वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 48 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 48
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 48)
दक्षिण दिशा में गये हुए वानरों का सीता की खोज आरम्भ करना
सह ताराङ्गदाभ्यां तु सहसा हनुमान् कपिः।
सुग्रीवेण यथोद्दिष्टं गन्तुं देशं प्रचक्रमे॥१॥
उधर तार और अङ्गद के साथ हनुमान् जी सहसा सुग्रीव के बताये हुए दक्षिण दिशा के देशों की ओर चले॥
स तु दूरमुपागम्य सर्वैस्तैः कपिसत्तमैः।
ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्च गहनानि च॥२॥
पर्वताग्रनदीदुर्गान् सरांसि विपुलद्रुमान्।
वृक्षषण्डांश्च विविधान् पर्वतान् वनपादपान्॥
अन्वेषमाणास्ते सर्वे वानराः सर्वतो दिशम्।
न सीतां ददृशुर्वीरा मैथिली जनकात्मजाम्॥४॥
उन सभी श्रेष्ठ वानरों के साथ बहुत दूर का रास्ता तै करके वे विन्ध्याचल पर गये और वहाँ की गुफाओं, जंगलों, पर्वतशिखरों, नदियों, दर्गम स्थानों सरोवरों. बड़े-बड़े वृक्षों, झाड़ियों और भाँति-भाँति के पर्वतों एवं वन्य वृक्षों में सब ओर ढूँढ़ते फिरे; परंतु वहाँ उन समस्त वीर वानरों ने मिथिलेशकुमारी जनकनन्दिनी सीता को कहीं नहीं देखा॥२-४॥
ते भक्षयन्तो मूलानि फलानि विविधान्यपि।
अन्वेषमाणा दुर्धर्षा न्यवसंस्तत्र तत्र ह॥५॥
वे सभी दुर्धर्ष वीर नाना प्रकार के फल-मूल का भोजन करते हुए सीता को खोजते और जहाँ-तहाँ ठहर जाया करते थे।
स तु देशो दुरन्वेषो गुहागहनवान् महान्।
निर्जलं निर्जनं शून्यं गहनं घोरदर्शनम्॥६॥
विन्ध्यपर्वत के आस-पास का महान् देश बहुत-सी गुफाओं तथा घने जंगलों से भरा था। इससे वहाँ जानकी को ढूँढ़ने में बड़ी कठिनाई होती थी। भयंकर दिखायी देने वाले वहाँ के सुनसान जंगल में न तो पानी मिलता था और न कोई मनुष्य ही दिखायी देता था।
तादृशान्यप्यरण्यानि विचित्य भृशपीडिताः।
स देशश्च दुरन्वेष्यो गुहागहनवान् महान्॥७॥
वैसे जंगलों में भी खोज करते समय उन वानरों को अत्यन्त कष्ट सहन करना पड़ा। वह विशाल प्रदेश अनेक गुहाओं और सघन वनों से व्याप्त था। अतः वहाँ अन्वेषण का कार्य बहुत कठिन प्रतीत होता था। ७॥
त्यक्त्वा तु तं ततो देशं सर्वे वै हरियूथपाः।
देशमन्यं दुराधर्षं विविशुश्चाकुतोभयाः॥८॥
तदनन्तर वे समस्त वानर-यूथपति उस देश को छोड़कर दूसरे प्रदेश में घुसे, जहाँ जाना और भी कठिन था तो भी उन्हें कहीं किसी से भय नहीं होता था॥८॥
यत्र वन्ध्यफला वृक्षा विपुष्पाः पर्णवर्जिताः।
निस्तोयाः सरितो यत्र मूलं यत्र सुदुर्लभम्॥९॥
वहाँ के वृक्ष कभी फल नहीं देते थे। उनमें फूल भी नहीं लगते थे और उनकी डालियों में पत्ते भी नहीं थे। वहाँ की नदियों में पानी का नाम नहीं था। कन्द-मूल आदि तो वहाँ सर्वथा दुर्लभ थे॥९॥
न सन्ति महिषा यत्र न मृगा न च हस्तिनः।
शार्दूलाः पक्षिणो वापि ये चान्ये वनगोचराः॥१०॥
उस प्रदेश में न भैंसे थे न हिरन और हाथी न बाघ थे न पक्षी तथा वन में विचरने वाले अन्य प्राणियों का भी वहाँ अभाव था॥ १०॥
न चात्र वृक्षा नौषध्यो न वल्लयो नापि वीरुधः ।
स्निग्धपत्राः स्थले यत्र पद्मिन्यः फुल्लपङ्कजाः॥११॥
प्रेक्षणीयाः सुगन्धाश्च भ्रमरैश्च विवर्जिताः।
वहाँ न पेड़ थे न पौधे, न ओषधियाँ थीं न लता बेलें उस देश की पोखरियों में चिकने पत्तों और खिले हुए फूलों से युक्त कमल भी नहीं थे। इसीलिये न तो वे देखने योग्य थीं, न उनमें सुगन्ध छा रही थी और न वहाँ भौरे ही गुंजार करते थे। ११ १/२॥
कण्डुर्नाम महाभागः सत्यवादी तपोधनः॥१२॥
महर्षिः परमामर्षी नियमैर्दुष्प्रधर्षणः।
पहले वहाँ कण्डु नाम से प्रसिद्ध एक महाभाग सत्यवादी और तपस्या के धनी महर्षि रहते थे, जो बड़े अमर्षशील थे—अपने प्रति किये गये अपराध को सहन नहीं करते थे। शौच-संतोष आदि नियमों का पालन करने के कारण उन महर्षि को कोई तिरस्कृत या पराजित नहीं कर सकता था। १२ १/२॥
तस्य तस्मिन् वने पुत्रो बालको दशवार्षिकः॥१३॥
प्रणष्टो जीवितान्ताय क्रुद्धस्तेन महामुनिः।
उस वन में उनका एक बालक पुत्र, जिसकी अवस्था दस वर्ष की थी, किसी कारण से मर गया। इससे कुपित होकर वे महामुनि उस वन के जीवन का अन्त करने के लिये उद्यत हो गये। १३ १/२॥
तेन धर्मात्मना शप्तं कृत्स्नं तत्र महदनम्॥१४॥
अशरण्यं दुराधर्षं मृगपक्षिविवर्जितम्।
उन धर्मात्मा महर्षि ने उस समूचे विशाल वन को वहाँ शाप दे दिया, जिससे वह आश्रयहीन, दुर्गम तथा पशु-पक्षियों से शून्य हो गया॥ १४ १/२॥
तस्य ते काननान्तांस्तु गिरीणां कन्दराणि च॥१५॥
प्रभवाणि नदीनां च विचिन्वन्ति समाहिताः।
तत्र चापि महात्मानो नापश्यञ्जनकात्मजाम्॥१६॥
हर्तारं रावणं वापि सुग्रीवप्रियकारिणः।
वहाँ सुग्रीव का प्रिय करने वाले उन महामनस्वी वानरों ने उस वन के सभी प्रदेशों, पर्वतों की कन्दराओं तथा नदियों के उद्गमस्थानों में एकाग्रचित्त होकर अनुसंधान किया; परंतु वहाँ भी उन्हें जनकनन्दिनी सीता अथवा उनका अपहरण करने वाले रावण का कुछ पता नहीं चला।
ते प्रविश्य तु तं भीमं लतागुल्मसमावृतम्॥१७॥
ददृशुर्भीमकर्माणमसुरं सुरनिर्भयम्।
तत्पश्चात् लताओं और झाड़ियों से व्याप्त हुए दूसरे किसी भयंकर वन में प्रवेश करके उन हनुमान् आदि वानरों ने भयानक कर्म करने वाले एक असुर को देखा, जिसे देवताओं से कोई भय नहीं था॥ १७ १/२ ।।
तं दृष्ट्वा वानरा घोरं स्थितं शैलमिवासुरम्॥१८॥
गाढं परिहिताः सर्वे दृष्ट्वा तं पर्वतोपमम्।
उस घोर निशाचर को पहाड़ के समान सामने खड़ा देख सभी वानरों ने अपने ढीले-ढाले वस्त्रों को अच्छी तरह कस लिया और सब-के-सब उस पर्वताकार असुर से भिड़ने को तैयार हो गये। १८ १/२॥
सोऽपि तान् वानरान् सर्वान् नष्टाः स्थेत्यब्रवीद् बली॥१९॥
अभ्यधावत संक्रुद्धो मुष्टिमुद्यम्य संगतम्।
उधर वह बलवान् असुर भी उन सब वानरों को देखकर बोला—’अरे, आज तुम सभी मारे गये।’ इतना कहकर वह अत्यन्त कुपित हो बँधा हुआ मुक्का तानकर उनकी ओर दौड़ा॥ १९ १/२॥
तमापतन्तं सहसा वालिपुत्रोऽङ्गदस्तदा॥२०॥
रावणोऽयमिति ज्ञात्वा तलेनाभिजघान ह।
उसे सहसा आक्रमण करते देख वालिपुत्र अङ्गद ने समझा कि यही रावण है; अतः उन्होंने आगे बढ़कर उसे एक तमाचा जड़ दिया॥२० १/२॥
स वालिपुत्राभिहतो वक्त्राच्छोणितमुद्रमन्॥२१॥
असुरो न्यपतद् भूमौ पर्यस्त इव पर्वतः।
ते तु तस्मिन् निरुच्छ्वासे वानरा जितकाशिनः॥२२॥
व्यचिन्वन् प्रायशस्तत्र सर्वं ते गिरिगह्वरम्।
वालिपुत्र के मारने पर वह असुर मुँह से रक्त वमन करता हुआ फटकर गिरे हुए पहाड़ की भाँति पृथ्वी पर जा पड़ा और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। तत्पश्चात् विजयोल्लास से सुशोभित होने वाले वानर प्रायः वहाँ की सारी पर्वतीय गुफाओं में अनुसंधान करने लगे॥ २१-२२ १/२ ॥
विचितं तु ततः सर्वं सर्वे ते काननौकसः॥ २३॥
अन्यदेवापरं घोरं विविशुर्गिरिगह्वरम्।।
जब वहाँ के सारे प्रदेश में खोज कर ली गयी, तब उन समस्त वनवासी वानरों ने किसी दूसरी पर्वतीय कन्दरा में प्रवेश किया, जो पहले की अपेक्षा भी भयानक थी॥ २३ १/२ ॥
ते विचित्य पुनः खिन्ना विनिष्पत्य समागताः।
एकान्ते वृक्षमूले तु निषेदुर्दीनमानसाः॥२४॥
उसमें भी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वे थक गये और निराश होकर निकल आये। फिर सब-के-सब एकान्त स्थान में एक वृक्ष के नीचे खिन्नचित्त होकर बैठ गये॥ २४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टचत्वारिंशः सर्गः॥४८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४८॥