वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 45 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 45
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 45)
विभिन्न दिशाओं में जाते हुए वानरों का सुग्रीव के समक्ष अपने उत्साहसूचक वचन सुनाना
सर्वांश्चाहूय सुग्रीवः प्लवगान् प्लवगर्षभः।
समस्तांश्चाब्रवीद् राजा रामकार्यार्थसिद्धये ॥१॥
तदनन्तर वानरशिरोमणि राजा सुग्रीव अन्य समस्त वानरों को बुलाकर श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये उन सबसे बोले- ॥१॥
एवमेतद् विचेतव्यं भवद्भिर्वानरोत्तमैः।
तदुग्रशासनं भर्तुर्विज्ञाय हरिपुंगवाः ॥२॥
शलभा इव संछाद्य मेदिनीं सम्प्रतस्थिरे।
‘कपिवरो! जैसा मैंने बताया है, उसके अनुसार तुम सभी श्रेष्ठ वानरों को इस जगत् में सीता की खोज करनी चाहिये।’ स्वामी की उस कठोर आज्ञा को भलीभाँति समझकर वे सम्पूर्ण श्रेष्ठ वानर टिड्डियों के दल की भाँति पृथ्वी को आच्छादित करके वहाँ से प्रस्थित हुए। २ १/२॥
रामः प्रस्रवणे तस्मिन् न्यवसत् सहलक्ष्मणः॥३॥
प्रतीक्षमाणस्तं मासं सीताधिगमने कृतः।
श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ उस प्रस्रवण गिरि पर ही ठहरे रहे और सीता का समाचार लाने के लिये जो एक मास की अवधि निश्चित की गयी थी, उसकी प्रतीक्षा करने लगे॥ ३ १/२ ॥
उत्तरां तु दिशं रम्यां गिरिराजसमावृताम्॥४॥
प्रतस्थे सहसा वीरो हरिः शतबलिस्तदा।
उस समय वीर वानर शतबलि ने गिरिराज हिमालय से घिरी हुई रमणीय उत्तर दिशा की ओर शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान किया॥ ४ १/२ ॥
पूर्वां दिशं प्रतिययौ विनतो हरियूथपः॥५॥
ताराङ्गदादिसहितः प्लवगः पवनात्मजः।
अगस्त्याचरितामाशां दक्षिणां हरियूथपः॥६॥
पश्चिमां च दिशं घोरां सुषेणः प्लवगेश्वरः।
प्रतस्थे हरिशार्दूलो दिशं वरुणपालिताम्॥७॥
वानर-यूथपति विनत पूर्व दिशा की ओर गये। कपिगणों के अधिपति पवनकुमार वानर हनुमान जी तार और अङ्गद आदि के साथ अगस्त्यसेवित दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुए तथा वानरेश्वर कपिश्रेष्ठ सुषेण ने वरुण द्वारा सुरक्षित घोर पश्चिम दिशा की यात्रा की॥५-७॥
ततः सर्वा दिशो राजा चोदयित्वा यथातथम्।
कपिसेनापतिर्वीरो मुमोद सुखितः सुखम्॥८॥
वानर-सेना के स्वामी वीर राजा सुग्रीव सम्पूर्ण दिशाओं में यथायोग्य वानरों को भेजकर बहुत सुखी हुए और मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करने लगे॥ ८॥
एवं संचोदिताः सर्वे राज्ञा वानरयूथपाः।
स्वां स्वां दिशमभिप्रेत्य त्वरिताः सम्प्रतस्थिरे॥९॥
इस तरह राजा की आज्ञा पाकर समस्त वानरयूथपति बड़ी उतावली के साथ अपनी-अपनी दिशा की ओर प्रस्थित हुए॥९॥
नदन्तश्चोन्नदन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
क्ष्वेडन्तो धावमानाश्च विनदन्तो महाबलाः॥ १०॥
एवं संचोदिताः सर्वे राज्ञा वानरयूथपाः।
आनयिष्यामहे सीतां हनिष्यामश्च रावणम्॥ ११॥
अहमेको वधिष्यामि प्राप्तं रावणमाहवे।
ततश्चोन्मथ्य सहसा हरिष्ये जनकात्मजाम्॥ १२॥
वेपमानां श्रमेणाद्य भवद्भिः स्थीयतामिति।
एक एवाहरिष्यामि पातालादपि जानकीम्॥१३॥
विधमिष्याम्यहं वृक्षान् दारयिष्याम्यहं गिरीन्।
धरणी दारयिष्यामि क्षोभयिष्यामि सागरान्॥१४॥
अहं योजनसंख्यायाः प्लवेयं नात्र संशयः।
शतयोजनसंख्यायाः शतं समधिकं ह्यहम्॥१५॥
भूतले सागरे वापि शैलेषु च वनेषु च।
पातालस्यापि वा मध्ये न ममाच्छिद्यते गतिः॥१६॥
वे समस्त महाबली वानर और उनके यूथपति अपने राजा के द्वारा इस प्रकार प्रेरित हो भाँति-भाँति के शब्द करते, उच्च स्वर से गर्जते, दहाड़ते, किलकारियाँ मारते, दौड़ते और कोलाहल करते हुए कहने लगे—’राजन् ! हम सीता को साथ लायेंगे और रावण का वध कर डालेंगे। युद्ध में यदि रावण मेरे सामने आ जाय तो मैं अकेला ही उसे मार गिराऊँगा। तत्पश्चात् उसकी सारी सेना को मथकर कष्ट एवं भय से काँपती हुई जानकी जी को सहसा यहाँ उठा लाऊँगा। आप लोग यहीं ठहरें। मैं अकेला ही पाताल से भी जनककिशोरी को निकाल लाऊँगा, वृक्षों को उखाड़ फेकूँगा, पर्वतों के टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा, पृथ्वी को विदीर्ण कर दूँगा और समुद्रों को भी विक्षुब्ध कर डालूँगा। मैं सौ योजनतक कूद सकता हूँ, इसमें संशय नहीं है। मैं सौ योजन से भी अधिक दूरतक जा सकता हूँ। पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, वन और पाताल में भी मेरी गति नहीं रुकती’ ॥ १०–१६॥
इत्येकैकस्तदा तत्र वानरा बलदर्पिताः।
ऊचुश्च वचनं तस्य हरिराजस्य संनिधौ॥१७॥
इस तरह वहाँ वानरराज सुग्रीव के समीप बल के घमंड में भरे हुए वानर उस समय एक-एक करके आते और उनके सामने उपर्युक्त बातें कहते थे॥ १७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चचत्वारिंशः सर्गः॥ ४५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४५ ॥