वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 64 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 64
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः (सर्ग 64)
समुद्र की विशालता देखकर विषाद में पड़े हुए वानरों को आश्वासन दे अङ्गद का उनसे पृथक्-पृथक् समुद्र-लङ्घन के लिये उनकी शक्ति पूछना
आख्याता गृध्रराजेन समुत्प्लुत्य प्लवङ्गमाः।
संगताः प्रीतिसंयुक्ता विनेदुः सिंहविक्रमाः॥१॥
गृध्रराज सम्पाति के इस प्रकार कहने पर सिंह के समान पराक्रमी सभी वानर बड़े प्रसन्न हुए और परस्पर मिलकर उछल-उछलकर गर्जने लगे॥१॥
सम्पातेर्वचनं श्रुत्वा हरयो रावणक्षयम्।
हृष्टाः सागरमाजग्मुः सीतादर्शनकांक्षिणः॥२॥
सम्पाति की बातों से रावण के निवास स्थान तथा उसके भावी विनाश की सूचना मिली थी। उन्हें सुनकर हर्ष से भरे हुए वे सभी वानर सीताजी के दर्शन की इच्छा मन में लिये समुद्र के तटपर आये॥२॥
अभिगम्य तु तं देशं ददृशुर्भीमविक्रमाः।
कृत्स्नं लोकस्य महतः प्रतिबिम्बमवस्थितम्॥३॥
उन भयंकर पराक्रमी वानरों ने उस देश में पहुंचकर समुद्र को देखा, जो इस विराट् विश्व के सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब की भाँति स्थित था॥३॥
दक्षिणस्य समुद्रस्य समासाद्योत्तरां दिशम्।
संनिवेशं ततश्चक्रुर्हरिवीरा महाबलाः॥४॥
दक्षिण समुद्र के उत्तर तट पर जाकर उन महाबली वानर वीरों ने डेरा डाला॥४॥
प्रसुप्तमिव चान्यत्र क्रीडन्तमिव चान्यतः।
क्वचित् पर्वतमात्रैश्च जलराशिभिरावृतम्॥५॥
वह समुद्र कहीं तो तरङ्गहीन एवं शान्त होने के कारण सोया हुआ-सा जान पड़ता था। अन्यत्र जहाँ थोड़ी-थोड़ी लहरें उठ रही थीं, वहाँ वह क्रीडा करता-सा प्रतीत होता था और दूसरे स्थलों में जहाँ उत्ताल तरङ्ग उठती थीं, वहाँ पर्वत के बराबर जलराशियों से आवृत दिखायी देता था॥ ५॥
संकुलं दानवेन्द्रश्च पातालतलवासिभिः।
रोमहर्षकरं दृष्ट्वा विषेदुः कपिकुञ्जराः॥६॥
वह सारा समुद्र पातालनिवासी दानवराजों से व्याप्त था। उस रोमाञ्चकारी महासागर को देखकर वे समस्त श्रेष्ठ वानर बड़े विषाद में पड़ गये॥६॥
आकाशमिव दुष्पारं सागरं प्रेक्ष्य वानराः।
विषेदुः सहिताः सर्वे कथं कार्यमिति ब्रुवन्॥७॥
आकाश के समान दुर्लङ्घय समुद्र पर दृष्टिपात करके वे सब वानर ‘अब कैसे करना चाहिये’ ऐसा कहते हुए एक साथ बैठकर चिन्ता करने लगे॥ ७॥
विषण्णां वाहिनीं दृष्ट्वा सागरस्य निरीक्षणात्।
आश्वासयामास हरीन् भयार्तान् हरिसत्तमः॥८॥
उस महासागर का दर्शन करके सारी वानर-सेना को विषाद में डूबी हुई देख कपिश्रेष्ठ अङ्गद उन भयातुर वानरों को आश्वासन देते हुए बोले- ॥८॥
न विषादे मनः कार्यं विषादो दोषवत्तरः।
विषादो हन्ति पुरुषं बालं क्रुद्ध इवोरगः॥९॥
‘वीरो! तुम्हें अपने मन को विषाद में नहीं डालना चाहिये; क्योंकि विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ साँप अपने पास आये हुए बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद पुरुष का नाश कर डालता है॥९॥
यो विषादं प्रसहते विक्रमे समुपस्थिते।
तेजसा तस्य हीनस्य पुरुषार्थो न सिद्ध्यति॥१०॥
‘जो पराक्रमका अवसर आने पर विषादग्रस्त हो जाता है, उसके तेज का नाश होता है। उस तेजोहीन पुरुष का पुरुषार्थ नहीं सिद्ध होता है’ ॥ १० ॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामङ्गदो वानरैः सह।
हरिवृद्धैः समागम्य पुनर्मन्त्रममन्त्रयत्॥११॥
उस रात्रि के बीत जाने पर बड़े-बड़े वानरों के साथ मिलकर अङ्गद ने पुनः विचार आरम्भ किया।॥ ११॥
सा वानराणां ध्वजिनी परिवार्याङ्गदं बभौ।
वासवं परिवार्येव मरुतां वाहिनी स्थिता॥१२॥
उस समय अङ्गद को घेरकर बैठी हुई वानरों की वह सेना इन्द्र को घेरकर स्थित हुई देवताओं की विशाल वाहिनी के समान शोभा पाती थी॥ १२॥
कोऽन्यस्तां वानरी सेनां शक्तः स्तम्भयितुं भवेत् ।
अन्यत्र वालितनयादन्यत्र च हनूमतः॥१३॥
वालिपुत्र अङ्गद तथा पवनकुमार हनुमान जी को छोड़कर दूसरा कौन वीर उस वानरसेनाको सुस्थिर रख सकता था॥१३॥
ततस्तान् हरिवृद्धांश्च तच्च सैन्यमरिंदमः।
अनुमान्याङ्गदः श्रीमान् वाक्यमर्थवदब्रवीत्॥१४॥
शत्रुवीरों का दमन करने वाले श्रीमान् अङ्गद ने उन बड़े-बूढ़े वानरों का सम्मान करके उनसे यह अर्थयुक्त बात कही— ॥ १४॥
क इदानीं महातेजा लवयिष्यति सागरम्।
कः करिष्यति सुग्रीवं सत्यसंधमरिंदमम्॥१५॥
‘सज्जनो! तुमलोगोंमें कौन ऐसा महातेजस्वी वीर है जो इस समय समुद्रको लाँघ जायगा और शत्रुदमन सुग्रीवको सत्यप्रतिज्ञ बनायेगा॥ १५ ॥
को वीरो योजनशतं लङ्घयेत प्लवङ्गमः।
इमांश्च यूथपान् सर्वान् मोचयेत् को महाभयात्॥१६॥
‘कौन वीर वानर सौ योजन समुद्र को लाँघ सकेगा? और कौन इन समस्त यूथपतियों को महान् भय से मुक्त कर देगा? ॥ १६॥
कस्य प्रसादाद् दारांश्च पुत्रांश्चैव गृहाणि च।
इतो निवृत्ताः पश्येम सिद्धार्थाः सुखिनो वयम्॥१७॥
किसके प्रसाद से हमलोग सफल मनोरथ एवं सुखी होकर यहाँ से लौटेंगे और घर-द्वार तथा स्त्री पुत्रों का मुँह देख सकेंगे॥ १७ ॥
कस्य प्रसादाद् रामं च लक्ष्मणं च महाबलम्।
अभिगच्छेम संहृष्टाः सुग्रीवं च वनौकसम्॥१८॥
‘किसके प्रसाद से हमलोग हर्षोत्फुल्ल होकर श्रीराम, महाबली लक्ष्मण तथा वानरवीर सुग्रीव के पास चल सकेंगे॥१८॥
यदि कश्चित् समर्थो वः सागरप्लवने हरिः।
स ददात्विह नः शीघ्रं पुण्यामभयदक्षिणाम्॥१९॥
‘यदि तुमलोगों में से कोई वानरवीर समुद्र को लाँघ जाने में समर्थ हो तो वह शीघ्र ही हमें यहाँ परम पवित्र अभय दान दे’ ॥ १९॥
अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा न कश्चित् किंचिदब्रवीत्।
स्तिमितेवाभवत् सर्वा सा तत्र हरिवाहिनी॥२०॥
अङ्गद की यह बात सुनकर कोई कुछ नहीं बोला। वह सारी वानर-सेना वहाँ जडवत् स्थिर रही॥ २० ॥
पुनरेवाङ्गदः प्राह तान् हरीन् हरिसत्तमः।
सर्वे बलवतां श्रेष्ठा भवन्तो दृढविक्रमाः।
व्यपदेशकुले जाताः पूजिताश्चाप्यभीक्ष्णशः॥२१॥
तब वानरश्रेष्ठ अङ्गद ने पुनः उन सबसे कहा’बलवानों में श्रेष्ठ वानरो! तुम सब लोग दृढ़तापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले हो। तुम्हारा जन्म कलङ्करहित उत्तम कुल में हुआ है। इसके लिये तुम्हारी बारम्बार प्रशंसा हो चुकी है ।। २१॥
नहि वो गमने भङ्गः कदाचित् कस्यचिद् भवेत्।
ब्रुवध्वं यस्य या शक्तिः प्लवने प्लवगर्षभाः॥२२॥
‘श्रेष्ठ वानरो! तुमलोगों में कभी किसी की भी गति कहीं नहीं रुकती। इसलिये समुद्र को लाँघने में जिसकी जितनी शक्ति हो, वह उसे बतावे’॥ २२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः॥६४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ६४॥