वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 66 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 66
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
षट्षष्टितमः सर्गः (सर्ग 66)
जाम्बवान् का हनुमानजी को उनकी उत्पत्ति कथा सुनाकर समुद्रलङ्घन के लिये उत्साहित करना
अनेकशतसाहस्री विषण्णां हरिवाहिनीम्।
जाम्बवान् समुदीक्ष्यैवं हनूमन्तमथाब्रवीत्॥१॥
लाखों वानरों की सेना को इस तरह विषाद में पड़ी देख जाम्बवान् ने हनुमान जी से कहा- ॥१॥
वीर वानरलोकस्य सर्वशास्त्रविदां वर।
तूष्णीमेकान्तमाश्रित्य हनूमन् किं न जल्पसि॥२॥
‘वानरजगत् के वीर तथा सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हनुमान् ! तुम एकान्त में आकर चुपचाप क्यों बैठे हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? ॥ २॥
हनूमन् हरिराजस्य सुग्रीवस्य समो ह्यसि।
रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च॥३॥
‘हनूमन्! तुम तो वानरराज सुग्रीव के समान पराक्रमी हो तथा तेज और बल में श्रीराम और लक्ष्मण के तुल्य हो॥३॥
अरिष्टनेमिनः पुत्रो वैनतेयो महाबलः।
गरुत्मानिव विख्यात उत्तमः सर्वपक्षिणाम्॥४॥
‘कश्यपजी के महाबली पुत्र और समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ जो विनतानन्दन गरुड़ हैं, उन्हींके समान तुम भी विख्यात शक्तिशाली एवं तीव्रगामी हो॥४॥
बहुशो हि मया दृष्टः सागरे स महाबलः।
भुजङ्गानुद्धरन् पक्षी महाबाहुर्महाबलः॥५॥
‘महाबली महाबाहु पक्षिराज गरुड़ को मैंने समुद्र में कई बार देखा है, जो बड़े-बड़े सो को वहाँ से निकाल लाते हैं॥५॥
पक्षयोर्यद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव।
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते॥६॥
‘उनके दोनों पंखों में जो बल है, वही बल, वही पराक्रम तुम्हारी इन दोनों भुजाओं में भी है। इसीलिये तुम्हारा वेग और विक्रम भी उनसे कम नहीं है॥६॥
बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव।
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न सज्जसे॥७॥
‘वानरशिरोमणे! तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज और धैर्य भी समस्त प्राणियों में सबसे बढ़कर है फिर तुम अपने-आपको ही समुद्र लाँघने के लिये क्यों नहीं तैयार करते? ॥ ७॥
अप्सराऽप्सरसां श्रेष्ठा विख्याता पुञ्जिकस्थला।
अञ्जनेति परिख्याता पत्नी केसरिणो हरेः॥८॥
विख्याता त्रिषु लोकेषु रूपेणाप्रतिमा भुवि।
अभिशापादभूत् तात कपित्वे कामरूपिणी॥९॥
दुहिता वानरेन्द्रस्य कुञ्जरस्य महात्मनः।
(वीरवर! तुम्हारे प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है -) पुञ्जिकस्थला नाम से विख्यात जो अप्सरा है, वह समस्त अप्सराओं में अग्रगण्य है। तात! एक समय शापवश वह कपियोनि में अवतीर्ण हुई। उस समय वह वानरराज महामनस्वी कुञ्जर की पुत्री इच्छानुसार रूप धारण करने वाली थी। इस भूतल पर उसके रूप की समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह तीनों लोकों में विख्यात थी उसका नाम अञ्जना था। वह वानरराज केसरी की पत्नी हुई। ८-९ १/२॥
मानुषं विग्रहं कृत्वा रूपयौवनशालिनी॥१०॥
विचित्रमाल्याभरणा कदाचित् क्षौमधारिणी।
अचरत् पर्वतस्याग्रे प्रावृडम्बुदसंनिभे॥११॥
‘एक दिन की बात है, रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली अञ्जना मानवी स्त्री का शरीर धारण करके वर्षा काल के मेघ की भाँति श्याम कान्तिवाले एक पर्वत-शिखर पर विचर रही थी। उसके अङ्गों पर रेशमी साड़ी शोभा पाती थी। वह फूलों के विचित्र आभूषणों से विभूषित थी॥ १०-११॥
तस्या वस्त्रं विशालाक्ष्याः पीतं रक्तदशं शुभम्।
स्थितायाः पर्वतस्याग्रे मारुतोऽपाहरच्छनैः॥१२॥
‘उस विशाललोचना बाला का सुन्दर वस्त्र तो पीले रंग का था, किंतु उसके किनारे का रंग लाल था। वह पर्वत के शिखर पर खड़ी थी। उसी समय वायुदेवता ने उसके उस वस्त्र को धीरे से हर लिया॥ १२ ॥
स ददर्श ततस्तस्या वृत्तावूरू सुसंहतौ।
स्तनौ च पीनौ सहितौ सुजातं चारु चाननम्॥१३॥
‘तत्पश्चात् उन्होंने उसकी परस्पर सटी हुई गोलगोल जाँघों, एक-दूसरे से लगे हुए पीन उरोजों तथा मनोहर मुख को भी देखा ॥ १३॥
तां बलादायतश्रोणी तनुमध्यां यशस्विनीम्।
दृष्ट्वैव शुभसर्वाङ्गीं पवनः काममोहितः॥१४॥
उसके नितम्ब ऊँचे और विस्तृत थे। कटिभाग बहुत ही पतला था। उसके सारे अङ्ग परम सुन्दर थे। इस प्रकार बलपूर्वक यशस्विनी अञ्जना के अङ्गों का अवलोकन करके पवन देवता काम से मोहित हो गये॥
स तां भुजाभ्यां दीर्घाभ्यां पर्यष्वजत मारुतः।
मन्मथाविष्टसर्वाङ्गो गतात्मा तामनिन्दिताम्॥
‘उनके सम्पूर्ण अङ्गों में कामभाव का आवेश हो गया। मन अञ्जना में ही लग गया। उन्होंने उस अनिन्द्य सुन्दरी को अपनी दोनों विशाल भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया॥ १५ ॥
सा तु तत्रैव सम्भ्रान्ता सुव्रता वाक्यमब्रवीत्।
एकपत्नीव्रतमिदं को नाशयितुमिच्छति॥१६॥
‘अञ्जना उत्तम व्रत का पालन करने वाली सती नारी थी। अतः उस अवस्था में पड़कर वह वहीं घबरा उठी और बोली—’कौन मेरे इस पातिव्रत्य का नाश करना चाहता है’? ॥ १६ ॥
अञ्जनाया वचः श्रुत्वा मारुतः प्रत्यभाषत।
न त्वां हिंसामि सुश्रोणि मा भूत् ते मनसो भयम्॥१७॥
अञ्जना की बात सुनकर पवनदेव ने उत्तर दिया —’सुश्रोणि! मैं तुम्हारे एक पत्नी-व्रत का नाश नहीं कर रहा हूँ। अतः तुम्हारे मन से यह भय दूर हो जाना चाहिये॥ १७॥
मनसास्मि गतो यत् त्वां परिष्वज्य यशस्विनि।
वीर्यवान् बुद्धिसम्पन्नस्तव पुत्रो भविष्यति॥१८॥
‘यशस्विनि! मैंने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिङ्गन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम किया है। इससे तुम्हें बल-पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान् पुत्र प्राप्त होगा॥ १८ ॥
महासत्त्वो महातेजा महाबलपराक्रमः।
लङ्घने प्लवने चैव भविष्यति मया समः॥१९॥
‘वह महान् धैर्यवान्, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लाँघने और छलाँग मारने में मेरे समान होगा’॥ १९॥
एवमुक्ता ततस्तुष्टा जननी ते महाकपे।
गुहायां त्वां महाबाहो प्रजज्ञे प्लवगर्षभ॥२०॥
महाकपे! वायुदेव के ऐसा कहने पर तुम्हारी माता प्रसन्न हो गयीं। महाबाहो! वानरश्रेष्ठ! फिर उन्होंने तुम्हें एक गुफा में जन्म दिया॥२०॥
अभ्युत्थितं ततः सूर्यं बालो दृष्ट्वा महावने।
फलं चेति जिघृक्षुस्त्वमुत्प्लुत्याभ्युत्पतो दिवम्॥२१॥
‘बाल्यावस्था में एक विशाल वन के भीतर एक दिन उदित हुए सूर्य को देखकर तुमने समझा कि यह भी कोई फल है; अतः उसे लेने के लिये तुम सहसा आकाश में उछल पड़े॥२१॥
शतानि त्रीणि गत्वाथ योजनानां महाकपे।
तेजसा तस्य निर्धूतो न विषादं गतस्ततः॥२२॥
‘महाकपे! तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई॥२२॥
त्वामप्युपगतं तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन तेजसा॥२३॥
‘कपिप्रवर! अन्तरिक्ष में जाकर जब तुरंत ही तुम सूर्य के पास पहुँच गये, तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर तेज से प्रकाशित वज्र का प्रहार किया। २३॥
तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।
ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्तितम्॥२४॥
‘उस समय उदयगिरि के शिखर पर तुम्हारे हनु (ठोड़ी) का बायाँ भाग वज्र की चोट से खण्डित हो गया। तभी से तुम्हारा नाम हनुमान् पड़ गया॥ २४॥
ततस्त्वां निहतं दृष्ट्वा वायुर्गन्धवहः स्वयम्।
त्रैलोक्यं भृशसंक्रुद्धो न ववौ वै प्रभञ्जनः॥२५॥
‘तुम पर प्रहार किया गया है, यह देखकर गन्धवाहक वायुदेवता को बड़ा क्रोध हुआ। उन प्रभञ्जनदेव ने तीनों लोकों में प्रवाहित होना छोड़ दिया॥२५॥
सम्भ्रान्ताश्च सुराः सर्वे त्रैलोक्ये क्षुभिते सति।
प्रसादयन्ति संक्रुद्धं मारुतं भुवनेश्वराः॥२६॥
‘इससे सम्पूर्ण देवता घबरा गये; क्योंकि वायु के अवरुद्ध हो जाने से तीनों लोकों में खलबली मच गयी थी। उस समय समस्त लोकपाल कुपित हुए वायुदेव को मनाने लगे॥ २६ ॥
प्रसादिते च पवने ब्रह्मा तुभ्यं वरं ददौ।
अशस्त्रवध्यतां तात समरे सत्यविक्रम॥२७॥
‘सत्यपराक्रमी तात! पवनदेवके प्रसन्न होने पर ब्रह्माजी ने तुम्हारे लिये यह वर दिया कि तुम समराङ्गण में किसी भी अस्त्र-शस्त्र के द्वारा मारे नहीं जा सकोगे॥२७॥
वज्रस्य च निपातेन विरुजं त्वां समीक्ष्य च।
सहस्रनेत्रः प्रीतात्मा ददौ ते वरमुत्तमम्॥२८॥
स्वच्छन्दतश्च मरणं तव स्यादिति वै प्रभो।
‘प्रभो! वज्र के प्रहार से भी तुम्हें पीड़ित न देखकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने तुम्हारे लिये यह उत्तम वर दिया—’मृत्यु तुम्हारी इच्छा के अधीन होगी-तुम जब चाहोगे, तभी मर सकोगे, अन्यथा नहीं’ ॥ २८ १/२॥
स त्वं केसरिणः पुत्रः क्षेत्रजो भीमविक्रमः॥२९॥
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।
‘इस प्रकार तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिये भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिये तेज की दृष्टि से भी उन्हीं के समान हो॥ २९ १/२॥
त्वं हि वायुसुतो वत्स प्लवने चापि तत्समः॥३०॥
वयमद्य गतप्राणा भवानस्मासु साम्प्रतम्।
दाक्ष्यविक्रमसम्पन्नः कपिराज इवापरः॥३१॥
‘वत्स! तुम पवन के पुत्र हो, अतः छलाँग मारने में भी उन्हीं के तुल्य हो। हमारी प्राणशक्ति अब चली गयी। इस समय तुम्हीं हमलोगों में दूसरे वानरराज की भाँति चातुर्य एवं पौरुष से सम्पन्न हो॥३०-३१॥
त्रिविक्रमे मया तात सशैलवनकानना।
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी परिक्रान्ता प्रदक्षिणम्॥३२॥
‘तात! भगवान् वामन ने त्रिलोकी को नापने के लिये जब पैर बढ़ाया था, उस समय मैंने पर्वत, वन और काननोंसहित समूची पृथ्वी की इक्कीस बार प्रदक्षिणा की थी॥ ३२॥
तथा चौषधयोऽस्माभिः संचिता देवशासनात्।
निर्मथ्यममृतं याभिस्तदानीं नो महबलम्॥३३॥
‘समुद्र-मन्थन के समय देवताओं की आज्ञा से हमने उन ओषधियों का संचय किया था, जिनके द्वारा अमृत को मथकर निकालना था। उन दिनों हममें महान् बल था॥ ३३॥
स इदानीमहं वृद्धः परिहीनपराक्रमः।
साम्प्रतं कालमस्माकं भवान् सर्वगुणान्वितः॥३४॥
‘अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ। मेरा पराक्रम घट गया है। इस समय हमलोगों में तुम्हीं सब प्रकार के गुणों से सम्पन्न हो॥३४॥
तद् विजृम्भस्व विक्रान्त प्लवतामुत्तमो ह्यसि।
त्वदीर्यं द्रष्टकामा हि सर्वा वानरवाहिनी॥३५॥
‘अतः पराक्रमी वीर! तुम अपने असीम बल का विस्तार करो। छलाँग मारने वालों में तुम सबसे श्रेष्ठ हो। यह सारी वानरसेना तुम्हारे बल-पराक्रम को देखना चाहती है॥ ३५॥
उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लवयस्व महार्णवम्।
परा हि सर्वभूतानां हनुमन् या गतिस्तव॥३६॥
‘वानरश्रेष्ठ हनुमान् ! उठो और इस महासागर को लाँघ जाओ; क्योंकि तुम्हारी गति सभी प्राणियों से बढ़कर है॥ ३६॥
विषण्णा हरयः सर्वे हनुमन् किमुपेक्षसे।
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव॥३७॥
‘हनुमन्! समस्त वानर चिन्ता में पड़े हैं तुम क्यों इनकी उपेक्षा करते हो? महान् वेगशाली वीर! जैसे भगवान् विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिये तीन पग बढ़ाये थे, उसी प्रकार तुम भी अपने पैर बढ़ाओ’। ३७॥
ततः कपीनामृषभेण चोदितः प्रतीतवेगः पवनात्मजः कपिः।
प्रहर्षयंस्तां हरिवीरवाहिनीं चकार रूपं महदात्मनस्तदा ॥३८॥
इस प्रकार वानरों और भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान् की प्रेरणा पाकर कपिवर पवनकुमार हनुमान् को अपने महान् वेग पर विश्वास हो आया। उन्होंने वानर वीरों की उस सेना का हर्ष बढ़ाते हुए उस समय अपना विराट् रुप प्रकट किया॥ ३८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे षट्षष्टितमः सर्गः॥६६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६६॥