वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 47
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 47)
पूर्व आदि तीन दिशाओं में गये हुए वानरों का निराश होकर लौट आना
दर्शनार्थं तु वैदेह्याः सर्वतः कपिकुञ्जराः।
व्यादिष्टाः कपिराजेन यथोक्तं जग्मुरञ्जसा॥१॥
वानरराज के द्वारा समस्त दिशाओं की ओर जाने की आज्ञा पाकर वे सभी श्रेष्ठ वानर, जिनके लिये जिस ओर जाने का आदेश मिला था उसी ओर विदेहकुमारी सीता का पता लगाने के लिये उत्साहपूर्वक चल दिये॥१॥
ते सरांसि सरित्कक्षानाकाशं नगराणि च।
नदीदुर्गास्तथा देशान् विचिन्वन्ति समन्ततः॥२॥
वे सरोवरों, सरिताओं, लतामण्डपों, खुले स्थानों और नगरों में तथा नदियों के कारण दुर्गम प्रदेशों में सब ओर घूम-फिरकर सीता की खोज करने लगे॥२॥
सुग्रीवेण समाख्याताः सर्वे वानरयूथपाः।
तत्र देशान् विचिन्वन्ति सशैलवनकाननान्॥३॥
सुग्रीव ने जिन्हें आज्ञा दी थी, वे सभी वानरयूथपति अपनी-अपनी दिशाओं के पर्वत, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण देशों की छानबीन करने लगे। ३॥
विचित्य दिवसं सर्वे सीताधिगमने धृताः।
समायान्ति स्म मेदिन्यां निशाकालेषु वानराः॥४॥
सीताजी का पता लगाने की निश्चित इच्छा मन में लिये वे सब वानर दिनभर इधर-उधर अन्वेषण करते और रात के समय किसी नियत स्थान पर एकत्र हो जाते थे॥
सर्वर्तुकांश्च देशेषु वानराः सफलद्रुमान्।
आसाद्य रजनीं शय्यां चक्रुः सर्वेष्वहःसु ते॥५॥
सारे दिन भिन्न-भिन्न देशों में घूम-फिरकर वे वानर सभी ऋतुओं में फल देने वाले वृक्षों के पास जाकर रात को वहीं सोया अथवा विश्राम किया करते थे॥
तदहः प्रथमं कृत्वा मासे प्रस्रवणं गताः।
कपिराजेन संगम्य निराशाः कपिकुञ्जराः॥६॥
जाने के दिन को पहला दिन मानकर एक मास पूर्ण होने तक वे श्रेष्ठ वानर निराश हो लौट आये और कपिराज सुग्रीव से मिलकर प्रस्रवणगिरि पर ठहर गये॥६॥
विचित्य तु दिशं पूर्वां यथोक्तां सचिवैः सह।
अदृष्टा विनतः सीतामाजगाम महाबलः॥७॥
महाबली विनत अपने मन्त्रियों के साथ पहले बताये अनुसार पूर्व दिशा में खोज करके वहाँ सीता को न पाकर किष्किन्धा लौट आये॥७॥
दिशमप्युत्तरां सर्वां विविच्य स महाकपिः।
आगतः सह सैन्येन भीतः शतबलिस्तदा॥८॥
महाकपि शतबलि सारी उत्तर दिशा की छानबीन करके भयभीत हो तत्काल सेनासहित किष्किन्धा आ गये॥
सुषेणः पश्चिमामाशां विविच्य सह वानरैः।
समेत्य मासे पूर्णे तु सुग्रीवमुपचक्रमे॥९॥
वानरों सहित सुषेण भी पश्चिम दिशा का अनुसंधान करके वहाँ सीता को न पाकर एक मास पूर्ण होने पर सुग्रीव के पास चले आये॥९॥
तं प्रस्रवणपृष्ठस्थं समासाद्याभिवाद्य च।
आसीनं सह रामेण सुग्रीवमिदमब्रुवन्॥१०॥
प्रस्रवणगिरि पर श्रीरामचन्द्रजी के साथ बैठे हुए सुग्रीव के पास आकर सब वानरों ने उन्हें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा— ॥१०॥
विचिताः पर्वताः सर्वे वनानि गहनानि च।
निम्नगाः सागरान्ताश्च सर्वे जनपदाश्च ये॥
गुहाश्च विचिताः सर्वा याश्च ते परिकीर्तिताः।
विचिताश्च महागुल्मा लताविततसंतताः॥१२॥
‘राजन्! हमने समस्त पर्वत, घने जंगल, समुद्रपर्यन्त नदियाँ, सम्पूर्ण देश, आपकी बतायी हुई सारी गुफाएँ तथा लतावितान से व्याप्त हुई झाड़ियाँ भी खोज डालीं॥
गहनेषु च देशेषु दुर्गेषु विषमेषु च।
सत्त्वान्यतिप्रमाणानि विचितानि हतानि च।
ये चैव गहना देशा विचितास्ते पुनः पुनः॥१३॥
‘घने वनों, विभिन्न देशों, दुर्गम स्थानों और ऊँची ऊँची भूमियों में भी ढूँढ़ा है। बड़े-बड़े प्राणियों की भी तलाशी ली और उन्हें मार डाला। जो-जो प्रदेश घने और दुर्गम जान पड़े, वहाँ बारंबार खोज की (किंतु कहीं भी सीताजी का पता न लगा) ॥ १३॥
उदारसत्त्वाभिजनो हनूमान् स मैथिलीं ज्ञास्यति वानरेन्द्र।
दिशं तु यामेव गता तु सीता तामास्थितो वायुसुतो हनूमान्॥१४॥
‘वानरराज! वायुपुत्र हनुमान् परम शक्तिमान् और कुलीन हैं। वे ही मिथिलेशकुमारी का पता लगा सकेंगे; क्योंकि वे उसी दिशा में गये हैं, जिधर सीता गयी हैं’ ॥ १४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः ॥४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४७॥