वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 57 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 57
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 57)
अङ्गद का सम्पाति को जटायु के मारे जाने का वृत्तान्त बताना तथा राम-सुग्रीव की मित्रता एवं वालिवध का प्रसंग सुनाकर अपने आमरण उपवास का कारण निवेदन करना
शोकाद् भ्रष्टस्वरमपि श्रुत्वा वानरयूथपाः।
श्रद्दधु व तद्वाक्यं कर्मणा तस्य शङ्किताः॥१॥
शोक के कारण सम्पाति का स्वर विकृत हो गया था। उनकी कही हुई बात सुनकर भी वानरयूथपतियों ने उसपर विश्वास नहीं किया; क्योंकि वे उनके कर्म से शङ्कित थे॥१॥
ते प्रायमुपविष्टास्तु दृष्ट्वा गृध्र प्लवंगमाः।
चक्रुर्बुद्धिं तदा रौद्रां सर्वान् नो भक्षयिष्यति॥२॥
आमरण उपवास के लिये बैठे हुए उन वानरों ने उस समय गीध को देखकर यह भयंकर बात सोची, ‘यह हम सबको खा तो नहीं जायगा॥२॥
सर्वथा प्रायमासीनान् यदि नो भक्षयिष्यति।
कृतकृत्या भविष्यामः क्षिप्रं सिद्धिमितो गताः॥३॥
‘अच्छा, हम तो सब प्रकार से मरणान्त उपवास का व्रत लेकर बैठे ही थे। यदि यह पक्षी हमें खा लेगा तो हमारा काम ही बन जायगा। हमें शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जायगी’॥३॥
एतां बुद्धिं ततश्चक्रुः सर्वे ते हरियूथपाः।
अवतार्य गिरेः शृङ्गाद् गृध्रमाहाङ्गदस्तदा ॥४॥
फिर तो उन समस्त वानर-यूथपतियों ने यही निश्चय किया। उस समय गीध को उस पर्वतशिखर से उतारकर अङ्गद ने कहा- ॥ ४॥
बभूवर्क्षरजो नाम वानरेन्द्रः प्रतापवान्।
ममार्यः पार्थिवः पक्षिन् धार्मिकौ तस्य चात्मजौ॥
सुग्रीवश्चैव वाली च पुत्रौ घनबलावुभौ।
लोके विश्रुतकर्माभूद् राजा वाली पिता मम॥
‘पक्षिराज! पहले एक प्रतापी वानरराज हो गये हैं, जिनका नाम था ऋक्षरजा! राजा ऋक्षरजा मेरे पितामह लगते थे। उनके दो धर्मात्मा पुत्र हुए सुग्रीव और वाली दोनों ही बड़े बलवान् हुए। उनमें से राजा वाली मेरे पिता थे। संसार में अपने पराक्रम के कारण उनकी बड़ी ख्याति थी॥५-६॥
राजा कृत्स्नस्य जगत इक्ष्वाकूणां महारथः।
रामो दाशरथिः श्रीमान् प्रविष्टो दण्डकावनम्॥७॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या सह भार्यया।
पितुर्निदेशनिरतो धर्मं पन्थानमाश्रितः॥८॥
‘आज से कुछ वर्ष पहले इक्ष्वाकुवंश के महारथी वीर दशरथकुमार श्रीमान् रामचन्द्रजी, जो सम्पूर्णजगत् के राजा हैं, पिता की आज्ञा के पालन में तत्पर हो धर्म-मार्ग का आश्रय ले दण्डकारण्य में आये थे। उनके साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण तथा उनकी धर्मपत्नी विदेहकुमारी सीता भी थीं॥ ८॥
तस्य भार्या जनस्थानाद् रावणेन हृता बलात्।
रामस्य तु पितुर्मित्रं जटायुर्नाम गृध्रराट्॥९॥
ददर्श सीतां वैदेहीं ह्रियमाणां विहायसा।
रावणं विरथं कृत्वा स्थापयित्वा च मैथिलीम्।
परिश्रान्तश्च वृद्धश्च रावणेन हतो रणे॥१०॥
‘जनस्थान में आने पर उनकी पत्नी सीता को रावण ने बलपूर्वक हर लिया। उस समय गृध्रराज जटायु ने, जो उनके पिता के मित्र थे, देखा-रावण आकाशमार्ग से विदेहकुमारी को लिये जा रहा है। देखते ही वे रावण पर टूट पड़े और उसके रथ को नष्ट-भ्रष्ट करके उन्होंने मिथिलेशकुमारी को सुरक्षित रूप से भूमि पर खड़ा कर दिया। किंतु वे वृद्ध तो थे ही। युद्ध करते करते थक गये और अन्ततोगत्वा रणक्षेत्र में रावण के हाथ से मारे गये॥९-१०॥
एवं गृध्रो हतस्तेन रावणेन बलीयसा।
संस्कृतश्चापि रामेण जगाम गतिमुत्तमाम्॥११॥
‘इस प्रकार महाबली रावण के द्वारा जटायु का वध हुआ। स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने उनका दाह-संस्कार किया और वे उत्तम गति (साकेतधाम को) प्राप्त हुए॥११॥
ततो मम पितृव्येण सुग्रीवेण महात्मना।
चकार राघवः सख्यं सोऽवधीत् पितरं मम॥१२॥
‘तदनन्तर श्रीरघुनाथजी ने मेरे चाचा महात्मा सुग्रीव से मित्रता की और उनके कहने से उन्होंने मेरे पिता का वध कर दिया॥१२॥
मम पित्रा निरुद्धो हि सुग्रीवः सचिवैः सह।
निहत्य वालिनं रामस्ततस्तमभिषेचयत्॥१३॥
‘मेरे पिता ने मन्त्रियों सहित सुग्रीव को राज्य-सुख से वञ्चित कर दिया था। इसलिये श्रीरामचन्द्रजी ने मेरे पिता वाली को मारकर सुग्रीव का अभिषेक करवाया। १३॥
स राज्ये स्थापितस्तेन सुग्रीवो वानरेश्वरः।
राजा वानरमुख्यानां तेन प्रस्थापिता वयम्॥१४॥
‘उन्होंने ही सुग्रीव को वाली के राज्य पर स्थापित किया। अब सुग्रीव वानरों के स्वामी हैं। मुख्य-मुख्य वानरों के भी राजा हैं। उन्होंने हमें सीता की खोज के लिये भेजा है॥ १४॥
एवं रामप्रयुक्तास्तु मार्गमाणास्ततस्ततः।
वैदेहीं नाधिगच्छामो रात्रौ सूर्यप्रभामिव॥१५॥
‘इस तरह श्रीराम से प्रेरित होकर हमलोग इधरउधर विदेहकुमारी सीता को खोजते-फिरते हैं, किंतु अबतक उनका पता नहीं लगा। जैसे रात में सूर्य की रभा का दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार हमें इस वन में जानकी का दर्शन नहीं हुआ॥ १५ ॥
ते वयं दण्डकारण्यं विचित्य सुसमाहिताः।
अज्ञानात् तु प्रविष्टाः स्म धरण्या विवृतं बिलम्॥१६॥
‘हमलोग अपने मन को एकाग्र करके दण्डकारण्य में भलीभाँति खोज करते हुए अज्ञानवश पृथ्वी के एक खुले हुए विवर में घुस गये॥ १६ ॥
मयस्य मायाविहितं तद् बिलं च विचिन्वताम्।
व्यतीतस्तत्र नो मासो यो राज्ञा समयः कृतः॥१७॥
‘वह विवर मयासुर की माया से निर्मित हुआ है। उसमें खोजते-खोजते हमारा एक मास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने हमारे लौटने के लिये अवधि निश्चित किया था॥ १७॥
ते वयं कपिराजस्य सर्वे वचनकारिणः।
कृतां संस्थामतिक्रान्ता भयात् प्रायमुपासिताः॥१८॥
‘हम सब लोग कपिराज सुग्रीव के आज्ञाकारी हैं, किंतु उनके द्वारा नियत की हुई अवधि को लाँघ गये हैं। अतः उन्हीं के भयसे हम यहाँ आमरण उपवास कर रहे हैं॥ १८॥
क्रुद्धे तस्मिंस्तु काकुत्स्थे सुग्रीवे च सलक्ष्मणे।
गतानामपि सर्वेषां तत्र नो नास्ति जीवितम्॥१९॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव तीनों हमपर कुपित होंगे। उस दशा में वहाँ लौट जाने के बाद भी हम सबके प्राण नहीं बच सकते’। १९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः॥५७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ५७॥