वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 5 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 5
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चमः सर्गः (सर्ग 5)
श्रीराम और सुग्रीव की मैत्री तथा श्रीराम द्वारा वालि वध की प्रतिज्ञा
ऋष्यमूकात् तु हनुमान् गत्वा तं मलयं गिरिम्।
आचचक्षे तदा वीरौ कपिराजाय राघवौ॥१॥
श्रीराम और लक्ष्मण को ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के वास-स्थान में बिठाकर हनुमान जी वहाँ से मलयपर्वत पर गये (जो ऋष्यमूक का ही एक शिखर है) और वहाँ वानरराज सुग्रीव को उन दोनों रघुवंशी वीरों का परिचय देते हुए इस प्रकार बोले- ॥१॥
अयं रामो महाप्राज्ञ सम्प्राप्तो दृढविक्रमः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा रामोऽयं सत्यविक्रमः॥२॥
‘महाप्राज्ञ! जिनका पराक्रम अत्यन्त दृढ़ और अमोघ है, वे श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ पधारे हैं॥२॥
इक्ष्वाकूणां कुले जातो रामो दशरथात्मजः।
धर्मे निगदितश्चैव पितुर्निर्देशकारकः॥३॥
‘इन श्रीराम का आविर्भाव इक्ष्वाकुकुल में हुआ है। ये महाराज दशरथ के पुत्र हैं और स्वधर्मपालन के लिये संसार में विख्यात हैं। अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये इस वन में इनका आगमन हुआ है॥३॥
राजसूयाश्वमेधैश्च वह्निर्येनाभितर्पितः।
दक्षिणाश्च तथोत्सृष्टा गावः शतसहस्रशः॥४॥
तपसा सत्यवाक्येन वसुधा येन पालिता।
स्त्रीहेतोस्तस्य पुत्रोऽयं रामोऽरण्यं समागतः॥५॥
‘जिन्होंने राजसूय और अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान करके अग्निदेव को तृप्त किया था, ब्राह्मणों को बहुत सी दक्षिणाएँ बाँटी थीं और लाखों गौएँ दानमें दी थीं। जिन्होंने सत्य-भाषणपूर्वक तप के द्वारा वसुधा का पालन किया था, उन्हीं महाराज दशरथ के पुत्र ये श्रीराम पिता द्वारा अपनी पत्नी कैकेयी के लिये दिये हुए वर का पालन करने के निमित्त इस वन में आये हैं। ४-५॥
तस्यास्य वसतोऽरण्ये नियतस्य महात्मनः।
रावणेन हृता भार्या स त्वां शरणमागतः॥६॥
‘महात्मा श्रीराम मुनियों की भाँति नियम का पालन करते हुए दण्डकारण्य में निवास करते थे। एक दिन रावण ने आकर सूने आश्रम से इनकी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया। उन्हीं की खोज में आपसे सहायता लेने के लिये ये आपकी शरण में आये हैं।६॥
भवता सख्यकामौ तौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
प्रगृह्य चार्चयस्वैतौ पूजनीयतमावुभौ॥७॥
‘ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण आपसे मित्रता करना चाहते हैं। आप चलकर इन्हें अपनावें और इनका यथोचित सत्कार करें; क्योंकि ये दोनों ही वीर हमलोगों के लिये परम पूजनीय हैं ॥७॥
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं सुग्रीवो वानराधिपः।
दर्शनीयतमो भूत्वा प्रीत्योवाच च राघवम्॥८॥
हनुमान् जी का यह वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव स्वेच्छा से अत्यन्त दर्शनीय रूप धारण करके श्रीरघुनाथजी के पास आये और बड़े प्रेम से बोले- ॥ ८॥
भवान् धर्मविनीतश्च सुतपाः सर्ववत्सलः।
आख्याता वायुपुत्रेण तत्त्वतो मे भवद्गुणाः॥ ९॥
‘प्रभो! आप धर्म के विषय में भलीभाँति सुशिक्षित, परम तपस्वी और सबपर दया करने वाले हैं। पवनकुमार हनुमान जी ने मुझसे आपके यथार्थ गुणों का वर्णन किया है।
तन्ममैवैष सत्कारो लाभश्चैवोत्तमः प्रभो।
यत्त्वमिच्छसि सौहार्द वानरेण मया सह ॥१०॥
‘भगवन् ! मैं वानर हूँ और आप नर मेरे साथ जो आप मैत्री करना चाहते हैं, इसमें मेरा ही सत्कार है और मुझे ही उत्तम लाभ प्राप्त हो रहा है॥१०॥
रोचते यदि मे सख्यं बाहुरेष प्रसारितः।
गृह्यतां पाणिना पाणिर्मर्यादा बध्यतां ध्रुवा॥
‘यदि मेरी मैत्री आपको पसंद हो तो मेरा यह हाथ फैला हुआ है। आप इसे अपने हाथ में ले लें और परस्पर मैत्री का अटूट सम्बन्ध बना रहे इसके लिये स्थिर मर्यादा बाँध दें’॥ ११॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम्।
सम्प्रहृष्टमना हस्तं पीडयामास पाणिना॥१२॥
आख्याता वायुपुत्रेण तत्त्वतो मे भवद्गुणाः॥ ९॥
‘प्रभो! आप धर्म के विषय में भलीभाँति सुशिक्षित, परम तपस्वी और सब पर दया करने वाले हैं। पवनकुमार हनुमान जी ने मुझसे आपके यथार्थ गुणों का वर्णन किया है।
तन्ममैवैष सत्कारो लाभश्चैवोत्तमः प्रभो।
यत्त्वमिच्छसि सौहार्द वानरेण मया सह ॥१०॥
‘भगवन् ! मैं वानर हूँ और आप नर। मेरे साथ जो आप मैत्री करना चाहते हैं, इसमें मेरा ही सत्कार है और मुझे ही उत्तम लाभ प्राप्त हो रहा है॥१०॥
रोचते यदि मे सख्यं बाहुरेष प्रसारितः।
गृह्यतां पाणिना पाणिर्मर्यादा बध्यतां ध्रुवा॥
‘यदि मेरी मैत्री आपको पसंद हो तो मेरा यह हाथ फैला हुआ है। आप इसे अपने हाथ में ले लें और परस्पर मैत्री का अटूट सम्बन्ध बना रहे इसके लिये स्थिर मर्यादा बाँध दें’॥ ११॥
एतत् तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम्।
सम्प्रहृष्टमना हस्तं पीडयामास पाणिना॥१२॥
हृष्टः सौहृदमालम्ब्य पर्यष्वजत पीडितम्।
सुग्रीव का यह सुन्दर वचन सुनकर भगवान् श्रीराम का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने अपने हाथ से उनका हाथ पकड़कर दबाया और सौहार्दका आश्रय ले बड़े हर्ष के साथ शोकपीड़ित सुग्रीव को छाती से लगा लिया। १२ १/२॥
ततो हनूमान् संत्यज्य भिक्षुरूपमरिंदमः॥१३॥
काष्ठयोः स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्।
(सुग्रीव के पास जाने से पूर्व हनुमान जी ने पुनः भिक्षुरूप धारण कर लिया था।) श्रीराम सुग्रीव की मैत्री के समय शत्रुदमन हनुमान जी ने भिक्षुरूप को त्यागकर अपना स्वाभाविक रूप धारण कर लिया
और दो लकड़ियों को रगड़कर आग पैदा की॥ १३ १/२॥
दीप्यमानं ततो वह्नि पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम्॥ १४॥
तयोर्मध्ये तु सुप्रीतो निदधौ सुसमाहितः।
तत्पश्चात् उस अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने फूलों द्वारा अग्निदेव का सादर पूजन किया; फिर एकाग्रचित्त हो श्रीराम और सुग्रीव के बीच में साक्षी के रूप में उस अग्नि को प्रसन्नतापूर्वक स्थापित कर दिया॥ १४ १/२॥
ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्॥ १५॥
सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ।
इसके बाद सुग्रीव और श्रीरामचन्द्रजी ने उस प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा की और दोनों एकदूसरे के मित्र बन गये॥ १५ १/२ ॥
ततः सप्रीतमनसौ तावुभौ हरिराघवौ॥१६॥
अन्योन्यमभिवीक्षन्तौ न तृप्तिमभिजग्मतुः।
इससे उन वानरराज तथा श्रीरघुनाथजी दोनों के हृदय में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे एक-दूसरे की ओर देखते हुए तृप्त नहीं होते थे॥ १६ १/२ ॥
त्वं वयस्योऽसि हृद्यो मे ह्येकं दुःखं सुखं च नौ॥ १७॥
सुग्रीवो राघवं वाक्यमित्युवाच प्रहृष्टवत्।
उस समय सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी से प्रसन्नतापूर्वक कहा—’आप मेरे प्रिय मित्र हैं। आज से हम दोनों का दुःख और सुख एक है’ ॥ १७ १/२॥
ततः सुपर्णबहुलां भक्त्वा शाखां सुपुष्पिताम्॥ १८॥
सालस्यास्तीर्य सुग्रीवो निषसाद सराघवः।
यह कहकर सुग्रीव ने अधिक पत्ते और फूलों वाली शाल वृक्ष की एक शाखा तोड़ी और उसे बिछाकर वे श्रीरामचन्द्रजी के साथ उस पर बैठे। १८ १/२ ॥
लक्ष्मणायाथ संहृष्टो हनुमान् मारुतात्मजः॥१९॥
शाखां चन्दनवृक्षस्य ददौ परमपुष्पिताम्।।
तदनन्तर पवनपुत्र हनुमान् ने अत्यन्त प्रसन्न हो चन्दन-वृक्ष की एक डाली, जिसमें बहुत-से फूल लगे हुए थे, तोड़कर लक्ष्मण को बैठने के लिये दी॥ १९ १/२॥
ततः प्रहृष्टः सुग्रीवः श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥२०॥
प्रत्युवाच तदा रामं हर्षव्याकुललोचनः।
इसके बाद हर्ष से भरे हुए सुग्रीव ने जिनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, उस समय भगवान् श्रीराम से स्निग्ध मधुर वाणी में कहा— ॥ २० १/२ ॥
अहं विनिकृतो राम चरामीह भयार्दितः॥२१॥
हृतभार्यो वने त्रस्तो दुर्गमेतदुपाश्रितः।
‘श्रीराम ! मैं घर से निकाल दिया गया हूँ और भय से पीड़ित होकर यहाँ विचरता हूँ। मेरी पत्नी भी मुझसे छीन ली गयी। मैंने आतङ्कित होकर वन में इस दुर्गम पर्वत का आश्रय लिया है॥ २१ १/२ ॥
सोऽहं त्रस्तो वने भीतो वसाम्युभ्रान्तचेतनः॥ २२॥
वालिना निकृतो भ्रात्रा कृतवैरश्च राघव।
‘रघुनन्दन! मेरे बड़े भाई वाली ने मुझे घर से निकालकर मेरे साथ वैर बाँध लिया है। उसी के त्रास और भय से उद्भ्रान्तचित्त होकर मैं इस वन में निवास करता हूँ॥ २२॥
वालिनो मे महाभाग भयार्तस्याभयं कुरु॥२३॥
कर्तुमर्हसि काकुत्स्थ भयं मे न भवेद् यथा।
‘महाभाग! वाली के भय से पीड़ित हुए मुझ सेवक को आप अभय-दान दीजिये। काकुत्स्थ! आपको ऐसा करना चाहिये, जिससे मेरे लिये किसी प्रकार का भय न रह जाय’ ॥ २३ १/२ ॥
एवमुक्तस्तु तेजस्वी धर्मज्ञो धर्मवत्सलः॥२४॥
प्रत्यभाषत काकुत्स्थः सुग्रीवं प्रहसन्निव।
सुग्रीव के ऐसा कहने पर धर्म के ज्ञाता, धर्मवत्सल, ककुत्स्थकुलभूषण तेजस्वी श्रीराम ने हँसते हुए-से वहाँ सुग्रीव को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२४॥
उपकारफलं मित्रं विदितं मे महाकपे॥२५॥
वालिनं तं वधिष्यामि तव भार्यापहारिणम्।
‘महाकपे! मुझे मालूम है कि मित्र उपकाररूपी फल देने वाला होता है। मैं तुम्हारी पत्नी का अपहरण करने वाले वाली का वध कर दूंगा॥ २५ १/२॥
अमोघाः सूर्यसंकाशा ममेमे निशिताः शराः॥ २६॥
तस्मिन् वालिनि दुर्वृत्ते निपतिष्यन्ति वेगिताः।
कङ्कपत्रप्रतिच्छन्ना महेन्द्राशनिसंनिभाः॥२७॥
तीक्ष्णाग्रा ऋजुपर्वाणः सरोषा भुजगा इव।
‘मेरे तूणीर में संगृहीत हुए ये सूर्यतुल्य तेजस्वी बाण अमोघ हैं—इनका वार खाली नहीं जाता। ये बड़ेवेगशाली हैं। इनमें कंक पक्षी के परों के पंख लगे हुए हैं, जिनसे ये आच्छादित हैं। इनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं और गाँठे भी सीधी हैं। ये रोष में भरे हुए सर्पो के समान छूटते हैं और इन्द्र के वज्र की भाँति भयंकर चोट करते हैं। उस दुराचारी वाली पर मेरे ये बाण अवश्य गिरेंगे॥ २६-२७ १/२ ।।
तमद्य वालिनं पश्य तीक्ष्णैराशीविषोपमैः॥२८॥
शरैर्विनिहतं भूमौ प्रकीर्णमिव पर्वतम्।
‘आज देखना, मैं अपने विषधर सो के समान तीखे बाणों से मारकर वाली को पृथ्वी पर गिरा दूंगा। वह इन्द्र के वज्र से टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वत के समान दिखायी देगा’॥
स तु तद् वचनं श्रुत्वा राघवस्यात्मनो हितम्।
सुग्रीवः परमप्रीतः परमं वाक्यमब्रवीत्॥२९॥
अपने लिये परम हितकर वह श्रीरघुनाथजी का वचन सुनकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उत्तम वाणी में बोले- ॥ २९॥
तव प्रसादेन नृसिंह वीर प्रियां च राज्यं च समाप्नुयामहम्।
तथा कुरु त्वं नरदेव वैरिणं यथा न हिंस्यात् स पुनर्ममाग्रजम्॥३०॥
‘वीर! पुरुषसिंह ! मैं आपकी कृपा से अपनी प्यारी पत्नी तथा राज्य को प्राप्त कर सकूँ, ऐसा यत्न कीजिये। नरदेव! मेरा बड़ा भाई वैरी हो गया है। आप उसकी ऐसी अवस्था कर दें जिससे वह फिर मुझे मार न सके’ ॥ ३०॥
सीताकपीन्द्रक्षणदाचराणां राजीवहेमज्वलनोपमानि।
सुग्रीवरामप्रणयप्रसङ्गे वामानि नेत्राणि समं स्फुरन्ति॥३१॥
सुग्रीव और श्रीराम की इस प्रेमपूर्ण मैत्री के प्रसङ्ग में सीता के प्रफुल्ल कमल-जैसे, कपिराज वाली के सुवर्ण-जैसे तथा निशाचरों के प्रज्वलित अग्नि-जैसे बायें नेत्र एक साथ ही फड़कने लगे॥३१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५॥
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