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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 58 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 58

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 58)

सम्पाति का अपने पंख जलने की कथा सुनाना, सीता और रावण का पता बताना तथा वानरों की सहायता से समुद्र-तटपर जाकर भाई को जलाञ्जलि देना

 

इत्युक्तः करुणं वाक्यं वानरैस्त्यक्तजीवितैः।
सबाष्पो वानरान् गृध्रः प्रत्युवाच महास्वनः॥१॥

जीवन की आशा त्यागकर बैठे हुए वानरों के मुख से यह करुणाजनक बात सुनकर सम्पाति के नेत्रों में आँसू आ गये। उन्होंने उच्च स्वर से उत्तर दिया- ॥१॥

यवीयान् स मम भ्राता जटायुर्नाम वानराः।
यमाख्यात हतं युद्ध रावणेन बलीयसा॥२॥

‘वानरो! तुम जिसे महाबली रावण के द्वारा युद्ध में मारा गया बता रहे हो, वह जटायु मेरा छोटा भाई था॥

वृद्धभावादपक्षत्वाच्छृण्वंस्तदपि मर्षये।
नहि मे शक्तिरस्त्यद्य भ्रातुर्वैरविमोक्षणे॥३॥

मैं बूढ़ा हुआ मेरे पंख जल गये। इसलिये अब मुझमें अपने भाई के वैर का बदला लेने की शक्ति नहीं रह गयी है। यही कारण है कि यह अप्रिय बात सुनकर भी मैं चुपचाप सहे लेता हूँ॥३॥

पुरा वृत्रवधे वृत्ते स चाहं च जयैषिणौ।
आदित्यमुपयातौ स्वो ज्वलन्तं रश्मिमालिनम्॥४॥
आवृत्याकाशमार्गेण जवेन स्वर्गतौ भृशम्।
मध्यं प्राप्ते तु सूर्ये तु जटायुरवसीदति॥५॥

‘पहले की बात है जब इन्द्र के द्वारा वृत्रासुर का वध हो गया, तब इन्द्र को प्रबल जानकर हम दोनों भाई उन्हें जीतने की इच्छा से पहले आकाशमार्ग के द्वारा बड़े वेग से स्वर्गलोक में गये। इन्द्र को जीतकर लौटते समय हम दोनों ही स्वर्ग को प्रकाशित करने वाले अंशुमाली सूर्य के पास आये। हममें से जटायु सूर्य के मध्याह्नकाल में उनके तेज से शिथिल होने लगा। ४-५॥

तमहं भ्रातरं दृष्ट्वा सूर्यरश्मिभिरर्दितम्।
पक्षाभ्यां छादयामास स्नेहात् परमविह्वलम्॥

भाई को सूर्य की किरणों से पीड़ित और अत्यन्त व्याकुल देख मैंने स्नेहवश अपने दोनों पंखों से उसे ढक लिया॥६॥

निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानरर्षभाः।
अहमस्मिन् वसन् भ्रातुः प्रवृत्तिं नोपलक्षये॥७॥

‘वानरशिरोमणियो! उस समय मेरे दोनों पंख जल गये और मैं इस विन्ध्य पर्वत पर गिर पड़ा। यहाँ रहकर मैं कभी अपने भाई का समाचार न पा सका (आज पहले-पहल तुमलोगों के मुख से उसके मारे जाने की बात मालूम हुई है)’॥७॥

जटायुषस्त्वेवमुक्तो भ्रात्रा सम्पातिना तदा।
युवराजो महाप्रज्ञः प्रत्युवाचाङ्गदस्तदा॥८॥

जटायु के भाई सम्पाति के उस समय ऐसा कहने पर परम बुद्धिमान् युवराज अङ्गद ने उनसे इस प्रकार कहा

जटायुषो यदि भ्राता श्रुतं ते गदितं मया।
आख्याहि यदि जानासि निलयं तस्य रक्षसः॥९॥

‘गृध्रराज! यदि आप जटायु के भाई हैं, यदि आपने मेरी कही हुई बातें सुनी हैं और यदि आप उस राक्षस का निवास स्थान जानते हैं तो हमें बताइये॥९॥

अदीर्घदर्शिनं तं वै रावणं राक्षसाधमम्।
अन्तिके यदि वा दूरे यदि जानासि शंस नः॥१०॥

‘वह अदूरदर्शी नीच राक्षस रावण यहाँ से निकट हो या दूर, यदि आप जानते हैं तो हमें उसका पता बता दें॥

ततोऽब्रवीन्महातेजा भ्राता ज्येष्ठो जटायुषः।
आत्मानुरूपं वचनं वानरान् सम्प्रहर्षयन्॥११॥

तब जटायु के बड़े भाई महातेजस्वी सम्पाति ने वानरों का हर्ष बढ़ाते हुए अपने अनुरूप बात कही – ॥ ११॥

निर्दग्धपक्षो गृध्रोऽहं गतवीर्यः प्लवङ्गमाः।
वामात्रेण तु रामस्य करिष्ये साह्यमुत्तमम्॥१२॥

‘वानरो! मेरे पंख जल गये। अब मैं बेपर का गीध हूँ। मेरी शक्ति जाती रही (अतः मैं शरीर से तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता, तथापि) वचनमात्र से भगवान् श्रीराम की उत्तम सहायता अवश्य करूँगा।१२॥

जानामि वारुणाँल्लोकान् विष्णोस्त्रविक्रमानपि।
देवासुरविमर्दाश्च ह्यमृतस्य विमन्थनम्॥१३॥

‘मैं वरुण के लोकों को जानता हूँ। वामनावतार के समय भगवान् विष्णु ने जहाँ-जहाँ अपने तीन पग रखे थे, उन स्थानों का भी मुझे ज्ञान है। अमृत-मन्थन तथा देवासुरसंग्राम भी मेरी देखी और जानी हुई घटनाएँ हैं।

रामस्य यदिदं कार्यं कर्तव्यं प्रथमं मया।
जरया च हृतं तेजः प्राणाश्च शिथिला मम॥१४॥

‘यद्यपि वृद्धावस्थाने मेरा तेज हर लिया है और मेरी प्राणशक्ति शिथिल हो गयी है तथापि श्रीरामचन्द्रजी का यह कार्य मुझे सबसे पहले करना है॥ १४॥

तरुणी रूपसम्पन्ना सर्वाभरणभूषिता।
ह्रियमाणा मया दृष्टा रावणेन दुरात्मना॥१५॥

‘एक दिन मैंने भी देखा, दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रूपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था॥१५॥

क्रोशन्ती रामरामेति लक्ष्मणेति च भामिनी।
भूषणान्यपविध्यन्ती गात्राणि च विधुन्वती॥१६॥

‘वह मानिनी देवी ‘हा राम! हा राम! हा लक्ष्मण’ की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती और अपने शरीर के अवयवों को कम्पित करती हुई छटपटा रही थी॥ १६॥

सूर्यप्रभेव शैलाग्रे तस्याः कौशेयमुत्तमम्।
असिते राक्षसे भाति यथा वा तडिदम्बुदे॥१७॥

‘उसका सुन्दर रेशमी पीताम्बर उदयाचल के शिखर पर फैली हुई सूर्य की प्रभा के समान सुशोभित होता था। वह उस काले राक्षस के समीप बादलों में चमकती हुई बिजली के समान प्रकाशित हो रही थी। १७॥

तां तु सीतामहं मन्ये रामस्य परिकीर्तनात्।
श्रूयतां मे कथयतो निलयं तस्य रक्षसः॥१८॥

‘श्रीराम का नाम लेने से मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी अब मैं उस राक्षस के घर का पता बताता हूँ, सुनो॥ १८॥

पुत्रो विश्रवसः साक्षाद् भ्राता वैश्रवणस्य च।
अध्यास्ते नगरी लङ्कां रावणो नाम राक्षसः॥१९॥

‘रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और साक्षात् कुबेर का भाई है। वह लङ्का नाम वाली नगरी में निवास करता है॥ १९॥

इतो द्वीपे समुद्रस्य सम्पूर्णे शतयोजने।
तस्मिल्लङ्का पुरी रम्या निर्मिता विश्वकर्मणा॥२०॥

‘यहाँ से पूरे चार सौ कोस के अन्तरपर समुद्र में एक द्वीप है, जहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी का निर्माण किया है॥२०॥

जाम्बूनदमयैरिश्चित्रैः काञ्चनवेदिकैः।
प्रासार्हेमवर्णैश्च महद्भिः सुसमाकृता॥२१॥

‘उसके विचित्र दरवाजे और बड़े-बड़े महल सुवर्ण के बने हुए हैं। उनके भीतर सोने के चबूतरे या वेदियाँ हैं॥ २१॥

प्राकारेणार्कवर्णेन महता च समन्विता।
तस्यां वसति वैदेही दीना कौशेयवासिनी॥२२॥

‘उस नगरी की चहारदीवारी बहुत बड़ी है और सूर्य की भाँति चमकती रहती है। उसी के भीतर पीले रंग की रेशमी साड़ी पहने विदेहकुमारी सीता बड़े दुःख से निवास करती हैं ॥ २२॥

रावणान्तःपुरे रुद्धा राक्षसीभिः सुरक्षिता।
जनकस्यात्मजां राज्ञस्तस्यां द्रक्ष्यथ मैथिलीम्॥२३॥

‘रावण के अन्तःपुर में नजरबंद हैं। बहुत-सी राक्षसियाँ उनके पहरे पर तैनात हैं वहाँ पहुँचने पर तुमलोग राजा जनक की कन्या मैथिली सीता को देख सकोगे॥ २३॥

लङ्कायामथ गुप्तायां सागरेण समन्ततः।
सम्प्राप्य सागरस्यान्तं सम्पूर्णं शतयोजनम्॥२४॥
आसाद्य दक्षिणं तीरं ततो द्रक्ष्यथ रावणम्।
तत्रैव त्वरिताः क्षिप्रं विक्रमध्वं प्लवङ्गमाः॥२५॥

‘लङ्का चारों ओर से समुद्र के द्वारा सुरक्षित है। पूरे सौ योजन समुद्र को पार करके उसके दक्षिण तटपर पहुँचने पर तुमलोग रावण को देख सकोगे। अतः वानरो! समुद्र को पार करने में ही तुरंत शीघ्रतापूर्वक अपने पराक्रम का परिचय दो॥

ज्ञानेन खलु पश्यामि दृष्ट्वा प्रत्यागमिष्यथ।
आद्यः पन्थाः कुलिङ्गानां ये चान्ये धान्यजीविनः॥ २६॥

‘निश्चय ही मैं ज्ञानदृष्टि से देखता हूँ। तुमलोग सीता का दर्शन करके लौट आओगे। आकाश का पहला मार्ग गौरैयों तथा अन्न खाने वाले कबूतर आदि पक्षियों का है॥२६॥

द्वितीयो बलिभोजानां ये च वृक्षफलाशनाः।
भासास्तृतीयं गच्छन्ति क्रौञ्चाश्च कुररैः सह।२७॥

‘उससे ऊपर का दूसरा मार्ग कौओं तथा वृक्षों के फल खाकर रहने वाले दूसरे-दूसरे पक्षियों का है। उससे भी ऊँचा जो आकाश का तीसरा मार्ग है, उससे चील, क्रौञ्च और कुरर आदि पक्षी जाते हैं॥२७॥

श्येनाश्चतुर्थं गच्छन्ति गृध्रा गच्छन्ति पञ्चमम्।
बलवीर्योपपन्नानां रूपयौवनशालिनाम्॥ २८॥
षष्ठस्तु पन्था हंसानां वैनतेयगतिः परा।
वैनतेयाच्च नो जन्म सर्वेषां वानरर्षभाः॥२९॥

‘बाज चौथे और गीध पाँचवें मार्ग से उड़ते हैं। रूप, बल और पराक्रम से सम्पन्न तथा यौवन से सुशोभित होने वाले हंसों का छठा मार्ग है। उनसे भी ऊँची उड़ान गरुड़की है। वानरशिरोमणियो! हम सबका जन्म गरुड़ से ही हुआ है।

गर्हितं तु कृतं कर्म येन स्म पिशिताशिनः।
प्रतिकार्यं च मे तस्य वैरं भ्रातृकृतं भवेत्॥३०॥

‘परंतु पूर्वजन्म में हमसे कोई निन्दित कर्म बन गया था, जिससे इस समय हमें मांसाहारी होना पड़ा है।तुमलोगों की सहायता करके मुझे रावण से अपने भाई के वैर का बदला लेना है॥ ३०॥

इहस्थोऽहं प्रपश्यामि रावणं जानकी तथा।
अस्माकमपि सौपर्णं दिव्यं चक्षुर्बलं तथा॥३१॥

‘मैं यहीं से रावण और जानकी को देखता हूँ। हमलोगों में भी गरुड़ की भाँति दूरतक देखने की दिव्य शक्ति है॥ ३१॥

तस्मादाहारवीर्येण निसर्गेण च वानराः।
आयोजनशतात् साग्राद् वयं पश्याम नित्यशः॥३२॥

‘इसलिये वानरो! हम भोजन जनित बल से तथा स्वाभाविक शक्ति से भी सदा सौ योजन और उससे आगे तक भी देख सकते हैं॥ ३२॥

अस्माकं विहिता वृत्तिनिसर्गेण च दूरतः।
विहिता वृक्षमूले तु वृत्तिश्चरणयोधिनाम्॥३३॥

‘जातीय स्वभाव के अनुसार हमलोगों की जीविकावृत्ति दूरसे देखे गये दूरस्थ भक्ष्यविशेष के द्वारा नियत की गयी है तथा जो कुक्कुट आदि पक्षी हैं, उनकी जीवन-वृत्ति वृक्ष की जड़तक ही सीमित है—वे वहीं तक उपलब्ध होने वाली वस्तु से जीवन-निर्वाह करते हैं॥३३॥

उपायो दृश्यतां कश्चिल्लङ्घने लवणाम्भसः।
अभिगम्य तु वैदेहीं समृद्धार्था गमिष्यथ॥३४॥

‘अब तुम इस खारे पानी के समुद्र को लाँघने का कोई उपाय सोचो। विदेहकुमारी सीता के पास जा सफलमनोरथ होकर किष्किन्धापुरी को लौटोगे॥ ३४॥

समुद्रं नेतुमिच्छामि भवद्भिर्वरुणालयम्।
प्रदास्याम्युदकं भ्रातुः स्वर्गतस्य महात्मनः॥३५॥

‘अब मैं तुम्हारी सहायता से समुद्र के किनारे चलना चाहता हूँ। वहाँ अपने स्वर्गवासी भाई महात्मा जटायु को जलाञ्जलि प्रदान करूँगा’॥ ३५॥

ततो नीत्वा तु तं देशं तीरे नदनदीपतेः।
निर्दग्धपक्षं सम्पातिं वानराः सुमहौजसः॥३६॥
तं पुनः प्रापयित्वा च तं देशं पतगेश्वरम्।
बभूवुर्वानरा हृष्टाः प्रवृत्तिमुपलभ्य ते॥३७॥

यह सुनकर महापराक्रमी वानरों ने जले पंखवाले पक्षिराज सम्पाति को उठाकर समुद्र के किनारे पहुँचा दिया और जलाञ्जलि देने के पश्चात् वे पुनः उनको वहाँ से उठाकर उनके रहने के स्थान पर ले आये। उनके मुख से सीता का समाचार जानकर उन सभी वानरों को बड़ी प्रसन्नता हुई।

इत्याचे श्रीमद्रामायाणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे अष्टपञ्चाशः सर्गः॥५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५८॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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