वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 54 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 54
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुःपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 54)
हनुमान जी का भेदनीति के द्वारा वानरों को अपने पक्ष में करके अङ्गद को अपने साथ चलने के लिये समझाना
तथा ब्रुवति तारे तु ताराधिपतिवर्चसि।
अथ मेने हृतं राज्यं हनूमानङ्गदेन तत्॥१॥
तारापति चन्द्रमा के समान तेजस्वी तार के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने यह माना कि अब अङ्गद ने वह राज्य (जो अबतक सुग्रीव के अधिकार में था) हर लिया (इस तरह वानरों में फूट पड़ने से बहुत-से वानर अङ्गद का साथ देंगे और बलवान् अङ्गद सुग्रीव को राज्य से वञ्चित कर देंगे—ऐसी सम्भावना का हनुमान जी के मन में उदय हो गया)।
बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं चतुर्बलसमन्वितम्।
चतुर्दशगुणं मेने हनूमान् वालिनः सुतम्॥२॥
हनुमान् जी यह अच्छी तरह जानते थे कि वालिकुमार अङ्गद आठ’ गुणवाली बुद्धि से, चार प्रकार के बल से और चौदह गुणों से सम्पन्न हैं॥२॥
१. बुद्धि के आठ गुण ये हैं—सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर ग्रहण करना, ग्रहण करके धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को भलीभाँति समझना तथा तत्त्वज्ञान से सम्पन्न होना।
२. साम, दान, भेद और दण्ड–ये जो शत्रु को वश में करने के चार उपाय नीति-शास्त्र में बताये गये हैं, उन्हीं को यहाँ चार प्रकार का बल कहा गया है। किन्हीं-किन्हीं के मत में बाहुबल, मनोबल, उपायबल और बन्धुबल—ये चार बल हैं।
३. चौदह गुण यों बताये गये हैं—देश-काल का ज्ञान, दृढ़ता, सब प्रकार के क्लेशों को सहन करने की क्षमता, सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करना, चतुरता, उत्साह या बल, मन्त्रणा को गुप्त रखना, परस्पर विरोधी बात न कहना, शूरता, अपनी और शत्रु की शक्ति का ज्ञान, कृतज्ञता, शरणागतवत्सलता, अमर्षशीलता तथा अचञ्चलता (स्थिरता या गम्भीरता)।
आपूर्यमाणं शश्वच्च तेजोबलपराक्रमैः।
शशिनं शुक्लपक्षादौ वर्धमानमिव श्रिया॥३॥
वे तेज, बल और पराक्रम से सदा परिपूर्ण हो रहे हैं। शुक्ल पक्ष के आरम्भ में चन्द्रमा के समान राजकुमार अङ्गद की श्री दिनोदिन बढ़ रही है॥३॥
बृहस्पतिसमं बुद्धया विक्रमे सदृशं पितुः।
शुश्रूषमाणं तारस्य शुक्रस्येव पुरंदरम्॥४॥
ये बुद्धि में बृहस्पति के समान और पराक्रम में अपने पिता वाली के तुल्य हैं। जैसे देवराज इन्द्र बृहस्पति के मुख से नीति की बातें सुनते हैं, उसी प्रकार ये अङ्गद तार की बातें सुनते हैं॥४॥
भर्तुरर्थे परिश्रान्तं सर्वशास्त्रविशारदः।
अभिसंधातुमारेभे हनूमानङ्गदं ततः॥५॥
अपने स्वामी सुग्रीव का कार्य सिद्ध करने में ये परिश्रम (थकावट या शिथिलता) का अनुभव करते हैं। ऐसा विचारकर सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण हनुमान जी ने अङ्गद को तार आदि वानरों की ओर से फोड़ने का प्रयत्न आरम्भ किया॥५॥
स चतुर्णामुपायानां तृतीयमुपवर्णयन्।
भेदयामास तान् सर्वान् वानरान् वाक्यसम्पदा॥६॥
वे साम, दाम, भेद और दण्ड—इन चार उपायों में से तीसरे का वर्णन करते हुए अपने युक्तियुक्त वाक्य-वैभव के द्वारा उन सभी वानरों को फोड़ने लगे।
तेषु सर्वेषु भिन्नेषु ततोऽभीषयदङ्गदम्।
भीषणैर्विविधैर्वाक्यैः कोपोपायसमन्वितैः॥७॥
जब वे सब वानर फूट गये, तब उन्होंने दण्डरूप चौथे उपाय से युक्त नाना प्रकार के भयदायक वचनों द्वारा अङ्गद को डराना आरम्भ किया— ॥७॥
त्वं समर्थतरः पित्रा युद्धे तारेय वै ध्रुवम्।
दृढं धारयितुं शक्तः कपिराज्यं यथा पिता॥८॥
‘तारानन्दन! तुम युद्ध में अपने पिता के समान ही अत्यन्त शक्तिशाली हो—यह निश्चित रूप से सबको विदित है। जैसे तुम्हारे पिता वानरों का राज्य सँभालते थे, उसी प्रकार तुम भी उसे दृढ़तापूर्वक धारण करने में समर्थ हो॥
नित्यमस्थिरचित्ता हि कपयो हरिपुंगव।
नाज्ञाप्यं विषहिष्यन्ति पुत्रदारं विना त्वया॥९॥
‘किंतु वानरशिरोमणे! ये कपिलोग सदा ही चञ्चलचित्त होते हैं। अपने स्त्री-पुत्रों से अलग रहकर तुम्हारी आज्ञा का पालन करना इनके लिये सह्य नहीं होगा।
त्वां नैते ह्यनुरजेयुः प्रत्यक्षं प्रवदामि ते।
यथायं जाम्बवान् नीलः सुहोत्रश्च महाकपिः॥१०॥
नह्यहं ते इमे सर्वे सामदानादिभिर्गुणैः।
दण्डेन न त्वया शक्याः सुग्रीवादपकर्षितुम्॥११॥
‘मैं तुम्हारे सामने कहता हूँ, ये कोई भी वानर सुग्रीव से विरोध करके तुम्हारे प्रति अनुरक्त नहीं हो सकते। जैसे ये जाम्बवान्, नील और महाकपि सुहोत्र हैं, उसी प्रकार मैं भी हूँ। मैं तथा ये सब लोग साम, दान आदि उपायों द्वारा सुग्रीव से अलग नहीं किये जा सकते। तुम दण्ड के द्वारा भी हम सबको वानरराज से दूर कर सको, यह भी सम्भव नहीं है (अतः सुग्रीव तुम्हारी अपेक्षा प्रबल हैं)॥
विगृह्यासनमप्याहुर्दुर्बलेन बलीयसा।
आत्मरक्षाकरस्तस्मान्न विगृहणीत दुर्बलः॥१२॥
‘दुर्बल के साथ विरोध करके बलवान् पुरुष चुपचाप बैठा रहे, यह तो सम्भव है। परंतु किसी बलवान् से वैर बाँधकर कोई दुर्बल पुरुष कहीं भी सुख से नहीं रह सकता; अतः अपनी रक्षा चाहने वाले दुर्बल पुरुष को बलवान् के साथ विग्रह नहीं करना चाहिये—यह नीतिज्ञ पुरुषों का कथन है॥ १२॥
यां चेमां मन्यसे धात्रीमेतद् बिलमिति श्रुतम्।
एतल्लक्ष्मणबाणानामीषत् कार्यं विदारणम्॥१३॥
‘तुम जो ऐसा मानने लगे हो कि यह गुफा हमें माता के समान अपनी गोद में छिपा लेगी, इसलिये हमारी रक्षा हो जायगी तथा इस बिल की अभेद्यता के विषय में जो तुमने तार के मुँह से कुछ सुना है, यह सब व्यर्थ है; क्योंकि इस गुफा को विदीर्ण कर देना लक्ष्मण के बाणों के लिये बायें हाथ का खेल है (अत्यन्त तुच्छ कार्य है) ॥ १३॥
स्वल्पं हि कृतमिन्द्रेण क्षिपता ह्यशनिं पुरा।
लक्ष्मणो निशितैर्बाणैर्भिन्द्यात् पत्रपुटं यथा॥१४॥
‘पूर्वकाल में यहाँ वज्र का प्रहार करके इन्द्र ने तो इस गुफा को बहुत थोड़ी हानि पहुँचायी थी; परंतु लक्ष्मण अपने पैने बाणों द्वारा इसे पत्ते के दोने की भाँति विदीर्ण कर डालेंगे॥ १४॥
लक्ष्मणस्य च नाराचा बहवः सन्ति तद्विधाः।
वज्राशनिसमस्पर्शा गिरीणामपि दारकाः॥१५॥
‘लक्ष्मण के पास ऐसे बहुत-से नाराच हैं, जिनका हलका-सा स्पर्श भी वज्र और अशनि के समान चोट पहुँचानेवाला है। वे नाराच पर्वतों को भी विदीर्ण कर सकते हैं॥ १५॥
अवस्थानं यदैव त्वमासिष्यसि परंतप।
तदैव हरयः सर्वे त्यक्ष्यन्ति कृतनिश्चयाः॥१६॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! ज्यों ही तुम इस गुफा में रहना आरम्भ करोगे, त्यों ही ये सब वानर तुम्हें त्याग देंगे; क्योंकि इन्होंने ऐसा करने का निश्चय कर लिया है॥ १६॥
स्मरन्तः पुत्रदाराणां नित्योद्विग्ना बुभुक्षिताः।
खेदिता दुःखशय्याभिस्त्वां करिष्यन्ति पृष्ठतः॥१७॥
‘ये अपने बाल-बच्चों को याद करके सदा उद्विग्न रहेंगे। जब यहाँ इन्हें भूख का कष्ट सहना पड़ेगा और दुःखद शय्या पर सोने या दुरवस्था में रहने के कारण इनके मन में खेद होगा, तब ये तुम्हें पीछे छोड़कर चल देंगे॥ १७॥
स त्वं हीनः सुहृद्भिश्च हितकामैश्च बन्धुभिः।
तृणादपि भृशोद्विग्नः स्पन्दमानाद् भविष्यसि॥१८॥
‘ऐसी दशा में तुम हितैषी बन्धुओं और सुहृदों के सहयोग से वञ्चित हो उड़ते हुए तिनके से भी तुच्छ हो जाओगे और सदा अधिक डरते रहोगे (अथवा हिलते हुए तिनके-से अत्यन्त भयभीत होते रहोगे)। १८॥
न च जातु न हिंस्युस्त्वां घोरा लक्ष्मणसायकाः।
अपवृत्तं जिघांसन्तो महावेगा दुरासदाः॥१९॥
‘लक्ष्मण के बाण घोर, महान् वेगशाली और दुर्जय हैं। श्रीराम के कार्य से विमुख होने पर तुम्हें कदापि मारे बिना नहीं रहेंगे॥ १९॥
अस्माभिस्तु गतं सार्धं विनीतवदुपस्थितम्।
आनुपूर्व्यात्तु सुग्रीवो राज्ये त्वां स्थापयिष्यति॥२०॥
‘हमारे साथ चलकर जब तुम विनीत पुरुष की भाँति उनकी सेवा में उपस्थित होगे, तब सुग्रीव क्रमशः अपने बाद तुम्हीं को राज्य पर बिठायेंगे॥ २० ॥
धर्मराजः पितृव्यस्ते प्रीतिकामो दृढव्रतः।
शुचिः सत्यप्रतिज्ञश्च स त्वां जातु न नाशयेत्॥२१॥
‘तुम्हारे चाचा सुग्रीव धर्म के मार्ग पर चलने वाले राजा हैं। वे सदा तुम्हारी प्रसन्नता चाहने वाले, दृढव्रत, पवित्र और सत्यप्रतिज्ञ हैं अतः कदापि तुम्हारा नाश नहीं कर सकते॥२१॥
प्रियकामश्च ते मातुस्तदर्थं चास्य जीवितम्।
तस्यापत्यं च नास्त्यन्यत् तस्मादङ्गद गम्यताम्॥२२॥
‘अङ्गद! उनके मन में सदा तुम्हारी माता का प्रिय करने की इच्छा रहती है। उनकी प्रसन्नता के लिये ही वे जीवन धारण करते हैं। सुग्रीव के तुम्हारे सिवा कोई दूसरा पुत्र भी नहीं है, इसलिये तुम्हें उनके पास चलना चाहिये’॥ २२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः॥५४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५४॥