वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 67 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 67
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तषष्टितमः सर्गः (सर्ग 67)
हनुमान जी का समुद्र लाँघने के लिये उत्साह प्रकट करना, जाम्बवान् के द्वारा उनकी प्रशंसा तथा वेगपूर्वक छलाँग मारने के लिये हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर चढ़ना
तं दृष्ट्वा जृम्भमाणं ते क्रमितुं शतयोजनम्।
वेगेनापूर्यमाणं च सहसा वानरोत्तमम्॥१॥
सहसा शोकमुत्सृज्य प्रहर्षेण समन्विताः।
विनेदुस्तुष्टवुश्चापि हनूमन्तं महाबलम्॥२॥
सौ योजन के समुद्र को लाँघने के लिये वानरश्रेष्ठ हनुमान जी को सहसा बढ़ते और वेग से परिपूर्ण होते देख सब वानर तुरंत शोक छोड़कर अत्यन्त हर्ष से भर गये और महाबली हनुमान जी की स्तुति करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥ १-२॥
प्रहृष्टा विस्मिताश्चापि ते वीक्षन्ते समन्ततः।
त्रिविक्रमं कृतोत्साहं नारायणमिव प्रजाः॥३॥
वे उनके चारों ओर खड़े हो प्रसन्न एवं चकित होकर उन्हें इस प्रकार देखने लगे, जैसे उत्साहयुक्त नारायणावतार वामनजी को समस्त प्रजा ने देखा था।३॥
संस्तूयमानो हनुमान् व्यवर्धत महाबलः।
समाविद्ध्य च लाङ्गेलं हर्षाद् बलमुपेयिवान्॥४॥
अपनी प्रशंसा सुनकर महाबली हनुमान् ने शरीर को और भी बढ़ाना आरम्भ किया। साथ ही हर्ष के साथ अपनी पूँछ को बारम्बार घुमाकर अपने महान् बल का स्मरण किया॥४॥
तस्य संस्तूयमानस्य वृद्वैर्वानरपुङ्गवैः।
तेजसाऽऽपूर्यमाणस्य रूपमासीदनुत्तमम्॥५॥
बड़े-बूढ़े वानरशिरोमणियों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते और तेज से परिपूर्ण होते हुए हनुमान् जी का रूप उस समय बड़ा ही उत्तम प्रतीत होता था॥५॥
यथा विजृम्भते सिंहो विवृते गिरिगह्वरे।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तथा सम्प्रति जृम्भते॥६॥
जैसे पर्वत की विस्तृत कन्दरा में सिंह अंगड़ाई लेता है, उसी प्रकार वायुदेवता के औरस पुत्र ने उस समय अपने शरीर को अंगड़ाई ले-लेकर बढ़ाया॥६॥
अशोभत मुखं तस्य जृम्भमाणस्य धीमतः।
अम्बरीषोपमं दीप्तं विधूम इव पावकः॥७॥
जंभाई लेते समय बुद्धिमान् हनुमान जी का दीप्तिमान् मुख जलते हुए भाड़ तथा धूमरहित अग्नि के समान शोभा पा रहा था।। ७॥
हरीणामुत्थितो मध्यात् सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
अभिवाद्य हरीन् वृद्धान् हनूमानिदमब्रवीत्॥८॥
वे वानरों के बीच से उठकर खड़े हो गये। उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमाञ्च हो आया। उस अवस्था में हनुमान जी ने बड़े-बूढ़े वानरों को प्रणाम करके इस प्रकार कहा- ॥८॥
आरुजन् पर्वताग्राणि हुताशनसखोऽनिलः।
बलवानप्रमेयश्च वायुराकाशगोचरः॥९॥
‘आकाश में विचरने वाले वायुदेवता बड़े बलवान् हैं। उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वे अग्निदेव के सखा हैं और अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वत-शिखरों को भी तोड़ डालते हैं॥९॥
तस्याहं शीघ्रवेगस्य शीघ्रगस्य महात्मनः।
मारुतस्यौरसः पुत्रः प्लवनेनास्मि तत्समः ॥१०॥
अत्यन्त शीघ्र वेग से चलने वाले उन शीघ्रगामी महात्मा वायु का मैं औरस पुत्र हूँ और छलाँग मारने में उन्हीं के समान हूँ॥ १०॥
उत्सहेयं हि विस्तीर्णमालिखन्तमिवाम्बरम्।
मेरुं गिरिमसङ्गेन परिगन्तुं सहस्रशः॥११॥
‘कई सहस्र योजनों तक फैले हुए मेरुगिरि की, जो आकाश के बहुत बड़े भाग को ढके हुए है और उसमें रेखा खींचता-सा जान पड़ता है, मैं बिना विश्राम लिये सहस्रों बार परिक्रमा कर सकता हूँ॥ ११ ॥
बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे।
समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम्॥१२॥
‘अपनी भुजाओं के वेग से समुद्र को विक्षुब्ध करके उसके जल से मैं पर्वत, नदी और जलाशयों सहित सम्पूर्ण जगत् को आप्लावित कर सकता हूँ॥ १२॥
ममोरुजङ्घावेगेन भविष्यति समुत्थितः।
समुत्थितमहाग्राहः समुद्रो वरुणालयः॥१३॥
‘वरुणका निवास स्थान यह महासागर मेरी जाँघों और पिंडलियों के वेग से विक्षुब्ध हो उठेगा और इसके भीतर रहने वाले बड़े-बड़े ग्राह ऊपर आ जायँगे॥ १३॥
पन्नगाशनमाकाशे पतन्तं पक्षिसेवितम्।
वैनतेयमहं शक्तः परिगन्तुं सहस्रशः॥१४॥
‘समस्त पक्षी जिनकी सेवा करते हैं, वे सर्पभोजी विनतानन्दन गरुड़ आकाश में उड़ते हों तो भी मैं हजारों बार उनके चारों ओर घूम सकता हूँ॥ १४ ॥
उदयात् प्रस्थितं वापि ज्वलन्तं रश्मिमालिनम्।
अनस्तमितमादित्यमहं गन्तुं समुत्सहे॥१५॥
ततो भूमिमसंस्पृष्ट्वा पुनरागन्तुमुत्सहे।
प्रवेगेनैव महता भीमेन प्लवगर्षभाः॥१६॥
‘श्रेष्ठ वानरो! उदयाचल से चलकर अपने तेज से प्रज्वलित होते हुए सूर्यदेव को मैं अस्त होने से पहले ही छू सकता हूँ और वहाँ से पृथ्वी तक आकर यहाँ पैर रखे बिना ही पुनः उनके पास तक बड़े भयंकर वेग से जा सकता हूँ॥१५-१६॥
उत्सहेयमतिक्रान्तुं सर्वानाकाशगोचरान्।
सागरान् शोषयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम्॥१७॥
पर्वतांश्चूर्णयिष्यामि प्लवमानः प्लवङ्गमः।
हरिष्याम्युरुवेगेन प्लवमानो महार्णवम्॥१८॥
‘आकाशचारी समस्त ग्रह-नक्षत्र आदि को लाँघकर आगे बढ़ जाने का उत्साह रखता हूँ। मैं चाहूँ तो समुद्रों को सोख लूँगा, पृथ्वी को विदीर्ण कर दूंगा और कूदकूदकर पर्वतों को चूर-चूर कर डालूँगा; क्योंकि मैं दूर तक की छलाँगें मारने वाला वानर हूँ। महान् वेग से महासागर को फाँदता हुआ मैं अवश्य उसके पार पहुँच जाऊँगा॥
लतानां विविधं पुष्पं पादपानां च सर्वशः।
अनुयास्यति मामद्य प्लवमानं विहायसा॥१९॥
‘आज आकाश में वेगपूर्वक जाते समय लताओं और वृक्षों के नाना प्रकार के फूल मेरे साथ-साथ उड़ते जायँगे॥ १९॥
भविष्यति हि मे पन्थाः स्वातेः पन्था इवाम्बरे।
चरन्तं घोरमाकाशमुत्पतिष्यन्तमेव च ॥२०॥
द्रक्ष्यन्ति निपतन्तं च सर्वभूतानि वानराः।
‘बहुत-से फूल बिखरे होने के कारण मेरा मार्ग आकाश में अनेक नक्षत्रपुञ्जों से सुशोभित स्वातिमार्ग (छायापथ) के समान प्रतीत होगा। वानरो! आज समस्त प्राणी मुझे भयंकर आकाश में सीधे जाते हुए, ऊपर उछलते हुए और नीचे उतरते हुए देखेंगे॥ २० १/२॥
महामेरुप्रतीकाशं मां द्रक्ष्यध्वं प्लवङ्गमाः॥२१॥
दिवमावृत्य गच्छन्तं ग्रसमानमिवाम्बरम्।
विधमिष्यामि जीमूतान् कम्पयिष्यामि पर्वतान्।
सागरं शोषयिष्यामि प्लवमानः समाहितः॥२२॥
‘कपिवरो! तुम देखोगे, मैं महागिरि मेरु के समान विशाल शरीर धारण करके स्वर्ग को ढकता और आकाश को निगलता हुआ-सा आगे बढुंगा, बादलों को छिन्न-भिन्न कर डालूँगा, पर्वतों को हिला दूंगा और एकचित्त हो छलाँग मारकर आगे बढ़ने पर समुद्र को भी सुखा दूंगा॥ २१-२२ ॥
वैनतेयस्य वा शक्तिर्मम वा मारुतस्य वा।
ऋते सुपर्णराजानं मारुतं वा महाबलम्।
न तद् भूतं प्रपश्यामि यन्मां प्लुतमनुव्रजेत्॥२३॥
‘विनतानन्दन गरुड में, मुझमें अथवा वायुदेवता में ही समुद्र को लाँघ जाने की शक्ति है। पक्षिराज गरुडअथवा महाबली वायुदेवता के सिवा और किसी प्राणी को मैं ऐसा नहीं देखता जो यहाँ से छलाँग मारने पर मेरे साथ जा सके॥२३॥
निमेषान्तरमात्रेण निरालम्बनमम्बरम्।
सहसा निपतिष्यामि घनाद विद्युदिवोत्थिता॥२४॥
‘मेघ से उत्पन्न हुई विद्युत् की भाँति मैं पलक मारते-मारते सहसा निराधार आकाश में उड़ जाऊँगा। २४॥
भविष्यति हि मे रूपं प्लवमानस्य सागरम्।
विष्णोः प्रक्रममाणस्य तदा त्रीन् विक्रमानिव॥२५॥
“समुद्र को लाँघते समय मेरा वही रूप प्रकट होगा, जो तीनों पगों को बढ़ाते समय वामनरूपधारी भगवान् विष्णु का हुआ था॥ २५ ॥
बुद्ध्या चाहं प्रपश्यामि मनश्चेष्टा च मे तथा।
अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं प्रमोदध्वं प्लवङ्गमाः॥२६॥
‘वानरो! मैं बुद्धि से जैसा देखता या सोचता हूँ, मेरे मन की चेष्टा भी उसके अनुरूप ही होती है। मुझे निश्चय जान पड़ता है कि मैं विदेहकुमारी का दर्शन करूँगा, अतः अब तुम लोग खुशियाँ मनाओ॥ २६॥
मारुतस्य समो वेगे गरुडस्य समो जवे।
अयतं योजनानां तु गमिष्यामीति मे मतिः॥२७॥
‘मैं वेग में वायुदेवता तथा गरुड के समान हूँ। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि इस समय मैं दस हजार योजन तक जा सकता हूँ॥ २७॥
वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुवः।
विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये॥२८॥
लङ्कां वापि समुत्क्षिप्य गच्छेयमिति मे मतिः।
‘वज्रधारी इन्द्र अथवा स्वयम्भू ब्रह्माजी के हाथ से भी मैं बलपूर्वक अमृत छीनकर सहसा यहाँ ला सकता हूँ। समूची लङ्का को भी भूमि से उखाड़कर हाथ पर उठाये चल सकता हूँ ऐसा मेरा विश्वास है’॥ २८ १/२॥
तमेवं वानरश्रेष्ठं गर्जन्तममितप्रभम्॥२९॥
प्रहृष्टा हरयस्तत्र समुदैक्षन्त विस्मिताः।
अमिततेजस्वी वानरश्रेष्ठ हनुमान् जी जब इस प्रकार गर्जना कर रहे थे, उस समय सम्पूर्ण वानर अत्यन्त हर्ष में भरकर चकितभाव से उनकी ओर देख रहे थे॥ २९ १/२॥
तच्चास्य वचनं श्रुत्वा ज्ञातीनां शोकनाशनम्॥३०॥
उवाच परिसंहृष्टो जाम्बवान् प्लवगेश्वरः।
हनुमान जी की बातें भाई-बन्धुओं के शोक को नष्ट करनेवाली थीं। उन्हें सुनकर वानर-सेनापति जाम्बवान् को बड़ी प्रसन्नता हुई वे बोले- ॥ ३० १/२॥
वीर केसरिणः पुत्र वेगवन् मारुतात्मज॥३१॥
ज्ञातीनां विपुलः शोकस्त्वया तात प्रणाशितः।
‘वीर! केसरीके सुपुत्र! वेगशाली पवनकुमार ! तात! तुमने अपने बन्धुओं का महान् शोक नष्ट कर दिया॥ ३१ १/२॥
तव कल्याणरुचयः कपिमुख्याः समागताः॥
मङ्गलान्यर्थसिद्ध्यर्थं करिष्यन्ति समाहिताः।
‘यहाँ आये हुए सभी श्रेष्ठ वानर तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं। अब ये कार्य की सिद्धि के उद्देश्य से एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिये मङ्गलकृत्यस्वस्तिवाचन आदि का अनुष्ठान करेंगे॥ ३२ १/२॥
ऋषीणां च प्रसादेन कपिवृद्धमतेन च॥३३॥
गुरूणां च प्रसादेन सम्प्लव त्वं महार्णवम्।
‘ऋषियों के प्रसाद, वृद्ध वानरों की अनुमति तथा गुरुजनों की कृपा से तुम इस महासागर के पार हो जाओ॥ ३३ १/२॥
स्थास्यामश्चैकपादेन यावदागमनं तव॥३४॥
त्वद्गतानि च सर्वेषां जीवनानि वनौकसाम्।
‘जब तक तुम लौटकर यहाँ आओगे, तब तक हम तुम्हारी प्रतीक्षा में एक पैर से खड़े रहेंगे; क्योंकि हम सब वानरों का जीवन तुम्हारे ही अधीन है’॥ ३४ १/२॥
ततश्च हरिशार्दूलस्तानुवाच वनौकसः॥ ३५॥
कोऽपि लोके न मे वेगं प्लवने धारयिष्यति।
तदनन्तर कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने उन वनवासी वानरों से कहा—’जब मैं यहाँ से छलाँग मारूँगा, उस समय संसार में कोई भी मेरे वेग को धारण नहीं कर सकेगा। ३५ १/२॥
एतानीह नगस्यास्य शिलासंकटशालिनः॥ ३६॥
शिखराणि महेन्द्रस्य स्थिराणि च महान्ति च।
येषु वेगं गमिष्यामि महेन्द्रशिखरेष्वहम्॥ ३७॥
नानाद्रुमविकीर्णेषु धातुनिष्पन्दशोभिषु।
‘शिलाओं के समूह से शोभा पाने वाले केवल इस महेन्द्र पर्वत के ये शिखर ही ऊँचे-ऊँचे और स्थिर हैं, जिनपर नाना प्रकार के वृक्ष फैले हुए हैं तथा गैरिक आदि धातुओं के समुदाय शोभा दे रहे हैं। इन महेन्द्रशिखरों पर ही वेगपूर्वक पैर रखकर मैं यहाँ से छलाँग मारूँगा॥ ३६-३७ १/२॥
एतानि मम वेगं हि शिखराणि महान्ति च॥३८॥
प्लवतो धारयिष्यन्ति योजनानामितः शतम्।
‘यहाँ से सौ योजन के लिये छलाँग मारते समय महेन्द्र पर्वत के ये महान् शिखर ही मेरे वेग को धारण कर सकेंगे’॥ ३८ १/२॥
ततस्तु मारुतप्रख्यः स हरिर्मारुतात्मजः।
आरुरोह नगश्रेष्ठं महेन्द्रमरिमर्दनः॥३९॥
यों कहकर वायु के समान महापराक्रमी शत्रुमर्दन पवन कुमार हनुमान जी पर्वतों में श्रेष्ठ महेन्द्रपर चढ़ गये॥ ३९॥
वृतं नानाविधैः पुष्पैमुंगसेवितशादलम्।
लताकुसुमसम्बाधं नित्यपुष्पफलद्रुमम्॥४०॥
वह पर्वत नाना प्रकार के पुष्पयुक्त वृक्षों से भरा हुआ था, वन्य पशु वहाँ की हरी-हरी घास चर रहे थे, लताओं और फूलों से वह सघन जान पड़ता था और वहाँ के वृक्षों में सदा ही फल-फूल लगे रहते थे। ४०॥
सिंहशार्दूलसहितं मत्तमातङ्गसेवितम्।
मत्तद्विजगणोद्घष्टं सलिलोत्पीडसंकुलम्॥४१॥
महेन्द्र पर्वत के वनों में सिंह और बाघ भी निवास करते थे, मतवाले गजराज विचरते थे, मदमत्त पक्षियों के समूह सदा कलरव किया करते थे तथा जल के स्रोतों और झरनों से वह पर्वत व्याप्त दिखायी देता था॥४१॥
महद्भिरुच्छ्रितं शृङ्गैर्महेन्द्रं स महाबलः।
विचचार हरिश्रेष्ठो महेन्द्रसमविक्रमः॥४२॥
बड़े-बड़े शिखरों से ऊँचे प्रतीत होने वाले महेन्द्र पर्वत पर आरूढ़ हो इन्द्रतुल्य पराक्रमी महाबली कपिश्रेष्ठ हनुमान् वहाँ इधर-उधर टहलने लगे॥ ४२ ॥
पादाभ्यां पीडितस्तेन महाशैलो महात्मना।
ररास सिंहाभिहतो महान् मत्त इव द्विपः॥४३॥
महाकाय हनुमान जी के दोनों पैरों से दबा हुआ वह महान् पर्वत सिंह से आक्रान्त हुए महान् मदमत्त गजराज की भाँति चीत्कार-सा करने लगा (वहाँ रहने वाले प्राणियों का शब्द ही मानो उसका आर्त चीत्कार था) ॥ ४३॥
मुमोच सलिलोत्पीडान् विप्रकीर्णशिलोच्चयः।
वित्रस्तमृगमातङ्गः प्रकम्पितमहाद्रुमः॥४४॥
उसके शिलासमूह इधर-उधर बिखर गये। उससे नये-नये झरने फूट निकले। वहाँ रहने वाले मृग और हाथी भय से थर्रा उठे और बड़े-बड़े वृक्ष झोंके खाकर झूमने लगे॥४४॥
नानागन्धर्वमिथुनैः पानसंसर्गकर्कशैः।
उत्पतद्भिर्विहंगैश्च विद्याधरगणैरपि॥४५॥
त्यज्यमानमहासानुः संनिलीनमहोरगः।
शैलशृङ्गशिलोत्पातस्तदाभूत् स महागिरिः॥
मधुपान के संसर्ग से उद्धत चित्तवाले अनेकानेक गन्धर्वो के जोड़े, विद्याधरों के समुदाय और उड़ते हुए पक्षी भी उस पर्वत के विशाल शिखरों को छोड़कर जाने लगे। बड़े-बड़े सर्प बिलों में छिप गये तथा उसपर्वत के शिखरों से बड़ी-बड़ी शिलाएँ टूट-टूटकर गिरने लगीं। इस प्रकार वह महान् पर्वत बड़ी दुरवस्था में पड़ गया॥ ४५-४६॥
निःश्वसद्भिस्तदा तैस्तु भुजगैरर्धनिःसृतैः।
सपताक इवाभाति स तदा धरणीधरः॥४७॥
बिलों से अपने आधे शरीर को बाहर निकालकर लम्बी साँस खींचते हुए सो से उपलक्षित होनेवाला वह महान् पर्वत उस समय अनेकानेक पताकाओं से अलंकृत-सा प्रतीत होता था॥ ४७॥
ऋषिभिस्त्राससम्भ्रान्तैस्त्यज्यमानः शिलोच्चयः।
सीदन् महति कान्तारे सार्थहीन इवाध्वगः॥४८॥
भय से घबराये हुए ऋषि-मुनि भी उस पर्वत को छोड़ने लगे। जैसे विशाल दुर्गम वन में अपने साथियों से बिछुड़ा हुआ एक राही भारी विपत्ति में फँस जाता है, यही दशा उस महान् पर्वत महेन्द्रकी हो रही थी॥४८॥
स वेगवान् वेगसमाहितात्मा हरिप्रवीरः परवीरहन्ता।
मनः समाधाय महानुभावोजगाम लङ्कां मनसा मनस्वी॥४९॥
शत्रुवीरों का संहार करने वाले वानरसेना के श्रेष्ठ वीर वेगशाली महामनस्वी महानुभाव हनुमान् जी का मन वेगपूर्वक छलाँग मारने की योजना में लगा हुआ था। उन्होंने चित्त को एकाग्र करके मन-ही-मन लङ्का का स्मरण किया। ४९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः॥६७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६॥
॥ किष्किन्धाकाण्डं सम्पूर्णम्॥