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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 41 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 41

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 41)

सुग्रीव का दक्षिण दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए वहाँ प्रमुख वानर वीरों को भेजना

 

ततः प्रस्थाप्य सुग्रीवस्तन्महद्वानरं बलम्।
दक्षिणां प्रेषयामास वानरानभिलक्षितान्॥१॥

इस प्रकार वानरों की बहुत बड़ी सेना को पूर्व दिशा में प्रस्थापित करके सुग्रीव ने दक्षिण दिशाकी ओर चुने हुए वानरों को, जो भलीभाँति परख लिये गये थे, भेजा॥१॥

नीलमग्निसुतं चैव हनूमन्तं च वानरम्।
पितामहसुतं चैव जाम्बवन्तं महौजसम्॥२॥
सुहोत्रं च शरारिं च शरगुल्मं तथैव च।
गजं गवाक्षं गवयं सुषेणं वृषभं तथा॥३॥
मैन्दं च द्विविदं चैव सुषेणं गन्धमादनम्।
उल्कामुखमनङ्गं च हुताशनसुतावुभौ॥४॥
अङ्गदप्रमुखान् वीरान् वीरः कपिगणेश्वरः।
वेगविक्रमसम्पन्नान् संदिदेश विशेषवित्॥५॥

अग्निपुत्र नील, कपिवर हनुमान् जी , ब्रह्माजी के महाबली पुत्र जाम्बवान्, सुहोत्र, शरारि, शरगुल्म, गज, गवाक्ष, गवय, सुषेण* (प्रथम), वृषभ, मैन्द, द्विविद, सुषेण (द्वितीय), गन्धमादन, हुताशन के दो पुत्र उल्कामुख और अनङ्ग (असङ्ग) तथा अङ्गद आदि प्रधान-प्रधान वीरों को, जो महान् वेग और पराक्रम से सम्पन्न थे, विशेषज्ञ वानरराज सुग्रीव ने दक्षिण की ओर जाने की आज्ञा दी॥ २–५॥
* सुषेण दो थे—एक तारा के पिता और दूसरा उनसे भिन्न वानरयूथपति था।

तेषामग्रेसरं चैव बृहबलमथाङ्गदम्।
विधाय हरिवीराणामादिशद दक्षिणां दिशम्॥

महान् बलशाली अङ्गद को उन समस्त वानर वीरों का अगुआ बनाकर उन्हें दक्षिण दिशा में सीता की खोज का भार सौंपा॥६॥

ये केचन समद्देशास्तस्यां दिशि सदर्गमाः।
कपीशः कपिमुख्यानां स तेषां समुदाहरत्॥७॥

उस दिशा में जो कोई भी स्थान अत्यन्त दुर्गम थे, उनका भी कपिराज सुग्रीव ने उन श्रेष्ठ वानरों को परिचय दिया* ॥ ७॥
* यहाँ दक्षिण दिशा का विभाग किष्किन्धा से न करके आर्यावर्त से किया गया है। पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र और हिमालय से विन्ध्य के भाग को आर्यावर्त कहते हैं। सुग्रीव ने दक्षिण दिशा के जिन स्थानों का परिचय दिया है, उनकी सङ्गति आर्यावर्त से ही दिशा का विभाजन करने पर लगती है।

सहस्रशिरसं विन्ध्यं नानाद्रुमलतायुतम्।
नर्मदां च नदी रम्यां महोरगनिषेविताम्॥८॥
ततो गोदावरी रम्यां कृष्णवेणीं महानदीम्।
वरदां च महाभागां महोरगनिषेविताम्।
मेखलानुत्कलांश्चैव दशार्णनगराण्यपि॥९॥
आब्रवन्तीमवन्तीं च सर्वमेवानुपश्यत।

वे बोले—’वानरो! तुमलोग भाँति-भाँति के वृक्षों और लताओं से सुशोभित सहस्रों शिखरों वाले विन्ध्यपर्वत, बड़े-बड़े नागों से सेवित रमणीय नर्मदा नदी, सुरम्य गोदावरी, महानदी, कृष्णवेणी तथा बड़े
बड़े नागों से सेवित महाभागा वरदा आदि नदियों के तटों पर और मेखल (मेकल), उत्कल एवं दशार्ण देश के नगरों में तथा आब्रवन्ती और अवन्तीपुरी में भी सब जगह सीता की खोज करो॥ ८-९ १/२ ॥

विदर्भानृष्टिकांश्चैव रम्यान् माहिषकानपि॥१०॥
तथा वङ्गान् कलिङ्गांश्च कौशिकांश्च समन्ततः।
अन्वीक्ष्य दण्डकारण्यं सपर्वतनदीगुहम्॥११॥
नदी गोदावरीं चैव सर्वमेवानुपश्यत।
तथैवान्ध्रांश्च पुण्ड्रांश्च चोलान् पाण्ड्यांश्च केरलान्॥१२॥

‘इसी प्रकार विदर्भ, ऋष्टिक, रम्य माहिषक देश, वङ्ग *, कलिङ्ग तथा कौशिक आदि देशों में सब ओर देखभाल करके पर्वत, नदी और गुफाओंसहित समूचे दण्डकारण्य में छानबीन करना। वहाँ जो गोदावरी नदी है, उसमें सब ओर बारंबार देखना। इसी प्रकार आन्ध्र, पुण्ड्र, चोल, पाण्ड्य तथा केरल आदि देशों में भी ढूँढना॥
* अन्य पाठ के अनुसार यहाँ मत्स्य देश समझना चाहिये।

अयोमुखश्च गन्तव्यः पर्वतो धातुमण्डितः।
विचित्रशिखरः श्रीमांश्चित्रपुष्पितकाननः॥१३॥
सुचन्दनवनोद्देशो मार्गितव्यो महागिरिः।

‘तदनन्तर अनेक धातुओं से अलंकृत अयोमुख* (मलय) पर्वत पर भी जाना, उसके शिखर बड़े विचित्र हैं। वह शोभाशाली पर्वत फूले हुए विचित्र काननों से युक्त है। उसके सभी स्थानों में सुन्दर चन्दन के वन हैं। उस महापर्वत मलय पर सीता की अच्छी तरह खोज करना।
* रामायण तिलक के लेखक अयोमुख को मलय-पर्वत का नामान्तर मानते हैं। गोविन्दराज इसे सह्यपर्वत का पर्याय समझते हैं तथा रामायणशिरोमणिकार अयोमुख को इन दोनों से भिन्न स्वतन्त्र पर्वत मानते हैं। यहाँ तिलककार के मत का अनुसरण किया गया है।

ततस्तामापगां दिव्यां प्रसन्नसलिलाशयाम्॥१४॥
तत्र द्रक्ष्यथ कावेरी विहृतामप्सरोगणैः।

‘तत्पश्चात् स्वच्छ जलवाली दिव्य नदी कावेरी को देखना, जहाँ अप्सराएँ विहार करती हैं॥ १४ १/२ ॥

तस्यासीनं नगस्याग्रे मलयस्य महौजसम्॥१५॥
द्रक्ष्यथादित्यसंकाशमगस्त्यमृषिसत्तमम् ।।

‘उस प्रसिद्ध मलयपर्वत के शिखर पर बैठे हुए सूर्य के समान महान् तेज से सम्पन्न मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य का* दर्शन करना ॥ १५ ॥
* यद्यपि पहले पञ्चवटी से उत्तर भाग में अगस्त्य के आश्रम का वर्णन आया है तथापि यहाँ मलयपर्वत पर भी उनका आश्रम था, ऐसा मानना चाहिये। जैसे वाल्मीकि मुनि का आश्रम अनेक स्थानों में था, उसी तरह इनका भी था अथवा ये उसी नाम के कोई दूसरे ऋषि थे।

ततस्तेनाभ्यनुज्ञाताः प्रसन्नेन महात्मना॥१६॥
ताम्रपर्णी ग्राहजुष्टां तरिष्यथ महानदीम्।

‘इसके बाद उन प्रसन्नचित्त महात्मा से आज्ञा लेकर ग्राहों से सेवित महानदी ताम्रपर्णी को पार करना॥ १६ १/२॥

सा चन्दनवनैश्चित्रैः प्रच्छन्नदीपवारिणी॥१७॥
कान्तेव युवती कान्तं समुद्रमवगाहते।

‘उसके द्वीप और जल विचित्र चन्दनवनों से आच्छादित हैं; अतः वह सुन्दर साड़ी से विभूषित युवती प्रेयसी की भाँति अपने प्रियतम समुद्र से मिलती है॥ १७ १/२॥

ततो हेममयं दिव्यं मुक्तामणिविभूषितम्॥१८॥
युक्तं कवाटं पाण्ड्यानां गता द्रक्ष्यथ वानराः।

‘वानरो! वहाँ से आगे बढ़ने पर तुमलोग पाण्ड्यवंशी राजाओं के नगर द्वार पर* लगे हुए सुवर्णमय कपाट का दर्शन करोगे, जो मुक्तामणियों से विभूषित एवं दिव्य है॥
* आधुनिक तंजौर ही प्राचीन पाण्ड्यवंशी नरेशों का नगर है। इस नगर में भी छानबीन करने के लिये सुग्रीव वानरों को आदेश दे रहे हैं।

ततः समुद्रमासाद्य सम्प्रधार्यार्थनिश्चयम्॥१९॥
अगस्त्येनान्तरे तत्र सागरे विनिवेशितः।
चित्रसानुनगः श्रीमान् महेन्द्रः पर्वतोत्तमः॥२०॥
जातरूपमयः श्रीमानवगाढो महार्णवम्।

‘तत्पश्चात् समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना। महर्षि अगस्त्य ने समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया है, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा से सम्पन्न हैं। वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।

नानाविधैर्नगैः फुल्लैलताभिश्चोपशोभितम्॥२१॥
देवर्षियक्षप्रवरैरप्सरोभिश्च शोभितम्।
सिद्धचारणसङ्घश्च प्रकीर्णं सुमनोरमम्॥२२॥
तमुपैति सहस्राक्षः सदा पर्वसु पर्वसु।

‘नाना प्रकार के खिले हुए वृक्ष और लताएँ उस पर्वत की शोभा बढ़ाती हैं। देवता, ऋषि, श्रेष्ठ यक्ष और अप्सराओं की उपस्थिति से उसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। सिद्धों और चारणों के समुदाय वहाँ सब ओर फैले रहते हैं। इन सबके कारण महेन्द्रपर्वत अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है। सहस्र नेत्रधारी इन्द्रप्रत्येक पर्व के दिन उस पर्वत पर पदार्पण करते हैं। २१-२२ १/२॥

द्वीपस्तस्यापरे पारे शतयोजनविस्तृतः॥२३॥
अगम्यो मानुषैदीप्तस्तं मार्गध्वं समन्ततः।
तत्र सर्वात्मना सीता मार्गितव्या विशेषतः॥ २४॥

‘उस समुद्र के उस पार एक द्वीप है, जिसका विस्तार सौ योजन है। वहाँ मनुष्यों की पहुँच नहीं है। वह जो दीप्तिशाली द्वीप है, उसमें चारों ओर पूरा प्रयत्न करके तुम्हें सीता की विशेष रूप से खोज करनी चाहिये।

स हि देशस्तु वध्यस्य रावणस्य दुरात्मनः।
राक्षसाधिपतेर्वासः सहस्राक्षसमद्युतेः॥ २५॥

‘वही देश इन्द्र के समान तेजस्वी दुरात्मा राक्षसराज रावण का, जो हमारा वध्य है, निवास स्थान है॥ २५ ॥

दक्षिणस्य समुद्रस्य मध्ये तस्य तु राक्षसी।
अङ्गारकेति विख्याता छायामाक्षिप्य भोजिनी॥२६॥

‘उस दक्षिण समुद्र के बीच में अङ्गार का नाम से प्रसिद्ध एक राक्षसी रहती है, जो छाया पकड़कर ही प्राणियों को खींच लेती और उन्हें खा जाती है॥२६॥

एवं निःसंशयान् कृत्वा संशयान्नष्टसंशयाः।
मृगयध्वं नरेन्द्रस्य पत्नीममिततेजसः॥२७॥

‘उस लङ्का द्वीप में जो संदिग्ध स्थान हैं, उन सबमें इस तरह खोज करके जब तुम उन्हें संदेहरहित समझ लो और तुम्हारे मन का संशय निकल जाय, तब तुम लङ्का द्वीप को भी लाँघकर आगे बढ़ जाना और अमिततेजस्वी महाराज श्रीराम की पत्नी का अन्वेषण करना॥ २७॥

तमतिक्रम्य लक्ष्मीवान् समुद्रे शतयोजने।
गिरिः पुष्पितको नाम सिद्धचारणसेवितः॥२८॥

‘लङ्का को लाँघकर आगे बढ़ने पर सौ योजन विस्तृत समुद्र में एक पुष्पितक नाम का पर्वत है, जो परम शोभा से सम्पन्न तथा सिद्धों और चारणों से सेवित है।

चन्द्रसूर्यांशुसंकाशः सागराम्बुसमाश्रयः।
भ्राजते विपुलैः शृङ्गरम्बरं विलिखन्निव॥२९॥

‘वह चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशमान है तथा समुद्र के जल में गहराई तक घुसा हुआ है। वह अपने विस्तृत शिखरों से आकाश में रेखा खींचता हुआ-सा सुशोभित होता है॥२९॥

तस्यैकं काञ्चनं शृङ्ग सेवते यं दिवाकरः।
श्वेतं राजतमेकं च सेवते यन्निशाकरः।
न तं कृतघ्नाः पश्यन्ति न नृशंसा न नास्तिकाः॥३०॥

“उस पर्वत का एक सुवर्णमय शिखर है, जिसका प्रतिदिन सूर्यदेव सेवन करते हैं। उसी प्रकार इसका एक रजतमय श्वेत-शिखर है, जिसका चन्द्रमा सेवन करते हैं। कृतघ्न, नृशंस और नास्तिक पुरुष उस पर्वत-शिखर को नहीं देख पाते हैं॥ ३० ॥

प्रणम्य शिरसा शैलं तं विमार्गथ वानराः।
तमतिक्रम्य दुर्धर्षं सूर्यवान्नाम पर्वतः॥३१॥

‘वानरो! तुमलोग मस्तक झुकाकर उस पर्वत को प्रणाम करना और वहाँ सब ओर सीता को ढूँढ़ना उस दुर्धर्ष पर्वत को लाँघकर आगे बढ़ने पर सूर्यवान् नामक पर्वत मिलेगा॥

अध्वना दुर्विगाहेन योजनानि चतुर्दश।
ततस्तमप्यतिक्रम्य वैद्युतो नाम पर्वतः॥ ३२॥

‘वहाँ जाने का मार्ग बड़ा दुर्गम है और वह पुष्पितक से चौदह योजन दूर है। सूर्यवान् को लाँघकर जब तुमलोग आगे जाओगे, तब तुम्हें ‘वैद्युत’ नामक पर्वत मिलेगा।

सर्वकामफलैर्वृक्षैः सर्वकालमनोहरैः।
तत्र भुक्त्वा वराहा॑णि मूलानि च फलानि च॥३३॥
मधूनि पीत्वा जुष्टानि परं गच्छत वानराः।

‘वहाँ के वृक्ष सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों से युक्त और सभी ऋतुओं में मनोहर शोभा से सम्पन्न हैं।वानरो! उनसे सुशोभित वैद्युत पर्वत पर उत्तम फलमूल खाकर और सेवन करने योग्य मधु पीकर तुमलोग आगे जाना॥

तत्र नेत्रमनःकान्तः कुञ्जरो नाम पर्वतः॥३४॥
अगस्त्यभवनं यत्र निर्मितं विश्वकर्मणा।।

‘फिर कुञ्जर नामक पर्वत दिखायी देगा, जो नेत्रों और मन को भी अत्यन्त प्रिय लगने वाला है। उसके ऊपर विश्वकर्मा का बनाया हुआ महर्षि अगस्त्य का* एक सुन्दर भवन है॥ ३४ १/२ ॥
* यह महर्षि अगस्त्य का तीसरा स्थान है।

तत्र योजनविस्तारमुच्छ्रितं दशयोजनम्॥ ३५॥
शरणं काञ्चनं दिव्यं नानारत्नविभूषितम्।

‘कुञ्जर पर्वत पर बना हुआ अगस्त्य का वह दिव्य भवन सुवर्णमय तथा नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित है। उसका विस्तार एक योजन का और ऊँचाई दस योजन की है॥ ३५ १/२॥

तत्र भोगवती नाम सर्पाणामालयः पुरी॥ ३६॥
विशालरथ्या दुर्धर्षा सर्वतः परिरक्षिता।।
रक्षिता पन्नगै?रैस्तीक्ष्णदंष्ट्रमहाविषैः॥ ३७॥

‘उसी पर्वत पर सो की निवासभूता एक नगरी है, जिसका नाम भोगवती है (यह पाताल की भोगवती पुरी से भिन्न है)। यह पुरी दुर्जय है। उसकी सड़कें बहुत बड़ी और विस्तृत हैं। वह सब ओर से सुरक्षित है। तीखी दाढ़ वाले महाविषैले भयंकर सर्प उसकी रक्षा करते हैं। ३६-३७॥

सर्पराजो महाघोरो यस्यां वसति वासुकिः।
निर्याय मार्गितव्या च सा च भोगवती पुरी॥३८॥

‘उस भोगवती पुरी में महाभयंकर सर्पराज वासुकि निवास करते हैं (ये योगशक्ति से अनेक रूप धारण करके दोनों भोगवती पुरियों में एक साथ रह सकते हैं)। तुम्हें विशेष रूप से उस भोगवती पुरी में प्रवेश करके वहाँ सीता की खोज करनी चाहिये॥ ३८॥

तत्र चानन्तरोद्देशा ये केचन समावृताः।
तं च देशमतिक्रम्य महानृषभसंस्थितिः॥३९॥

‘उस पुरी में जो गुप्त एवं व्यवधानरहित स्थान हों, उन सब में सीता का अन्वेषण करना चाहिये। उस प्रदेश को लाँघकर आगे बढ़ने पर तुम्हें ऋषभ नामक महान् पर्वत मिलेगा।। ३९॥

सर्वरत्नमयः श्रीमानृषभो नाम पर्वतः।
गोशीर्षकं पद्मकं च हरिश्यामं च चन्दनम्॥४०॥
दिव्यमुत्पद्यते यत्र तच्चैवाग्निसमप्रभम्।
न तु तच्चन्दनं दृष्ट्वा स्प्रष्टव्यं तु कदाचन॥४१॥

‘वह शोभाशाली ऋषभ पर्वत सम्पूर्ण रत्नों से भरा हुआ है। वहाँ गोशीर्षक, पद्मक, हरिश्याम आदि नामों वाला दिव्य चन्दन उत्पन्न होता है। वह चन्दनवृक्ष अग्नि के समान प्रज्वलित होता रहता है। उस चन्दन को देखकर कदापि तुम्हें उसका स्पर्श नहीं करना चाहिये॥

रोहिता नाम गन्धर्वा घोरं रक्षन्ति तदनम्।
तत्र गन्धर्वपतयः पञ्च सूर्यसमप्रभाः॥४२॥

‘क्योंकि ‘रोहित’ नाम वाले गन्धर्व उस घोर वन की रक्षा करते हैं। वहाँ सूर्य के समान कान्तिमान् पाँच गन्धर्वराज रहते हैं॥ ४२॥

शैलूषो ग्रामणीः शिक्षः शुको बभ्रुस्तथैव च।
रविसोमाग्निवपुषां निवासः पुण्यकर्मणाम्॥४३॥
अन्ते पृथिव्या दुर्धर्षास्ततः स्वर्गजितः स्थिताः ।

‘उनके नाम ये हैं—शैलूष, ग्रामणी, शिक्ष (शिग्रु), शुक और बभ्रु। उस ऋषभ से आगे पृथिवी की अन्तिम सीमा पर सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के तुल्य तेजस्वी पुण्यकर्मा पुरुषों का निवास स्थान है। अतः वहाँ दुर्धर्ष स्वर्गविजयी (स्वर्ग के अधिकारी) पुरुष ही वास करते हैं। ४३ १/२॥

ततः परं न वः सेव्यः पितृलोकः सुदारुणः॥४४॥
राजधानी यमस्यैषा कष्टेन तमसाऽऽवृता।

‘उससे आगे अत्यन्त भयानक पितृलोक है; वहाँ तुम लोगों को नहीं जाना चाहिये। यह भूमि यमराज की राजधानी है, जो कष्टप्रद अन्धकार से आच्छादित है।

एतावदेव युष्माभिर्वीरा वानरपुंगवाः।
शक्यं विचेतुं गन्तुं वा नातो गतिमतां गतिः॥४५॥

‘वीर वानरपुङ्गवो! बस, दक्षिण दिशा में इतनी ही दूरतक तुम्हें जाना और खोजना है। उससे आगे पहुँचना असम्भव है; क्योंकि उधर जंगम प्राणियों की गति नहीं है।

सर्वमेतत् समालोक्य यच्चान्यदपि दृश्यते।
गतिं विदित्वा वैदेह्याः संनिवर्तितुमर्हथ॥४६॥

‘इन सब स्थानों में अच्छी तरह देख-भाल करके और भी जो स्थान अन्वेषण के योग्य दिखायी दे, वहाँ भी विदेहकुमारी का पता लगाना; तदनन्तर तुम सबको लौट आना चाहिये॥ ४६॥

यश्च मासान्निवृत्तोऽग्रे दृष्टा सीतेति वक्ष्यति।
मत्तुल्यविभवो भोगैः सुखं स विहरिष्यति॥४७॥

‘जो एक मास पूर्ण होने पर सबसे पहले यहाँ आकर यह कहेगा कि ‘मैंने सीताजी का दर्शन किया है’ वह मेरे समान वैभव से सम्पन्न हो भोग्यपदार्थों का अनुभव करता हुआ सुखपूर्वक विहार करेगा॥४७॥

ततः प्रियतरो नास्ति मम प्राणाद् विशेषतः।
कृतापराधो बहुशो मम बन्धुर्भविष्यति॥४८॥

‘उससे बढ़कर प्रिय मेरे लिये दूसरा कोई नहीं होगा। वह मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर प्यारा होगा तथा अनेक बार अपराध किया हो तो भी वह मेरा बन्धु होकर रहेगा॥४८॥

अमितबलपराक्रमा भवन्तो विपुलगुणेषु कुलेषु च प्रसूताः।
मनुजपतिसुतां यथा लभध्वं तदधिगुणं पुरुषार्थमारभध्वम्॥४९॥

‘तुम सबके बल और पराक्रम असीम हैं। तुम विशेष गुणशाली उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए हो। राजकुमारी सीता का जिस प्रकार भी पता मिल सके, उसके अनुरूप उच्च कोटि का पुरुषार्थ आरम्भ करो’ ॥ ४९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकचत्वारिंशः सर्गः॥४१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में इकतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४१॥


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Shivangi

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