वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 7 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 7
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (सर्ग 7)
सुग्रीव का श्रीराम को समझाना तथा श्रीराम का सुग्रीव को उनकी कार्य सिद्धि का विश्वास दिलाना
एवमुक्तस्तु सुग्रीवो रामेणार्तेन वानरः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं सबाष्पं बाष्पगद्गदः॥ १॥
श्रीराम ने शोक से पीड़ित होकर जब ऐसी बातें कहीं, तब वानरराज सुग्रीव की आँखों में आँसू भर आये और वे हाथ जोड़कर अश्रुगद्गद कण्ठ से इस प्रकार बोले- ॥१॥
न जाने निलयं तस्य सर्वथा पापरक्षसः।
सामर्थ्य विक्रमं वापि दौष्कुलेयस्य वा कुलम्॥ २॥
‘प्रभो! नीच कुल में उत्पन्न हुए उस पापात्मा राक्षस का गुप्त निवासस्थान कहाँ है, उसमें कितनी शक्ति है, उसका पराक्रम कैसा है अथवा वह किस वंश का है—इन सब बातों को मैं सर्वथा नहीं जानता॥
सत्यं तु प्रतिजानामि त्यज शोकमरिंदम।
करिष्यामि तथा यत्नं यथा प्राप्स्यसि मैथिलीम्॥
‘परंतु आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मैं ऐसा यत्न करूँगा कि जिससे मिथिलेशकुमारी सीता आपको मिल जायँ, इसलिये शत्रुदमन वीर! आप शोक का त्याग करें॥३॥
रावणं सगणं हत्वा परितोष्यात्मपौरुषम्।
तथास्मि कर्ता नचिराद् यथा प्रीतो भविष्यसि॥ ४॥
‘मैं आपके संतोष के लिये सैनिकों सहित रावण का वध करके अपना ऐसा पुरुषार्थ प्रकट करूँगा, जिससे आप शीघ्र ही प्रसन्न हो जायँगे॥ ४॥
अलं वैक्लव्यमालम्ब्य धैर्यमात्मगतं स्मर।
त्वद्विधानां न सदृशमीदृशं बुद्धिलाघवम्॥५॥
‘इस तरह मन में व्याकुलता लाना व्यर्थ है। आपके हृदय में स्वाभाविक रूप से जो धैर्य है, उसका स्मरण कीजिये। इस तरह बुद्धि और विचार को हलका बना देना—उसकी सहज गम्भीरता को खो देना आप-जैसे महापुरुषों के लिये उचित नहीं है॥५॥
मयापि व्यसनं प्राप्तं भार्याविरहजं महत्।
नाहमेवं हि शोचामि धैर्यं न च परित्यजे॥६॥
‘मुझे भी पत्नी के विरह का महान् कष्ट प्राप्त हुआ है, परंतु मैं इस तरह शोक नहीं करता और न धैर्य को ही छोड़ता हूँ॥६॥
नाहं तामनुशोचामि प्राकृतो वानरोऽपि सन्।
महात्मा च विनीतश्च किं पुनधृतिमान् महान्॥ ७॥
‘यद्यपि मैं एक साधारण वानर हूँ तथापि अपनी पत्नीके लिये निरन्तर शोक नहीं करता हूँ। फिर आप-जैसे महात्मा, सुशिक्षित और धैर्यवान् महापुरुष शोक न करें—इसके लिये तो कहना ही क्या है। ७॥
बाष्पमापतितं धैर्यान्निग्रहीतुं त्वमर्हसि।
मर्यादां सत्त्वयुक्तानां धृतिं नोत्स्रष्टुमर्हसि॥८॥
‘आपको चाहिये कि धैर्य धारण करके इन गिरते हुए आँसुओं को रोकें। सात्त्विक पुरुषों की मर्यादा और धैर्य का परित्याग न करें॥८॥
व्यसने वार्थकृच्छ्रे वा भये वा जीवितान्तगे।
विमृशंश्च स्वयाबुद्ध्या धृतिमान् नावसीदति॥ ९॥
‘(आत्मीयजनों के वियोग आदि से होने वाले) शोक में, आर्थिक संकट में अथवा प्राणान्तकारी भय उपस्थित होने पर जो अपनी बुद्धि से दुःख-निवारण के उपाय का विचार करते हुए धैर्य धारण करता है, वह कष्ट नहीं भोगता है॥९॥
बालिशस्तु नरो नित्यं वैक्लव्यं योऽनुवर्तते।
स मज्जत्यवशः शोके भाराक्रान्तेव नौर्जले॥ १०॥
‘जो मूढ़ मानव सदा घबराहट में ही पड़ा रहता है, वह पानी में भार से दबी हुई नौका के समान शोक में विवश होकर डूब जाता है॥ १०॥
एषोऽञ्जलिर्मया बद्धः प्रणयात् त्वां प्रसादये।
पौरुषं श्रय शोकस्य नान्तरं दातुमर्हसि ॥११॥
‘मैं हाथ जोड़ता हूँ। प्रेमपूर्वक अनुरोध करता हूँ कि आप प्रसन्न हों और पुरुषार्थ का आश्रय लें। शोक को अपने ऊपर प्रभाव डालने का अवसर न दें। ११॥
ये शोकमनुवर्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम्।
तेजश्च क्षीयते तेषां न त्वं शोचितुमर्हसि॥१२॥
‘जो शोक का अनुसरण करते हैं, उन्हें सुख नहीं मिलता है और उनका तेज भी क्षीण हो जाता है; अतः आप शोक न करें॥ १२॥
शोकेनाभिप्रपन्नस्य जीविते चापि संशयः।
स शोकं त्यज राजेन्द्र धैर्यमाश्रय केवलम्॥ १३॥
‘राजेन्द्र! शोक से आक्रान्त हुए मनुष्य के जीवन में (उसके प्राणों की रक्षा में) भी संशय उपस्थित हो जाता है। इसलिये आप शोक को त्याग दें और केवल धैर्य का आश्रय लें॥१३॥
हितं वयस्यभावेन ब्रूहि नोपदिशामि ते।
वयस्यतां पूजयन्मे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥१४॥
‘मैं मित्रता के नाते हित की सलाह देता हूँ। आपको उपदेश नहीं दे रहा हूँ। आप मेरी मैत्री का आदर करते हुए कदापि शोक न करें ॥ १४ ॥
मधुरं सान्त्वितस्तेन सुग्रीवेण स राघवः।
मुखमश्रुपरिक्लिन्नं वस्त्रान्तेन प्रमार्जयत्॥१५॥
सुग्रीव ने जब मधुर वाणी में इस प्रकार सान्त्वना दी, तब श्रीरघुनाथजी ने आँसुओं से भीगे हुए अपने मुख को वस्त्र के छोर से पोंछ लिया॥१५॥
प्रकृतिस्थस्तु काकुत्स्थः सुग्रीवचनात् प्रभुः।
सम्परिष्वज्य सुग्रीवमिदं वचनमब्रवीत्॥१६॥
सुग्रीव के वचन से शोक का परित्याग करके स्वस्थचित्त हो ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीराम ने मित्रवर सुग्रीव को हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा— ॥१६॥
कर्तव्यं यद् वयस्येन स्निग्धेन च हितेन च।
अनुरूपं च युक्तं च कृतं सुग्रीव तत् त्वया॥ १७॥
‘सुग्रीव! एक स्नेही और हितैषी मित्र को जो कुछ करना चाहिये, वही तुमने किया है। तुम्हारा कार्य सर्वथा उचित और तुम्हारे योग्य है॥ १७॥
एष च प्रकृतिस्थोऽहमनुनीतस्त्वया सखे।
दुर्लभो हीदृशो बन्धुरस्मिन् काले विशेषतः॥ १८॥
‘सखे! तुम्हारे आश्वासन से मेरी सारी चिन्ता जाती रही। अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ। तुम्हारे-जैसे बन्धु का विशेषतः ऐसे संकट के समय मिलना कठिन होता है॥
किं तु यत्नस्त्वया कार्यो मैथिल्याः परिमार्गणे।
राक्षसस्य च रौद्रस्य रावणस्य दुरात्मनः॥१९॥
‘परंतु तुम्हें मिथिलेशकुमारी सीता तथा रौद्ररूपधारी दुरात्मा राक्षस रावण का पता लगाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये॥ १९॥
मया च यदनुष्ठेयं विस्रब्धेन तदुच्यताम्।
वर्षास्विव च सुक्षेत्रे सर्वं सम्पद्यते तव॥२०॥
‘साथ ही मुझे भी इस समय तुम्हारे लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसे बिना किसी सङ्कोच के बताओ। जैसे वर्षाकाल में अच्छे खेत में बोया हुआ बीज अवश्य फल देता है, उसी प्रकार तुम्हारा सारा मनोरथ सफल होगा॥२०॥
मया च यदिदं वाक्यमभिमानात् समीरितम्।
तत्त्वया हरिशार्दूल तत्त्वमित्युपधार्यताम्॥२१॥
‘वानरश्रेष्ठ! मैंने जो अभिमानपूर्वक यह वाली के वध आदि करने की बात कही है, इसे तुम ठीक ही समझो॥२१॥
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन।
एतत्ते प्रतिजानामि सत्येनैव शपाम्यहम्॥२२॥
‘मैंने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है और भविष्य में भी कभी असत्य नहीं बोलूँगा। इस समय जो कुछ कहा है, उसे पूर्ण करने के लिये प्रतिज्ञा करता हूँ और तुम्हें विश्वास दिलाने के लिये सत्य की ही शपथ खाता हूँ’॥ २२॥
ततः प्रहृष्टः सुग्रीवो वानरैः सचिवैः सह।
राघवस्य वचः श्रुत्वा प्रतिज्ञातं विशेषतः॥२३॥
श्रीरघुनाथजी की बात, विशेषतः उनकी प्रतिज्ञा सुनकर अपने वानर-मन्त्रियों सहित सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई॥ २३॥
एवमेकान्तसम्पृक्तौ ततस्तौ नरवानरौ।
उभावन्योन्यसदृशं सुखं दुःखमभाषताम्॥२४॥
इस प्रकार एकान्त में एक-दूसरे के निकट बैठे हुए वे दोनों नर और वानर (श्रीराम और सुग्रीव) ने परस्पर सुख और दुःख की बातें कहीं, जो एक दूसरे के लिये अनुरूप थीं॥ २४ ॥
महानुभावस्य वचो निशम्य हरिनुपाणामधिपस्य तस्य।
कृतं स मेने हरिवीरमुख्य स्तदा च कार्यं हृदयेन विद्वान्॥२५॥
राजाधिराज महाराज श्रीरघुनाथजी की बात सुनकर वानर वीरों के प्रधान विद्वान् सुग्रीव ने उस समय मन ही-मन अपने कार्य को सिद्ध हुआ ही माना॥ २५ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ।७ ॥
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