौभाग्य की बात है कि आपने स्वयं ही दर्शन दे दिया॥२६॥
स हि राज्याश्च विभ्रष्टः कृतवैरश्च वालिना।
हृतदारो वने त्रस्तो भ्रात्रा विनिकृतो भृशम्॥ २७॥
‘वे भी राज्य से भ्रष्ट हैं। वाली के साथ उनकी शत्रुता हो गयी है। उनकी स्त्री का भी वाली ने ही अपहरण कर लिया है तथा उस दुष्ट भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया है, इसलिये वे अत्यन्त भयभीत होकर वन में निवास करते हैं ॥ २७॥
करिष्यति स साहाय्यं युवयोर्भास्करात्मजः।
सुग्रीवः सह चास्माभिः सीतायाः परिमार्गणे॥ २८॥
‘सूर्यनन्दन सुग्रीव सीता का पता लगाने में हमारे साथ स्वयं रहकर आप दोनों की पूर्ण सहायता करेंगे’ ॥ २८॥
इत्येवमुक्त्वा हनुमान् श्लक्ष्णं मधुरया गिरा।
बभाषे साधु गच्छामः सुग्रीवमिति राघवम्॥ २९॥
ऐसा कहकर हनुमान जी ने श्रीरघुनाथजी से स्निग्ध मधुर वाणी में कहा—’अच्छा, अब हमलोग सुग्रीव के पास चलें’॥ २९॥
एवं ब्रुवन्तं धर्मात्मा हनूमन्तं स लक्ष्मणः।
प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं प्रोवाच राघवम्॥३०॥
उस समय धर्मात्मा लक्ष्मण ने उपर्युक्त बात कहने वाले हनुमान जी का यथोचित सम्मान किया और श्रीरामचन्द्रजी से कहा- ॥ ३० ॥
कपिः कथयते हृष्टो यथायं मारुतात्मजः।
कृत्यवान् सोऽपि सम्प्राप्तः कृतकृत्योऽसि राघव॥
‘भैया रघुनन्दन! ये वानरश्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान् अत्यन्त हर्ष से भरकर जैसी बात कह रहे हैं, उससे जान पड़ता है कि सुग्रीव को भी आपसे कुछ काम है। ऐसी दशा में आप अपना कार्य सिद्ध हुआ ही समझें ॥ ३१॥
प्रसन्नमुखवर्णश्च व्यक्तं हृष्टश्च भाषते।
नानृतं वक्ष्यते वीरो हनूमान् मारुतात्मजः॥३२॥
‘इनके मुख की कान्ति स्पष्टतः प्रसन्न दिखायी देती । है और ये हर्ष से उत्फुल्ल होकर बातचीत करते हैं।अतः मेरा विश्वास है कि पवनपुत्र वीर हनुमान् जी झूठ नहीं बोलेंगे’ ॥ ३२ ॥
ततः स सुमहाप्राज्ञो हनूमान् मारुतात्मजः।
जगामादाय तौ वीरौ हरिराजाय राघवौ ॥३३॥
तदनन्तर परम बुद्धिमान् पवनपुत्र हनुमान जी उन दोनों रघुवंशी वीरों को साथ ले सुग्रीव से मिलने के लिये चले॥३३॥
भिक्षुरूपं परित्यज्य वानरं रूपमास्थितः।
पृष्ठमारोप्य तौ वीरौ जगाम कपिकुञ्जरः॥३४॥
कपिवर हनुमान् ने भिक्षुरूप को त्यागकर वानररूप धारण कर लिया। वे उन दोनों वीरों को पीठपर बिठाकर वहाँ से चल दिये।। ३४ ॥
स तु विपुलयशाः कपिप्रवीरः पवनसुतः कृतकृत्यवत् प्रहृष्टः।
गिरिवरमुरुविक्रमः प्रयातः स शुभमतिः सह रामलक्ष्मणाभ्याम्॥ ३५॥
महान् यशस्वी तथा शुभ विचारवाले महापराक्रमी वे कपिवीर पवनकुमार कृतकृत्य-से होकर अत्यन्त हर्ष में भर गये और श्रीराम-लक्ष्मण के साथ गिरिवर ऋष्यमूकपर जा पहुँचे॥ ३५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ।
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