वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 44 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 44
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 44)
श्रीराम का हनुमान जी को अँगूठी देकर भेजना
विशेषेण तु सुग्रीवो हनूमत्यर्थमुक्तवान्।
स हि तस्मिन हरिश्रेष्ठे निश्चितार्थोऽर्थसाधने॥
सुग्रीव ने हनुमान् जी के समक्ष विशेष रूप से सीता के अन्वेषण रूप प्रयोजन को उपस्थित किया; क्योंकि उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि वानरश्रेष्ठ हनुमान् जी इस कार्य को सिद्ध कर सकेंगे॥१॥
अब्रवीच्च हनूमन्तं विक्रान्तमनिलात्मजम्।
सुग्रीवः परमप्रीतः प्रभुः सर्ववनौकसाम्॥२॥
समस्त वानरों के स्वामी सुग्रीव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर परम पराक्रमी वायुपुत्र हनुमान् से इस प्रकार कहा— ॥२॥
न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये।
नाप्सु वा गतिसङ्गं ते पश्यामि हरिपुंगव॥३॥
‘कपिश्रेष्ठ! पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति का अवरोध मैं कभी नहीं देखता हूँ॥३॥
सासुराः सहगन्धर्वाः सनागनरदेवताः।
विदिताः सर्वलोकास्ते ससागरधराधराः॥४॥
‘असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित सम्पूर्ण लोकों का तुम्हें ज्ञान है॥ ४॥
गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे।
पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजसः॥५॥
‘वीर! महाकपे! सर्वत्र अबाधित गति, वेग, तेज और फुर्ती—ये सभी सद्गुण तुम में अपने महापराक्रमी पिता वायु के ही समान हैं॥ ५॥
तेजसा वापि ते भूतं न समं भुवि विद्यते।
तद यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय॥६॥
‘इस भूमण्डल में कोई भी प्राणी तुम्हारे तेज की समानता करने वाला नहीं है; अतः जिस प्रकार सीता की उपलब्धि हो सके, वह उपाय तुम्हीं सोचो। ६॥
त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धिः पराक्रमः।
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नयपण्डित ॥७॥
‘हनुमन् ! तुम नीतिशास्त्र के पण्डित हो एकमात्र तुम्हीं में बल, बुद्धि, पराक्रम, देश-काल का अनुसरण तथा नीतिपूर्ण बर्ताव एक साथ देखे जाते हैं’ ॥७॥
ततः कार्यसमासङ्गमवगम्य हनूमति।
विदित्वा हनुमन्तं च चिन्तयामास राघवः॥८॥
सुग्रीव की बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को यह ज्ञात हुआ कि इस कार्य की सिद्धि का सम्बन्ध—इसे पूर्ण करने का सारा भार हनुमान् पर ही है। उन्होंने स्वयं भी यह अनुभव किया कि हनुमान् इस कार्य को सफल करने में समर्थ हैं फिर वे इस प्रकार मन-ही मन विचार करने लगे— ॥८॥
सर्वथा निश्चितार्थोऽयं हनमति हरीश्वरः।
निश्चितार्थतरश्चापि हनूमान् कार्यसाधने॥९॥
‘वानरराज सुग्रीव सर्वथा हनुमान् पर ही यह भरोसा किये बैठे हैं कि ये ही निश्चित रूप से हमारे इस प्रयोजन को सिद्ध कर सकते हैं। स्वयं हनुमान् भी अत्यन्त निश्चित रूप से इस कार्य को सिद्ध करने का विश्वास रखते हैं॥९॥
तदेवं प्रस्थितस्यास्य परिज्ञातस्य कर्मभिः।
भर्चा परिगृहीतस्य ध्रुवः कार्यफलोदयः॥१०॥
‘इस प्रकार कार्यों द्वारा जिनकी परीक्षा कर ली गयी है तथा जो सबसे श्रेष्ठ समझे गये हैं, वे हनुमान् अपने स्वामी सुग्रीव के द्वारा सीता की खोज के लिये भेजे जा रहे हैं। इनके द्वारा इस कार्य के फल का उदय (सीता का दर्शन) होना निश्चित है’ ।। १० ।।।
तं समीक्ष्य महातेजा व्यवसायोत्तरं हरिम्।
कृतार्थ इव संहृष्टः प्रहृष्टेन्द्रियमानसः॥११॥
ऐसा विचारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी कार्यसाधन के उद्योग में सर्वश्रेष्ठ हनुमान जी की ओर दृष्टिपात करके अपने को कृतार्थ-सा मानते हुए प्रसन्न हो गये। उनकी सारी इन्द्रियाँ और मन हर्ष से खिल उठे॥
ददौ तस्य ततः प्रीतः स्वनामाङ्कोपशोभितम्।
अङ्गलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परंतपः॥१२॥
तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम ने प्रसन्नतापूर्वक अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित एक अंगूठी हनुमान जी के हाथ में दी, जो राजकुमारी सीता को पहचान के रूप में अर्पण करने के लिये थी॥ १२॥
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नानुपश्यति॥१३॥
अँगूठी देकर वे बोले—कपिश्रेष्ठ! इस चिह्न के द्वारा जनककिशोरी सीता को यह विश्वास हो जायगा कि तुम मेरे पास से ही गये हो। इससे वह भय त्यागकर तुम्हारी ओर देख सकेगी॥१३॥
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।
सग्रीवस्य च संदेशः सिद्धिं कथयतीव मे॥१४॥
‘वीरवर! तुम्हारा उद्योग, धैर्य, पराक्रम और सुग्रीव का संदेश—ये सब मुझे इस बात की सूचना-सी दे रहे हैं कि तुम्हारे द्वारा कार्य की सिद्धि अवश्य होगी’ ॥ १४॥
स तद् गृह्य हरिश्रेष्ठः कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगर्षभः॥१५॥
वानरश्रेष्ठ हनुमान् ने वह अँगूठी लेकर उसे मस्तक पर रखा और फिर हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके वे वानरशिरोमणि वहाँ से प्रस्थित हुए॥ १५ ॥
स तत् प्रकर्षन् हरिणां महद् बलं बभूव वीरः पवनात्मजः कपिः।
गताम्बुदे व्योम्नि विशुद्धमण्डलः शशीव नक्षत्रगणोपशोभितः॥१६॥
उस समय वीर-वानर पवनकुमार हनुमान् अपने साथ वानरों की उस विशाल सेना को ले जाते हुए उसी तरह शोभा पाने लगे, जैसे मेघरहित आकाश में विशुद्ध (निर्मल) मण्डल से उपलक्षित चन्द्रमा नक्षत्रसमूहों के साथ सुशोभित होता है॥ १६ ॥
अतिबल बलमाश्रितस्तवाहं हरिवर विक्रम विक्रमैरनल्पैः।
पवनसुत यथाधिगम्यते सा जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व॥१७॥
जाते हुए हनुमान् को सम्बोधित करके श्रीरामचन्द्रजी ने फिर कहा—’अत्यन्त बलशाली कपिश्रेष्ठ! मैंने तुम्हारे बल का आश्रय लिया है। पवनकुमार हनुमान् ! जिस प्रकार भी जनकनन्दिनी सीता प्राप्त हो सके, तुम अपने महान् बल-विक्रम से वैसा ही प्रयत्न करो अच्छा, अब जाओ’ ॥ १७ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४४॥