वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 59 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 59
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकोनषष्टितमः सर्गः (सर्ग 59)
सम्पाति का अपने पुत्र सुपार्श्व के मुख से सुनी हुई सीता और रावण को देखने की घटना का वृत्तान्त बताना
ततस्तदमृतास्वादं गृध्रराजेन भाषितम्।
निशम्य वदता हृष्टास्ते वचः प्लवगर्षभाः॥१॥
उस समय वार्तालाप करते हुए गृध्रराज के द्वारा कहे गये उस अमृत के समान स्वादिष्ट मधुर वचन को सुनकर सब वानरश्रेष्ठ हर्ष से खिल उठे॥१॥
जाम्बवान् वानरश्रेष्ठः सह सर्वैः प्लवङ्गमैः।
भूतलात् सहसोत्थाय गृध्रराजानमब्रवीत्॥२॥
वानरों और भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान् सब वानरों के साथ सहसा भूतल से उठकर खड़े हो गये और गृध्रराज से इस प्रकार पूछने लगे— ॥२॥
क्व सीता केन वा दृष्टा को वा हरति मैथिलीम्।
तदाख्यातु भवान् सर्वं गतिर्भव वनौकसाम्॥३॥
‘पक्षिराज! सीता कहाँ हैं? किसने उन्हें देखा है? और कौन उन मिथिलेशकुमारी को हरकर ले गयाहै? ये सब बातें बताइये और हम सब वनवासी वानरों के आश्रयदाता होइये॥३॥
को दाशरथिबाणानां वज्रवेगनिपातिनाम्।
स्वयं लक्ष्मणमुक्तानां न चिन्तयति विक्रमम्॥४॥
‘कौन ऐसा धृष्ट है, जो वज्र के समान वेगपूर्वक चोट करने वाले दशरथनन्दन श्रीराम के बाणों तथा स्वयं लक्ष्मण के चलाये हुए सायकों के पराक्रम को कुछ नहीं समझता है ?’ ॥ ४॥
स हरीन् प्रतिसम्मुक्तान् सीताश्रुतिसमाहितान्।
पुनराश्वासयन् प्रीत इदं वचनमब्रवीत्॥५॥
उस समय उपवास छोड़कर बैठे और सीताजी का वृत्तान्त सुनने के लिये एकाग्र हुए वानरों को प्रसन्नतापूर्वक पुनः आश्वासन देते हुए सम्पाति ने उनसे यह बात कही- ॥५॥
श्रूयतामिह वैदेह्या यथा मे हरणं श्रुतम्।
येन चापि ममाख्यातं यत्र चायतलोचना॥६॥
‘वानरो! विदेहकुमारी सीता का जिस प्रकार अपहरण हुआ है, विशाललोचना सीता इस समय जहाँ है और जिसने मुझसे यह सब वृत्तान्त कहा है एवं जिस तरह मैंने सुना है, वह सब बताता हूँ, सुनो – ॥६॥
अहमस्मिन् गिरौ दुर्गे बहुयोजनमायते।
चिरान्निपतितो वृद्धः क्षीणप्राणपराक्रमः॥७॥
‘यह दुर्गम पर्वत कई योजनों तक फैला है। दीर्घकाल हुआ, जब मैं इस पर्वत पर गिरा था। मेरी प्राणशक्ति क्षीण हो गयी थी और मैं वृद्ध था॥७॥
तं मामेवंगतं पुत्रः सुपाश्वो नाम नामतः।
आहारेण यथाकालं बिभर्ति पततां वरः॥८॥
‘इस अवस्था में मेरा पुत्र पक्षिप्रवर सुपार्श्व ही यथा समय आहार देकर प्रतिदिन मेरा भरण-पोषण करता है॥८॥
तीक्ष्णकामास्तु गन्धर्वास्तीक्ष्णकोपा भुजङ्गमाः।
मृगाणां तु भयं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णक्षुधा वयम्॥९॥
‘जैसे गन्धर्वो का कामभाव तीव्र होता है, सर्पो का क्रोध तेज होता है और मृगों को भय अधिक होता है, उसी प्रकार हमारी जाति के लोगों की भूख बड़ी तीव्र होती है॥९॥
स कदाचित् क्षुधार्तस्य ममाहाराभिकांक्षिणः।
गतसूर्येऽहनि प्राप्तो मम पुत्रो ह्यनामिषः॥१०॥
‘एक दिन की बात है मैं भूख से पीड़ित होकर आहार प्राप्त करना चाहता था। मेरा पुत्र मेरे लिये भोजन की तलाश में निकला था, किंतु सूर्यास्त होने के बाद वह खाली हाथ लौट आया, उसे कहीं मांस नहीं मिला॥१०॥
स मयाऽऽहारसंरोधात् पीडितः प्रीतिवर्धनः।
अनुमान्य यथातत्त्वमिदं वचनमब्रवीत्॥११॥
‘भोजन न मिलने से मैंने कठोर बातें सुनाकर अपनी प्रीति बढ़ाने वाले उस पुत्र को बहुत पीड़ा दी, किंतु उसने नम्रतापूर्वक मुझे आदर देते हुए यह यथार्थ बात कही— ॥११॥
अहं तात यथाकालमामिषार्थी खमाप्लुतः।
महेन्द्रस्य गिरे रमावृत्य सुसमाश्रितः॥१२॥
‘तात! मैं यथासमय मांस प्राप्त करने की इच्छा से आकाश में उड़ा और महेन्द्र पर्वत के द्वार को रोककर खड़ा हो गया॥ १२॥
तत्र सत्त्वसहस्राणां सागरान्तरचारिणाम्।
पन्थानमेकोऽध्यवसं संनिरोद्धमवाङ्मुखः॥१३॥
‘वहाँ अपनी चोंच नीची करके मैं समुद्र के भीतर विचरने वाले सहस्रों जन्तुओं के मार्ग को रोकने के लिये अकेला ठहर गया॥१३॥
तत्र कश्चिन्मया दृष्टः सूर्योदयसमप्रभाम्।
स्त्रियमादाय गच्छन् वै भिन्नाञ्जनचयोपमः॥१४॥
‘उस समय मैंने देखा खान से काटकर निकाले हुए कोयले की राशि के समान काला कोई पुरुष एक स्त्री को लेकर जा रहा है। उस स्त्री की कान्ति सूर्योदयकाल की प्रभा के समान प्रकाशित हो रही थी। १४॥
सोऽहमभ्यवहारार्थं तौ दृष्ट्वा कृतनिश्चयः।
तेन साम्ना विनीतेन पन्थानमनुयाचितः॥१५॥
‘उस स्त्री और उस पुरुष को देखकर मैंने उन्हें आपके आहार के लिये लाने का निश्चय किया, किंतु उस पुरुष ने नम्रतापूर्वक मधुर वाणी में मुझसे मार्ग की याचना की।
नहि सामोपपन्नानां प्रहर्ता विद्यते भुवि।
नीचेष्वपि जनः कश्चित् किमङ्ग बत मद्विधः॥१६॥
‘पिताजी! भूतल पर नीच पुरुषों में भी कोई ऐसा नहीं है, जो विनयपूर्वक मीठे वचन बोलने वालों पर प्रहार करे फिर मुझ-जैसा कुलीन पुरुष कैसे कर सकता है?॥
स यातस्तेजसा व्योम संक्षिपन्निव वेगितः।
अथाहं खेचरैर्भूतैरभिगम्य सभाजितः॥१७॥
‘फिर तो वह तेज से आकाश को व्याप्त करता हुआ-सा वेगपूर्वक चला गया। उसके चले जाने पर आकाशचारी प्राणी सिद्ध-चारण आदि ने आकर मेरा बड़ा सम्मान किया।
दिष्ट्या जीवति सीतेति ह्यब्रुवन् मां महर्षयः।
कथंचित् सकलत्रोऽसौ गतस्ते स्वस्त्यसंशयम्॥१८॥
‘वे महर्षि मुझसे बोले—’सौभाग्य की बात है कि सीता जीवित हैं। तुम्हारी दृष्टि पड़ने पर भी स्त्री के साथ आया हुआ वह पुरुष किसी तरह सकुशल बच गया; अतः अवश्य तुम्हारा कल्याण हो’ ।। १८ ॥
एवमुक्तस्ततोऽहं तैः सिद्धैः परमशोभनैः।
स च मे रावणो राजा रक्षसां प्रतिवेदितः॥१९॥
‘उन परम शोभायमान सिद्ध पुरुषों ने मुझसे ऐसा कहा, तत्पश्चात् उन्होंने यह भी बताया कि वह काला पुरुष राक्षसों का राजा रावण था’॥ १९॥
पश्यन् दाशरथेर्भार्यां रामस्य जनकात्मजाम्।
भ्रष्टाभरणकौशेयां शोकवेगपराजिताम्॥२०॥
रामलक्ष्मणयोर्नाम क्रोशन्तीं मुक्तमूर्धजाम्।
एष कालात्ययस्तात इति वाक्यविदां वरः॥२१॥
एतदर्थं समग्रं मे सुपार्श्वः प्रत्यवेदयत् ।
तच्छ्रुत्वापि हि मे बुद्धिर्नासीत् काचित् पराक्रमे॥२२॥
‘तात! दशरथनन्दन श्रीराम की पत्नी जनककिशोरी सीता शोक के वेग से पराजित हो गयी थीं। उनके आभूषण गिर रहे थे और रेशमी वस्त्र भी सिर से खिसक गया था। उनके केश खुले हुए थे और वे श्रीराम तथा लक्ष्मण का नाम ले-लेकर उन्हें पुकार रही थीं। मैं उनकी इस दयनीय दशा को देखता रह गया। यही मेरे विलम्ब से आने का कारण है।’ इस प्रकार बातचीत की कला जानने वालों में श्रेष्ठ सुपार्श्व ने मेरे सामने इन सारी बातों का वर्णन किया। यह सब सुनकर भी मेरे हृदय में पराक्रम कर दिखाने का कोई विचार नहीं उठा॥ २०-२२॥
अपक्षो हि कथं पक्षी कर्म किंचित् समारभेत्।
यत् तु शक्यं मया कर्तुं वाग्बुद्धिगुणवर्तिना॥२३॥
श्रूयतां तत्र वक्ष्यामि भवतां पौरुषाश्रयम्।
‘बिना पंख का पक्षी कैसे कोई पराक्रम कर सकता है? अपनी वाणी और बुद्धि के द्वारा साध्य जो उपकाररूप गुण है, उसे करना मेरा स्वभाव बन गया है। ऐसे स्वभाव से मैं जो कुछ कर सकता हूँ, वह कार्य तुम्हें बता रहा हूँ,सुनो वह कार्य तुमलोगों के पुरुषार्थ से ही सिद्ध होनेवाला है॥ २३ १/२ ॥
वामतिभ्यां हि सर्वेषां करिष्यामि प्रियं हि वः॥२४॥
यद्धि दाशरथेः कार्यं मम तन्नात्र संशयः।
‘मैं वाणी और बुद्धि के द्वारा तुम सब लोगों का प्रिय कार्य अवश्य करूँगा; क्योंकि दशरथनन्दन श्रीराम का जो कार्य है, वह मेरा ही है—इसमें संशय नहीं है। २४ १/२॥
तद् भवन्तो मतिश्रेष्ठा बलवन्तो मनस्विनः॥
प्रहिताः कपिराजेन देवैरपि दुरासदाः।
‘तुम लोग भी उत्तम बुद्धि से युक्त, बलवान्,मनस्वी तथा देवताओं के लिये भी दुर्जय हो। इसीलिये वानरराज सुग्रीव ने तुम्हें इस कार्य के लिये भेजा है। २५ १/२॥
रामलक्ष्मणबाणाश्च विहिताः कङ्कपत्रिणः॥२६॥
त्रयाणामपि लोकानां पर्याप्तास्त्राणनिग्रहे।
‘श्रीराम और लक्ष्मण के कङ्कपत्र से युक्त जो बाण हैं, वे साक्षात् विधाता के बनाये हुए हैं। वे तीनों लोकों का संरक्षण और दमन करने के लिये पर्याप्त शक्ति रखते हैं।
कामं खलु दशग्रीवस्तेजोबलसमन्वितः।
भवतां तु समर्थानां न किंचिदपि दुष्करम्॥ २७॥
‘तुम्हारा विपक्षी दशग्रीव रावण भले ही तेजस्वी और बलवान् है, किंतु तुम-जैसे सामर्थ्यशाली वीरों के लिये उसे परास्त करना आदि कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है।
तदलं कालसङ्गेन क्रियतां बुद्धिनिश्चयः।
नहि कर्मसु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥२८॥
‘अतः अब अधिक समय बिताने की आवश्यकता नहीं है। अपनी बुद्धि के द्वारा दृढ निश्चय करके सीता के दर्शन के लिये उद्योग करो; क्योंकि तुम-जैसे बुद्धिमान् लोग कार्यों की सिद्धि में विलम्ब नहीं करते हैं’॥ २८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः॥ ५९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ५९॥