वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 43 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 43
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 43)
सुग्रीव का उत्तर दिशा के स्थानों का परिचय देते हुए शतबलि आदि वानरों को वहाँ भेजना
ततः संदिश्य सुग्रीवः श्वशुरं पश्चिमां दिशम्।
वीरं शतबलिं नाम वानरं वानरेश्वरः॥१॥
उवाच राजा सर्वज्ञः सर्ववानरसत्तमः।
वाक्यमात्महितं चैव रामस्य च हितं तदा ॥२॥
इस प्रकार अपने श्वशुर को पश्चिम दिशा की ओर जाने का संदेश दे सर्वज्ञ, सर्व-वानर-शिरोमणि वानरेश्वर राजा सुग्रीव अपने हितैषी शतबलि नामक वीर वानर से श्रीरामचन्द्रजी के हित की बात बोले-॥ १-२॥
वृतः शतसहस्रेण त्वद्विधानां वनौकसाम्।
वैवस्वतसुतैः सार्धं प्रविष्टः सर्वमन्त्रिभिः॥३॥
दिशं युदीची विक्रान्तां हिमशैलावतंसिकाम्।
सर्वतः परिमार्गध्वं रामपत्नी यशस्विनीम्॥४॥
‘पराक्रमी वीर! तुम अपने ही समान एक लाख वनवासी वानरों को जो यमराज के बेटे हैं, साथ लेकर अपने समस्त मन्त्रियों सहित उस उत्तर दिशा में प्रवेश करो, जो हिमालयरूपी आभूषणों से विभूषित है और वहाँ सब ओर यशस्विनी श्रीरामपत्नी सीता का अन्वेषण करो॥ ३-४॥
अस्मिन् कार्ये विनिर्वृत्ते कृते दाशरथेः प्रिये।
ऋणान्मुक्ता भविष्यामः कृतार्थार्थविदां वराः॥
‘अपने मुख्य प्रयोजन को समझने वाले वीरों में श्रेष्ठ वानरो! यदि हमलोगों के द्वारा दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम का यह प्रिय कार्य सम्पन्न हो जाय तो हम उनके उपकार के ऋण से मुक्त और कृतार्थ हो जायँगे॥५॥
कृतं हि प्रियमस्माकं राघवेण महात्मना।
तस्य चेत्प्रतिकारोऽस्ति सफलं जीवितं भवेत्॥
‘महात्मा श्रीरघुनाथजी ने हमलोगों का प्रिय कार्य किया है। उसका यदि कुछ बदला दिया जा सके तो हमारा जीवन सफल हो जाय॥६॥
अर्थिनः कार्यनिर्वृत्तिमकर्तुरपि यश्चरेत्।
तस्य स्यात् सफलं जन्म किं पुनः पूर्वकारिणः॥७॥
‘जिसने कोई उपकार न किया हो, वह भी यदि किसी कार्य के लिये प्रार्थी होकर आया हो तो जो पुरुष उसके कार्य को सिद्ध कर देता है, उसका जन्म भी सफल हो जाता है। फिर जिसने पहले के उपकारी के कार्य को सिद्ध किया हो, उसके जीवन की सफलता के विषय में तो कहना ही क्या है॥७॥
एतां बुद्धिं समास्थाय दृश्यते जानकी यथा।
तथा भवद्भिः कर्तव्यमस्मत्प्रियहितैषिभिः॥८॥
‘इसी विचार का आश्रय लेकर मेरा प्रिय और हित चाहने वाले तुम सब वानरों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे जनकनन्दिनी सीता का पता लग जाय॥ ८॥
अयं हि सर्वभूतानां मान्यस्तु नरसत्तमः।
अस्मासु च गतः प्रीतिं रामः परपुरंजयः॥९॥
‘शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले ये नरश्रेष्ठ श्रीराम समस्त प्राणियों के लिये माननीय हैं। हमलोगों पर भी इनका बहुत प्रेम है ।।९॥
इमानि बहुदुर्गाणि नद्यः शैलान्तराणि च।
भवन्तः परिमार्गन्तु बुद्धिविक्रमसम्पदा॥१०॥
‘तुम सब लोग बुद्धि और पराक्रम के द्वारा इन अत्यन्त दुर्गम प्रदेशों, पर्वतों और नदियों के तटों पर जा-जाकर सीता की खोज करो॥ १० ॥
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्च शूरसेनांस्तथैव च।
प्रस्थलान् भरतांश्चैव कुरूंश्च सह मद्रकैः॥११॥
काम्बोजयवनांश्चैव शकानां पत्तनानि च।
अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ॥१२॥
‘उत्तर में म्लेच्छ, पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल, भरत (इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आस-पास के प्रान्त), कुरु (दक्षिण कुरु-कुरुक्षेत्र के आस-पास की भूमि), मद्र, काम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भलीभाँति अनुसंधान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो॥
लोध्रपद्मकषण्डेषु देवदारुवनेषु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥१३॥
‘वहाँ लोध्र और पद्मक की झाड़ियों में तथा देवदारु के जंगलों में वैदेहीसहित रावण की खोज करनी चाहिये॥ १३॥
ततः सोमाश्रमं गत्वा देवगन्धर्वसेवितम्।
कालं नाम महासानुं पर्वतं तं गमिष्यथ॥१४॥
‘फिर देवताओं और गन्धर्वो से सेवित सोमाश्रम में होते हुए ऊँचे शिखर वाले काल नामक पर्वत पर जाओ॥
महत्सु तस्य शैलेषु पर्वतेषु गुहासु च।
विचिन्वत महाभागां रामपत्नीमनिन्दिताम्॥
‘उस पर्वत की शाखाभूत अन्य छोटे-बड़े पर्वतों और उन सबकी गुफाओं में सती-साध्वी श्रीरामपत्नी महाभागा सीता का अन्वेषण करो॥ १५ ॥
तमतिक्रम्य शैलेन्द्रं हेमगर्भं महागिरिम्।
ततः सुदर्शनं नाम पर्वतं गन्तुमर्हथ॥१६॥
‘जिसके भीतर सुवर्ण की खान हैं, उस गिरिराज काल को लाँघकर तुम्हें सुदर्शन नामक महान् पर्वत पर जाना चाहिये॥१६॥
ततो देवसखो नाम पर्वतः पतगालयः।
नानापक्षिसमाकीर्णो विविधद्रुमभूषितः॥१७॥
‘उससे आगे बढ़ने पर देवसख नाम वाला पहाड़ मिलेगा, जो पक्षियों का निवास स्थान है। वह भाँतिभाँति के विहंगमों से व्याप्त तथा नाना प्रकार के वृक्षों से विभूषित है॥ १७॥
तस्य काननषण्डेषु निर्झरेषु गुहासु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥१८॥
‘उसके वन समूहों, निर्झरों और गुफाओं में तुम्हें विदेहकुमारी सीतासहित रावण की खोज करनी चाहिये॥
तमतिक्रम्य चाकाशं सर्वतः शतयोजनम्।
अपर्वतनदीवृक्षं सर्वसत्त्वविवर्जितम्॥१९॥
‘वहाँ से आगे बढ़ने पर एक सुनसान मैदान मिलेगा, जो सब ओर से सौ योजन विस्तृत है। वहाँ नदी,पर्वत, वृक्ष और सब प्रकार के जीव-जन्तुओं का अभाव है।॥ १९॥
तत्तु शीघ्रमतिक्रम्य कान्तारं रोमहर्षणम्।
कैलासं पाण्डुरं प्राप्य हृष्टा यूयं भविष्यथ ॥२०॥
‘रोंगटे खड़े कर देने वाले उस दुर्गम प्रान्त को शीघ्रतापूर्वक लाँघ जाने पर तुम्हें श्वेतवर्ण का कैलास पर्वत मिलेगा। वहाँ पहुँचने पर तुम सब लोग हर्ष से खिल उठोगे॥
तत्र पाण्डुरमेघाभं जाम्बूनदपरिष्कृतम्।
कुबेरभवनं रम्यं निर्मितं विश्वकर्मणा ॥२१॥
‘वहीं विश्वकर्मा का बनाया हुआ कुबेर का रमणीय भवन है, जो श्वेत बादलों के समान प्रतीत होता है। उस भवन को जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित किया गया है।
विशाला नलिनी यत्र प्रभूतकमलोत्पला।
हंसकारण्डवाकीर्णा अप्सरोगणसेविता॥२२॥
‘उसके पास ही एक बहुत बड़ा सरोवर है, जिसमें कमल और उत्पल प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। उसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी भरे रहते हैं तथा अप्सराएँ उसमें जल-क्रीड़ा करती हैं।॥ २२॥
तत्र वैश्रवणो राजा सर्वलोकनमस्कृतः।
धनदो रमते श्रीमान् गुह्यकैः सह यक्षराट् ॥ २३॥
‘वहाँ यक्षों के स्वामी विश्रवाकुमार श्रीमान् राजा कुबेर जो समस्त विश्व के लिये वन्दनीय और धन देने वाले हैं, गुह्यकों के साथ विहार करते हैं ॥ २३॥
तस्य चन्द्रनिकाशेषु पर्वतेषु गुहासु च।
रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः॥२४॥
‘उस कैलास के चन्द्रमा की भाँति उज्ज्वल शाखा पर्वतों पर तथा उनकी गुफाओं में सब ओर घूमफिरकर तुम्हें सीता सहित रावण का अनुसंधान करना चाहिये॥२४॥
क्रौञ्चं तु गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्।
अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यं दुष्प्रवेशं हि तत् स्मृतम्॥२५॥
‘इसके बाद क्रौञ्चगिरि पर जाकर वहाँ की अत्यन्त दुर्गम विवररूप गुफा में (जो स्कन्द की शक्ति से पर्वत के विदीर्ण होने के कारण बन गयी है) तुम्हें सावधानी के साथ प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि उसके भीतर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन माना गया है। २५॥
वसन्ति हि महात्मानस्तत्र सूर्यसमप्रभाः।
देवैरभ्यर्थिताः सम्यग् देवरूपा महर्षयः॥ २६॥
‘उस गुफा में सूर्य के समान तेजस्वी महात्मा निवास करते हैं। उन देवस्वरूप महर्षियों की देवतालोग भी अभ्यर्थना करते हैं ॥२६॥
क्रौञ्चस्य तु गुहाश्चान्याः सानूनि शिखराणि च।
निर्दराश्च नितम्बाश्च विचेतव्यास्ततस्ततः॥२७॥
क्रौञ्च पर्वत की और भी बहुत-सी गुफाएँ, अनेकानेक चोटियाँ, शिखर, कन्दराएँ तथा नितम्ब (ढालू प्रदेश) हैं; उन सबमें सब ओर घूम-फिरकर तुम्हें सीता और रावण का पता लगाना चाहिये॥२७॥
अवृक्षं कामशैलं च मानसं विहगालयम्।।
न गतिस्तत्र भूतानां देवानां न च रक्षसाम्॥२८॥
‘वहाँ से आगे वृक्षों से रहित मानस नामक शिखर है, जहाँ शून्य होने के कारण कभी पक्षी तक नहीं जाते हैं। कामदेव की तपस्या का स्थान होने के कारण वह क्रौञ्चशिखर कामशैल के नाम से विख्यात है। वहाँ भूतों, देवताओं तथा राक्षसों का भी कभी जाना नहीं होता है॥२८॥
स च सर्वैर्विचेतव्यः ससानुप्रस्थभूधरः।
क्रौञ्चं गिरिमतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वतः॥२९॥
‘शिखरों, घाटियों और शाखापर्वतों सहित समूचे क्रौञ्चपर्वत की तुमलोग छानबीन करना। क्रौञ्चगिरि को लाँघकर आगे बढ़ने पर मैनाक पर्वत मिलेगा॥२९॥
मयस्य भवनं तत्र दानवस्य स्वयंकृतम्।।
मैनाकस्तु विचेतव्यः ससानुप्रस्थकन्दरः॥३०॥
‘वहाँ मयदानव का घर है, जिसे उसने स्वयं ही अपने लिये बनाया है। तुमलोगों को शिखरों, चौरस मैदानों और कन्दराओं सहित मैनाक पर्वत पर भलीभाँति सीताजी की खोज करनी चाहिये॥ ३० ॥
स्त्रीणामश्वमुखीनां तु निकेतस्तत्र तत्र तु।
तं देशं समतिक्रम्य आश्रमं सिद्धसेवितम्॥३१॥
‘वहाँ यत्र-तत्र घोड़े के-से मुँहवाली किन्नरियों के निवासस्थान हैं। उस प्रदेश को लाँघ जाने पर सिद्धसेवित आश्रम मिलेगा॥ ३१॥
सिद्धा वैखानसा यत्र वालखिल्याश्च तापसाः।
वन्दितव्यास्ततः सिद्धास्तपसा वीतकल्मषाः॥३२॥
प्रष्टव्या चापि सीतायाः प्रवृत्तिर्विनयान्वितैः।
‘उसमें सिद्ध, वैखानख तथा वालखिल्य नामक तपस्वी निवास करते हैं। तपस्या से उनके पाप धुल गये हैं। उन सिद्धों को तुमलोग प्रणाम करना और विनीतभाव से सीता का समाचार पूछना॥ ३२ १/२ ॥
हेमपुष्करसंछन्नं तत्र वैखानसं सरः॥३३॥
तरुणादित्यसंकाशैर्हसैर्विचरितं शुभैः।
‘उस आश्रम के पास ‘वैखानस सर’ के नाम से प्रसिद्ध एक सरोवर है, जिसका जल सुवर्णमय कमलों से आच्छादित रहता है। उसमें प्रातःकालिक सूर्य के समान सुनहरे एवं अरुणवर्ण वाले सुन्दर हंस विचरते रहते हैं।
औपवाह्यः कुबेरस्य सार्वभौम इति स्मृतः॥३४॥
गजः पर्येति तं देशं सदा सह करेणुभिः।।
‘कुबेर की सवारी में काम आने वाला सार्वभौमनामक गजराज अपनी हथिनियों के साथ उस देश में सदा घूमता रहता है॥ ३४ १/२।।
तत् सरः समतिक्रम्य नष्टचन्द्रदिवाकरम्।
अनक्षत्रगणं व्योम निष्पयोदमनादितम्॥ ३५॥
‘उस सरोवर को लाँघकर आगे जाने पर सूना आकाश दिखायी देगा। उसमें सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों के दर्शन नहीं होंगे। वहाँ न तो मेघों की घटा दिखायी देगी और न उनकी गर्जना ही सुनायी पड़ेगी॥ ३५॥
गभस्तिभिरिवार्कस्य स तु देशः प्रकाश्यते।
विश्राम्यद्भिस्तपःसिद्धैर्देवकल्पैः स्वयंप्रभैः॥३६॥
‘तथापि उस देश में ऐसा प्रकाश छाया होगा, मानो सूर्य की किरणों से ही वह प्रकाशित हो रहा है। वहाँ अपनी ही प्रभा से प्रकाशित तपःसिद्ध देवोपम महर्षि विश्राम करते हैं। उन्हीं की अङ्गप्रभा से उस देश में उजाला छाया रहता है। ३६॥
तं तु देशमतिक्रम्य शैलोदा नाम निम्नगा।
उभयोस्तीरयोस्तस्याः कीचका नाम वेणवः॥३७॥
‘उस प्रदेश को लाँघकर आगे बढ़ने पर ‘शैलोदा’ नामवाली नदी का दर्शन होगा। उसके दोनों तटों पर कीचक (वंशी की-सी ध्वनि करने वाले) बाँस हैं; यह बात प्रसिद्ध है॥ ३७॥
ते नयन्ति परं तीरं सिद्धान् प्रत्यानयन्ति च।
उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यप्रतिश्रयाः॥३८॥
‘वे बाँस ही (साधन बनकर) सिद्ध पुरुषों को शैलोदा के उस पार ले जाते और वहाँ से इस पार ले आते हैं। जहाँ केवल पुण्यात्मा पुरुषों का वास है, वह उत्तर कुरुदेश शैलोदा के तट पर ही है॥ ३८॥
ततः काञ्चनपद्माभिः पद्मिनीभिः कृतोदकाः।
नीलवैदूर्यपत्राढ्या नद्यस्तत्र सहस्रशः॥ ३९॥
‘उत्तर कुरुदेश में नील वैदूर्यमणि के समान हरे-हरे कमलों के पत्तों से सुशोभित सहस्रों नदियाँ बहती हैं, जिनके जल सुवर्णमय पद्मों से अलंकृत अनेकानेक पुष्करिणियों से मिले हुए हैं॥ ३९॥
रक्तोत्पलवनैश्चात्र मण्डिताश्च हिरण्मयैः।
तरुणादित्यसंकाशा भान्ति तत्र जलाशयाः॥४०॥
‘वहाँ के जलाशय लाल और सुनहरे कमलसमूहों से मण्डित होकर प्रातःकाल उदित हुए सूर्य के समान शोभा पाते हैं॥ ४०॥
महार्हमणिपत्रैश्च काञ्चनप्रभकेसरैः।
नीलोत्पलवनैश्चित्रैः स देशः सर्वतो वृतः॥४१॥
‘बहुमूल्य मणियों के समान पत्तों और सुवर्ण के समान कान्तिमान् केसरों वाले विचित्र-विचित्र नीलकमलों के द्वारा वहाँ का प्रदेश सब ओर से सुशोभित होता है॥४१॥
निस्तुलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाधनैः।
उद्धृतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्च निम्नगाः॥४२॥
सर्वरत्नमयैश्चित्रैरवगाढा नगोत्तमैः।
जातरूपमयैश्चापि हताशनसमप्रभैः॥४३॥
‘वहाँ की नदियों के तट गोल-गोल मोतियों, बहुमूल्य मणियों और सुवर्णों से सम्पन्न हैं। इतना ही नहीं, उन नदियों के किनारे सम्पूर्ण रत्नों से युक्त विचित्र-विचित्र पर्वत भी विद्यमान हैं, जो उनके जल के भीतर तक घुसे हुए हैं। उन पर्वतों में से कितने ही सुवर्णमय हैं, जिनसे अग्नि के समान प्रकाश फैलता रहता है। ४२-४३॥
नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः।
दिव्यगन्धरसस्पर्शाः सर्वकामान् स्रवन्ति च॥४४॥
‘वहाँ के वृक्षों में सदा ही फल-फूल लगे रहते हैं और उन पर पक्षी चहकते रहते हैं। वे वृक्ष दिव्यगन्ध, दिव्य रस और दिव्य स्पर्श प्रदान करते हैं तथा प्राणियों की सारी मनचाही वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं।४४॥
नानाकाराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः।
मुक्तावैदूर्यचित्राणि भूषणानि तथैव च।
स्त्रीणां यान्यनुरूपाणि पुरुषाणां तथैव च॥४५॥
‘इनके सिवा दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ वृक्ष फलों के रूप में नाना प्रकार के वस्त्र, मोती और वैदूर्यमणिसे जटित आभूषण देते हैं, जो स्त्रियों तथा पुरुषों के भी उपयोग में आने योग्य होते हैं॥ ४५ ॥
सर्वर्तुसुखसेव्यानि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः।
महार्हमणिचित्राणि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः॥४६॥
‘दूसरे उत्तम वृक्ष सभी ऋतुओं में सुखपूर्वक सेवन करने योग्य अच्छे-अच्छे फल देते हैं। अन्यान्य सुन्दर वृक्ष बहुमूल्य मणियों के समान विचित्र फल उत्पन्न करते हैं॥ ४६॥
शयनानि प्रसूयन्ते चित्रास्तरणवन्ति च।
मनःकान्तानि माल्यानि फलन्त्यत्रापरे द्रुमाः॥४७॥
पानानि च महार्हाणि भक्ष्याणि विविधानि च।
स्त्रियश्च गुणसम्पन्ना रूपयौवनलक्षिताः॥४८॥
‘कितने ही अन्य वृक्ष विचित्र बिछौनों से युक्त शय्याओं को ही फलों के रूप में प्रकट करते हैं, मन को प्रिय लगने वाली सुन्दर मालाएँ भी प्रस्तुत करते हैं, बहुमूल्य पेय पदार्थ और भाँति-भाँति के भोजन भी देते हैं तथा रूप और यौवन से प्रकाशित होने वाली सद्गुणवती युवतियों को भी जन्म देते हैं। ४७-४८॥
गन्धर्वाः किन्नराः सिद्धा नागा विद्याधरास्तथा।
रमन्ते सततं तत्र नारीभिर्भास्वरप्रभाः॥४९॥
‘वहाँ सूर्य के समान कान्तिमान् गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, नाग और विद्याधर सदा नारियों के साथ क्रीडा विहार करते हैं। ४९॥
सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे रतिपरायणाः।
सर्वे कामार्थसहिता वसन्ति सह योषितः॥५०॥
‘वहाँ के सब लोग पुण्यकर्मा हैं, सभी अर्थ और काम से सम्पन्न हैं तथा सब लोग काम-क्रीडापरायण होकर युवती स्त्रियों के साथ निवास करते हैं। ५०॥
गीतवादित्रनिर्घोषः सोत्कृष्टहसितस्वनः।
श्रूयते सततं तत्र सर्वभूतमनोरमः॥५१॥
‘वहाँ निरन्तर उत्कृष्ट हास-परिहास की ध्वनि से युक्त गीतवाद्य का मधुर घोष सुनायी देता है, जो समस्त प्राणियों के मन को आनन्द प्रदान करने वाला है॥५१॥
तत्र नामुदितः कश्चिन्नात्र कश्चिदसत्प्रियः।
अहन्यहनि वर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः॥५२॥
‘वहाँ कोई भी अप्रसन्न नहीं रहता। किसी की भी बुरे कामों में प्रीति नहीं होती। वहाँ रहने से प्रतिदिन मनोरम गुणों की वृद्धि होती है। ५२॥
समतिक्रम्य तं देशमत्तरः पयसां निधिः।
तत्र सोमगिरि म मध्ये हेममयो महान्॥५३॥
‘उस देश को लाँघकर आगे जाने पर उत्तरदिग्वर्ती समुद्र उपलब्ध होगा। उस समुद्र के मध्यभाग में सोमगिरि नामक एक बहुत ऊँचा सुवर्णमय पर्वत है।५३॥
इन्द्रलोकगता ये च ब्रह्मलोकगताश्च ये।
देवास्तं समवेक्षन्ते गिरिराज दिवं गताः॥५४॥
‘जो लोग स्वर्गलोक में गये हैं, वे तथा इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में रहने वाले देवता उस गिरिराज सोमगिरि का दर्शन करते हैं ॥ ५४॥
स तु देशो विसूर्योऽपि तस्य भासा प्रकाशते।
सूर्यलक्ष्म्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवस्वता॥५५॥
‘वह देश सूर्य से रहित है तो भी सोमगिरि की प्रभा से सदा प्रकाशित होता रहता है। तपते हुए सूर्य की प्रभा से जो देश प्रकाशित होते हैं, उन्हीं की भाँति उसे सूर्यदेव की शोभा से सम्पन्न-सा जानना चाहिये॥ ५५॥
भगवांस्तत्र विश्वात्मा शम्भुरेकादशात्मकः।
ब्रह्मा वसति देवेशो ब्रह्मर्षिपरिवारितः॥५६॥
‘वहाँ विश्वात्मा भगवान् विष्णु, एकादश रुद्रों के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् शंकर तथा ब्रह्मर्षियों से घिरे हुए देवेश्वर ब्रह्मा जी निवास करते हैं॥५६॥
न कथंचन गन्तव्यं कुरूणामुत्तरेण वः।
अन्येषामपि भूतानां नानुक्रामति वै गतिः॥५७॥
‘तुमलोग उत्तर कुरु के मार्ग से सोमगिरितक जाकर उसकी सीमा से आगे किसी तरह न बढ़ना। तुम्हारी तरह दूसरे प्राणियों की भी वहाँ गति नहीं है।॥ ५७॥
स हि सोमगिरि म देवानामपि दुर्गमः।
तमालोक्य ततः क्षिप्रमुपावर्तितुमर्हथ॥५८॥
‘वह सोमगिरि देवताओं के लिये भी दुर्गम है। अतः उसका दर्शनमात्र करके तुमलोग शीघ्र लौट आना।५८॥
एतावद् वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुंगवाः।
अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम्॥५९॥
‘श्रेष्ठ वानरो! बस, उत्तर दिशा में इतनी ही दूर तक तुम सब वानर जा सकते हो। उसके आगे न तो सूर्य का प्रकाश है और न किसी देश आदि की सीमा ही। अतः आगे की भूमि के सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं जानता ॥ ५९॥
सर्वमेतद् विचेतव्यं यन्मया परिकीर्तितम्।
यदन्यदपि नोक्तं च तत्रापि क्रियतां मतिः॥६०॥
‘मैंने जो-जो स्थान बताये हैं, उन सबमें सीता की खोज करना और जिन स्थानों का नाम नहीं लिया है, वहाँ भी ढूँढ़ने का ही निश्चित विचार रखना॥ ६०॥
ततः कृतं दाशरथेमहत्प्रियं महत्प्रियं चापि ततो मम प्रियम्।
कृतं भविष्यत्यनिलानलोपमा विदेहजादर्शनजेन कर्मणा॥६१॥
‘अग्नि और वायु के समान तेजस्वी तथा बलशाली वानरो! विदेहनन्दिनी सीता के दर्शन के लिये तुम जो जो कार्य या प्रयास करोगे, उन सबके द्वारा दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम का महान् प्रिय कार्य सम्पन्न होगा तथा उसी से मेरा भी प्रिय कार्य पूर्ण हो जायगा॥ ६१॥
ततः कृतार्थाः सहिताः सबान्धवा मयार्चिताः सर्वगुणैर्मनोरमैः।
चरिष्यथोर्वी प्रति शान्तशत्रवः सहप्रिया भूतधराः प्लवंगमाः॥६२॥
‘वानरो! श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय कार्य करके जब तुम लौटोगे, तब मैं सर्वगुणसम्पन्न एवं मनोऽनुकूल पदार्थो के द्वारा तुम सब लोगों का सत्कार करूँगा। तत्पश्चात् तुमलोग शत्रुहीन होकर अपने हितैषियों
और बन्धु-बान्धवों सहित कृतार्थ एवं समस्त प्राणियों के आश्रयदाता होकर अपनी प्रियतमाओं के साथ सारी पृथ्वी पर सानन्द विचरण करोगे’।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिचत्वारिंशः सर्गः॥४३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४३॥