वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 65 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 65
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चषष्टितमः सर्गः (सर्ग 65)
जाम्बवान् और अङ्गद की बातचीत तथा जाम्बवान् का हनुमान्जी को प्रेरित करने के लिये उनके पास जाना
अथाङ्गदवचः श्रुत्वा ते सर्वे वानरर्षभाः।
स्वं स्वं गतौ समुत्साहमचुस्तत्र यथाक्रमम्॥१॥
अङ्गद की यह बात सुनकर वे सभी श्रेष्ठ वानर लम्बी छलाँग मारने के सम्बन्ध में अपने-अपने उत्साह का–शक्ति का क्रमशः परिचय देने लगे॥१॥
गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः।
मैन्दश्च द्विविदश्चैव सुषेणो जाम्बवांस्तथा ॥२॥
गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, मैन्द, द्विविद, सुषेण और जाम्बवान्—इन सबने अपनी अपनी शक्ति का वर्णन किया॥२॥
आबभाषे गजस्तत्र प्लवेयं दशयोजनम्।
गवाक्षो योजनान्याह गमिष्यामीति विंशतिम्॥
इनमें से गजने कहा—’मैं दस योजन की छलाँग मार सकता हूँ।’ गवाक्ष बोले—’मैं बीस योजन तक चला जाऊँगा’॥३॥
शरभो वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह।
त्रिंशतं तु गमिष्यामि योजनानां प्लवङ्गमाः॥४॥
इसके बाद वहाँ शरभ नामक वानर ने उन कपिवरों से कहा—’वानरो! मैं तीस योजन तक एक छलाँग में चला जाऊँगा’॥ ४॥
ऋषभो वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह।
चत्वारिंशद् गमिष्यामि योजनानां न संशयः॥
तदनन्तर कपिवर ऋषभ ने उन वानरों से कहा—’मैं चालीस योजन तक चला जाऊँगा, इसमें संशय नहीं
वानरांस्तु महातेजा अब्रवीद् गन्धमादनः।
योजनानां गमिष्यामि पञ्चाशत्तु न संशयः॥६॥
तत्पश्चात् महातेजस्वी गन्धमादन ने उन वानरों से कहा—’इसमें संदेह नहीं कि मैं पचास योजन तक एक छलाँग में चला जाऊँगा’॥६॥
मैन्दस्तु वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह।
योजनानां परं षष्टिमहं प्लवितुमुत्सहे॥७॥
इसके बाद वहाँ वानर-वीर मैन्द उन वानरों से बोले – ‘मैं साठ योजन तक एक छलाँग में कूद जाने का उत्साह रखता हूँ’॥ ७॥
ततस्तत्र महातेजा द्विविदः प्रत्यभाषत।
गमिष्यामि न संदेहः सप्ततिं योजनान्यहम्॥८॥
तदनन्तर महातेजस्वी द्विविद बोले—’मैं सत्तर योजन तक चला जाऊँगा, इसमें संदेह नहीं है’।॥ ८॥
सुषेणस्तु महातेजाः सत्त्ववान् कपिसत्तमः।
अशीतिं प्रतिजानेऽहं योजनानां पराक्रमे॥९॥
इसके बाद धैर्यशाली कपिश्रेष्ठ महातेजस्वी सुषेण बोले—’मैं एक छलाँग में असी योजन तक जाने की प्रतिज्ञा करता हूँ’॥९॥
तेषां कथयतां तत्र सर्वांस्ताननुमान्य च।
ततो वृद्धतमस्तेषां जाम्बवान् प्रत्यभाषत॥१०॥
इस प्रकार कहने वाले सब वानरों का सम्मान करके ऋक्षराज जाम्बवान्, जो सबसे बूढ़े थे, बोले- ॥ १०॥
पूर्वमस्माकमप्यासीत् कश्चिद् गतिपराक्रमः।
ते वयं वयसः पारमनुप्राप्ताः स्म साम्प्रतम्॥११॥
किं तु नैवं गते शक्यमिदं कार्यमुपेक्षितुम्।
यदर्थं कपिराजश्च रामश्च कृतनिश्चयौ॥१२॥
साम्प्रतं कालमस्माकं या गतिस्तां निबोधत।
नवतिं योजनानां तु गमिष्यामि न संशयः॥१३॥
‘पहले युवावस्था में मेरे अंदर भी दूर तक छलाँग मारने की कुछ शक्ति थी। यद्यपि अब मैं उस अवस्था को पार कर चुका हूँ तो भी जिस कार्य के लिये वानरराज सुग्रीव तथा भगवान् श्रीराम दृढ़ निश्चय कर चुके हैं, उसकी मेरे द्वारा उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस समय मेरी जो गति है, उसे आपलोग सुनें मैं एक छलाँग में नब्बे योजन तक चला जाऊँगा, इसमें संशय नहीं है’।
तांश्च सर्वान् हरिश्रेष्ठाजाम्बवानिदमब्रवीत्।
न खल्वेतावदेवासीद् गमने मे पराक्रमः॥१४॥
मया वैरोचने यज्ञे प्रभविष्णुः सनातनः।
प्रदक्षिणीकृतः पूर्वं क्रममाणस्त्रिविक्रमम्॥१५॥
ऐसा कहकर जाम्बवान् उन समस्त श्रेष्ठ वानरों से पुनः इस प्रकार बोले—’पूर्वकाल में मेरे अंदर इतनी ही दूर तक चलने की शक्ति नहीं थी। पहले राजा बलि के यज्ञ में सर्वव्यापी एवं सबके कारणभूत
सनातन भगवान् विष्णु जब तीन पग भूमि नापने के लिये अपने पैर बढ़ा रहे थे, उस समय मैंने उनके उस विराट स्वरूप की थोड़े ही समय में परिक्रमा कर ली थी॥ १४-१५ ॥
स इदानीमहं वृद्धः प्लवने मन्दविक्रमः।
यौवने च तदासीन्मे बलमप्रतिमं परम॥१६॥
‘इस समय तो मैं बूढ़ा हो गया, अतः छलाँग मारने की मेरी शक्ति बहुत कम हो गयी है; किंतु युवावस्था में मेरे भीतर वह महान् बल था, जिसकी कहीं तुलना नहीं है॥१६॥
सम्प्रत्येतावदेवाद्य शक्यं मे गमने स्वतः।
नैतावता च संसिद्धिः कार्यस्यास्य भविष्यति॥१७॥
‘आजकल तो मुझमें स्वतः चलने की इतनी ही शक्ति है, परंतु इतनी ही गति से समुद्रलङ्घन रूप इस वर्तमान कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती’ ।। १७॥
अथोत्तरमुदारार्थमब्रवीदङ्गदस्तदा।
अनुमान्य तदा प्राज्ञो जाम्बवन्तं महाकपिः॥१८॥
तदनन्तर बुद्धिमान् महाकपि अङ्गद ने उस समय जाम्बवान् का विशेष आदर करके यह उदारतापूर्ण बात कही- ॥ १८॥
अहमेतद् गमिष्यामि योजनानां शतं महत्।
निवर्तने तु मे शक्तिः स्यान्न वेति न निश्चितम्॥१९॥
‘मैं इस महासागर के सौ योजन की विशाल दूरी को लाँघ जाऊँगा, किंतु उधर से लौटने में मेरी ऐसी ही शक्ति रहेगी या नहीं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता’ ॥ १९॥
तमुवाच हरिश्रेष्ठं जाम्बवान् वाक्यकोविदः।
ज्ञायते गमने शक्तिस्तव हर्युक्षसत्तम॥२०॥
तब बातचीत कला में चतुर जाम्बवान् ने कपिश्रेष्ठ अङ्गद से कहा—’रीछों और वानरों में श्रेष्ठ युवराज! तुम्हारी गमन शक्ति से हम लोग भलीभाँति परिचित हैं॥२०॥
कामं शतसहस्रं वा नह्येष विधिरुच्यते।
योजनानां भवान् शक्तो गन्तुं प्रतिनिवर्तितुम्॥
‘भले ही, तुम एक लाख योजन तक चले जाओ, तथापि तुम सबके स्वामी हो, अतः तुम्हें भेजना हमारे लिये उचित नहीं है। तुम लाखों योजन जाने और वहाँ से लौटने में समर्थ हो॥ २१॥
नहि प्रेषयिता तात स्वामी प्रेष्यः कथंचन।
भवतायं जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवगसत्तम॥२२॥
‘किंतु तात! वानरशिरोमणे! जो सबको भेजनेवाला स्वामी है, वह किसी तरह प्रेष्य (आज्ञापालक) नहीं हो सकता। ये सब लोग तुम्हारे सेवक हैं, तुम इन्हींमेंसे किसीको भेजो॥२२॥
भवान् कलत्रमस्माकं स्वामिभावे व्यवस्थितः।
स्वामी कलत्रं सैन्यस्य गतिरेषा परंतप॥२३॥
‘तुम कलत्र (स्त्री की भाँति रक्षणीय) हो, (जैसे नारी पति के हृदय की स्वामिनी होती है, उसी प्रकार)तुम हमारे स्वामी के पद पर प्रतिष्ठित हो। परंतप! – स्वामी सेना के लिये कलत्र (स्त्री) के समान संरक्षणीय होता है यही लोक की मान्यता है॥ २३ ॥
अपि वै तस्य कार्यस्य भवान् मूलमरिंदम।
तस्मात् कलत्रवत् तात प्रतिपाल्यः सदा भवान्॥२४॥
‘शत्रुदमन! तात! तुम्हीं उस कार्य के मूल हो, अतः सदा कलत्र की भाँति तुम्हारा पालन करना उचित है। २४॥
मूलमर्थस्य संरक्ष्यमेष कार्यविदां नयः।
मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः सर्वे फलोदयाः॥२५॥
‘कार्य के मूल की रक्षा करनी चाहिये। यही कार्य के तत्त्व को जानने वाले विद्वानों की नीति है; क्योंकि मूल के रहने पर ही सभी गुण सफल सिद्ध होते हैं। २५॥
तद् भवानस्य कार्यस्य साधनं सत्यविक्रम।
वुद्धिविक्रमसम्पन्नो हेतुरत्र परंतप॥२६॥
‘अतः सत्यपराक्रमी शत्रुदमन वीर! तुम्हीं इस कार्य के साधन तथा बुद्धि और पराक्रम से सम्पन्न हेतु हो॥२६॥
गुरुश्च गुरुपुत्रश्च त्वं हि नः कपिसत्तम।
भवन्तमाश्रित्य वयं समर्था ह्यर्थसाधने॥२७॥
‘कपिश्रेष्ठ! तुम्ही हमारे गुरु और गुरुपुत्र हो। तुम्हारा आश्रय लेकर ही हम सब लोग कार्यसाधन में समर्थ हो सकते हैं’ ॥ २७॥
उक्तवाक्यं महाप्राज्ञं जाम्बवन्तं महाकपिः।
प्रत्युवाचोत्तरं वाक्यं वालिसूनुरथाङ्गदः॥२८॥
जब परम बुद्धिमान् जाम्बवान् पूर्वोक्त बात कह चुके, तब महाकपि वालिकुमार अङ्गद ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२८॥
यदि नाहं गमिष्यामि नान्यो वानरपुङ्गवः।
पुनः खल्विदमस्माभिः कार्य प्रायोपवेशनम्॥२९॥
‘यदि मैं नहीं जाऊँगा और दूसरा कोई भी श्रेष्ठ वानर जाने को तैयार न होगा, तब फिर हमलोगों को निश्चितरूप से मरणान्त उपवास ही करना चाहिये। २९॥
नह्यकृत्वा हरिपतेः संदेशं तस्य धीमतः।
तत्रापि गत्वा प्राणानां न पश्ये परिरक्षणम्॥३०॥
‘बुद्धिमान् वानरराज सुग्रीव के आदेश का पालन किये बिना यदि हम लोग किष्किन्धा को लौट चलें तो वहाँ जाकर भी हमें अपने प्राणों की रक्षा का कोई उपाय नहीं दिखायी देता॥ ३० ॥
स हि प्रसादे चात्यर्थकोपे च हरिरीश्वरः।
अतीत्य तस्य संदेशं विनाशो गमने भवेत्॥३१॥
‘वे हमपर कृपा करने और अत्यन्त कुपित होकर हमें दण्ड देने में भी समर्थ हैं। उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन करके जाने पर हमारा विनाश अवश्यम्भावी है॥३१॥
तत्तथा ह्यस्य कार्यस्य न भवत्यन्यथा गतिः।
तद् भवानेव दृष्टार्थः संचिन्तयितुमर्हति ॥ ३२॥
‘अतः जिस उपाय से इस सीता दर्शनरूपी कार्य की सिद्धि में कोई रुकावट न पड़े, उसका आप ही विचार करें; क्योंकि आपको सब बातों का अनुभव है’। ३२॥
सोऽङ्गदेन तदा वीरः प्रत्युक्तः प्लवगर्षभः।
जाम्बवानुत्तमं वाक्यं प्रोवाचेदं ततोऽङ्गदम्॥३३॥
उस समय अङ्गद के ऐसा कहने पर वीर वानरशिरोमणि जाम्बवान् ने उनसे यह उत्तम बात कही – ॥ ३३॥
तस्य ते वीर कार्यस्य न किंचित् परिहास्यते।
एष संचोदयाम्येनं यः कार्यं साधयिष्यति॥३४॥
‘वीर! तुम्हारे इस कार्य में कोई किंचित् भी त्रुटि नहीं आने पायेगी। अब मैं ऐसे वीर को प्रेरित कर रहा हूँ, जो इस कार्य को सिद्ध कर सकेगा’ ॥ ३४॥
ततः प्रतीतं प्लवतां वरिष्ठमेकान्तमाश्रित्य सुखोपविष्टम्।
संचोदयामास हरिप्रवीरो हरिप्रवीरं हनुमन्तमेव॥ ३५॥
ऐसा कहकर वानरों और भालुओं के वीर यूथपति जाम्बवान् ने वानरसेना के श्रेष्ठ वीर हनुमान जी को ही प्रेरित किया, जो एकान्त में जाकर मौज से बैठे हुए थे। उन्हें किसी बात की चिन्ता नहीं थी और वे दूरतक की छलाँग मारने वालों में सबसे श्रेष्ठ थे॥ ३५ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चषष्टितमः सर्गः ॥६५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६५॥