वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 51 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 51
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 51)
हनुमान जी के पूछने पर वृद्धा तापसी का अपना तथा उस दिव्य स्थान का परिचय देकर सब वानरों को भोजन के लिये कहना
इत्युक्त्वा हनुमांस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्।
अब्रवीत् तां महाभागां तापसी धर्मचारिणीम्॥१॥
इस तरह पूछकर हनुमान जी चीर एवं कृष्ण मृगचर्म धारण करने वाली उस धर्मपरायणा महाभागा तपस्विनी से वहाँ फिर बोले॥१॥
इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिरसंवृतम्।
क्षुत्पिपासापरिश्रान्ताः परिखिन्नाश्च सर्वशः॥२॥
महद् धरण्या विवरं प्रविष्टाः स्म पिपासिताः।
इमांस्त्वेवंविधान् भावान् विविधानद्भुतोपमान्॥३॥
दृष्ट्वा वयं प्रव्यथिताः सम्भ्रान्ता नष्टचेतसः।
कस्यैते काञ्चना वृक्षास्तरुणादित्यसंनिभाः॥४॥
‘देवि! हम सब लोग भूख-प्यास और थकावट से कष्ट पा रहे थे। इसलिये सहसा इस अन्धकारपूर्ण गुफा में घुस आये। भूतल का यह विवर बहुत बड़ा है। हम प्यास से पीड़ित होने के कारण यहाँ आये हैं, किंतु यहाँ के इन ऐसे अद्भुत विविध पदार्थों को देखकर हमारे मन में बड़ी व्यथा हुई है हम यह सोचकर चिन्तित हो उठे हैं कि यह असुरों की माया तो नहीं है, इसीलिये हमारे मन में घबराहट हो रही है। हमारी विवेकशक्ति लुप्त-सी हो गयी है। हम जानना चाहते हैं कि ये बालसूर्य के समान कान्तिमान् सुवर्णमय वृक्ष किसके हैं? ॥२-४॥
शुचीन्यभ्यवहाराणि मूलानि च फलानि च।
काञ्चनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च॥५॥
तपनीयगवाक्षाणि मणिजालावृतानि च।
पुष्पिताः फलवन्तश्च पुण्याः सुरभिगन्धयः॥६॥
इमे जाम्बूनदमयाः पादपाः कस्य तेजसा।
‘ये भोजन की पवित्र वस्तुएँ, फल-मूल, सोने के विमान, चाँदी के घर, मणियों की जाली से ढकी हुई सोने की खिड़कियाँ तथा पवित्र सुगन्ध से युक्त एवं फल-फूलों से लदे हुए ये सुवर्णमय पावन वृक्ष किसके तेज से प्रकट हुए हैं?॥
काञ्चनानि च पद्मानि जातानि विमले जले॥७॥
कथं मत्स्याश्च सौवर्णा दृश्यन्ते सह कच्छपैः।
आत्मनस्त्वनुभावाद् वा कस्य चैतत्तपोबलम्॥८॥
अजानतां नः सर्वेषां सर्वमाख्यातुमर्हसि।
‘यहाँ के निर्मल जल में सोने के कमल कैसे उत्पन्न हुए? इन सरोवरों के मत्स्य और कछुए सुवर्णमय कैसे दिखायी देते हैं? यह सब तुम्हारे अपने प्रभाव से हुआ है या और किसी के? यह किसके तपोबल का प्रभाव है? हम सब अनजान हैं; इसलिये पूछते हैं तुम हमें सारी बातें बताने की कृपा करो’ ॥ ७-८ १/२ ॥
एवमुक्ता हनुमता तापसी धर्मचारिणी॥९॥
प्रत्युवाच हनूमन्तं सर्वभूतहिते रता।
हनुमान जी के इस प्रकार पूछने पर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाली उस धर्मपरायणा तापसी ने उत्तर दिया- ॥९ १/२॥
मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ॥१०॥
तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया काञ्चनं वनम्।
‘वानरश्रेष्ठ! मायाविशारद महातेजस्वी मय का नाम तुमने सुना होगा। उसी ने अपनी माया के प्रभाव से इस समूचे स्वर्णमय वन का निर्माण किया था॥ १० १/२ ॥
पुरा दानवमुख्यानां विश्वकर्मा बभूव ह॥११॥
येनेदं काञ्चनं दिव्यं निर्मितं भवनोत्तमम्।।
‘मयासुर पहले दानव-शिरोमणियों का विश्वकर्मा था, जिसने इस दिव्य सुवर्णमय उत्तम भवन को बनाया है ॥ १९ १/२॥
स तु वर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महदने॥१२॥
पितामहाद वरं लेभे सर्वमौशनसं धनम्।
‘उसने एक सहस्र वर्षों तक वन मे घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान के रूप में शुक्राचार्य का सारा शिल्प-वैभव प्राप्त किया था॥ १२ १/२॥
विधाय सर्वं बलवान् सर्वकामेश्वरस्तदा॥१३॥
उवास सुखितः कालं कंचिदस्मिन् महावने।
‘सम्पूर्ण कामनाओं के स्वामी बलवान् मयासुरने यहाँ की सारी वस्तुओं का निर्माण करके इस महान् वन में कुछ कालतक सुखपूर्वक निवास किया था। १३ १/२॥
तमप्सरसि हेमायां सक्तं दानवपुङ्गवम्॥१४॥
विक्रम्यैवाशनिं गृह्य जघानेशः पुरंदरः।
‘आगे चलकर उस दानवराज का हेमा नाम की अप्सरा के साथ सम्पर्क हो गया। यह जानकर देवेश्वर इन्द्र ने हाथ में वज्र ले उसके साथ युद्ध करके उसे मार भगाया॥ १४ १/२॥
इदं च ब्रह्मणा दत्तं हेमायै वनमुत्तमम्॥१५॥
शाश्वतः कामभोगश्च गृहं चेदं हिरण्मयम्।
‘तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने यह उत्तम वन, यहाँ का अक्षय काम-भोग तथा यह सोने का भवन हेमा को दे दिया॥
दुहिता मेरुसावर्णेरहं तस्याः स्वयंप्रभा॥१६॥
इदं रक्षामि भवनं हेमाया वानरोत्तम।
‘मैं मेरुसावर्णि की कन्या हूँ। मेरा नाम स्वयंप्रभा है। वानरश्रेष्ठ! मैं उस हेमा के इस भवन की रक्षा करती
मम प्रियसखी हेमा नृत्तगीतविशारदा॥१७॥
तयादत्तवरा चास्मि रक्षामि भवनं महत्।
‘नृत्य और गीत की कला में चतुर हेमा मेरी प्यारी सखी है। उसने मुझसे अपने भवन की रक्षा के लिये प्रार्थना की थी, इसलिये मैं इस विशाल भवन का संरक्षण करती हूँ॥ १७ १/२॥
किं कार्यं कस्य वा हेतोः कान्ताराणि प्रपद्यथ॥१८॥
कथं चेदं वनं दुर्गं युष्माभिरुपलक्षितम्।
‘तुमलोगों का यहाँ क्या काम है? किस उद्देश्य से तुम इन दुर्गम स्थानों में विचरते हो? इस वन में आना तो बहुत कठिन है। तुमने कैसे इसे देख लिया?॥ १८ १/२॥
शुचीन्यभ्यवहाराणि मूलानि च फलानि च।
भुक्त्वा पीत्वा च पानीयं सर्वं मे वक्तुमर्हसि॥१९॥
‘अच्छा, ये शुद्ध भोजन और फल-मूल प्रस्तुत हैं। इन्हें खाकर पानी पी लो फिर मुझसे अपना सारा वृत्तान्त कहो’ ॥ १९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकपञ्चाशः सर्गः॥५१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में इक्यावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५१॥