वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 63 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 63
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः (सर्ग 63)
सम्पाति का पंखयुक्त होकर वानरों को उत्साहित करके उड़ जाना और वानरों का वहाँ से दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान करना
एतैरन्यैश्च बहुभिर्वाक्यैर्वाक्यविशारदः।
मां प्रशस्याभ्यनुज्ञाप्य प्रविष्टः स स्वमालयम्॥
‘बातचीत की कला में चतुर महर्षि निशाकर ने ये तथा और भी बहुत-सी बातें कहकर मुझे समझाया और श्रीरामकार्य में सहायक बनने के कारण मेरे सौभाग्य की सराहना की। तत्पश्चात् मेरी अनुमति लेकर वे अपने आश्रम के भीतर चले गये॥१॥
कन्दरात् तु विसर्पित्वा पर्वतस्य शनैः शनैः ।
अहं विन्ध्यं समारुह्य भवतः प्रतिपालये॥२॥
‘तदनन्तर कन्दरा से धीरे-धीरे निकलकर मैं विन्ध्य पर्वत के शिखर पर चढ़ आया और तबसे तुम लोगों के आने की बाट देख रहा हूँ॥२॥
अद्य त्वेतस्य कालस्य वर्षं साग्रशतं गतम्।
देशकालप्रतीक्षोऽस्मि हृदि कृत्वा मुनेर्वचः॥ ३॥
‘मुनि से बातचीत के बाद आजतक जो समय बीता है, इसमें आठ* हजार से अधिक वर्ष निकल गये। मुनि के कथन को हृदय में धारण करके मैं देशकाल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ॥३॥
* यहाँ मूल में साग्रशतम् (सौ वर्ष से अधिक) समय बीतने की बात कही गयी है; परंतु साठवें सर्ग के नवें श्लोक में आठ सहस्र वर्ष बीतने की चर्चा आयी है। अतः दोनों की एक वाक्यता के लिये यहाँ शत शब्द को आठ सहस्र वर्ष का उपलक्षण मानना चाहिये।
महाप्रस्थानमासाद्य स्वर्गते तु निशाकरे।
मां निर्दहति संतापो वितर्बहुभिर्वृतम्॥४॥
‘निशाकर मुनि महाप्रस्थान करके जब स्वर्गलोक को चले गये, तभी से मैं अनेक प्रकार के तर्क-वितर्को से घिर गया। संताप की आग मुझे रात दिन जलाती रहती है॥ ४॥
उदितां मरणे बुद्धिं मुनिवाक्यैर्निवर्तये।
बुद्धिर्या तेन मे दत्ता प्राणानां रक्षणे मम॥५॥
सा मेऽपनयते दुःखं दीप्तेवाग्निशिखा तमः।
‘मेरे मन में कई बार प्राण त्यागने की इच्छा हुई, किंतु मुनि के वचनों को याद करके मैं उस संकल्प को टालता आया हूँ। उन्होंने मुझे प्राणों को रखने के लिये जो बुद्धि (सम्मति) दी थी, वह मेरे दुःख को उसी प्रकार दूर कर देती है, जैसे जलती हुई अग्निशिखा अन्धकार को॥ ५ १/२॥
बुध्यता च मया वीर्यं रावणस्य दुरात्मनः॥६॥
पुत्रः संतर्जितो वाग्भिर्न त्राता मैथिली कथम्।
‘दुरात्मा रावण में कितना बल है, इसे मैं जानता हूँ इसलिये मैंने कठोर वचनों द्वारा अपने पुत्र को डाँटा था कि तूने मिथिलेशकुमारी सीता की रक्षा क्यों नहीं की। ६ १/२॥
तस्या विलपितं श्रुत्वा तौ च सीतावियोजितौ॥७॥
न मे दशरथस्नेहात् पुत्रेणोत्पादितं प्रियम्।
‘सीता का विलाप सुनकर और उनसे बिछुड़े हुए श्रीराम तथा लक्ष्मण का परिचय पाकर तथा राजा दशरथ के प्रति मेरे स्नेह का स्मरण करके भी मेरे पुत्रने जो सीता की रक्षा नहीं की, अपने इस बर्ताव से उसने मुझे प्रसन्न नहीं किया—मेरा प्रिय कार्य नहीं होने दिया’ ॥ ७ १/२॥
तस्य त्वेवं ब्रुवाणस्य संहतैर्वानरैः सह ॥८॥
उत्पेततुस्तदा पक्षौ समक्षं वनचारिणाम्।
वहाँ एकत्र होकर बैठे हुए वानरों के साथ सम्पाति इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि उन वनचारी वानरों के समक्ष उसी समय उनके दो नये पंख निकल आये॥ ८ १/२॥
स दृष्ट्वा स्वां तनुं पक्षरुद्गतैररुणच्छदैः॥९॥
प्रहर्षमतुलं लेभे वानरांश्चेदमब्रवीत्।
अपने शरीर को नये निकले हुए लाल रंग के पंखों से संयुक्त हुआ देख सम्पाति को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ। वे वानरों से इस प्रकार बोले- ॥९ १/२ ॥
निशाकरस्य राजर्षेः प्रसादादमितौजसः॥१०॥
आदित्यरश्मिनिर्दग्धौ पक्षौ पुनरुपस्थितौ।
‘कपिवरो! अमिततेजस्वी राजर्षि निशाकर के प्रसाद से सूर्य-किरणों द्वारा दग्ध हुए मेरे दोनों पंख फिर उत्पन्न हो गये॥ १० १/२॥
यौवने वर्तमानस्य ममासीद् यः पराक्रमः॥११॥
तमेवाद्यावगच्छामि बलं पौरुषमेव च।
‘युवावस्था में मेरा जैसा पराक्रम और बल था, वैसे ही बल और पुरुषार्थ का इस समय मैं अनुभव कर रहा हूँ॥ ११ १/२॥
सर्वथा क्रियतां यत्नः सीतामधिगमिष्यथ॥१२॥
पक्षलाभो ममायं वः सिद्धिप्रत्ययकारकः।
‘वानरो! तुम सब प्रकार से यत्न करो। निश्चय ही तुम्हें सीता का दर्शन प्राप्त होगा। मुझे पंखों का प्राप्त होना तुम लोगों की कार्य-सिद्धि का विश्वास दिलाने वाला है’।
इत्युक्त्वा तान् हरीन् सर्वान् सम्पातिः पतगोत्तमः॥१३॥
उत्पपात गिरेः शृङ्गाज्जिज्ञासुः खगमो गतिम्।
उन समस्त वानरों से ऐसा कहकर पक्षियों में श्रेष्ठ सम्पाति अपने आकाश-गमन की शक्ति का परिचय पाने के लिये उस पर्वतशिखर से उड़ गये॥ १३ १/२॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा प्रतिसंहृष्टमानसाः।।
बभूवुर्हरिशार्दूला विक्रमाभ्युदयोन्मुखाः॥१४॥
उनकी वह बात सुनकर उन श्रेष्ठ वानरोंका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा। वे पराक्रमसाध्य अभ्युदयके लिये उद्यत हो गये॥ १४॥
अथ पवनसमानविक्रमाः प्लवगवराः प्रतिलब्धपौरुषाः।
अभिजिदभिमुखां दिशं ययु र्जनकसुतापरिमार्गणोन्मुखाः॥१५॥
तदनन्तर वायु के समान पराक्रमी वे श्रेष्ठ वानर अपने भूले हुए पुरुषार्थ को फिरसे पा गये और जनकनन्दिनी सीता की खोज के लिये उत्सुक हो अभिजित् नक्षत्र से युक्त दक्षिण दिशा की ओर चल दिये॥ १५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः॥६३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ६३॥