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वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 53 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 53

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
त्रिपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 53)

लौटने की अवधि बीत जाने पर भी कार्य सिद्ध न होने के कारण सुग्रीव के कठोर दण्ड से डरने वाले अङ्गद आदि वानरों का उपवास करके प्राण त्याग देने का निश्चय

 

ततस्ते ददृशुर्घोरं सागरं वरुणालयम्।
अपारमभिगर्जन्तं घोरैरूर्मिभिराकुलम्॥१॥

तदनन्तर उन श्रेष्ठ वानरों ने वरुण की निवासभूमि भयंकर महासागर को देखा, जिसका कहीं पार नहीं था और जो भयानक लहरों से व्याप्त होकर निरन्तर गर्जना कर रहा था॥१॥

मयस्य मायाविहितं गिरिदुर्गं विचिन्वताम्।
तेषां मासो व्यतिक्रान्तो यो राज्ञा समयः कृतः॥२॥

मयासुर के अपनी मायाद् वारा बनाये हुए पर्वत की दुर्गम गुफा में  सीता की खोज करते हुए उन वानरों का वह एक मास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लौटने का समय निश्चित किया था॥२॥

विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे।
उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा ॥३॥

विन्ध्यगिरि के पार्श्ववर्ती पर्वत पर, जहाँ के वृक्ष फूलों से लदे थे, बैठकर वे सभी महात्मा वानर चिन्ता करने लगे॥३॥

ततः पुष्पातिभाराग्राल्लताशतसमावृतान्।
द्रुमान् वासन्तिकान् दृष्ट्वा बभूवुर्भयशङ्किताः॥४॥

जो वसन्त-ऋतु में फलते हैं, उन आम आदिवृक्षों की डालियों को मञ्जरी एवं फूलों के अधिक भार से झुकी हुई तथा सैकड़ों लता-वेलों से व्याप्त देख वे सभी सुग्रीव के भय से थर्रा उठे (वे शरद् ऋतु में चले थे और शिशिर-ऋतु आ गयी थी इसीलिये उनका भय बढ़ गया था) ॥

ते वसन्तमनुप्राप्तं प्रतिवेद्य परस्परम्।
नष्टसंदेशकालार्था निपेतुर्धरणीतले॥५॥

वे एक-दूसरे को यह बताकर कि अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेश के अनुसार एक मास के भीतर जो काम कर लेना चाहिये था, वह न कर सकने या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे पृथ्वी पर गिर पड़े।

ततस्तान् कपिवृद्धांश्च शिष्टांश्चैव वनौकसः।
वाचा मधुरयाऽऽभाष्य यथावदनुमान्य च॥६॥
स तु सिंहवृषस्कन्धः पीनायतभुजः कपिः।
युवराजो महाप्राज्ञ अङ्गदो वाक्यमब्रवीत्॥७॥

तब जिनके कंधे सिंह और बैल के समान मांसल थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और मोटी थीं तथा जो बड़े बुद्धिमान् थे, वे युवराज अङ्गद उन श्रेष्ठ वानरों तथा अन्य वनवासी कपियों को यथावत् सम्मान देते हुए मधुर वाणी से सम्बोधित करके बोले— ॥६-७॥

शासनात् कपिराजस्य वयं सर्वे विनिर्गताः।
मासः पूर्णो बिलस्थानां हरयः किं न बुध्यत॥८॥
वयमाश्वयुजे मासि कालसंख्याव्यवस्थिताः।
प्रस्थिताः सोऽपि चातीतः किमतः कार्यमुत्तरम्॥९॥

‘वानरो! हम सब लोग वानरराज की आज्ञा से आश्विन मास बीतते-बीतते एक मास की निश्चित अवधि स्वीकार करके सीता की खोज के लिये निकले थे, किंतु हमारा वह एक मास उस गुफा में ही पूरा हो गया, क्या आपलोग इस बात को नहीं जानते? हम जब चले थे, तब से लौटने के लिये जो मास निर्धारित हुआ था, वह भी बीत गया; अतः अब आगे क्या करना चाहिये?॥

भवन्तः प्रत्ययं प्राप्ता नीतिमार्गविशारदाः।
हितेष्वभिरता भर्तुर्निसृष्टाः सर्वकर्मसु॥१०॥

‘आपलोगों को राजा का विश्वास प्राप्त है। आप नीतिमार्ग में निपुण हैं और स्वामी के हित में तत्पर रहते हैं। इसीलिये आपलोग यथासमय सब कार्यों में नियुक्त किये जाते हैं॥ १०॥

कर्मस्वप्रतिमाः सर्वे दिक्षु विश्रुतपौरुषाः।
मां पुरस्कृत्य निर्याताः पिङ्गाक्षप्रतिचोदिताः॥११॥
इदानीमकृतार्थानां मर्तव्यं नात्र संशयः।
हरिराजस्य संदेशमकृत्वा कः सुखी भवेत्॥१२॥

कार्य सिद्ध करने में आपलोगों की समानता करने वाला कोई नहीं है। आप सभी अपने पुरुषार्थ के लिये सभी दिशाओं में विख्यात हैं। इस समय वानरराज सुग्रीव की आज्ञा से मुझे आगे करके आपलोग जिस कार्य के लिये निकले थे, उसमें आप और हम सफल न हो सके। ऐसी दशा में हमलोगों को अपने प्राणों से  हाथ धोना पड़ेगा, इसमें संशय नहीं है। भला वानरराज के आदेश का पालन न करके कौन सुखी रह सकता है ? ॥ ११-१२ ।।

अस्मिन्नतीते काले तु सुग्रीवेण कृते स्वयम्।
प्रायोपवेशनं युक्तं सर्वेषां च वनौकसाम्॥१३॥

‘स्वयं सुग्रीव ने जो समय निश्चित किया था, उसके बीत जाने पर हम सब वानरों के लिये उपवास करके प्राण त्याग देना ही ठीक जान पड़ता है॥ १३ ॥

तीक्ष्णः प्रकृत्या सुग्रीवः स्वामिभावे व्यवस्थितः।
न क्षमिष्यति नः सर्वानपराधकृतो गतान्॥१४॥

‘सुग्रीव स्वभाव से ही कठोर हैं। फिर इस समय तो वे हमारे राजा के पद पर स्थित हैं। जब हम अपराध करके उनके पास जायँगे, तब वे कभी हमें क्षमा नहीं करेंगे॥ १४॥

अप्रवृत्तौ च सीतायाः पापमेव करिष्यति।
तस्मात् क्षममिहाद्यैव गन्तुं प्रायोपवेशनम्॥१५॥
त्यक्त्वा पुत्रांश्च दारांश्च धनानि च गृहाणि च।

‘उलटे सीता का समाचार न पाने पर हमारा वध ही कर डालेंगे, अतः हमें आज ही यहाँ स्त्री, पुत्र, धनसम्पत्ति और घर-द्वार का मोह छोड़कर मरणान्त उपवास आरम्भ कर देना चाहिये॥ १५ १/२॥

ध्रुवं नो हिंसते राजा सर्वान् प्रतिगतानितः॥१६॥
वधेनाप्रतिरूपेण श्रेयान् मृत्युरिहैव नः।

‘यहाँ से लौटने पर राजा सुग्रीव निश्चय ही हम सबका वध कर डालेंगे। अनुचित वध की अपेक्षा यहीं मर जाना हमलोगों के लिये श्रेयस्कर है॥ १६ १/२॥

न चाहं यौवराज्येन सुग्रीवेणाभिषेचितः॥१७॥
नरेन्द्रेणाभिषिक्तोऽस्मि रामेणाक्लिष्टकर्मणा।

‘सुग्रीव ने युवराज पद पर मेरा अभिषेक नहीं किया है। अनायास ही महान् कर्म करने वाले महाराज श्रीराम ने ही उस पद पर मेरा अभिषेक किया है॥ १७ १/२॥

स पूर्वं बद्धवैरो मां राजा दृष्ट्वा व्यतिक्रमम्॥१८॥
घातयिष्यति दण्डेन तीक्ष्णेन कृतनिश्चयः।

राजा सुग्रीव ने तो पहले से ही मेरे प्रति वैर बाँध रखा है। इस समय आज्ञा-लङ्घनरूप मेरे अपराध को देखकर पूर्वोक्त निश्चय के अनुसार तीखे दण्डद्वारा मुझे मरवा डालेंगे।

किं मे सुहृद्भिर्व्यसनं पश्यद्भिर्जीवितान्तरे।
इहैव प्रायमासिष्ये पुण्ये सागररोधसि॥१९॥

‘जीवन-काल में मेरा व्यसन (राजा के हाथ से मेरा मरण) देखने वाले सुहृदों से मुझे क्या काम है ? यहीं समुद्र के पावन तट पर मैं मरणान्त उपवास करूँगा’। १९॥

एतच्छ्रुत्वा कुमारेण युवराजेन भाषितम्।
सर्वे ते वानरश्रेष्ठाः करुणं वाक्यमब्रुवन्॥२०॥

युवराज वालिकुमार अङ्गद की यह बात सुनकर वे सभी श्रेष्ठ वानर करुणस्वर में बोले— ॥२०॥

तीक्ष्णः प्रकृत्या सुग्रीवः प्रियारक्तश्च राघवः।
समीक्ष्याकृतकार्यांस्तु तस्मिंश्च समये गते॥२१॥
अदृष्टायां च वैदेह्यां दृष्ट्वा चैव समागतान्।
राघवप्रियकामाय घातयिष्यत्यसंशयम्॥२२॥

‘सचमुच सुग्रीव का स्वभाव बड़ा कठोर है। उधर श्रीरामचन्द्रजी अपनी प्रिय पत्नी सीता के प्रति अनुरक्त हैं। सीता को खोजकर लौटने के लिये जो अवधि निश्चित की गयी थी, वह समय व्यतीत हो जाने पर भी यदि हम कार्य किये बिना ही वहाँ उपस्थित होंगे तो उस अवस्था में हमें देखकर और विदेहकुमारी का दर्शन किये बिना ही हमें लौटा हुआ जानकर श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने की इच्छा से सुग्रीव हमें मरवा डालेंगे, इसमें संशय नहीं है॥ २१-२२॥

न क्षमं चापराद्धानां गमनं स्वामिपार्श्वतः।
प्रधानभूताश्च वयं सुग्रीवस्य समागताः॥२३॥

‘अतः अपराधी पुरुषों का स्वामी के पास लौटकर जाना कदापि उचित नहीं है। हम सुग्रीव के प्रधान सहयोगी या सेवक होने के कारण इधर उनके भेजने से आये थे॥ २३॥

इहैव सीतामन्वीक्ष्य प्रवृत्तिमुपलभ्य वा।
नो चेद् गच्छाम तं वीरं गमिष्यामो यमक्षयम्॥२४॥

‘यदि यहीं सीता का दर्शन करके अथवा उनका समाचार जानकर वीर सुग्रीव के पास नहीं जायेंगे तो अवश्य ही हमें यमलोक में जाना पड़ेगा’॥ २४ ॥

प्लवङ्गमानां तु भयार्दितानां श्रुत्वा वचस्तार इदं बभाषे।
अलं विषादेन बिलं प्रविश्य वसाम सर्वे यदि रोचते वः॥२५॥

भय से पीड़ित हुए उन वानरों का यह वचन सुनकर तार ने कहा—’यहाँ बैठकर विषाद करने से कोई लाभ नहीं है। यदि आपलोगों को ठीक ऊँचे तो हम सब लोग स्वयंप्रभा की उस गुफा में ही प्रवेश करके निवास करें॥ २५॥

इदं हि मायाविहितं सुदुर्गमं प्रभूतपुष्पोदकभोज्यपेयम्।
इहास्ति नो नैव भयं पुरंदरान्न राघवाद् वानरराजतोऽपि वा ॥२६॥

‘यह गुफा माया से निर्मित होने के कारण अत्यन्त दुर्गम है। यहाँ फल-फूल, जल और खाने-पीने की दूसरी वस्तुएँ भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अतः उसमें हमें न तो देवराज इन्द्र से, न श्रीरामचन्द्रजी से और न वानरराज सुग्रीव से ही भय है’ ॥ २६ ॥

श्रुत्वाङ्गदस्यापि वचोऽनुकूलमूचुश्च सर्वे हरयः प्रतीताः।
यथा न हन्येम तथा विधान मसक्तमद्यैव विधीयतां नः॥२७॥

तारकी कही हुई पूर्वोक्त बात, जो अङ्गद के भी अनुकूल थी, सुनकर सभी वानरों को उसपर विश्वास हो गया। वे सब-के-सब बोल उठे—’बन्धुओ! हमें वैसा कार्य आज ही अविलम्ब करना चाहिये, जिससे हम मारे न जायँ’ ॥ २७॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः॥५३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५३॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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