वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 61 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 61
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकषष्टितमः सर्गः (सर्ग 61)
सम्पाति का निशाकर मुनि को अपने पंख के जलने का कारण बताना
ततस्तद् दारुणं कर्म दुष्करं सहसा कृतम्।
आचचक्षे मुनेः सर्वं सूर्यानुगमनं तथा॥१॥
‘उनके इस प्रकार पूछने पर मैंने बिना सोचे-समझे सूर्य का अनुगमनरूप जो दुष्कर एवं दारुण कार्य किया था, वह सब उन्हें बताया॥१॥
भगवन् व्रणयुक्तत्वाल्लज्जया चाकुलेन्द्रियः।
परिश्रान्तो न शक्नोमि वचनं परिभाषितुम्॥२॥
‘मैंने कहा—’भगवन् ! मेरे शरीर में घाव हो गया है तथा मेरी इन्द्रियाँ लज्जा से व्याकुल हैं, इसलिये अधिक कष्ट पाने के कारण मैं अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकता॥
अहं चैव जटायुश्च संघर्षाद् गर्वमोहितौ।
आकाशं पतितौ दूराज्जिज्ञासन्तौ पराक्रमम्॥३॥
‘मैं और जटायु दोनों ही गर्व से मोहित हो रहे थे; अतः अपने पराक्रम की थाह लगाने के लिये हम दोनों दूर तक पहुँचने के उद्देश्य से उड़ने लगे॥३॥
कैलासशिखरे बद्ध्वा मुनीनामग्रतः पणम्।
रविः स्यादनुयातव्यो यावदस्तं महागिरिम्॥४॥
‘कैलास पर्वत के शिखर पर मुनियों के सामने हम दोनों ने यह शर्त बदी थी कि सूर्य जब तक अस्ताचल पर जायँ, उसके पहले ही हम दोनों को उनके पास पहुँच जाना चाहिये।
अप्यावां युगपत् प्राप्तावपश्याव महीतले।
रथचक्रप्रमाणानि नगराणि पृथक् पृथक्॥५॥
‘यह निश्चय करके हम साथ ही आकाश में जा पहुँचे। वहाँ से पृथ्वी के भिन्न-भिन्न नगर में हम रथ के पहिये के बराबर दिखायी देते थे॥५॥
क्वचिद् वादित्रघोषश्च क्वचिद् भूषणनिःस्वनः।
गायन्तीः स्माङ्गना बह्वीः पश्यावो रक्तवाससः॥
‘ऊपर के लोकों में कहीं वाद्यों का मधुर घोष हो रहा था, कहीं आभूषणों की झनकारें सुनायी पड़ती थीं और कहीं लाल रंग की साड़ी पहने बहुत-सी सुन्दरियाँ गीत गा रही थीं, जिन्हें हम दोनों ने अपनी आँखों देखा था।
तूर्णमुत्पत्य चाकाशमादित्यपदमास्थितौ।
आवामालोकयावस्तद् वनं शादलसंस्थितम्॥७॥
‘उससे भी ऊँचे उड़कर हम तुरंत सूर्यके मार्ग पर जा पहुँचे। वहाँ से नीचे दृष्टि डालकर जब दोनों ने देखा, तब यहाँ के जंगल हरी-हरी घास की तरह दिखायी देते थे॥७॥
उपलैरिव संछन्ना दृश्यते भूः शिलोच्चयैः।
आपगाभिश्च संवीता सूत्रैरिव वसुंधरा॥८॥
‘पर्वतों के कारण यह भूमि ऐसी जान पड़ती थी,मानो इस पर पत्थर बिछाये गये हों और नदियों से ढकी हुई भूमि ऐसी लगती थी, मानो उसमें सूत के धागे लपेटे गये हों॥८॥
हिमवांश्चैव विन्ध्यश्च मेरुश्च सुमहागिरिः।।
भूतले सम्प्रकाशन्ते नागा इव जलाशये॥९॥
तीव्रः स्वेदश्च खेदश्च भयं चासीत् तदावयोः।
समाविशत मोहश्च ततो मूर्छा च दारुणा॥१०॥
‘भूतल पर हिमालय, मेरु और विन्ध्य आदि बड़े बड़े पर्वत तालाब में खड़े हुए हाथियों के समान प्रतीत होते थे। उस समय हम दोनों भाइयों के शरीर से बहुत पसीना निकलने लगा। हमें बड़ी थकावट मालूम हुई फिर तो हमारे ऊपर भय, मोह और भयानक मूर्छा ने अधिकार जमा लिया॥
न च दिग् ज्ञायते याम्या न चाग्नेयी न वारुणी।
युगान्ते नियतो लोको हतो दग्ध इवाग्निना॥११॥
‘उस समय न दक्षिण दिशा का ज्ञान होता था, न अग्निकोण अथवा पश्चिम आदि दिशा का ही यद्यपि यह जगत् नियमित रूप से स्थित था, तथापि उस समय मानो युगान्तकाल में अग्नि से दग्ध हो गया हो, इस प्रकार नष्टप्राय दिखायी देता था॥११॥
मनश्च मे हतं भूयश्चक्षुः प्राप्य तु संश्रयम्।
यत्नेन महता ह्यस्मिन् मनः संधाय चक्षुषी॥१२॥
यत्नेन महता भूयो भास्करः प्रतिलोकितः।
तुल्यपृथ्वीप्रमाणेन भास्करः प्रतिभाति नौ॥
‘मेरा मन नेत्ररूपी आश्रय को पाकर उसके साथ ही हतप्राय हो गया—सूर्य के तेज से उसकी दर्शन-शक्ति लुप्त हो गयी। तदनन्तर महान् प्रयास करके मैंने पुनः मन और नेत्रों को सूर्यदेव में लगाया। इस प्रकार विशेष प्रयत्न करने पर फिर सूर्यदेव का दर्शन हुआ। वे हमें पृथ्वी के बराबर ही जान पड़ते थे॥ १२-१३॥
जटायुर्मामनापृच्छय निपपात महीं ततः।
तं दृष्ट्वा तूर्णमाकाशादात्मानं मुक्तवानहम्॥ १४॥
‘जटायु मुझसे पूछे बिना ही पृथ्वी पर उतर पड़ा। उसे नीचे जाते देख मैंने भी तुरंत अपने-आपको आकाश से नीचे की ओर छोड़ दिया॥१४॥
पक्षाभ्यां च मया गुप्तो जटायुर्न प्रदह्यत।
प्रमादात् तत्र निर्दग्धः पतन् वायुपथादहम्॥१५॥
आशङ्के तं निपतितं जनस्थाने जटायुषम्।
अहं तु पतितो विन्ध्ये दग्धपक्षो जडीकृतः॥१६॥
‘मैंने अपने दोनों पंखों से जटायु को ढक लिया था, इसलिये वह जल न सका। मैं ही असावधानी के कारण वहाँ जल गया। वायु के पथ से नीचे गिरते समय मुझे ऐसा संदेह हुआ कि जटायु जनस्थान में गिरा है; परंतु मैं इस विन्ध्यपर्वत पर गिरा था। मेरे दोनों पंख जल गये थे, इसलिये यहाँ जडवत् हो गया॥१५-१६॥
राज्याच्च हीनो भ्रात्रा च पक्षाभ्यां विक्रमेण च।
सर्वथा मर्तुमेवेच्छन् पतिष्ये शिखराद् गिरेः॥१७॥
‘राज्य से भ्रष्ट हुआ, भाई से बिछुड़ गया और पंख तथा पराक्रम से भी हाथ धो बैठा। अब मैं सर्वथा मरने की ही इच्छा से इस पर्वत शिखर से नीचे गिरूँगा’॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकषष्टितमः सर्गः॥६१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में इकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६१॥