वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 40 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 40
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 40)
श्रीराम की आज्ञा से सुग्रीव का सीताकी खोज के लिये पूर्व दिशा में वानरों को भेजना और वहाँ के स्थानों का वर्णन करना
अथ राजा समृद्धार्थः सुग्रीवः प्लवगेश्वरः।
उवाच नरशार्दूलं रामं परबलार्दनम्॥१॥
तदनन्तर बल-वैभव से सम्पन्न वानरराज राजा सुग्रीव शत्रुसेना का संहार करने वाले पुरुषसिंह श्रीराम से बोले- ॥१॥
आगता विनिविष्टाश्च बलिनः कामरूपिणः।
वानरेन्द्रा महेन्द्राभा ये मद्विषयवासिनः॥२॥
‘भगवन्! जो मेरे राज्य में निवास करते हैं, वे महेन्द्र के समान तेजस्वी, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और बलवान् वानर-यूथपति यहाँ आकर पड़ाव डाले बैठे हैं।
त इमे बहुविक्रान्तैर्बलिभिर्भीमविक्रमैः।
आगता वानरा घोरा दैत्यदानवसंनिभाः॥३॥
‘ये अपने साथ ऐसे बलवान् वानर योद्धाओं को ले आये हैं, जो बहुत-से युद्धस्थलों में अपना पराक्रम प्रकट कर चुके हैं और भयंकर पुरुषार्थ कर दिखाने वाले हैं। यहाँ ऐसे-ऐसे वानर उपस्थित हुए हैं, जो दैत्यों और दानवों के समान भयानक हैं॥३॥
ख्यातकर्मापदानाश्च बलवन्तो जितक्लमाः।
पराक्रमेषु विख्याता व्यवसायेषु चोत्तमाः॥४॥
‘अनेक युद्धों में इन वानर वीरों की शूरवीरता का परिचय मिल चुका है। ये बल के भण्डार हैं, युद्ध से थकते नहीं हैं इन्होंने थकावट को जीत लिया है। ये अपने पराक्रम के लिये प्रसिद्ध और उद्योग करने में श्रेष्ठ हैं॥
पृथिव्यम्बुचरा राम नानानगनिवासिनः।
कोट्योघाश्च इमे प्राप्ता वानरास्तव किंकराः॥
‘श्रीराम! यहाँ आये हुए ये वानरों के करोड़ों यूथ विभिन्न पर्वतों पर निवास करने वाले हैं। जल और थल-दोनों में समान रूप से चलने की शक्ति रखते हैं। ये सब-के-सब आपके किंकर (आज्ञापालक) हैं।
निदेशवर्तिनः सर्वे सर्वे गुरुहिते स्थिताः।
अभिप्रेतमनुष्ठातुं तव शक्ष्यन्त्यरिंदम॥६॥
‘शत्रुदमन! ये सभी आपकी आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। आप इनके गुरु–स्वामी हैं ये आपके हितसाधन में तत्पर रहकर आपके अभीष्ट मनोरथ को सिद्ध कर सकेंगे॥६॥
त इमे बहुसाहौरनीकैीमविक्रमैः।
आगता वानरा घोरा दैत्यदानवसंनिभाः॥७॥
‘दैत्यों और दानवों के समान घोर रूपधारी ये सभी वानर-यूथपति अपने साथ भयंकर पराक्रम करने वाली कई सहस्र सेनाएँ लेकर आये हैं॥७॥
यन्मन्यसे नरव्याघ्र प्राप्तकालं तदुच्यताम्।
त्वत्सैन्यं त्वद्रशे युक्तमाज्ञापयितुमर्हसि॥८॥
‘पुरुषसिंह! अब इस समय आप जो कर्तव्य उचित समझते हैं, उसे बताइये। आपकी यह सेना आपके वश में है। आप इसे यथोचित कार्य के लिये आज्ञा प्रदान करें॥ ८॥
काममेषामिदं कार्यं विदितं मम तत्त्वतः।
तथापि तु यथायुक्तमाज्ञापयितुमर्हसि॥९॥
‘यद्यपि सीताजी के अन्वेषण का यह कार्य इन सबको तथा मुझे भी अच्छी तरह ज्ञात है, तथापि आप जैसा उचित हो, वैसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दें’॥९॥
तथा ब्रुवाणं सुग्रीवं रामो दशरथात्मजः।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य इदं वचनमब्रवीत्॥१०॥
जब सुग्रीव ने ऐसी बात कही, तब दशरथनन्दन श्रीराम ने दोनों भुजाओं से पकड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा- ॥ १० ॥
ज्ञायतां सौम्य वैदेही यदि जीवति वा न वा।
स च देशो महाप्राज्ञ यस्मिन् वसति रावणः॥११॥
‘सौम्य! महाप्राज्ञ ! पहले यह तो पता लगाओ कि विदेहकुमारी सीता जीवित है या नहीं तथा वह देश, जिसमें रावण निवास करता है, कहाँ है ? ॥ ११॥
अधिगम्य तु वैदेहीं निलयं रावणस्य च।
प्राप्तकालं विधास्यामि तस्मिन् काले सह त्वया॥१२॥
‘जब सीता के जीवित होने का और रावण के निवासस्थान का निश्चित पता मिल जायगा, तब जो समयोचित कर्तव्य होगा, उसका मैं तुम्हारे साथ मिलकर निश्चय करूँगा॥ १२॥
नाहमस्मिन् प्रभुः कार्ये वानरेन्द्र न लक्ष्मणः।
त्वमस्य हेतुः कार्यस्य प्रभुश्च प्लवगेश्वर ॥१३॥
‘वानरराज! इस कार्य को सिद्ध करने में न तो मैं समर्थ हूँ और न लक्ष्मण ही। कपीश्वर! इस कार्य की सिद्धि तुम्हारे ही हाथ है। तुम्हीं इसे पूर्ण करने में समर्थ हो॥ १३॥
त्वमेवाज्ञापय विभो मम कार्यविनिश्चयम्।
त्वं हि जानासि मे कार्यं मम वीर न संशयः॥१४॥
‘प्रभो! मेरे कार्य का भलीभाँति निश्चय करके तुम्हीं वानरों को उचित आज्ञा दो। वीर! मेरा कार्य क्या है? इसे तुम्हीं ठीक-ठीक जानते हो, इसमें संशय नहीं है। १४॥
सुहृद्वितीयो विक्रान्तः प्राज्ञः कालविशेषवित्।
भवानस्मद्धिते युक्तः सुहृदाप्तोऽर्थवित्तमः॥१५॥
‘लक्ष्मण के बाद तुम्हीं मेरे दूसरे सुहृद् हो। तुम पराक्रमी, बुद्धिमान्, समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता, हित में संलग्न रहने वाले, हितैषी बन्धु, विश्वासपात्र तथा मेरे प्रयोजन को अच्छी तरह समझने वाले हो’।
१५॥
एवमुक्तस्तु सुग्रीवो विनतं नाम यूथपम्।
अब्रवीद् रामसांनिध्ये लक्ष्मणस्य च धीमतः॥
शैलाभं मेघनिर्घोषमूर्जितं प्लवगेश्वरम्।
सोमसूर्यनिभैः सार्धं वानरैर्वानरोत्तम॥१७॥
देशकालनयैर्युक्तो विज्ञः कार्यविनिश्चये।
वृतः शतसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम्॥१८॥
अधिगच्छ दिशं पूर्वां सशैलवनकाननाम्।
तत्र सीतां च वैदेहीं निलयं रावणस्य च॥१९॥
मार्गध्वं गिरिदुर्गेषु वनेषु च नदीषु च।
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर सुग्रीव ने उनके और बुद्धिमान् लक्ष्मण के समीप ही विनत नामक यूथपति से, जो पर्वत के समान विशालकाय, मेघ के समान गम्भीर गर्जना करने वाले, बलवान् तथा वानरों के शासक थे और चन्द्रमा एवं सूर्य के समान कान्तिवाले वानरों के साथ उपस्थित हुए थे, कहा —’वानरशिरोमणे! तुम देश और काल के अनुसार नीति का प्रयोग करने वाले तथा कार्य का निश्चय करने में चतुर हो। तुम एक लाख वेगवान् वानरों के साथ पर्वत, वन और काननों सहित पूर्व दिशा की ओर जाओ और वहाँ पहाड़ों के दुर्गम प्रदेशों, वनों तथा सरिताओं में विदेहकुमारी सीता एवं रावण के निवासस्थान की खोज करो॥ १६–१९ १/२॥
नदीं भागीरथीं रम्यां सरयूं कौशिकी तथा॥२०॥
कालिन्दी यमुनां रम्यां यामुनं च महागिरिम्।
सरस्वती च सिन्धुं च शोणं मणिनिभोदकम्॥२१॥
महीं कालमहीं चापि शैलकाननशोभिताम्।
‘भागीरथी गङ्गा, रमणीय सरयू, कौशिकी, सुरम्य कलिन्दनन्दिनी यमुना, महापर्वत यामुन, सरस्वती नदी, सिंधु, मणि के समान निर्मल जलवाले शोणभद्र, मही तथा पर्वतों और वनों से सुशोभित कालमही आदि नदियों के किनारे ढूँढ़ो ॥ २०-२१ १/२ ।।
ब्रह्ममालान् विदेहांश्च मालवान् काशिकोसलान्॥२२॥
मागधांश्च महाग्रामान् पुण्ड्रांस्त्वकांस्तथैव च।
ब्रह्ममाल, विदेह, मालव, काशी, कोसल, मगध देश के बड़े-बड़े ग्राम, पुण्ड्रदेश तथा अङ्ग आदि जनपदों में छानबीन करो॥ २२ १/२॥
भूमिं च कोशकाराणां भूमिं च रजताकराम्॥२३॥
सर्वं च तद् विचेतव्यं मार्गयद्भिस्ततस्ततः।
रामस्य दयितां भार्यां सीतां दशरथस्नुषाम्॥२४॥
‘रेशम के कीड़ों की उत्पत्ति के स्थानों और चाँदी के खानों में भी खोज करनी चाहिये। इधर-उधर ढूँढ़ते हुए तुम सब लोगों को इन सभी स्थानों में राजा दशरथ की पुत्रवधू तथा श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी पत्नी सीता का अन्वेषण करना चाहिये॥ २३-२४॥
समुद्रमवगाढांश्च पर्वतान् पत्तनानि च।
मन्दरस्य च ये कोटिं संश्रिताः केचिदालयाः॥२५॥
‘समुद्र के भीतर प्रविष्ट हुए पर्वतो पर, उसके अन्तर्वर्ती द्वीपों के विभिन्न नगरों में तथा मन्दराचल की चोटी पर जो कोई गाँव बसे हैं, उन सबमें सीता का अनुसंधान करो॥ २५ ॥
कर्णप्रावरणाश्चैव तथा चाप्योष्ठकर्णकाः।
घोरलोहमुखाश्चैव जवनाश्चैकपादकाः॥२६॥
अक्षया बलवन्तश्च तथैव पुरुषादकाः।
किरातास्तीक्ष्णचूडाश्च हेमाभाः प्रियदर्शनाः॥२७॥
आममीनाशनाश्चापि किराता दीपवासिनः।
अन्तर्जलचरा घोरा नरव्याघ्रा इति स्मृताः॥२८॥
एतेषामाश्रयाः सर्वे विचेयाः काननौकसः।
‘जो कर्णप्रावरण (वस्त्र की भाँति पैर तक लटके हुए कान वाले), ओष्ठकर्णक (ओठ तक फैले हुए कान वाले) तथा घोर लोहमुख (लोहे के समान काले एवं भयंकर मुख वाले) हैं, जो एक ही पैर के होते हुए भी वेगपूर्वक चलने वाले हैं, जिनकी संतानपरम्परा कभी क्षीण नहीं होती, वे पुरुष तथा जो बलवान् नरभक्षी राक्षस हैं, जो सूची के अग्रभाग की भाँति तीखी चोटी वाले, सुवर्ण के समान कान्तिमान्, प्रियदर्शन (सुन्दर), कच्ची मछली खाने वाले, द्वीपवासी तथा जल के भीतर विचरने वाले किरात हैं, जिनके नीचे का आकार मनुष्य-जैसा और ऊपर की आकृति व्याघ्र के समान है, ऐसे जो भयंकर प्राणी बताये गये हैं; वानरो! इन सब के निवासस्थानों में जाकर तुम्हें सीता तथा रावण की खोज करनी चाहिये॥ २६–२८ १/२ ॥
गिरिभिर्ये च गम्यन्ते प्लवनेन प्लवेन च॥२९॥
‘जिन द्वीपों में पर्वतों पर होकर जाना पड़ता है, जहाँ समुद्र को तैरकर या नाव आदि के द्वारा पहुँचा जाता है, उन सब स्थानों में सीता को ढूँढ़ना चाहिये॥ २९ ॥
यत्नवन्तो यवदीपं सप्तराजोपशोभितम्।
सुवर्णरूप्यकद्वीपं सुवर्णाकरमण्डितम्॥३०॥
‘इसके सिवा तुमलोग यत्नशील होकर सात राज्यों से सुशोभित यवद्वीप (जावा), सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) तथा रूप्यक द्वीप में भी जो सुवर्ण की खानों से सुशोभित हैं, ढूँढ़ने का प्रयत्न करो॥३०॥
यवद्वीपमतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वतः ।
दिवं स्पृशति शृङ्गेण देवदानवसेवितः॥३१॥
‘यवद्वीप को लाँघकर आगे जाने पर एक शिशिर नामक पर्वत मिलता है, जिसके ऊपर देवता और दानव निवास करते हैं। वह पर्वत अपने उच्च शिखर से स्वर्गलोक का स्पर्श करता-सा जान पड़ता है॥३१॥
एतेषां गिरिदुर्गेषु प्रपातेषु वनेषु च।
मार्गध्वं सहिताः सर्वे रामपत्नी यशस्विनीम्॥३२॥
‘इन सब द्वीपों के पर्वतों तथा शिशिर पर्वत के दुर्गम प्रदेशों में, झरनों के आस-पास और जंगलों में तुम सब लोग एक साथ होकर श्रीरामचन्द्रजी की यशस्विनी पत्नी सीता का अन्वेषण करो॥३२॥
ततो रक्तजलं प्राप्य शोणाख्यं शीघ्रवाहिनम्।
गत्वा पारं समुद्रस्य सिद्धचारणसेवितम्॥३३॥
तस्य तीर्थेषु रम्येषु विचित्रेषु वनेषु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥ ३४॥
‘तदनन्तर समुद्र के उस पार जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं, जाकर लाल जल से भरे हुए शीघ्र प्रवाहित होने वाले शोण नामक नद के तटपर पहुँच जाओगे। उसके तटवर्ती रमणीय तीर्थों और विचित्र वनों में जहाँ-तहाँ विदेहकुमारी सीता के साथ रावण की खोज करना॥ ३३-३४॥
पर्वतप्रभवा नद्यः सुभीमबहुनिष्कुटाः।
मार्गितव्या दरीमन्तः पर्वताश्च वनानि च ॥ ३५॥
‘पर्वतों से निकली हुई बहुत-सी ऐसी नदियाँ मिलेंगी, जिनके तटों पर बड़े भयंकर अनेकानेक उपवन प्राप्त होंगे। साथ ही वहाँ बहुत-सी गुफाओं वाले पर्वत उपलब्ध होंगे और अनेक वन भी दृष्टिगोचर होंगे। उन सब में सीता का पता लगाना चाहिये॥ ३५॥
ततः समुद्रदीपांश्च सुभीमान् द्रष्टुमर्हथ।
ऊर्मिमन्तं महारौद्रं क्रोशन्तमनिलोद्धतम्॥३६॥
‘तत्पश्चात् पूर्वोक्त देशों से परे जाकर तुम इक्षुरस से परिपूर्ण समुद्र तथा उसके द्वीपों को देखोगे, जो बड़े ही भयंकर प्रतीत होते हैं। इक्षुरस का वह समुद्र महाभयंकर है। उसमें हवा के वेग से उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं तथा वह गर्जना करता हुआ-सा जान पड़ता है॥३६॥
तत्रासुरा महाकायाश्छायां गृह्णन्ति नित्यशः।
ब्रह्मणा समनुज्ञाता दीर्घकालं बुभुक्षिताः॥ ३७॥
‘उस समुद्र में बहुत-से विशालकाय असुर निवास करते हैं। वे बहुत दिनों के भूखे होते हैं और छाया पकड़कर ही प्राणियों को अपने पास खींच लेते हैं। यही उनका नित्य का आहार है। इसके लिये उन्हें ब्रह्माजी से अनुमति मिल चुकी है॥ ३७॥
तं कालमेघप्रतिमं महोरगनिषेवितम्।
अभिगम्य महानादं तीर्थेनैव महोदधिम्॥३८॥
ततो रक्तजलं भीमं लोहितं नाम सागरम्।
गत्वा प्रेक्ष्यथ तां चैव बृहती कूटशाल्मलीम्॥३९॥
‘इक्षुरस का वह समुद्र काले मेघ के समान श्याम दिखायी देता है। बड़े-बड़े नाग उसके भीतर निवास करते हैं। उससे बड़ी भारी गर्जना होती रहती है। विशेष उपायों से उस महासागर के पार जाकर तुम लाल रंग के जल से भरे हुए लोहित नामक भयंकर समुद्र के तट पर पहुँच जाओगे और वहाँ शाल्मलीद्वीप के चिह्नभूत कूटशाल्मली नामक विशाल वृक्ष का दर्शन करोगे॥ ३८-३९॥
गृहं च वैनतेयस्य नानारत्नविभूषितम्।
तत्र कैलाससंकाशं विहितं विश्वकर्मणा॥४०॥
‘उसके पास ही विश्वकर्मा का बनाया हुआ विनतानन्दन गरुड़ का एक सुन्दर भवन है, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित तथा कैलास पर्वत के समान उज्ज्वल एवं विशाल है॥ ४०॥
तत्र शैलनिभा भीमा मन्देहा नाम राक्षसाः।
शैलशृङ्गेषु लम्बन्ते नानारूपा भयावहाः॥४१॥
‘उस द्वीप में पर्वत के समान शरीर वाले भयंकर मंदेह नामक राक्षस निवास करते हैं, जो सुरासमुद्र के मध्यवर्ती शैल-शिखरों पर लटकते रहते हैं। वे अनेक प्रकार के रूप धारण करने वाले तथा भयदायक हैं। ४१॥
ते पतन्ति जले नित्यं सूर्यस्योदयनं प्रति।
अभितप्ताः स्म सूर्येण लम्बन्ते स्म पुनः पुनः॥४२॥
निहता ब्रह्मतेजोभिरहन्यहनि राक्षसाः।
‘प्रतिदिन सूर्योदय के समय वे राक्षस ऊर्ध्वमुख होकर सूर्य से जूझने लगते हैं, परंतु सूर्यमण्डल के तापसे संतप्त तथा ब्रह्मतेज से निहत हो सुरा-समुद्र के जल में गिर पड़ते हैं। वहाँ से फिर जीवित हो उन्हीं शैल-शिखरों पर लटक जाते हैं। उनका बारंबार ऐसा ही क्रम चला करता है॥ ४२ १/२॥
ततः पाण्डुरमेघाभं क्षीरोदं नाम सागरम्॥४३॥
‘शाल्मलिद्वीप एवं सुरा-समुद्र से आगे बढ़ने पर (क्रमशः घृत और दधि के समुद्र प्राप्त होंगे। वहाँ सीता की खोज करने के पश्चात् जब आगे बढ़ोगे, तब) सफेद बादलों की-सी आभावाले क्षीरसमुद्र का दर्शन करोगे॥४३॥
गत्वा द्रक्ष्यथ दुर्धर्षा मुक्ताहारमिवोर्मिभिः।
तस्य मध्ये महान् श्वेतो ऋषभो नाम पर्वतः॥४४॥
‘दुर्धर्ष वानरो! वहाँ पहुँचकर उठती हुई लहरों से युक्त क्षीरसागर को इस प्रकार देखोगे, मानो उसने मोतियों के हार पहन रखे हों। उस सागर के बीच में ऋषभ नाम से प्रसिद्ध एक बहुत ऊँचा पर्वत है, जो श्वेत वर्णका है॥
दिव्यगन्धैः कुसुमितैराचितैश्च नगैर्वृतः।
सरश्च राजतैः पद्मवलितैर्हेमकेसरैः॥४५॥
नाम्ना सुदर्शनं नाम राजहंसैः समाकुलम्।
‘उस पर्वत पर सब ओर बहुत-से वृक्ष भरे हुए हैं,जो फूलों से सुशोभित तथा दिव्य गन्ध से सुवासित हैं। उसके ऊपर सुदर्शन नामका एक सरोवर है, जिसमें चाँदी के समान श्वेत रंगवाले कमल खिले हुए हैं। उन कमलों के केसर सुवर्णमय होते हैं और सदा दिव्य दीप्ति से दमकते रहते हैं। वह सरोवर राजहंसों से भरा रहता है॥ ४५ १/२॥
विबुधाश्चारणा यक्षाः किंनराश्चाप्सरोगणाः॥ ४६॥
हृष्टाः समधिगच्छन्ति नलिनीं तां रिरंसवः।
‘देवता, चारण, यक्ष, किन्नर और अप्सराएँ बड़ी प्रसन्नता के साथ जल-विहार करने के लिये वहाँ आया करती हैं। ४६ १/२॥
क्षीरोदं समतिक्रम्य तदा द्रक्ष्यथ वानराः॥४७॥
जलोदं सागरं शीघ्रं सर्वभूतभयावहम्।
तत्र तत्कोपजं तेजः कृतं हयमुखं महत्॥४८॥
‘वानरो! क्षीरसागर लाँघकर जब तुमलोग आगे बढ़ोगे, तब शीघ्र ही सुस्वादु जल से भरे हुए समुद्र को देखोगे। वह महासागर समस्त प्राणियों को भय देने वाला है। उसमें ब्रह्मर्षि और्व के कोप से प्रकट हुआ वडवामुख नामक महान् तेज विद्यमान है॥ ४७-४८॥
अस्याहुस्तन्महावेगमोदनं सचराचरम्।
तत्र विक्रोशतां नादो भूतानां सागरौकसाम्।
श्रूयते चासमर्थानां दृष्ट्वाभूद् वडवामुखम्॥४९॥
‘उस समुद्र में जो चराचर प्राणियों सहित महान् वेगशाली जल है, वही उस वडवामुख नामक अग्नि का आहार बताया जाता है। वहाँ जो वडवानल प्रकट हुआ है, उसे देखकर उसमें पतन के भय से चीखते-चिल्लाते हुए समुद्रनिवासी असमर्थ प्राणियों का आर्तनाद निरन्तर सुनायी देता है॥ ४९॥
स्वादूदस्योत्तरे तीरे योजनानि त्रयोदश।
जातरूपशिलो नाम सुमहान् कनकप्रभः॥५०॥
‘स्वादिष्ट जल से भरे हुए उस समुद्र के उत्तर तेरह योजन की दूरी पर सुवर्णमयी शिलाओं से सुशोभित, कनक की कमनीय कान्ति धारण करने वाला एक बहुत ऊँचा पर्वत है॥५०॥
तत्र चन्द्रप्रतीकाशं पन्नगं धरणीधरम्।
पद्मपत्रविशालाक्षं ततो द्रक्ष्यथ वानराः॥५१॥
आसीनं पर्वतस्याग्रे सर्वदेवनमस्कृतम्।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम्॥५२॥
‘वानरो! उसके शिखर पर इस पृथ्वी को धारण करने वाले भगवान् अनन्त बैठे दिखायी देंगे। उनका श्रीविग्रह चन्द्रमा के समान गौरवर्ण का है। वे सर्प जाति के हैं; परंतु उनका स्वरूप देवताओं के तुल्य है। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान हैं और शरीर नील वस्त्र से आच्छादित है। उन अनन्तदेव के सहस्र मस्तक हैं।
त्रिशिराः काञ्चनः केतुस्तालस्तस्य महात्मनः।
स्थापितः पर्वतस्याग्रे विराजति सवेदिकः॥५३॥
‘पर्वत के ऊपर उन महात्मा की ताड़ के चिह्न से युक्त सुवर्णमयी ध्वजा फहराती रहती है। उस ध्वजा की तीन शिखाएँ हैं और उसके नीचे आधारभूमि पर वेदी बनी हुई है। इस तरह उस ध्वज की बड़ी शोभा होती है॥ ५३॥
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत् त्रिदशेश्वरैः।
ततः परं हेममयः श्रीमानुदयपर्वतः॥५४॥
‘यही तालध्वज पूर्व दिशा की सीमा के सूचकचिल के रूप में देवताओं द्वारा स्थापित किया गया है। उसके बाद सुवर्णमय उदयपर्वत है, जो दिव्य शोभा से सम्पन्न है॥५४॥
तस्य कोटिर्दिवं स्पृष्ट्वा शतयोजनमायता।
जातरूपमयी दिव्या विराजति सवेदिका॥५५॥
‘उसका गगनचुम्बी शिखर सौ योजन लंबा है। उसका आधारभूत पर्वत भी वैसा ही है। उसके साथ वह दिव्य सुवर्णशिखर अद्भुत शोभा पाता है॥ ५५ ॥
सालैस्तालैस्तमालैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः।
जातरूपमयैर्दिव्यैः शोभते सूर्यसंनिभैः॥५६॥
‘वहाँ के साल, ताल, तमाल और फूलों से लदे कनेर आदि वृक्ष भी सुवर्णमय ही हैं। उन सूर्यतुल्य तेजस्वी दिव्य वृक्षों से उदयगिरि की बड़ी शोभा होती है॥५६॥
तत्र योजनविस्तारमुच्छ्रितं दशयोजनम्।
शृङ्गं सौमनसं नाम जातरूपमयं ध्रुवम्॥५७॥
‘उस सौ योजन लंबे उदयगिरि के शिखर पर एक सौमनस नामक सुवर्णमय शिखर है, जिसकी चौड़ाई एक योजन और ऊँचाई दस योजन है॥ ५७॥
तत्र पूर्वं पदं कृत्वा पुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे।
द्वितीयं शिखरे मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥
‘पूर्वकाल में वामन अवतार के समय पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु ने अपना पहला पैर उस सौमनस नामक शिखर पर रखकर दूसरा पैर मेरु पर्वत के शिखर पर रखा था॥ ५८॥
उत्तरेण परिक्रम्य जम्बूदीपं दिवाकरः।
दृश्यो भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रयम्॥५९॥
‘सूर्यदेव उत्तर से घूमकर जम्बूद्वीप की परिक्रमा करते हुए जब अत्यन्त ऊँचे ‘सौमनस’ नामक शिखर पर आकर स्थित होते हैं, तब जम्बूद्वीपनिवासियों को उनका अधिक स्पष्टता के साथ दर्शन होता है॥ ५९॥
तत्र वैखानसा नाम वालखिल्या महर्षयः।
प्रकाशमाना दृश्यन्ते सूर्यवर्णास्तपस्विनः॥६०॥
‘उस सौमनस नामक शिखर पर वैखानस महात्मा महर्षि बालखिल्यगण प्रकाशित होते देखे जाते हैं, जो सूर्य के समान कान्तिमान् और तपस्वी हैं॥६०॥
अयं सुदर्शनो द्वीपः पुरो यस्य प्रकाशते।
तस्मिंस्तेजश्च चक्षुश्च सर्वप्राणभृतामपि॥६१॥
‘यह उदयगिरि के सौमनस शिखर के सामने का द्वीप सुदर्शन नाम से प्रसिद्ध है; क्योंकि उक्त शिखर पर जब भगवान् सूर्य उदित होते हैं, तभी इस द्वीप के समस्त प्राणियों का तेज से सम्बन्ध होता है और सबके नेत्रों को प्रकाश प्राप्त होता है (यही इस द्वीप के ‘सुदर्शन’ नाम होने का कारण है) ॥ ६१॥
शैलस्य तस्य पृष्ठेषु कन्दरेषु वनेषु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥६२॥
‘उदयाचल के पृष्ठभागों में, कन्दराओं में तथा वनों में भी तुम्हें जहाँ-तहाँ विदेहकुमारी सीतासहित रावण का पता लगाना चाहिये॥ ६२॥
काञ्चनस्य च शैलस्य सूर्यस्य च महात्मनः।
आविष्टा तेजसा संध्या पूर्वा रक्ता प्रकाशते॥६३॥
‘उस सुवर्णमय उदयाचल तथा महात्मा सूर्यदेव के तेज से व्याप्त हुई उदयकालिक पूर्व संध्या रक्तवर्ण की प्रभा से प्रकाशित होती है॥ ६३॥
पूर्वमेतत् कृतं द्वारं पृथिव्या भुवनस्य च।
सूर्यस्योदयनं चैव पूर्वा ह्येषा दिगुच्यते॥६४॥
‘सूर्य के उदय का यह स्थान सबसे पहले ब्रह्माजी ने बनाया है; अतः यही पृथ्वी एवं ब्रह्मलोक का द्वार है (ऊपर के लोकों में रहने वाले प्राणी इसी द्वार से भूलोक में प्रवेश करते हैं तथा भूलोक के प्राणी इसी द्वार से ब्रह्मलोक में जाते हैं)। पहले इसी दिशा में इस द्वार का निर्माण हुआ, इसलिये इसे पूर्व दिशा कहते हैं॥ ६४॥
तस्य शैलस्य पृष्ठेषु निर्झरेषु गुहासु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥६५॥
उदयाचल की घाटियों, झरनों और गुफाओं में यत्रतत्र घूमकर तुम्हें विदेहकुमारी सीतासहित रावण का अन्वेषण करना चाहिये॥६५॥
ततः परमगम्या स्याद् दिक्पूर्वा त्रिदशावृता।
रहिता चन्द्रसूर्याभ्यामदृश्या तमसावृता॥६६॥
‘इससे आगे पूर्व दिशा अगम्य है उधर देवता रहते हैं। उस ओर चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश न होने से वहाँ की भूमि अन्धकार से आच्छन्न एवं अदृश्य है॥६६॥
शैलेषु तेषु सर्वेषु कन्दरेषु नदीषु च।
ये च नोक्ता मयोद्देशा विचेया तेषु जानकी॥६७॥
‘उदयाचल के आस-पास के जो समस्त पर्वत, कन्दराएँ तथा नदियाँ हैं, उनमें तथा जिन स्थानों का मैंने निर्देश नहीं किया है, उनमें भी तुम्हें जानकी की खोज करनी चाहिये॥६७॥
एतावद् वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुङ्गवाः।
अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम्॥ ६८॥
‘वानरशिरोमणियो! केवल उदयगिरि तक ही वानरों की पहुँच हो सकती है। इससे आगे न तो सूर्य का प्रकाश है और न देश आदि की कोई सीमा ही है। अतः आगे की भूमि के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है॥ ६८॥
अभिगम्य तु वैदेहीं निलयं रावणस्य च।
मासे पूर्णे निवर्तध्वमुदयं प्राप्य पर्वतम्॥६९॥
‘तुम लोग उदयाचल तक जाकर सीता और रावण के स्थान का पता लगाना और एक मास पूरा होते होते तक लौट आना॥ ६९॥
ऊर्ध्वं मासान्न वस्तव्यं वसन् वध्यो भवेन्मम।
सिद्धार्थाः संनिवर्तध्वमधिगम्य च मैथिलीम्॥७०॥
‘एक महीने से अधिक न ठहरना। जो अधिक कालतक वहाँ रह जायगा, वह मेरे द्वारा मारा जायगा। मिथिलेशकुमारी का पता लगाकर अन्वेषण का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर अवश्य लौट आना॥ ७० ॥
महेन्द्रकान्तां वनषण्डमण्डितां दिशं चरित्वा निपुणेन वानराः।
अवाप्य सीतां रघुवंशजप्रियां ततो निवृत्ताः सुखिनो भविष्यथ॥७१॥
वानरो! वनसमूह से अलंकृत पूर्व दिशा में अच्छी तरह भ्रमण करके श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी पत्नी सीता का समाचार जानकर तुम वहाँ से लौट आओ इससे तुम सुखी हो ओगे’॥ ७१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४०॥