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वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 50

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 50)

भूखे-प्यासे वानरों का एक गुफा में घुसकर वहाँ दिव्य वृक्ष, दिव्य सरोवर, दिव्य भवन तथा एक वृद्धा तपस्विनी को देखना और हनुमान जी का उससे उसका परिचय पूछना

 

सह ताराङ्गदाभ्यां तु संगम्य हनुमान् कपिः।
विचिनोति च विन्ध्यस्य गुहाश्च गहनानि च॥१॥

हनुमान जी तार और अङ्गद के साथ मिलकर विन्ध्यगिरि की गुफाओं और घने जंगलों में सीताजी को ढूँढने लगे॥१॥

सिंहशार्दूलजुष्टाश्च गुहाश्च परितस्तदा।
विषमेषु नगेन्द्रस्य महाप्रस्रवणेषु च॥२॥

उन्होंने सिंह और बाघों से भरी हुई कन्दराओं तथा उसके आस-पास की भूमि को भी छान डाला। गिरिराज विन्ध्य पर जो बड़े-बड़े झरने और दुर्गम स्थान थे, वहाँ भी अन्वेषण किया॥२॥

आसेदुस्तस्य शैलस्य कोटिं दक्षिणपश्चिमाम्।
तेषां तत्रैव वसतां स कालो व्यत्यवर्तत ॥३॥

घूमते-फिरते वे तीनों वानर उस पर्वत के नैर्ऋत्यकोण वाले शिखर पर जा पहुँचे। वहीं रहते हुए उनका वह समय, जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया॥३॥

स हि देशो दुरन्वेष्यो गुहागहनवान् महान्।
तत्र वायुसुतः सर्वं विचिनोति स्म पर्वतम्॥४॥

गुफाओं और जंगलों से भरे हुए उस महान् प्रदेश में सीता को ढूँढ़ने का काम बहुत ही कठिन था तो भी वहाँ वायुपुत्र हनुमान् जी सारे पर्वत की छानबीन करने लगे॥ ४॥

परस्परेण रहिता अन्योन्यस्याविदूरतः।
गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः॥५॥
मैन्दश्च द्विविदश्चैव हनूमान् जाम्बवानपि।
अङ्गदो युवराजश्च तारश्च वनगोचरः॥६॥
गिरिजालावृतान् देशान् मार्गित्वा दक्षिणां दिशम्।
विचिन्वन्तस्ततस्तत्र ददृशुर्विवृतं बिलम्॥७॥

फिर अलग-अलग एक-दूसरे से थोड़ी ही दूर पर रहकर गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, मैन्द,द्विविद, हनुमान्, जाम्बवान्, युवराज अङ्गद तथा वनवासी वानर तार—ये दक्षिण दिशा के देशों में जो पर्वतमालाओं से घिरे हुए थे, सीता की खोज करने लगे। खोजते-खोजते उन्हें वहाँ एक गुफा दिखायी दी, जिसका द्वार बंद नहीं था॥ ५–७॥

दुर्गमृक्षबिलं नाम दानवेनाभिरक्षितम्।
क्षुत्पिपासापरीतास्तु श्रान्तास्तु सलिलार्थिनः॥८॥

उसमें प्रवेश करना बहुत कठिन था। वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी और एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानरों को भूख-प्यास सता रही थी। वे बहुत थक गये थे और पानी पीना चाहते थे॥८॥

अवकीर्णं लतावृक्षर्ददृशुस्ते महाबिलम्।
तत्र क्रौञ्चाश्च हंसाश्च सारसाश्चापि निष्क्रमन्॥९॥
जलार्द्राश्चक्रवाकाश्च रक्ताङ्गाः पद्मरेणुभिः।

अतः लता और वृक्षों से  आच्छादित विशाल गुफा की ओर वे देखने लगे। इतने में उसके भीतर से क्रौञ्च, हंस, सारस तथा जल से भीगे हुए चक्रवाक पक्षी, जिनके अङ्ग कमलों के पराग से रक्तवर्ण के हो रहे थे, बाहर निकले॥

ततस्तद् बिलमासाद्य सुगन्धि दुरतिक्रमम्॥१०॥
विस्मयव्यग्रमनसो बभूवुर्वानरर्षभाः।
संजातपरिशङ्कास्ते तद् बिलं प्लवगोत्तमाः॥११॥

तब उस सुगन्धित एवं दुर्लङ्घ्य गुफा के पास जाकर उन सभी श्रेष्ठ वानरों का मन आश्चर्य से चकित हो उठा। उस बिल के अंदर उन्हें जल होने का संदेह हुआ॥

अभ्यपद्यन्त संहृष्टास्तेजोवन्तो महाबलाः।
नानासत्त्वसमाकीर्णं दैत्येन्द्रनिलयोपमम्॥१२॥
दुर्दर्शमिव घोरं च दुर्विगाह्यं च सर्वशः।

वे महाबली और तेजस्वी वानर बड़े हर्ष में भरकर उस गुफा के पास आये, जो नाना प्रकार के जन्तुओं से भरी हुई तथा दैत्यराजों के निवासस्थान पाताल के समान भयंकर प्रतीत होती थी। वह इतनी भयानक थी कि उसकी ओर देखना कठिन जान पड़ता था। उसके भीतर घुसना सर्वथा कष्टसाध्य था॥ १२ १/२॥

ततः पर्वतकूटाभो हनूमान् मारुतात्मजः॥१३॥
अब्रवीद् वानरान् घोरान् कान्तारवनकोविदः।

उस समय पर्वत-शिखर के समान प्रतीत होने वाले पवनपुत्र हनुमान् जी, जो दुर्गम वन के ज्ञाता थे, उन घोर वानरों से बोले- ॥ १३ १/२॥

गिरिजालावृतान् देशान् मार्गित्वा दक्षिणां दिशम्॥१४॥
वयं सर्वे परिश्रान्ता न च पश्याम मैथिलीम्।

‘बन्धुओ! दक्षिण दिशा के देश प्रायः पर्वतमालाओं से घिरे हुए हैं। इनमें मिथिलेशकुमारी सीता को खोजते-खोजते हम सब लोग बहुत थक गये; किंतु कहीं भी हमें उनके दर्शन नहीं हुए। १४ १/२॥

अस्माच्चापि बिलाद्धंसाः क्रौञ्चाश्च सह सारसैः॥१५॥
जलार्द्राश्चक्रवाकाश्च निष्पतन्ति स्म सर्वशः।
नूनं सलिलवानत्र कूपो वा यदि वा ह्रदः॥१६॥
तथा चेमे बिलद्वारे स्निग्धास्तिष्ठन्ति पादपाः।

‘सामने की इस गुफा से हंस, क्रौञ्च, सारस और जल से भीगे हुए चकवे सब ओर निकल रहे हैं। अतः निश्चय ही इसमें पानी का कुआँ अथवा और कोई जलाशय होना चाहिये। तभी इस गुफा के द्वारवर्ती वृक्ष हरे-भरे हैं’॥

इत्युक्तास्तद् बिलं सर्वे विविशुस्तिमिरावृतम्॥१७॥
अचन्द्रसूर्यं हरयो ददृशू रोमहर्षणम्।

हनुमान जी के ऐसा कहने पर वे सभी वानर अन्धकार से भरी हुई गुफा में, जहाँ चन्द्रमा और सूर्य की किरणें भी नहीं पहुँच पाती थीं, घुस गये। भीतर जाकर उन्होंने देखा, वह गुफा रोंगटे खड़े कर देने वाली थी॥ १७ १/२॥

निशाम्य तस्मात् सिंहांश्च तांस्तांश्च मृगपक्षिणः॥१८॥
प्रविष्टा हरिशार्दूला बिलं तिमिरसंवृतम्।

उस बिल से निकलते हुए उन-उन सिंहों, मृगों और पक्षियों को देखकर वे श्रेष्ठ वानर अन्धकार से आच्छादित हुई उस गुफा में प्रवेश करने लगे॥ १८ १/२॥

न तेषां सज्जते दृष्टिर्न तेजो न पराक्रमः॥१९॥
वायोरिव गतिस्तेषां दृष्टिस्तमसि वर्तते।।

उनकी दृष्टि कहीं अटकती नहीं थी। उनका तेज और पराक्रम भी अवरुद्ध नहीं होता था। उनकी गति वायु के समान थी। अन्धकार में भी उनकी दृष्टि काम कर रही थी॥ १९ १/२ ॥

ते प्रविष्टास्तु वेगेन तद् बिलं कपिकुञ्जराः॥२०॥
प्रकाशं चाभिरामं च ददृशुर्देशमुत्तमम्।

वे श्रेष्ठ वानर उस बिल में वेगपूर्वक घुस गये। भीतर जाकर उन्होंने देखा, वह स्थान बहुत ही उत्तम, प्रकाशमान और मनोहर था॥ २० १/२ ॥

ततस्तस्मिन् बिले भीमे नानापादपसंकुले॥२१॥
अन्योन्यं सम्परिष्वज्य जग्मुर्योजनमन्तरम्।।

नाना प्रकार के वृक्षों से भरी हुई उस भयंकर गुफा में वे एक योजन तक एक-दूसरे को पकड़े हुए गये॥ २१ १/२॥

ते नष्टसंज्ञास्तृषिताः सम्भ्रान्ताः सलिलार्थिनः॥२२॥
परिपेतुर्बिले तस्मिन् कंचित् कालमतन्द्रिताः।

प्यास के मारे उनकी चेतना लुप्त-सी हो रही थी। वे जल पीने के लिये उत्सुक होकर घबरा गये थे और कुछ काल तक आलस्यरहित हो उस बिल में लगातार आगे बढ़ते गये॥ २२ १/२॥

ते कृशा दीनवदनाः परिश्रान्ताः प्लवङ्गमाः॥२३॥
आलोकं ददृशीरा निराशा जीविते यदा।

वे वानरवीर जब दुर्बल, खिन्नवदन और श्रान्त होकर जीवन से निराश हो गये, तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखायी दिया॥ २३ १/२॥

ततस्तं देशमागम्य सौम्या वितिमिरं वनम्॥२४॥
ददृशुः काञ्चनान् वृक्षान् दीप्तवैश्वानरप्रभान्।

तदनन्तर उस अन्धकार से प्रकाशपूर्ण देश में आकर उन सौम्य वानरों ने वहाँ अन्धकाररहित वन देखा, जहाँके सभी वृक्ष सुवर्णमय थे और उनसे अग्नि के समान प्रभा निकल रही थी॥ २४ १/२॥

सालास्तालांस्तमालांश्च पुंनागान् वञ्जुलान् धवान्॥२५॥
चम्पकान् नागवृक्षांश्च कर्णिकारांश्च पुष्पितान्।

साल, ताल, तमाल, नागकेसर, अशोक, धव, चम्पा, नागवृक्ष और कनेर—ये सभी वृक्ष फूलों से भरे हुए थे॥

स्तबकैः काञ्चनैश्चित्रै रक्तैः किसलयैस्तथा॥ २६॥
आपीडैश्च लताभिश्च हेमाभरणभूषितान्।

विचित्र सुवर्णमय गुच्छे और लाल-लाल पल्लव मानो उन वृक्षों के मुकुट थे। उनमें लताएँ लिपटी हुई थीं तथा वे अपने फलस्वरूप सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित थे। २६ १/२॥

तरुणादित्यसंकाशान् वैदूर्यमयवेदिकान्॥ २७॥
बिभ्राजमानान् वपुषा पादपांश्च हिरण्मयान्।

वे देखने में प्रातःकालिक सूर्य के समान जान पड़ते थे। उनके नीचे वैदूर्यमणि की वेदी बनी थी। वे सुवर्णमय वृक्ष अपने दीप्तिमान् स्वरूप से ही प्रकाशित हो रहे थे॥

नीलवैदूर्यवर्णाश्च पद्मिनीः पतगैर्वृताः॥२८॥
महद्भिः काञ्चनैर्वृक्षैर्वृता बालार्कसंनिभैः।
जातरूपमयैर्मत्स्यैर्महद्भिश्चाथ पङ्कजैः॥ २९॥
नलिनीस्तत्र ददृशुः प्रसन्नसलिलायुताः।

वहाँ नील वैदूर्यमणि की-सी कान्तिवाली पद्मलताएँ दिखायी देती थीं, जो पक्षियों से आवृत थीं। कई ऐसे सरोवर भी देखने में आये, जो बाल सूर्य की-सी आभा वाले विशाल काञ्चनवृक्षों से घिरे हुए थे। उनके भीतर सुनहरे रंग के बड़े-बड़े मत्स्य शोभा पाते थे। वे सरोवर सुवर्णमय कमलों से सुशोभित तथा स्वच्छ जल से भरे हुए थे॥ २८-२९ १/२ ॥

काञ्चनानि विमानानि राजतानि तथैव च॥३०॥
तपनीयगवाक्षाणि मुक्ताजालावृतानि च।
हैमराजतभौमानि वैदूर्यमणिमन्ति च ॥३१॥
ददृशुस्तत्र हरयो गृहमुख्यानि सर्वशः।

वानरों ने वहाँ सब ओर सोने-चाँदी के बने हुए बहुत-से श्रेष्ठ भवन देखे, जिनकी खिड़कियाँ मोती की जालियों से ढकी थीं। उन भवनों में सोने के जंगले लगे हुए थे। सोने-चाँदी के ही विमान भी थे। कोई घर सोने के बने थे तो कोई चाँदी के कितने ही गृह पार्थिव वस्तुओं (ईंट, पत्थर, लकड़ी आदि-) से निर्मित हुए थे। उनमें वैदूर्यमणियाँ भी जड़ी गयी थीं। ३०-३१ १/२॥

पुष्पितान् फलिनो वृक्षान् प्रवालमणिसंनिभान्॥३२॥
काञ्चनभ्रमरांश्चैव मधूनि च समन्ततः।
मणिकाञ्चनचित्राणि शयनान्यासनानि च।३३॥
विविधानि विशालानि ददृशुस्ते समन्ततः।
हैमराजतकांस्यानां भाजनानां च राशयः॥३४॥
अगुरूणां च दिव्यानां चन्दनानां च संचयान्।
शुचीन्यभ्यवहाराणि मूलानि च फलानि च॥३५॥
महार्हाणि च यानानि मधूनि रसवन्ति च।
दिव्यानामम्बराणां च महार्हाणां च संचयान्॥३६॥
कम्बलानां च चित्राणामजिनानां च संचयान्।
तत्र तत्र च विन्यस्तान् दीप्तान् वैश्वानरप्रभान्॥३७॥
ददृशुर्वानराः शुभ्राञ्जातरूपस्य संचयान्।

वहाँ के वृक्षों में फूल और फल लगे थे। वे वृक्ष मूंगे और मणियों के समान चमकीले थे। उनपर सुनहरे रंग के भौरे मड़रा रहे थे। वहाँ के घरों में सब ओर मधु संचित थे। मणि और सुवर्ण से जटित विचित्र पलंग तथा आसन सब ओर सजाकर रखे गये थे, जो अनेक प्रकार के और विशाल थे। वानरों ने उन्हें भी देखा। वहाँ ढेर-के-ढेर सोने, चाँदी और कांस(फूल-) के पात्र रखे गये थे। अगुरु तथा दिव्य चन्दन की राशियाँ सुरक्षित थीं। पवित्र भोजन के सामान तथा फल-मूल भी विद्यमान थे। बहुमूल्य सवारियाँ, सरस मधु, महामूल्यवान् दिव्य वस्त्रों के ढेर, विचित्र कम्बल एवं कालीनों की राशियाँ तथा मृगचर्मो के समूह जहाँ-तहाँ रखे हुए थे। वे सब अग्नि के समान प्रभा से उद्दीप्त हो रहे थे। वानरों ने वहाँ चमकीले सुवर्ण के ढेर भी देखे॥ ३२–३७ १/२॥

तत्र तत्र विचिन्वन्तो बिले तत्र महाप्रभाः॥३८॥
ददृशुर्वानराः शूराः स्त्रियं कांचिददूरतः।
तां च ते ददृशुस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्॥
तापसी नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा।
विस्मिता हरयस्तत्र व्यवतिष्ठन्त सर्वशः।
पप्रच्छ हनुमांस्तत्र कासि त्वं कस्य वा बिलम्॥४०॥

उस गुफा में जहाँ-तहाँ खोज करते हुए उन महातेजस्वी शूरवीर वानरों ने थोड़ी ही दूर पर किसी स्त्री को भी देखा, जो वल्कल और काला मृगचर्म पहनकर नियमित आहार करती तपस्या में संलग्न थी और अपने तेज से दिप रही थी। वानरों ने वहाँ उसे बड़े ध्यान से देखा और आश्चर्यचकित होकर सब ओर खड़े रहे। उस समय हनुमान जी ने उससे पूछा —’देवि! तुम कौन हो और यह किसकी गुफा है?’॥

ततो हनूमान् गिरिसंनिकाशः कृताञ्जलिस्तामभिवाद्य वृद्धाम्।
पप्रच्छ का त्वं भवनं बिलं च रत्नानि चेमानि वदस्व कस्य॥४१॥

पर्वत के समान विशालकाय हनुमान जी ने हाथ जोड़कर उस वृद्धा तपस्विनी को प्रणाम किया और पूछा—’देवि! तुम कौन हो? यह गुफा, ये भवन तथा ये रत्न किसके हैं? यह हमें बताओ’ ।। ४१॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५०॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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