वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 46 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 46
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 46)
सुग्रीव का श्रीरामचन्द्रजी को अपने भूमण्डल-भ्रमण का वृत्तान्त बताना
गतेषु वानरेन्द्रेषु रामः सुग्रीवमब्रवीत्।
कथं भवान् विजानीते सर्वं वै मण्डलं भुवः॥
उन समस्त वानरयूथपतियों के चले जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने सुग्रीव से पूछा—’सखे! तुम समस्त भूमण्डल के स्थानों का परिचय कैसे जानते हो?’॥
सुग्रीवश्च ततो राममुवाच प्रणतात्मवान्।
श्रूयतां सर्वमाख्यास्ये विस्तरेण वचो मम॥२॥
तब सुग्रीव ने विनीत होकर श्रीरामचन्द्रजी से कहा —’भगवन्! मैं सब कुछ विस्तार के साथ बता रहा हूँ मेरी बातें सुनिये॥२॥
यदा तु दुन्दुभिं नाम दानवं महिषाकृतिम्।
प्रतिकालयते वाली मलयं प्रति पर्वतम्॥३॥
तदा विवेश महिषो मलयस्य गुहां प्रति।
विवेश वाली तत्रापि मलयं तज्जिघांसया॥४॥
‘जब वाली महिषरूपधारी दानव दुन्दुभि* (उसके पुत्र मायावी) का पीछा कर रहे थे, उस समय वह महिष मलयपर्वत की ओर भागा और उस पर्वत की कन्दरा में घुस गया। यह देख वाली ने उसके वध की इच्छा से उस गुफा के भीतर भी प्रवेश किया। ३-४॥
* यहाँ दुन्दुभि और महिष शब्द से उसके पुत्र मायावी नामक दानव का ही वर्णन हुआ है—ऐसा मानना चाहिये; क्योंकि आगे कही जाने वाली सारी बातें उसीके वृत्तान्त से सम्बन्ध रखती हैं। पिता भैंसे का रूप धारण करता था यही गण उसके पत्र मायावी में भी था। इसलिये उसको भी महिष या महिषाकृति कहना असङ्गत नहीं है।
ततोऽहं तत्र निक्षिप्तो गुहाद्वारि विनीतवत्।
न च निष्क्रामते वाली तदा संवत्सरे गते॥५॥
‘उस समय मैं विनीतभाव से उस गुफा के द्वार पर खड़ा रहा; क्योंकि वाली ने मुझे वहीं रख छोड़ा था। परंतु एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी वाली उसके भीतर से नहीं निकले॥५॥
ततः क्षतजवेगेन आपुपूरे तदा बिलम्।
तदहं विस्मितो दृष्ट्वा भ्रातुः शोकविषार्दितः॥६॥
‘तदनन्तर वेगपूर्वक बहे हुए रक्त की धारा से उस समय वह सारी गुफा भर गयी। यह देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ तथा मैं भाई के शोक से व्यथित हो उठा॥६॥
अथाहं गतबुद्धिस्तु सुव्यक्तं निहतो गुरुः।
शिला पर्वतसंकाशा बिलद्वारि मया कृता॥७॥
‘फिर मेरी बुद्धि में यह बात आयी कि अब मेरे बड़े भाई निश्चय ही मारे गये। यह विचार पैदा होते ही मैंने उस गुफा के द्वार पर एक पहाड़-जैसी चट्टान रख दी॥
अशक्नुवन्निष्क्रमितुं महिषो विनशिष्यति।
ततोऽहमागां किष्किन्धां निराशस्तस्य जीविते॥८ ॥
‘सोचा-इस शिला से द्वार बंद हो जाने पर मायावी निकल नहीं सकेगा, भीतर ही घुट-घुटकर मर जायगा। इसके बाद भाई के जीवन से निराश होकर मैं किष्किन्धापुरी में लौट आया॥८॥
राज्यं च सुमहत् प्राप्य तारां च रुमया सह।
मित्रैश्च सहितस्तत्र वसामि विगतज्वरः॥९॥
‘यहाँ विशाल राज्य तथा रुमासहित तारा को पाकर मित्रों के साथ मैं निश्चिन्ततापूर्वक रहने लगा॥९॥
आजगाम ततो वाली हत्वा तं वानरर्षभः।
ततोऽहमददां राज्यं गौरवाद भययन्त्रितः॥१०॥
‘तत्पश्चात् वानरश्रेष्ठ वाली उस दानव का वध करके आ पहुँचे। उनके आते ही मैंने भाई के गौरव से भयभीत हो वह राज्य उन्हें वापस कर दिया॥१०॥
स मां जिघांसर्दष्टात्मा वाली प्रव्यथितेन्द्रियः।
परिकालयते वाली धावन्तं सचिवैः सह ॥११॥
‘परंतु दुष्टात्मा वाली मुझे मार डालना चाहता था, उसकी सारी इन्द्रियाँ यह सोचकर व्यथित हो उठी थीं कि ‘यह मुझे मारने के लिये ही गुफा का द्वार बंद करके भाग आया था।’ मैं अपनी प्राण-रक्षा के लिये मन्त्रियों के साथ भागा और वाली मेरा पीछा करने लगा॥ ११॥
ततोऽहं वालिना तेन सोऽनुबद्धः प्रधावितः।
नदीश्च विविधाः पश्यन् वनानि नगराणि च॥१२॥
आदर्शतलसंकाशा ततो वै पृथिवी मया।
अलातचक्रप्रतिमा दृष्टा गोष्पदवत् कृता॥१३॥
‘वाली मेरे पीछे लगा रहा और मैं जोर-जोर से भागता गया। उसी समय मैंने विभिन्न नदियों, वनों और नगरों को देखते हुए सारी पृथ्वी को गायकी खुरी की भाँति मानकर उसकी परिक्रमा कर डाली। भागते समय मुझे यह पृथ्वी दर्पण और अलातचक्र के समान दिखायी दी॥ १२-१३॥
पूर्वां दिशं ततो गत्वा पश्यामि विविधान् द्रुमान्।
पर्वतान् सदरीन् रम्यान् सरांसि विविधानि च॥१४॥
‘तदनन्तर पूर्व दिशा में जाकर मैंने नाना प्रकार के वृक्ष, कन्दराओं सहित रमणीय पर्वत और भाँतिभाँति के सरोवर देखे॥ १४॥
उदयं तत्र पश्यामि पर्वतं धातमण्डितम्।
क्षीरोदं सागरं चैव नित्यमप्सरसालयम्॥१५॥
‘वहीं नाना प्रकार के धातुओं से मण्डित उदयाचल तथा अप्सराओं के नित्य-निवासस्थान क्षीरोद सागर का भी मैंने दर्शन किया॥१५॥
परिकाल्यमानस्तु तदा वालिनाभिद्रुतो ह्यहम्।
पुनरावृत्य सहसा प्रस्थितोऽहं तदा विभो॥१६॥
‘उस समय वाली पीछा करते रहे और मैं भागता रहा। प्रभो! जब मैं यहाँ फिर लौटकर आया, तब वाली के डर से पुनः सहसा मुझे भागना पड़ा॥१६॥
दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिणां दिशम्।
विन्ध्यपादपसंकीर्णां चन्दनद्रुमशोभिताम्॥१७॥
‘उस दिशा को छोड़कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ, जहाँ विन्ध्यपर्वत और नाना प्रकार के वृक्ष भरे हुए हैं तथा चन्दन के वृक्ष जिसकी शोभा बढ़ाते हैं।॥ १७॥
द्रुमशैलान्तरे पश्यन् भूयो दक्षिणतोऽपराम्।
अपरां च दिशं प्राप्तो वालिना समभिद्रतः॥१८॥
‘वृक्षों और पर्वतों की ओट में बारंबार वाली को देखकर मैंने दक्षिण दिशा को छोड़ दिया तथा वाली के खदेड़ने पर पश्चिम दिशा की शरण ली॥ १८॥
स पश्यन् विविधान् देशानस्तं च गिरिसत्तमम्।
प्राप्य चास्तं गिरिश्रेष्ठमुत्तरं सम्प्रधावितः ॥१९॥
वहाँ नाना प्रकार के देशों को देखता हुआ मैं गिरिश्रेष्ठ अस्ताचल तक जा पहँचा। वहाँ पहँचकर मैं पुनः उत्तर दिशा की ओर भागा॥ १९॥
हिमवन्तं च मेरुं च समुद्रं च तथोत्तरम्।
यदा न विन्दे शरणं वालिना समभिद्रुतः॥२०॥
ततो मां बुद्धिसम्पन्नो हनुमान् वाक्यमब्रवीत्।
‘हिमालय, मेरु और उत्तर समुद्र तक पहुँचकर भी जब वाली के पीछा करने के कारण मुझे कहीं शरण नहीं मिली, तब परम बुद्धिमान् हनुमान जी ने मुझसे यह बात कही— ॥ २० १/२॥
इदानीं मे स्मृतं राजन् यथा वाली हरीश्वरः॥
मतङ्गेन तदा शप्तो ह्यस्मिन्नाश्रममण्डले।
प्रविशेद् यदि वै वाली मूर्धास्य शतधा भवेत्॥२२॥
“राजन् ! इस समय मुझे उस घटना का स्मरण हो आया है, जैसा कि मतङ्गमुनि ने उन दिनों वानरराज वाली को शाप दिया था कि ‘यदि वाली इस आश्रममण्डल में प्रवेश करेगा तो उसके मस्तक के सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे’ ॥ २१-२२ ॥
तत्र वासः सुखोऽस्माकं निरुद्विग्नो भविष्यति।
ततः पर्वतमासाद्य ऋष्यमूकं नृपात्मज॥२३॥
न विवेश तदा वाली मतङ्गस्य भयात् तदा।
“अतः वहीं निवास करना हमलोगों के लिये सुखद और निर्भय होगा’। राजकुमार! इस निश्चय के अनुसार हमलोग ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रहने लगे। उस समय मतङ्ग ऋषि के भय से वाली ने वहाँ प्रवेश नहीं किया।
एवं मया तदा राजन् प्रत्यक्षमुपलक्षितम्।
पृथिवीमण्डलं सर्वं गुहामस्यागतस्ततः॥ २४॥
‘राजन्! इस प्रकार मैंने उन दिनों समस्त भूमण्डल को प्रत्यक्ष देखा था। उसके बाद ऋष्यमूक की गुफा में आया था’।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः॥४६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में छियालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४६॥