वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 56 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 56
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
षट्पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 56)
सम्पाति से वानरों को भय, उनके मुख से जटायु के वध की बात सुनकर सम्पाति का दुःखी होना और अपने को नीचे उतारने के लिये वानरों से अनुरोध करना
उपविष्टास्तु ते सर्वे यस्मिन् प्रायं गिरिस्थले।
हरयो गृध्रराजश्च तं देशमुपचक्रमे॥१॥
सम्पातिर्नाम नाम्ना तु चिरजीवी विहंगमः।
भ्राता जटायुषः श्रीमान् विख्यातबलपौरुषः॥२॥
पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास के लिये बैठे थे, उस प्रदेश में चिरंजीवी पक्षी श्रीमान् गृध्रराज सम्पाति आये। वे जटायु के भाई थे और अपने बल तथा पुरुषार्थ के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध थे॥१-२॥
कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः।
उपविष्टान् हरीन् दृष्ट्वा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत्॥३॥
महागिरि विन्ध्य की कन्दरा से निकलकर सम्पाति ने जब वहाँ बैठे हुए वानरों को देखा, तब उनका हृदय हर्ष से खिल उठा और वे इस प्रकार बोले- ॥३॥
विधिः किल नरं लोके विधानेनानुवर्तते।
यथायं विहितो भक्ष्यश्चिरान्मह्यमुपागतः॥४॥
परम्पराणां भक्षिष्ये वानराणां मृतं मृतम्।
उवाचैतद् वचः पक्षी तान् निरीक्ष्य प्लवंगमान्॥
‘जैसे लोक में पूर्वजन्म के कर्मानुसार मनुष्य को उसके किये का फल स्वतः प्राप्त होता है, उसी प्रकार आज दीर्घकाल के पश्चात् यह भोजन स्वतः मेरे लिये प्राप्त हो गया। अवश्य ही यह मेरे किसी कर्म का फल है इन वानरों में से जो-जो मरता जायगा, उसको मैं क्रमशः भक्षण करता जाऊँगा’ यह बात उस पक्षी ने उन सब वानरों को देखकर कहा॥ ४-५॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा भक्ष्यलुब्धस्य पक्षिणः।
अङ्गदः परमायस्तो हनूमन्तमथाब्रवीत्॥६॥
भोजन पर लुभाये हुए उस पक्षी का यह वचन सुनकर अङ्गद को बड़ा दुःख हुआ और वे हनुमान् जी से बोले
पश्य सीतापदेशेन साक्षाद् वैवस्वतो यमः।
इमं देशमनुप्राप्तो वानराणां विपत्तये॥७॥
‘देखिये, सीता के निमित्त से वानरों को विपत्ति में डालने के लिये साक्षात् सूर्यपुत्र यम इस देश में आ पहुँचे॥
रामस्य न कृतं कार्यं न कृतं राजशासनम्।
हरीणामियमज्ञाता विपत्तिः सहसाऽऽगता॥८॥
हमलोगों ने न तो श्रीरामचन्द्रजी का कार्य किया और न राजा की आज्ञा का पालन ही। इसी बीच वानरों पर यह सहसा अज्ञात विपत्ति आ पड़ी॥८॥
वैदेह्याः प्रियकामेन कृतं कर्म जटायुषा।
गृध्रराजेन यत् तत्र श्रुतं वस्तदशेषतः॥९॥
‘विदेहकुमारी सीता का प्रिय करने की इच्छा से गृध्रराज जटायु ने जो साहसपूर्ण कार्य किया था, वह सब आपलोगों ने सुना ही होगा॥९॥
तथा सर्वाणि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।
प्रियं कुर्वन्ति रामस्य त्यक्त्वा प्राणान् यथा वयम्॥१०॥
‘समस्त प्राणी, वे पशु-पक्षियों की योनि में ही क्यों न उत्पन्न हुए हों, हमारी तरह प्राण देकर भी श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय कार्य करते हैं॥ १० ॥
अन्योन्यमुपकुर्वन्ति स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।
ततस्तस्योपकारार्थं त्यजतात्मानमात्मना॥११॥
‘शिष्ट पुरुष स्नेह और करुणा के वशीभूत हो एकदूसरे का उपकार करते हैं, अतः आपलोग भी श्रीराम के उपकार के लिये स्वयं ही अपने शरीर का परित्याग करें॥ ११॥
प्रियं कृतं हि रामस्य धर्मज्ञेन जटायुषा।
राघवार्थे परिश्रान्ता वयं संत्यक्तजीविताः॥१२॥
कान्ताराणि प्रपन्नाः स्म न च पश्याम मैथिलीम्।
‘धर्मज्ञ जटायु ने ही श्रीराम का प्रिय किया है। हमलोग श्रीरघुनाथजी के लिये अपने जीवन का मोह छोड़कर परिश्रम करते हुए इस दुर्गम वन में आये, किंतु मिथिलेशकुमारी का दर्शन न कर सके॥ १२ १/२॥
स सुखी गृध्रराजस्तु रावणेन हतो रणे।
मुक्तश्च सुग्रीवभयाद् गतश्च परमां गतिम्॥१३॥
‘गृध्रराज जटायु ही सुखी हैं, जो युद्ध में रावण के हाथ से मारे गये और परमगति को प्राप्त हुए वे सुग्रीव के भय से मुक्त हैं॥ १३॥
जटायुषो विनाशेन राज्ञो दशरथस्य च।
हरणेन च वैदेह्याः संशयं हरयो गताः॥१४॥
‘राजा दशरथ की मृत्यु, जटायु का विनाश और विदेहकुमारी सीता का अपहरण-इन घटनाओं से इस समय वानरों का जीवन संशय में पड़ गया है॥ १४ ॥
रामलक्ष्मणयोर्वासमरण्ये सह सीतया।
राघवस्य च बाणेन वालिनश्च तथा वधः॥१५॥
रामकोपादशेषाणां रक्षसां च तथा वधम्।
कैकेय्या वरदानेन इदं च विकृतं कृतम्॥१६॥
‘श्रीराम और लक्ष्मण को सीता के साथ वन में निवास करना पड़ा, श्रीरघुनाथजी के बाण से वाली का वध हुआ और अब श्रीराम के कोप से समस्त राक्षसों का संहार होगा ये सारी बुराइयाँ कैकेयी को दिये गये वरदान से ही पैदा हुई हैं’।
तदसुखमनुकीर्तितं वचो भुवि पतितांश्च निरीक्ष्य वानरान्।
भृशचकितमतिर्महामतिः कृपणमुदाहृतवान् स गृध्रराजः॥१७॥
वानरों के द्वारा बारम्बार कहे गये इन दुःखमय वचनों को सुनकर और उन सबको पृथ्वी पर पड़ा हुआ देखकर परम बुद्धिमान् सम्पाति का हृदय अत्यन्त क्षुब्ध हो उठा और वे दीन वाणी में बोलने को उद्यत हुए॥ १७॥
तत् तु श्रुत्वा तथा वाक्यमङ्गदस्य मुखोद्गतम्।
अब्रवीद् वचनं गृध्रस्तीक्ष्णतुण्डो महास्वनः॥१८॥
अङ्गद के मुख से निकले हुए उस वचन को सुनकर तीखी चोंचवाले उस गीध ने उच्च स्वर से इस प्रकार पूछा— ॥१८॥
कोऽयं गिरा घोषयति प्राणैः प्रियतरस्य मे।
जटायुषो वधं भ्रातुः कम्पयन्निव मे मनः॥१९॥
‘यह कौन है, जो मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय भाई जटायु के वध की बात कह रहा है। इसे सुनकर मेरा हृदय कम्पित-सा होने लगा है॥ १९॥
कथमासीज्जनस्थाने युद्धं राक्षसगृध्रयोः।
नामधेयमिदं भ्रातुश्चिरस्याद्य मया श्रुतम्॥२०॥
‘जनस्थान में राक्षस का गृध्र के साथ किस प्रकार युद्ध हुआ था? अपने भाई का प्यारा नाम आज बहुत दिनों के बाद मेरे कान में पड़ा है॥२०॥
इच्छेयं गिरिदुर्गाच्च भवद्भिरवतारितुम्।
यवीयसो गुणज्ञस्य श्लाघनीयस्य विक्रमैः॥२१॥
अतिदीर्घस्य कालस्य परितुष्टोऽस्मि कीर्तनात्।
तदिच्छेयमहं श्रोतुं विनाशं वानरर्षभाः॥ २२॥
‘जटायु मुझसे छोटा, गुणज्ञ और पराक्रम के कारण अत्यन्त प्रशंसा के योग्य था। दीर्घकाल के पश्चात् आज उसका नाम सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं चाहता हूँ कि पर्वत के इस दुर्गम स्थान से आपलोग मुझे नीचे उतार दें। श्रेष्ठ वानरो! मुझे अपने भाई के विनाश का वृत्तान्त सुनने की इच्छा है॥ २१-२२॥
भ्रातुर्जटायुषस्तस्य जनस्थाननिवासिनः।
तस्यैव च मम भ्रातुः सखा दशरथः कथम्॥२३॥
यस्य रामः प्रियः पुत्रो ज्येष्ठो गुरुजनप्रियः।
‘मेरा भाई जटायु तो जनस्थान में रहता था। गुरुजनों के प्रेमी श्रीरामचन्द्रजी जिनके ज्येष्ठ एवं प्रिय पुत्र हैं, वे महाराज दशरथ मेरे भाई के मित्र कैसे हुए? ॥ २३ १/२॥
सूर्यांशुदग्धपक्षत्वान्न शक्नोमि विसर्पितम्।
इच्छेयं पर्वतादस्मादवतर्तुमरिंदमाः॥२४॥
‘शत्रुदमन वीरो! मेरे पंख सूर्य की किरणों से जल गये हैं, इसलिये मैं उड़ नहीं सकता; किंतु इस पर्वत से नीचे उतरना चाहता हूँ’॥ २४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः॥५६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५६॥