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वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 52 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 52

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
द्विपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 52)

तापसी स्वयंप्रभा के पूछने पर वानरों का उसे अपना वृत्तान्त बताना और उसके प्रभाव से गुफा के बाहर निकलकर समुद्रतट पर पहुँचना

 

अथ तानब्रवीत् सर्वान् विश्रान्तान् हरियूथपान्।
इदं वचनमेकाना तापसी धर्मचारिणी॥१॥

तत्पश्चात् जब सब वानर-यूथपति खा-पीकर विश्राम कर चुके, तब धर्मका आचरण करने वाली वह एकाग्रहृदया तपस्विनी उन सबसे इस प्रकार बोली- ॥१॥

वानरा यदि वः खेदः प्रणष्टः फलभक्षणात्।
यदि चैतन्मया श्राव्यं श्रोतुमिच्छामि तां कथाम्॥२॥

‘वानरो! यदि फल खाने से तुम्हारी थकावट दूर हो गयी हो और यदि तुम्हारा वृत्तान्त मेरे सुनने योग्य हो तो मैं उसे सुनना चाहती हूँ’॥२॥

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा हनूमान् मारुतात्मजः।
आर्जवेन यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥३॥

उसकी यह बात सुनकर पवनकुमार हनुमान् जी बड़ी सरलता के साथ यथार्थ बात कहने लगे- ॥३॥

राजा सर्वस्य लोकस्य महेन्द्रवरुणोपमः।
रामो दाशरथिः श्रीमान् प्रविष्टो दण्डकावनम्॥४॥

‘देवि! सम्पूर्ण जगत् के राजा दशरथनन्दन श्रीमान् भगवान् राम, जो देवराज इन्द्र और वरुण के समान तेजस्वी हैं, दण्डकारण्य में पधारे थे॥४॥

लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या सह भार्यया।
तस्य भार्या जनस्थानाद् रावणेन हृता बलात्॥

‘उनके साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण तथा उनकी धर्मपत्नी विदेहनन्दिनी सीता भी थीं। जनस्थान में आकर रावण ने उनकी स्त्री का बलपूर्वक अपहरण कर लिया॥५॥

वीरस्तस्य सखा राज्ञः सुग्रीवो नाम वानरः।
राजा वानरमुख्यानां येन प्रस्थापिता वयम्॥६॥
अगस्त्यचरितामाशां दक्षिणां यमरक्षिताम्।
सहैभिर्वानरैर्मुख्यैरङ्गदप्रमुखैर्वयम्॥७॥

‘श्रेष्ठ वानरों के राजा वानरजातीय वीरवर सुग्रीव महाराज श्रीरामचन्द्रजी के मित्र हैं, जिन्होंने इन अङ्गद आदि प्रधान वीरों के साथ हमलोगों को सीता की खोज करने के लिये अगस्त्यसेवित और यमराज द्वारा सुरक्षित दक्षिण दिशा में भेजा है॥६-७॥

रावणं सहिताः सर्वे राक्षसं कामरूपिणम्।
सीतया सह वैदेह्या मार्गध्वमिति चोदिताः॥८॥

‘उन्होंने आज्ञा दी थी कि तुम सब लोग एक साथ रहकर विदेहकुमारी सीतासहित उस इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षसराज रावण का पता लगाना॥ ८॥

विचित्य तु वनं सर्वं समुद्रं दक्षिणां दिशम्।
वयं बुभुक्षिताः सर्वे वृक्षमूलमुपाश्रिताः॥९॥

‘हमने यहाँ का सारा जंगल छान डाला। अब दक्षिण दिशा में समुद्र के भीतर उनका अन्वेषण करना है। अबतक सीता का कुछ पता नहीं लगा और हमलोग भूख-प्यास से पीड़ित हो गये। अन्त में हम सब-के-सब एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गये॥९॥

विवर्णवदनाः सर्वे सर्वे ध्यानपरायणाः।
नाधिगच्छामहे पारं मग्नाश्चिन्तामहार्णवे॥१०॥

‘हमारे मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी। हम सभी चिन्ता में मग्न हो गये। चिन्ता के महासागर में डूबकर हम उसका पार नहीं पा रहे थे॥१०॥

चारयन्तस्ततश्चक्षुर्दृष्टवन्तो महद् बिलम्।
लतापादपसंछन्नं तिमिरेण समावृतम्॥११॥

‘इसी समय चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर हमको यह विशाल गुफा दिखायी पड़ी, जो लता और वृक्षों से ढकी हुई तथा अन्धकार से आच्छन्न थी॥ ११॥

अस्माद्धंसा जलक्लिन्नाः पक्षैः सलिलरेणुभिः।
कुरराः सारसाश्चैव निष्पतन्ति पतत्त्रिणः॥१२॥

‘थोड़ी ही देर में इस गुफा से हंस, कुरर और सारस आदि पक्षी निकले, जिनके पंख जल से भीगे थे और उनमें कीचड़ लगी हुई थी॥ १२ ॥

साध्वत्र प्रविशामेति मया तूक्ताः प्लवङ्गमाः।
तेषामपि हि सर्वेषामनुमानमुपागतम्॥१३॥

‘तब मैंने वानरों से कहा, ‘अच्छा होगा कि हमलोग इसके भीतर प्रवेश करें’। इन सब वानरों को भी यह अनुमान हो गया कि गुफा के भीतर पानी है॥ १३॥

अस्मिन् निपतिताः सर्वेऽप्यथ कार्यत्वरान्विताः।
ततो गाढं निपतिता गृह्य हस्तैः परस्परम्॥१४॥

‘हम सब लोग अपने कार्य की सिद्धि के लिये उतावले थे ही, अतः इस गुफा में कूद पड़े अपने हाथों से एक-दूसरे को दृढ़तापूर्वक पकड़कर हम गुफा में आगे बढ़ने लगे॥ १४ ॥

इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिरसंवृतम्।
एतन्नः कार्यमेतेन कृत्येन वयमागताः॥१५॥

‘इस तरह सहसा हमलोगों ने इस अँधेरी गुफा में प्रवेश किया। यही हमारा कार्य है और इसी कार्य से हम इधर आये हैं॥ १५ ॥

त्वां चैवोपगताः सर्वे परियूना बुभुक्षिताः।
आतिथ्यधर्मदत्तानि मूलानि च फलानि च॥१६॥
अस्माभिरुपयुक्तानि बुभुक्षापरिपीडितैः।

‘भूख से व्याकुल एवं दुर्बल होने के कारण हम सबने तुम्हारी शरण ली। तुमने आतिथ्य-धर्म के अनुसार हमें फल और मूल अर्पित किये और हमने भी भूख से पीड़ित होने के कारण उन्हें भरपेट खाया॥ १६ १/२॥

यत् त्वया रक्षिताः सर्वे म्रियमाणा बुभुक्षया॥१७॥
ब्रूहि प्रत्युपकारार्थं किं ते कुर्वन्तु वानराः।

‘देवि! हम भूख से मर रहे थे। तुमने हम सब लोगों के प्राण बचा लिये। अतः बताओ ये वानर तुम्हारे उपकार का बदला चुकाने के लिये क्या सेवा करें’॥ १७ १/२॥

एवमुक्ता तु सर्वज्ञा वानरैस्तैः स्वयंप्रभा॥१८॥
प्रत्युवाच ततः सर्वानिदं वानरयूथपान्।

स्वयंप्रभा सर्वज्ञ थी। उन वानरों के ऐसा कहने पर उसने उन सभी यूथपतियों को इस प्रकार उत्तर दिया’

सर्वेषां परितुष्टास्मि वानराणां तरस्विनाम्॥१९॥
चरन्त्या मम धर्मेण न कार्यमिह केनचित्।

‘मैं तुम सभी वेगशाली वानरों पर यों ही बहुत संतुष्ट हूँ। धर्मानुष्ठान में लगी रहने के कारण मुझे किसी से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है’ ॥ १९ १/२ ॥

एवमुक्तः शुभं वाक्यं तापस्या धर्मसंहितम्॥२०॥
उवाच हनुमान् वाक्यं तामनिन्दितलोचनाम्।

उस तपस्विनी ने जब इस प्रकार धर्मयुक्त उत्तम बात कही, तब हनुमान जी ने निर्दोष दृष्टिवाली उस देवी से यों कहा- ॥२० १/२॥

शरणं त्वां प्रपन्नाः स्मः सर्वे वै धर्मचारिणीम्॥२१॥
यः कृतः समयोऽस्मासु सुग्रीवेण महात्मना।
स तु कालो व्यतिक्रान्तो बिले च परिवर्तताम्॥२२॥

‘देवि! तुम धर्माचरणमें लगी हुई हो। अतः हम सब लोग तुम्हारी शरण में आये हैं। महात्मा सुग्रीव ने हमलोगों के लौटने के लिये जो समय निश्चित किया था, वह इस गुफा के भीतर घूमने में ही बीत गया॥ २१-२२॥

सा त्वमस्माद् बिलादस्मानुत्तारयितुमर्हसि।
तस्मात् सुग्रीववचनादतिक्रान्तान् गतायुषः॥२३॥
त्रातुमर्हसि नः सर्वान् सुग्रीवभयशङ्कितान्।

‘अब तुम कृपा करके हमें इस बिल से बाहर निकाल दो। सुग्रीव के बताये हुए समय को हम लाँघ चुके हैं, इसलिये अब हमारी आयु पूरी हो चुकी है। हम सबके-सब सुग्रीव के भय से डरे हुए हैं। अतः तुम हमारा उद्धार करो॥ २३ १/२॥

महच्च कार्यमस्माभिः कर्तव्यं धर्मचारिणि॥२४॥
तच्चापि न कृतं कार्यमस्माभिरिह वासिभिः।।

‘धर्मचारिणि! हमें जो महान् कार्य करना है, उसे भी हम इस गुफा में रहने के कारण नहीं कर सके हैं’।

एवमुक्ता हनुमता तापसी वाक्यमब्रवीत्॥ २५॥
जीवता दुष्करं मन्ये प्रविष्टेन निवर्तितुम्।
तपसः सुप्रभावेण नियमोपार्जितेन च॥२६॥
सर्वानेव बिलादस्मात् तारयिष्यामि वानरान्।

हनुमान जी के ऐसा कहने पर तापसी बोली—’मैं समझती हूँ जो एक बार इस गुफा में चला आता है, उसका जीते-जी यहाँ से लौटना बहुत कठिन हो जाता है। तथापि नियमों के पालन और तपस्या के उत्तम प्रभाव से मैं तुम सभी वानरों को इस गुफा से बाहर निकाल दूँगी॥

निमीलयत चढूंषि सर्वे वानरपुङ्गवाः॥२७॥
नहि निष्क्रमितुं शक्यमनिमीलितलोचनैः।

‘श्रेष्ठ वानरो! तुम सब लोग अपनी-अपनी आँखें बंद कर लो। आँख बंद किये बिना यहाँ से निकलना असम्भव है’ ॥ २७ १/२॥

ततो निमीलिताः सर्वे सुकुमाराङ्गलैः करैः॥२८॥
सहसा पिदधुदृष्टिं हृष्टा गमनकांक्षया।

यह सुनकर सबने सुकुमार अङ्गलिवाले हाथों से आँखें मूंद लीं। गुफा से बाहर निकलने की इच्छा से प्रसन्न होकर उन सबने सहसा नेत्र बंद कर लिये॥ २८ १/२॥

वानरास्तु महात्मानो हस्तरुद्धमुखास्तदा॥२९॥
निमेषान्तरमात्रेण बिलादुत्तारितास्तया।

इस प्रकार उस समय हाथों से मुँह ढक लेने के कारण उन महात्मा वानरों को स्वयंप्रभा ने पलक मारते-मारते बिल से बाहर निकाल दिया॥ २९ १/२॥

उवाच सर्वांस्तांस्तत्र तापसी धर्मचारिणी॥३०॥
निःसृतान् विषमात् तस्मात् समाश्वास्येदमब्रवीत्।

तत्पश्चात् वहाँ उस धर्मपरायणा तापसी ने उस विषम गुफा से बाहर निकले हुए समस्त वानरों को आश्वासन देकर इस प्रकार कहा- ॥ ३० १/२॥

एष विन्ध्यो गिरिः श्रीमान् नानाद्रुमलतायुतः॥३१॥
एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः।
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि भवनं वानरर्षभाः।
इत्युक्त्वा तद् बिलं श्रीमत् प्रविवेश स्वयंप्रभा॥३२॥

‘श्रेष्ठ वानरो! यह रहा नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त शोभाशाली विन्ध्यगिरि। इधर यह प्रस्रवणगिरि है और सामने यह महासागर लहरा रहा है। तुम्हारा कल्याण हो अब मैं अपने स्थान पर जाती हूँ’ ऐसा कहकर स्वयंप्रभा उस सुन्दर गुफा में चली गयी॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्विपञ्चाशः सर्गः॥५२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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