वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 42 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 42
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
द्विचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 42)
सुग्रीव का पश्चिम दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए सुषेण आदि वानरों को वहाँ भेजना
अथ प्रस्थाप्य स हरीन् सुग्रीवो दक्षिणां दिशम्।
अब्रवीन्मेघसंकाशं सुषेणं नाम वानरम्॥१॥
तारायाः पितरं राजा श्वशुरं भीमविक्रमम्।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यमभिगम्य प्रणम्य च॥२॥
महर्षिपुत्रं मारीचमर्चिष्मन्तं महाकपिम्।
वृतं कपिवरैः शूरैर्महेन्द्रसदृशद्युतिम्॥३॥
बुद्धिविक्रमसम्पन्नं वैनतेयसमद्युतिम्।
मरीचिपुत्रान् मारीचानर्चिाल्यान् महाबलान्॥४॥
ऋषिपुत्रांश्च तान् सर्वान् प्रतीचीमादिशद् दिशम्।
द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां कपीनां कपिसत्तमाः॥५॥
सुषेणप्रमुखा यूयं वैदेही परिमार्गथ।
दक्षिण दिशा की ओर वानरों को भेजने के पश्चात् राजा सुग्रीव ने तारा के पिता और अपने श्वशुर ‘सुषेण’ नामक वानर के पास जाकर उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कुछ कहना आरम्भ किया। सुषेण मेघ के समान काले और भयंकर पराक्रमी थे। उनके सिवा, महर्षि मरीचि के पुत्र महाकपि अर्चिष्मान् भी वहाँ उपस्थित थे, जो देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी तथा शूरवीर श्रेष्ठ वानरों से घिरे हुए थे। उनकी कान्ति विनतानन्दन गरुड़ के समान थी। वे बुद्धि और पराक्रम से सम्पन्न थे। उनके अतिरिक्त मरीचि के पुत्र मारीच नाम वाले वानर भी थे, जो महाबली और ‘अर्चिाल्य’ नाम से प्रसिद्ध थे। । इनके सिवा और भी बहुत-से ऋषिकुमार थे, जो वानररूप में वहाँ विराजमान थे। सुषेण के साथ उन सबको सुग्रीव ने पश्चिम दिशा की ओर जाने की आज्ञा दी और कहा–’कपिवरो! आप सब लोग दो लाख वानरों को साथ ले सुषेणजी की प्रधानता में पश्चिम को जाइये और विदेहनन्दिनी सीता की खोज कीजिये॥ १ –५ १/२॥
सौराष्ट्रान् सहबालीकांश्चन्द्रचित्रांस्तथैव च॥
स्फीताञ्जनपदान् रम्यान् विपुलानि पुराणि च।
पुंनागगहनं कुक्षिं बकुलोद्दालकाकुलम्॥७॥
तथा केतकषण्डांश्च मार्गध्वं हरिपुङ्गवाः।
‘श्रेष्ठ वानरो! सौराष्ट्र, बालीक और चन्द्रचित्र आदि देशों, अन्यान्य समृद्धिशाली एवं रमणीय जनपदों, बड़े-बड़े नगरों तथा पुन्नाग, बकुल और उद्दालक आदि वृक्षों से भरे हुए कुक्षिदेश में एवं केवड़े के वनों में सीता की खोज करो॥६-७ १/२॥
प्रत्यक्स्रोतोवहाश्चैव नद्यः शीतजलाः शिवाः॥८॥
तापसानामरण्यानि कान्तारगिरयश्च ये।
‘पश्चिम की ओर बहने वाली शीतल जल से सुशोभित कल्याणमयी नदियों, तपस्वी जनों के वनों तथा दुर्गम पर्वतों में भी विदेहकुमारी का पता लगाओ। ८१/२॥
तत्र स्थलीमरुप्राया अत्युच्चशिशिराः शिलाः॥
गिरिजालावृतां दुर्गा मार्गित्वा पश्चिमां दिशम्।
ततः पश्चिममागम्य समुद्रं द्रष्टुमर्हथ॥१०॥
तिमिनक्राकुलजलं गत्वा द्रक्ष्यथ वानराः।
‘पश्चिम दिशा में प्रायः मरुभूमि है। अत्यन्त ऊँची और ठंढी शिलाएँ हैं तथा पर्वतमालाओं से घिरे हुए बहुत-से दुर्गम प्रदेश हैं। उन सभी स्थानों में सीता की खोज करते हुए क्रमशः आगे बढ़कर पश्चिम समुद्र तक जाना और वहाँ के प्रत्येक स्थान का निरीक्षण करना। वानरो! समुद्र का जल तिमि नामक मत्स्यों तथा बड़े-बड़े ग्राहों से भरा हुआ है। वहाँ सब ओर देख-भाल करना॥९-१० १/२॥
ततः केतकषण्डेषु तमालगहनेषु च ॥११॥
कपयो विहरिष्यन्ति नारिकेलवनेषु च।
तत्र सीतां च मार्गध्वं निलयं रावणस्य च॥१२॥
‘समुद्र के तट पर केवड़ों के कुञ्जों में, तमाल के काननों में तथा नारियल के वनों में तुम्हारे सैनिक वानर भलीभाँति विचरण करेंगे। वहाँ तुमलोग सीता को खोजना और रावण के निवास स्थान का पता लगाना॥
वेलातलनिविष्टेषु पर्वतेषु वनेषु च।
मुरवीपत्तनं चैव रम्यं चैव जटापुरम्॥१३॥
अवन्तीमङ्गलेपां च तथा चालक्षितं वनम्।
राष्टाणि च विशालानि पत्तनानि ततस्ततः॥१४॥
समुद्रतटवर्ती पर्वतों और वनों में भी उन्हें ढूँढ़ना चाहिये। मुरवीपत्तन (मोरवी) तथा रमणीय जटापुर में, अवन्ती तथा अङ्गलेपापुरी में, अलक्षित वन में और बड़े-बड़े राष्ट्रों एवं नगरों में जहाँ-तहाँ घूमकर पता लगाना॥
* यह अवन्ती पूर्व दिशा के मार्ग में बतायी गयी अवन्ती से भिन्न
सिन्धुसागरयोश्चैव संगमे तत्र पर्वतः।
महान् सोमगिरि म शतशृङ्गो महाद्रुमः॥१५॥
तत्र प्रस्थेषु रम्येषु सिंहाः पक्षगमाः स्थिताः।
तिमिमत्स्यगजांश्चैव नीडान्यारोपयन्ति ते॥१६॥
‘सिंधु-नद और समुद्र के संगमपर सोमगिरि नामक एक महान् पर्वत है, जिसके सौ शिखर हैं। वह पर्वत ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से भरा है। उसकी रमणीय चोटियों पर सिंह नामक पक्षी रहते हैं जो तिमि नामवाले विशालकाय मत्स्यों और हाथियों को भी अपने घोंसलों में उठा लाते हैं।
तानि नीडानि सिंहानां गिरिशृङ्गगताश्च ये।
दृप्तास्तृप्ताश्च मातङ्गास्तोयदस्वननिःस्वनाः॥१७॥
विचरन्ति विशालेऽस्मिंस्तोयपूर्णे समन्ततः।
‘सिंह नामक पक्षियों के उन घोंसलों में पहुँचकर उस पर्वत-शिखर पर उपस्थित हुए जो हाथी हैं, वे उस पंखधारी सिंह से सम्मानित होने के कारण गर्व का अनुभव करते और मन-ही-मन संतुष्ट होते हैं। इसीलिये मेघों की गर्जना के समान शब्द करते हुए उस पर्वत के जलपूर्ण विशाल शिखरपर चारों ओर विचरते रहते हैं।
तस्य शृङ्ख दिवस्पर्श काञ्चनं चित्रपादपम्॥१८॥
सर्वमाशु विचेतव्यं कपिभिः कामरूपिभिः।
‘सोमगिरि का गगनचुम्बी शिखर सुवर्णमय है। उसके ऊपर विचित्र वृक्ष शोभा पाते हैं। इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानरों को चाहिये कि वहाँ के सब स्थानों को शीघ्रतापूर्वक अच्छी तरह देख लें। १८ १/२॥
कोटिं तत्र समुद्रस्य काञ्चनीं शतयोजनाम्॥१९॥
दुर्दर्शी पारियात्रस्य गत्वा द्रक्ष्यथ वानराः।
‘वहाँ से आगे समुद्र के बीच में पारियात्र पर्वत का सुवर्णमय शिखर दिखायी देगा, जो सौ योजन विस्तृत है। वानरो! उसका दर्शन दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। वहाँ जाकर तुम्हें सीता की खोज करनी चाहिये॥
कोट्यस्तत्र चतुर्विंशद् गन्धर्वाणां तरस्विनाम्॥२०॥
वसन्त्यग्निनिकाशानां घोराणां कामरूपिणाम्।
पावकार्चिःप्रतीकाशाः समवेताः समन्ततः॥२१॥
‘पारियात्र पर्वत के शिखर पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, भयंकर, अग्नितुल्य तेजस्वी तथा वेगशाली चौबीस करोड़ गन्धर्व निवास करते हैं। वे सब-के-सब अग्नि की ज्वाला के समान प्रकाशमान हैं और सब ओर से आकर उस पर्वत पर एकत्र हुए हैं। २०-२१॥
नात्यासादयितव्यास्ते वानरैर्भीमविक्रमैः।
नादेयं च फलं तस्माद् देशात् किंचित् प्लवङ्गमैः॥ २२॥
‘भयंकर पराक्रमी वानरों को चाहिये कि वे उन गन्धर्वो के अधिक निकट न जायँ—उनका कोई अपराध न करें और उस पर्वतशिखर से कोई फल न लें॥ २२॥
दुरासदा हि ते वीराः सत्त्ववन्तो महाबलाः।
फलमूलानि ते तत्र रक्षन्ते भीमविक्रमाः॥२३॥
‘क्योंकि वे भयंकर बल-विक्रम से सम्पन्न धैर्यवान् महाबली वीर गन्धर्व वहाँ के फल-मूलों की रक्षा करते हैं। उन पर विजय पाना बहुत ही कठिन है॥ २३॥
तत्र यत्नश्च कर्तव्यो मार्गितव्या च जानकी।
नहि तेभ्यो भयं किंचित् कपित्वमनुवर्तताम्॥२४॥
‘वहाँ भी जानकी की खोज करनी चाहिये और उनका पता लगाने के लिये पूरा प्रयत्न करना चाहिये। प्राकृत वानर के स्वभाव का अनुसरण करने वाले तुम्हारी सेना के वीरों को उन गन्धर्वो से कोई भय नहीं है॥ २४॥
तत्र वैदर्यवर्णाभो वज्रसंस्थानसंस्थितः।
नानाद्रुमलताकीर्णो वज्रो नाम महागिरिः॥ २५॥
‘पारियात्र पर्वत के पास ही समुद्र में वज्रनाम से प्रसिद्ध एक बहुत ऊँचा पर्वत है, जो नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त दिखायी देता है। वह वज्रगिरि वैदूर्यमणि के समान नील वर्ण का है। वह कठोरता में वज्रमणि (हीरे) के समान है॥२५॥
श्रीमान् समुदितस्तत्र योजनानां शतं समम्।
गुहास्तत्र विचेतव्याः प्रयत्नेन प्लवङ्गमाः॥२६॥
‘वह सुन्दर पर्वत वहाँ सौ योजन के घेरे में प्रतिष्ठित है। उसकी लंबाई और चौड़ाई दोनों बराबर हैं। वानरो! उस पर्वत पर बहुत-सी गुफाएँ हैं। उन सबमें प्रयत्नपूर्वक सीता का अनुसंधान करना चाहिये॥२६॥
चतुर्भागे समुद्रस्य चक्रवान् नाम पर्वतः।
तत्र चक्रं सहस्रारं निर्मितं विश्वकर्मणा ॥२७॥
‘समुद्र के चतुर्थ भाग में चक्रवान् नामक पर्वत है। वहीं विश्वकर्मा ने सहस्रार* चक्र का निर्माण किया था॥ २७॥
* जिसमें एक हजार अरे हों, उसे सहस्रार चक्र कहते हैं।
तत्र पञ्चजनं हत्वा हयग्रीवं च दानवम्।
आजहार ततश्चक्रं शङ्ख च पुरुषोत्तमः ॥२८॥
वहीं से पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु पञ्चजन और हयग्रीव नामक दानवों का वध करके पाञ्चजन्य शङ्क तथा वह सहस्रार सुदर्शन चक्र लाये थे॥२८॥
तस्य सानुषु रम्येषु विशालासु गुहासु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥२९॥
‘चक्रवान् पर्वत के रमणीय शिखरों और विशाल गुफाओं में भी इधर-उधर वैदेहीसहित रावण का पता लगाना चाहिये॥२९॥
योजनानि चतुःषष्टिर्वराहो नाम पर्वतः।
सुवर्णशृङ्गः सुमहानगाधे वरुणालये॥३०॥
‘उससे आगे समुद्र की अगाध जलराशि में सुवर्णमय शिखरों वाला वराह नामक पर्वत है, जिसका विस्तार चौंसठ योजन की दूरी में है॥३०॥
तत्र प्राग्ज्योतिषं नाम जातरूपमयं पुरम्।
यस्मिन् वसति दुष्टात्मा नरको नाम दानवः॥३१॥
‘वहीं प्राग्ज्योतिष नामक सुवर्णमय नगर है,जिसमें दुष्टात्मा नरक नामक दानव निवास करता है॥ ३१॥
तत्र सानुषु रम्येषु विशालासु गुहासु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥३२॥
‘उस पर्वत के रमणीय शिखरों पर तथा वहाँ की विशाल गुफाओं में सीतासहित रावण की तलाश करनी चाहिये॥ ३२॥
तमतिक्रम्य शैलेन्द्र काञ्चनान्तरदर्शनम्।
पर्वतः सर्वसौवर्णो धाराप्रस्रवणायुतः॥३३॥
‘जिसका भीतरी भाग सुवर्णमय दिखायी देता है, उस पर्वतराज वराह को लाँघकर आगे बढ़ने पर एक ऐसा पर्वत मिलेगा, जिसका सब कुछ सुवर्णमय है तथा जिसमें लगभग दस सहस्र झरने हैं॥३३॥
तं गजाश्च वराहाश्च सिंहा व्याघ्राश्च सर्वतः।
अभिगर्जन्ति सततं तेन शब्देन दर्पिताः॥३४॥
‘उसके चारों ओर हाथी, सूअर, सिंह और व्याघ्र सदा गर्जना करते हैं और अपनी ही गर्जना की प्रतिध्वनि के शब्द से दर्प में भरकर पुनः दहाड़ने लगते हैं॥ ३४॥
यस्मिन् हरिहयः श्रीमान् महेन्द्रः पाकशासनः।
अभिषिक्तः सुरै राजा मेघो नाम स पर्वतः॥
‘उस पर्वत का नाम है मेघगिरि। जिस पर देवताओं ने हरित रंग के अश्ववाले श्रीमान् पाकशासन इन्द्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया था॥ ३५ ॥
तमतिक्रम्य शैलेन्द्र महेन्द्रपरिपालितम्।
षष्टिं गिरिसहस्राणि काञ्चनानि गमिष्यथ॥३६॥
तरुणादित्यवर्णानि भ्राजमानानि सर्वतः।
जातरूपमयैर्वृक्षैः शोभितानि सुपुष्पितैः॥३७॥
‘देवराज इन्द्रद्वारा सुरक्षित गिरिराज मेघ को लाँघकर जब तुम आगे बढ़ोगे, तब तुम्हें सोने के साठ हजार पर्वत मिलेंगे, जो सब ओर से सूर्य के समान कान्ति से देदीप्यमान हो रहे हैं और सुन्दर फूलों से भरे हुए सुवर्णमय वृक्षों से सुशोभित हैं॥ ३७॥
तेषां मध्ये स्थितो राजा मेरुरुत्तमपर्वतः।
आदित्येन प्रसन्नेन शैलो दत्तवरः पुरा॥३८॥
तेनैवमुक्तः शैलेन्द्रः सर्व एव त्वदाश्रयाः।
मत्प्रसादाद् भविष्यन्ति दिवा रात्रौ च काञ्चनाः॥३९॥
त्वयि ये चापि वत्स्यन्ति देवगन्धर्वदानवाः।
ते भविष्यन्ति भक्ताश्च प्रभया काञ्चनप्रभाः॥४०॥
‘उनके मध्यभाग में पर्वतों का राजा गिरिश्रेष्ठ मेरु विराजमान है, जिसे पूर्वकाल में सूर्यदेव ने प्रसन्न होकर वर दिया था। उन्होंने उस शैलराज से कहा था कि ‘जो दिन-रात तुम्हारे आश्रयमें रहेंगे, वे मेरी कृपा से सुवर्णमय हो जायँगे तथा देवता, दानव, गन्धर्व जो भी तुम्हारे ऊपर निवास करेंगे, वे सुवर्ण के समान कान्तिमान् और मेरे भक्त हो जायँगे’ ॥ ३८– ४०॥
विश्वेदेवाश्च वसवो मरुतश्च दिवौकसः।
आगत्य पश्चिमां संध्यां मेरुमुत्तमपर्वतम्॥४१॥
आदित्यमुपतिष्ठन्ति तैश्च सूर्योऽभिपूजितः।
अदृश्यः सर्वभूतानामस्तं गच्छति पर्वतम्॥४२॥
‘विश्वेदेव, वसु, मरुद्गण तथा अन्य देवता सायंकाल में उत्तम पर्वत मेरुपर आकर सूर्यदेव का उपस्थान करते हैं। उनके द्वारा भलीभाँति पूजित होकर भगवान् सूर्य सब प्राणियों की आँखों से ओझल होकर अस्ताचल को चले जाते हैं॥ ४१-४२॥
योजनानां सहस्राणि दश तानि दिवाकरः।
मुहूर्तार्धेन तं शीघ्रमभियाति शिलोच्चयम्॥४३॥
‘मेरु से अस्ताचल दस हजार योजन की दूरीपर है, किंतु सूर्यदेव आधे मुहूर्त में ही वहाँ पहुँच जाते हैं। ४३॥
शृते तस्य महद्दिव्यं भवनं सूर्यसंनिभम्।
प्रासादगणसम्बाधं विहितं विश्वकर्मणा॥४४॥
‘उसके शिखर पर विश्वकर्मा का बनाया हुआ एक बहुत बड़ा दिव्य भवन है, जो सूर्य के समान दीप्तिमान् दिखायी देता है। वह अनेक प्रासादों से भरा हुआ है॥
शोभितं तरुभिश्चित्रै नापक्षिसमाकुलैः।
निकेतं पाशहस्तस्य वरुणस्य महात्मनः॥४५॥
‘नाना प्रकार के पक्षियों से व्याप्त विचित्र-विचित्र वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह पाशधारी महात्मा वरुण का निवास-स्थान है॥ ४५ ॥
अन्तरा मेरुमस्तं च तालो दशशिरा महान्।
जातरूपमयः श्रीमान् भ्राजते चित्रवेदिकः॥४६॥
‘मेरु और अस्ताचल के बीच एक स्वर्णमय ताड़ का वृक्ष है, जो बड़ा ही सुन्दर और बहुत ही ऊँचा है। उसके दस स्कन्ध (बड़ी शाखाएँ) हैं। उसके नीचे की वेदी बड़ी विचित्र है। इस तरह वह वृक्ष बड़ी शोभा पाता है॥ ४६॥
तेषु सर्वेषु दुर्गेषु सरस्सु च सरित्सु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥४७॥
‘वहाँ के उन सभी दुर्गम स्थानों, सरोवरों और सरिताओं में इधर-उधर सीतासहित रावण का अनुसंधान करना चाहिये॥४७॥
यत्र तिष्ठति धर्मज्ञस्तपसा स्वेन भावितः।
मेरुसावर्णिरित्येष ख्यातो वै ब्रह्मणा समः॥४८॥
‘मेरुगिरि पर धर्म के ज्ञाता महर्षि मेरुसावर्णि रहते हैं, जो अपनी तपस्या से ऊँची स्थिति को प्राप्त हुए हैं। वे प्रजापति के समान शक्तिशाली एवं विख्यात ऋषि हैं।
प्रष्टव्यो मेरुसावर्णिमहर्षिः सूर्यसंनिभः।
प्रणम्य शिरसा भूमौ प्रवृत्तिं मैथिली प्रति॥४९॥
‘सूर्यतुल्य तेजस्वी महर्षि मेरुसावर्णि के चरणों में पृथ्वी पर मस्तक टेककर प्रणाम करने के अनन्तर तुमलोग उनसे मिथिलेशकुमारी का समाचार पूछना॥ ४९॥
एतावज्जीवलोकस्य भास्करो रजनीक्षये।
कृत्वा वितिमिरं सर्वमस्तं गच्छति पर्वतम्॥५०॥
‘रात्रि के अन्त में (प्रातःकाल) उदित हुए भगवान् सूर्य जीव-जगत् के इन सभी स्थानों को अन्धकाररहित (एवं प्रकाशपूर्ण) करके अन्त में अस्ताचल को चले जाते हैं॥५०॥
एतावद् वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुङ्गवाः।
अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम्॥५१॥
‘वानरशिरोमणियो! पश्चिम दिशा में इतनी ही दूर तक वानर जा सकते हैं। उसके आगे न तो सूर्य का प्रकाश है और न किसी देश आदि की सीमा ही। अतः वहाँ से आगे की भूमि के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं है।
अवगम्य तु वैदेहीं निलयं रावणस्य च।
अस्तं पर्वतमासाद्य पूर्णे मासे निवर्तत ॥५२॥
‘अस्ताचलतक जाकर रावण के स्थान और सीता का पता लगाओ तथा एक मास पूर्ण होते ही यहाँ लौट आओ॥
ऊर्ध्वं मासान्न वस्तव्यं वसन् वध्यो भवेन्मम।
सहैव शूरो युष्माभिः श्वशुरो मे गमिष्यति॥५३॥
‘एक महीने से अधिक न ठहरना। जो ठहरेगा, उसे मेरे हाथ से प्राणदण्ड मिलेगा। तुमलोगों के साथ मेरे पूजनीय श्वशुर जी भी जायँगे॥५३॥
श्रोतव्यं सर्वमेतस्य भवद्भिर्दिष्टकारिभिः।
गुरुरेष महाबाहुः श्वशुरो मे महाबलः॥५४॥
‘तुम सब लोग इनकी आज्ञा के अधीन रहकर इनकी सभी बातें ध्यान से सुनना; क्योंकि ये महाबाहु महाबली सुषेण जी मेरे श्वशुर एवं गुरुजन हैं (अतः तुम्हारे लिये भी गुरु की भाँति ही आदरणीय हैं)॥ ५४॥
भवन्तश्चापि विक्रान्ताः प्रमाणं सर्व एव हि।
प्रमाणमेनं संस्थाप्य पश्यध्वं पश्चिमां दिशम्॥५५॥
‘तुम सब लोग भी बड़े पराक्रमी तथा कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय में प्रमाणभूत (विश्वसनीय) हो, तथापि इन्हें अपना प्रधान बनाकर तुम पश्चिम दिशा की देखभाल आरम्भ करो॥
दृष्टायां तु नरेन्द्रस्य पत्न्याममिततेजसः।
कृतकृत्या भविष्यामः कृतस्य प्रतिकर्मणा॥५६॥
‘अमित तेजस्वी महाराज श्रीरामकी पत्नी का पता लग जाने पर हम कृतकृत्य हो जायँगे; क्योंकि उन्होंने जो उपकार किया है, उसका बदला इसी तरह चुक सकेगा॥
अतोऽन्यदपि यत्कार्यं कार्यस्यास्य प्रियं भवेत्।
सम्प्रधार्य भवद्भिश्च देशकालार्थसंहितम्॥५७॥
‘अतः इस कार्य के अनुकूल और भी जो कर्तव्य देश, काल और प्रयोजन से सम्बन्ध रखता हो, उसका विचार करके आप लोग उसे भी करें’। ५७॥
ततः सुषेणप्रमुखाः प्लवङ्गाः सुग्रीववाक्यं निपुणं निशम्य।
आमन्त्र्य सर्वे प्लवगाधिपं ते जग्मुर्दिशं तां वरुणाभिगुप्ताम्॥५८॥
सुग्रीव की बातें अच्छी तरह सुनकर सुषेण आदि सब वानर उन वानरराज की अनुमति ले वरुण द्वारा सुरक्षित पश्चिम दिशा की ओर चल दिये॥ ५८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्विचत्वारिंशः सर्गः॥४२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बयालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४२॥
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