वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 49 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 49
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकोनपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 49)
अङ्गद और गन्धमादन के आश्वासन देने पर वानरों का पुनःउत्साहपूर्वक अन्वेषण-कार्य में प्रवृत्त होना
अथाङ्गदस्तदा सर्वान् वानरानिदमब्रवीत्।
परिश्रान्तो महाप्राज्ञः समाश्वास्य शनैर्वचः॥१॥
तदनन्तर परिश्रम से थके हुए महाबुद्धिमान् अङ्गद सम्पूर्ण वानरों को आश्वासन देकर धीरे-धीरे इस प्रकार कहने लगे— ॥१॥
वनानि गिरयो नद्यो दुर्गाणि गहनानि च।
दरी गिरिगुहाश्चैव विचिताः सर्वमन्ततः॥२॥
तत्र तत्र सहास्माभिर्जानकी न च दृश्यते।।
तथा रक्षोऽपहर्ता च सीतायाश्चैव दुष्कृती॥३॥
‘हमलोगों ने वन, पर्वत, नदियाँ, दुर्गम स्थान, घने जंगल, कन्दरा और गुफाएँ भीतर प्रवेश करके अच्छी तरह देख डाली; परंतु उन स्थानों में हमें न तो जानकी के दर्शन हुए और न उनका अपहरण करने वाला वह पापी राक्षस ही मिला॥ २-३॥
कालश्च नो महान् यातः सुग्रीवश्चोग्रशासनः।
तस्माद् भवन्तः सहिता विचिन्वन्तु समन्ततः॥४॥
‘हमारा समय भी बहुत बीत गया। राजा सुग्रीव का शासन बड़ा भयंकर है। अतः आपलोग मिलकर पुनः सब ओर सीता की खोज आरम्भ करें॥ ४॥
विहाय तन्द्रीं शोकं च निद्रां चैव समुत्थिताम्।
विचिनुध्वं तथा सीतां पश्यामो जनकात्मजाम्॥
‘आलस्य, शोक और आयी हुई निद्रा का परित्याग करके इस प्रकार ढूँढें, जिससे हमें जनककुमारी सीता का दर्शन हो सके॥५॥
अनिर्वेदं च दाक्ष्यं च मनसश्चापराजयम्।
कार्यसिद्धिकराण्याहुस्तस्मादेतद् ब्रवीम्यहम्॥६॥
‘उत्साह, सामर्थ्य और मन में हिम्मत न हारना—ये कार्य की सिद्धि कराने वाले सद्गुण कहे गये हैं; इसीलिये मैं आपलोगों से यह बात कह रहा हूँ॥६॥
अद्यापीदं वनं दुर्गं विचिन्वन्तु वनौकसः।
खेदं त्यक्त्वा पुनः सर्वं वनमेव विचिन्वताम्॥७॥
‘आज भी सारे वानर खेद छोड़कर इस दुर्गम वन में खोज आरम्भ करें और सारे वन को ही छान डालें ॥७॥
अवश्यं कुर्वतां तस्य दृश्यते कर्मणः फलम्।
परं निर्वेदमागम्य नहि नोन्मीलनं क्षमम्॥८॥
‘कर्म में लगे रहने वाले लोगों को उस कर्म का फल अवश्य होता दिखायी देता है; अतः अत्यन्त खिन्न होकर उद्योग को छोड़ बैठना कदापि उचित नहीं है।
सुग्रीवः क्रोधनो राजा तीक्ष्णदण्डश्च वानराः।
भेतव्यं तस्य सततं रामस्य च महात्मनः॥९॥
‘सुग्रीव क्रोधी राजा हैं। उनका दण्ड भी बड़ा कठोर होता है। वानरो! उनसे तथा महात्मा श्रीराम से आपलोगों को सदा डरते रहना चाहिये॥९॥
हितार्थमेतदुक्तं वः क्रियतां यदि रोचते।
उच्यतां हि क्षमं यत् तत् सर्वेषामेव वानराः॥१०॥
‘आपलोगों की भलाई के लिये ही मैंने ये बातें कही हैं। यदि अच्छी लगें तो आप इन्हें स्वीकार करें अथवा वानरो ! जो सबके लिये उचित हो, वह कार्य आप ही लोग बतावें ॥ १०॥
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा वचनं गन्धमादनः।
उवाच व्यक्तया वाचा पिपासाश्रमखिन्नया॥११॥
अङ्गद की यह बात सुनकर गन्धमादन ने प्यास और थकावट से शिथिल हुई स्पष्ट वाणी में कहा— ॥११॥
सदृशं खलु वो वाक्यमङ्गदो यदुवाच ह।
हितं चैवानुकूलं च क्रियतामस्य भाषितम्॥१२॥
‘वानरो! युवराज अङ्गद ने जो बात कही है, वह आपलोगों के योग्य, हितकर और अनुकूल है; अतः सब लोग इनके कथनानुसार कार्य करें॥ १२॥
पुनर्मार्गामहे शैलान् कन्दरांश्च शिलांस्तथा।
काननानि च शून्यानि गिरिप्रस्रवणानि च॥१३॥
‘हमलोग पुनः पर्वतों, कन्दराओं, शिलाओं, निर्जन वनों और पर्वतीय झरनों की खोज करें॥ १३॥
यथोद्दिष्टानि सर्वाणि सुग्रीवेण महात्मना।
विचिन्वन्त वनं सर्वे गिरिदुर्गाणि संगताः॥१४॥
‘महात्मा सुग्रीव ने जिन स्थानों की चर्चा की थी, उन सबमें वन और पर्वतीय दुर्गम प्रदेशों में सब वानर एक साथ होकर खोज आरम्भ करें’॥ १४ ॥
ततः समुत्थाय पुनर्वानरास्ते महाबलाः।
विन्ध्यकाननसंकीर्णां विचेरुदक्षिणां दिशम्॥१५॥
यह सुनकर वे महाबली वानर उठकर खड़े हो गये और विन्ध्य पर्वत के काननों से व्याप्त दक्षिण दिशा में विचरने लगे॥ १५॥
ते शारदाभ्रप्रतिमं श्रीमद्रजतपर्वतम्।
शृङ्गवन्तं दरीवन्तमधिरुह्य च वानराः॥१६॥
सामने शरद्-ऋतुके बादलोंके समान शोभाशाली रजत पर्वत दिखायी दिया, जिसमें अनेक शिखर और कन्दराएँ थीं। वे सब वानर उसपर चढ़कर खोजने लगे॥१६॥
तत्र लोध्रवनं रम्यं सप्तपर्णवनानि च।
विचिन्वन्तो हरिवराः सीतादर्शनकांक्षिणः॥१७॥
सीता के दर्शन की इच्छा रखने वाले वे सभी श्रेष्ठ वानर वहाँ के रमणीय लोध्रवन में और सप्तपर्ण (छितवन) के जंगलों में उनकी खोज करने लगे। १७॥
ततः समुत्थाय पुनर्वानरास्ते महाबलाः।
विन्ध्यकाननसंकीर्णां विचेरुदक्षिणां दिशम्॥१५॥
यह सुनकर वे महाबली वानर उठकर खड़े हो गये और विन्ध्य पर्वत के काननों से व्याप्त दक्षिण दिशा में विचरने लगे॥ १५॥
ते शारदाभ्रप्रतिमं श्रीमद्रजतपर्वतम्।
शृङ्गवन्तं दरीवन्तमधिरुह्य च वानराः॥१६॥
सामने शरद्-ऋतुके बादलों के समान शोभाशाली रजत पर्वत दिखायी दिया, जिसमें अनेक शिखर और कन्दराएँ थीं वे सब वानर उस पर चढ़कर खोजने लगे॥१६॥
तत्र लोध्रवनं रम्यं सप्तपर्णवनानि च।
विचिन्वन्तो हरिवराः सीतादर्शनकांक्षिणः॥१७॥
सीता के दर्शन की इच्छा रखने वाले वे सभी श्रेष्ठ वानर वहाँ के रमणीय लोध्रवन में और सप्तपर्ण (छितवन) के जंगलों में उनकी खोज करने लगे। १७॥
तस्याग्रमधिरूढास्ते श्रान्ता विपुलविक्रमाः।
न पश्यन्ति स्म वैदेहीं रामस्य महिषीं प्रियाम्॥१८॥
उस पर्वत के शिखर पर चढ़े हुए वे महापराक्रमी वानर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये, परंतु श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी रानी सीता का दर्शन न पा सके॥ १८ ॥
ते तु दृष्टिगतं दृष्ट्वा तं शैलं बहुकन्दरम्।
अध्यारोहन्त हरयो वीक्षमाणाः समन्ततः॥१९॥
अनेक कन्दराओं वाले उस पर्वत का अच्छी तरह निरीक्षण करके सब ओर दृष्टिपात करने वाले वे वानर उससे नीचे उतर गये॥ १९॥
अवरुह्य ततो भूमिं श्रान्ता विगतचेतसः।
स्थिता मुहूर्तं तत्राथ वृक्षमूलमुपाश्रिताः॥२०॥
पृथ्वी पर उतरकर अधिक थक जाने के कारण अचेत हुए वे सभी वानर वहाँ एक वृक्ष के नीचे गये और दो घड़ी तक वहाँ बैठे रहे ॥ २० ॥
ते मुहूर्तं समाश्वस्ताः किंचिद्भग्नपरिश्रमाः।
पुनरेवोद्यताः कृत्स्ना मार्गितुं दक्षिणां दिशम्॥२१॥
एक मुहूर्ततक सुस्ता लेने पर जब उनकी थकावट कुछ कम हो गयी तब वे पुनः सम्पूर्ण दक्षिण दिशा में खोज के लिये उद्यत हो गये॥ २१॥
हनुमत्प्रमुखास्तावत् प्रस्थिताः प्लवगर्षभाः।
विन्ध्यमेवादितः कृत्वा विचेरुश्च समन्ततः॥२२॥
हनुमान् आदि सभी श्रेष्ठ वानर सीता के अन्वेषण के लिये प्रस्थित हो पहले विन्ध्य पर्वत के ही चारों ओर विचरने लगे॥ २२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः॥४९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४९॥