वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 8 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 8
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टमः सर्गः (सर्ग 8)
सुग्रीव का श्रीराम से अपना दुःख निवेदन करना और श्रीराम का उन्हें आश्वासन देते हुए दोनों भाइयोंमें वैर होने का कारण पूछना
परितुष्टस्तु सुग्रीवस्तेन वाक्येन हर्षितः।
लक्ष्मणस्याग्रजं शूरमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
श्रीरामचन्द्रजी की उस बात से सुग्रीव को बड़ा संतोष हुआ। वे हर्ष से भरकर लक्ष्मण के बड़े भाई शूरवीर श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार बोले- ॥१॥
सर्वथाहमनुग्राह्यो देवतानां न संशयः।
उपपन्नो गुणोपेतः सखा यस्य भवान् मम॥२॥
‘भगवन् ! इसमें संदेह नहीं कि देवताओं की मेरे ऊपर बड़ी कृपा है—मैं सर्वथा उनके अनुग्रह का पात्र हूँ; क्योंकि आप-जैसे गुणवान् महापुरुष मेरे सखा हो गये॥
शक्यं खलु भवेद् राम सहायेन त्वयानघ।
सुरराज्यमपि प्राप्तुं स्वराज्यं किमुत प्रभो॥३॥
‘प्रभो! निष्पाप श्रीराम! आप-जैसे सहायक के सहयोग से तो देवताओं का राज्य भी अवश्य ही प्राप्त किया जा सकता है; फिर अपने खोये हुए राज्य को पाना कौन बड़ी बात है।
सोऽहं सभाज्यो बन्धूनां सुहृदां चैव राघव।
यस्याग्निसाक्षिकं मित्रं लब्धं राघववंशजम्॥४॥
‘रघुनन्दन! अब मैं अपने बन्धुओं और सुहृदों के विशेष सम्मान का पात्र हो गया; क्योंकि आज रघुवंश के राजकुमार आप अग्नि को साक्षी बनाकर मुझे मित्र के रूप में प्राप्त हुए हैं।
अहमप्यनुरूपस्ते वयस्यो ज्ञास्यसे शनैः।
न तु वक्तुं समर्थोऽहं त्वयि आत्मगतान् गुणान्॥
‘मैं भी आपके योग्य मित्र हूँ। इसका ज्ञान आपको धीरे-धीरे हो जायगा। इस समय आपके सामने मैं अपने गुणों का वर्णन करने में असमर्थ हूँ॥५॥
महात्मनां तु भूयिष्ठं त्वद्विधानां कृतात्मनाम्।
निश्चला भवति प्रीतिधैर्यमात्मवतां वर॥६॥
‘आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ श्रीराम! आप-जैसे पुण्यात्मा महात्माओं का प्रेम और धैर्य अधिकाधिक बढ़ता और अविचल होता है॥६॥
रजतं वा सुवर्णं वा शुभान्याभरणानि च।
अविभक्तानि साधूनामवगच्छन्ति साधवः॥७॥
‘अच्छे स्वभाव वाले मित्र अपने घर के सोने-चाँदी अथवा उत्तम आभूषणों को अपने अच्छे मित्रों के लिये अविभक्त ही मानते हैं उन मित्रों का अपने धन पर अपने ही समान अधिकार समझते हैं॥७॥
आढ्योवापि दरिद्रो वा दुःखितः सुखितोऽपि वा।
निर्दोषश्च सदोषश्च वयस्यः परमा गतिः॥८॥
‘अतएव मित्र धनी हो या दरिद्र, सुखी हो या दुःखी अथवा निर्दोष हो या सदोष, वह मित्र के लिये सबसे बड़ा सहायक होता है॥८॥
धनत्यागः सुखत्यागो देशत्यागोऽपि वानघ।
वयस्यार्थे प्रवर्तन्ते स्नेहं दृष्ट्वा तथाविधम्॥९॥
‘अनघ! साधुपुरुष अपने मित्र का अत्यन्त उत्कृष्ट प्रेम देख आवश्यकता पड़ने पर उसके लिये धन, सुख और देश का भी परित्याग कर देते हैं ॥९॥
तत् तथेत्यब्रवीद् रामः सुग्रीवं प्रियवादिनम्।
लक्ष्मणस्याग्रतो लक्ष्म्या वासवस्येव धीमतः॥ १०॥
यह सुनकर लक्ष्मी (दिव्य कान्ति) से उपलक्षित श्रीरामचन्द्रजी ने इन्द्रतुल्य तेजस्वी बुद्धिमान् लक्ष्मण के सामने ही प्रिय वचन बोलने वाले सुग्रीव से कहा —’सखे! तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है’ ॥ १० ॥
ततो रामं स्थितं दृष्ट्वा लक्ष्मणं च महाबलम्।
सुग्रीवः सर्वतश्चक्षुर्वने लोलमपातयत्॥११॥
तदनन्तर (दूसरे दिन) महाबली श्रीराम और लक्ष्मण को खड़ा देख सुग्रीव ने वन में चारों ओर अपनी चञ्चल दृष्टि दौड़ायी॥ ११॥
स ददर्श ततः सालमविदूरे हरीश्वरः।
सुपुष्पमीषत्पत्राढ्यं भ्रमरैरुपशोभितम्॥१२॥
उस समय वानरराज ने पास ही एक साल का वृक्ष देखा, जिसमें थोड़े से ही सुन्दर पुष्प लगे हुए थे; परंतु उसमें पत्रों की बहुलता थी। उस वृक्ष पर मँडराते हुए भौरे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे॥ १२॥
तस्यैकां पर्णबहुलां शाखां भक्त्वा सुशोभिताम्।
रामस्यास्तीर्य सुग्रीवो निषसाद सराघवः॥१३॥
उसकी एक डाली को जिसमें अधिक पत्ते थे और जो पुष्पों से सुशोभित थी, सुग्रीव ने तोड़ डाला और उसे श्रीराम के लिये बिछाकर वे स्वयं भी उनके साथ ही उस पर बैठ गये॥ १३॥ ।
तावासीनौ ततो दृष्ट्वा हनूमानपि लक्ष्मणम्।
शालशाखां समुत्पाट्य विनीतमुपवेशयत्॥१४॥
उन दोनों को आसन पर विराजमान देख हनुमान जी ने भी साल की एक डाल तोड़ डाली और उस पर विनयशील लक्ष्मण को बैठाया॥ १४॥
सुखोपविष्टं रामं तु प्रसन्नमुदधिं यथा।
सालपुष्पावसंकीर्णे तस्मिन् गिरिवरोत्तमे॥१५॥
ततः प्रहृष्टः सुग्रीवः श्लक्ष्णया शुभया गिरा।
उवाच प्रणयाद् रामं हर्षव्याकुलिताक्षरम्॥१६॥
उस श्रेष्ठ पर्वत पर, जहाँ सब ओर साल के पुष्प बिखरे हुए थे, सुखपूर्वक बैठे हुए श्रीराम शान्त समुद्र के समान प्रसन्न दिखायी देते थे। उन्हें देखकर अत्यन्त हर्ष से भरे हुए सुग्रीव ने श्रीराम से स्निग्ध एवं सुन्दर वाणी में वार्तालाप आरम्भ किया। उस समय आनन्दातिरेक से उनकी वाणी लड़खड़ा जाती थी अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण नहीं हो पाता था॥ १५-१६ ॥
अहं विनिकृतो भ्रात्रा चराम्येष भयादितः।
ऋष्यमूकं गिरिवरं हृतभार्यः सुदुःखितः॥१७॥
‘प्रभो! मेरे भाई ने मुझे घर से निकालकर मेरी स्त्री को भी छीन लिया है। मैं उसी के भय से अत्यन्त पीड़ित एवं दुःखी होकर इस पर्वतश्रेष्ठ ऋष्यमूक पर विचरता रहता हूँ॥ १७॥
सोऽहं त्रस्तो भये मग्नो वने सम्भ्रान्तचेतनः।
वालिना निकृतो भ्रात्रा कृतवैरश्च राघव॥१८॥
‘मुझे बराबर उसका त्रास बना रहता है। मैं भय में डूबा रहकर भ्रान्तचित्त हो इस वन में भटकता फिरता हूँ। रघुनन्दन ! मेरे भाई वाली ने मुझे घर से निकालने के बाद भी मेरे साथ वैर बाँध रखा है॥ १८ ॥
वालिनो मे भयार्तस्य सर्वलोकाभयंकर।
ममापि त्वमनाथस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१९॥
‘प्रभो! आप समस्त लोकों को अभय देने वाले हैं। मैं वाली के भय से दुःखी और अनाथ हूँ, अतः आपको मुझपर भी कृपा करनी चाहिये’ ॥ १९ ॥
एवमुक्तस्तु तेजस्वी धर्मज्ञो धर्मवत्सलः।
प्रत्युवाच स काकुत्स्थः सुग्रीवं प्रहसन्निव॥२०॥
सुग्रीव के ऐसा कहने पर तेजस्वी, धर्मज्ञ एवं धर्मवत्सल भगवान् श्रीराम ने उन्हें हँसते हुए-से इस प्रकार उत्तर दिया- ॥२०॥
उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम्।
अद्यैव तं वधिष्यामि तव भार्यापहारिणम्॥२१॥
‘सखे! उपकार ही मित्रता का फल है और अपकार शत्रुता का लक्षण है; अतः मैं आज ही तुम्हारी स्त्री का अपहरण करने वाले उस वाली का वध करूँगा॥२१॥
इमे हि मे महाभाग पत्रिणस्तिग्मतेजसः।
कार्तिकेयवनोद्भूताः शरा हेमविभूषिताः॥२२॥
‘महाभाग! मेरे इन बाणों का तेज प्रचण्ड है। सुवर्ण-भूषित ये शर कार्तिकेय की उत्पत्ति के स्थानभूत शरों के वन में उत्पन्न हुए हैं। (इसलिये अभेद्य हैं)॥ २२॥
कङ्कपत्रपरिच्छन्ना महेन्द्राशनिसंनिभाः।
सुपर्वाणः सुतीक्ष्णाग्राः सरोषा भुजगा इव॥ २३॥
‘ये कंकपक्षी के परों से युक्त हैं और इन्द्र के वज्र की भाँति अमोघ हैं। इनकी गाँठे सुन्दर और अग्रभाग तीखे हैं। ये रोष में भरे भुजङ्गों की भाँति भयंकर हैं। २३॥
वालिसंज्ञममित्रं ते भ्रातरं कृतकिल्बिषम्।
शरैर्विनिहतं पश्य विकीर्णमिव पर्वतम्॥२४॥
‘इन बाणों से तुम अपने वाली नामक शत्रु को, जो भाई होकर भी तुम्हारी बुराई कर रहा है, विदीर्ण हुए पर्वत की भाँति मरकर पृथ्वी पर पड़ा देखोगे’॥२४॥
राघवस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाहिनीपतिः।
प्रहर्षमतुलं लेभे साधु साध्विति चाब्रवीत्॥२५॥
श्रीरघुनाथजी की यह बात सुनकर वानरसेनापति सुग्रीव को अनुपम प्रसन्नता प्राप्त हुई और वे उन्हें बारंबार साधुवाद देते हुए बोले- ॥ २५ ॥
राम शोकाभिभूतोऽहं शोकार्तानां भवान् गतिः।
वयस्य इति कृत्वा हि त्वय्यहं परिदेवये॥२६॥
‘श्रीराम! मैं शोक से पीड़ित हूँ और आप शोकाकुल प्राणियों की परमगति हैं। मित्र समझकर मैं आपसे अपना दुःख निवेदन करता हूँ॥२६॥
त्वं हि पाणिप्रदानेन वयस्यो मेऽग्निसाक्षिकम्।
कृतः प्राणैर्बहुमतः सत्येन च शपाम्यहम्॥२७॥
‘मैंने आपके हाथ में हाथ देकर अग्निदेव के सामने आपको अपना मित्र बनाया है। इसलिये आप मुझे अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। यह बात मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ॥
वयस्य इति कृत्वा च विस्रब्धः प्रवदाम्यहम्।
दुःखमन्तर्गतं तन्मे मनो हरति नित्यशः॥२८॥
‘आप मेरे मित्र हैं, इसलिये आप पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने भीतर का दुःख, जो सदा मेरे मन को व्याकुल किये रहता है, आपको बता रहा हूँ’॥ २८॥
एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पदूषितलोचनः।
बाष्पदूषितया वाचा नोच्चैः शक्नोति भाषितुम्॥ २९॥
इतनी बात कहते-कहते सुग्रीव के नेत्रों में आँसू भर आये। उनकी वाणी अश्रुगद्गद हो गयी। इसलिये वे उच्च स्वर से बोलने में समर्थ न हो सके॥२९॥
बाष्पवेगं तु सहसा नदीवेगमिवागतम्।
धारयामास धैर्येण सुग्रीवो रामसंनिधौ॥३०॥
तत्पश्चात् सुग्रीव ने सहसा बढ़े हुए नदी के वेग के समान उमड़े हुए आँसुओं के वेग को श्रीराम के समीप धैर्यपूवर्क रोका॥ ३०॥
स निगृह्य तु तं बाष्पं प्रमृज्य नयने शुभे।
विनिःश्वस्य च तेजस्वी राघवं पुनरूचिवान्॥३१॥
आँसुओंको रोककर अपने दोनों सुन्दर नेत्रों को पोंछने के पश्चात् तेजस्वी सुग्रीव पुनः लंबी साँस खींचकर श्रीरघुनाथजी से बोले- ॥३१॥
पुराहं वालिना राम राज्यात् स्वादवरोपितः।
परुषाणि च संश्राव्य निर्धूतोऽस्मि बलीयसा॥ ३२॥
‘श्रीराम! पहले की बात है, बलिष्ठ वाली ने कटुवचन सुनाकर बलपूर्वक मेरा तिरस्कार किया और अपने राज्य (युवराजपद) से नीचे उतार दिया। ३२॥
हृता भार्या च मे तेन प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
सुहृदश्च मदीया ये संयता बन्धनेषु ते॥३३॥
‘इतना ही नहीं, मेरी स्त्री को भी, जो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है; उसने छीन लिया और जितने मेरे सुहृद् थे, उन सबको कैद में डाल दिया॥३३॥
यत्नवांश्च स दुष्टात्मा मद्विनाशाय राघव।
बहुशस्तप्रयुक्ताश्च वानरा निहता मया॥३४॥
‘रघुनन्दन! इसके बाद भी वह दुरात्मा वाली मेरे विनाश के लिये यत्न करता रहता है। उसके भेजे हुए बहुत-से वानरों का मैं वध कर चुका हूँ॥ ३४॥
शङ्कया त्वेतयाहं च दृष्ट्वा त्वामपि राघव।
नोपसाम्यहं भीतो भये सर्वे हि बिभ्यति॥ ३५॥
‘रघुनाथजी! आपको भी देखकर मेरे मन में ऐसा ही संदेह हुआ था, इसीलिये डर जाने के कारण मैं पहले आपके पास न आ सका; क्योंकि भय का अवसर आने पर प्रायः सभी डर जाते हैं॥ ३५ ॥
केवलं हि सहाया मे हनुमत्प्रमुखास्त्विमे।
अतोऽहं धारयाम्यद्य प्राणान् कृच्छ्रगतोऽपि सन्॥ ३६॥
‘केवल ये हनुमान् आदि वानर ही मेरे सहायक हैं; अतएव महान् संकट में पड़कर भी मैं अबतक प्राण धारण करता हूँ॥ ३६॥
एते हि कपयः स्निग्धा मां रक्षन्ति समन्ततः।
सह गच्छन्ति गन्तव्ये नित्यं तिष्ठन्ति चास्थिते॥ ३७॥
‘इन लोगों का मुझ पर स्नेह है, अतः ये सभी वानर सब ओर से सदा मेरी रक्षा करते रहते हैं। जहाँ जाना होता है वहाँ साथ-साथ जाते हैं और जब कहीं मैं ठहर जाता हूँ वहाँ ये नित्य मेरे साथ रहते हैं॥३७॥
संक्षेपस्त्वेष मे राम किमुक्त्वा विस्तरं हि ते।
स मे ज्येष्ठो रिपुद्घता वाली विश्रुतपौरुषः॥ ३८॥
‘रघुनन्दन! यह मैंने संक्षेप से अपनी हालत बतलायी है। आपके सामने विस्तारपूर्वक कहने से क्या लाभ? वाली मेरा ज्येष्ठ भाई है, फिर भी इस समय मेरा शत्रु हो गया है। उसका पराक्रम सर्वत्र विख्यात है॥ ३८॥
तद्विनाशेऽपि मे दुःखं प्रमृष्टं स्यादनन्तरम्।
सुखं मे जीवितं चैव तद्विनाशनिबन्धनम्॥३९॥
(यद्यपि भाई का नाश भी दुःख का ही कारण है, तथापि) इस समय जो मेरा दुःख है, वह उसका नाश होने पर ही मिट सकता है। मेरा सुख और जीवन उसके विनाश पर ही निर्भर है॥ ३९ ॥
एष मे राम शोकान्तः शोकार्तेन निवेदितः।
दुःखितः सुखितो वापि सख्युर्नित्यं सखा गतिः॥ ४०॥
‘श्रीराम! यही मेरे शोक के नाश का उपाय है। मैंने शोक से पीड़ित होने के कारण आपसे यह बात निवेदन की है; क्योंकि मित्र दुःख में हो या सुख में, वह अपने मित्र की सदा ही सहायता करता है’। ४०॥
श्रुत्वैतच्च वचो रामः सुग्रीवमिदमब्रवीत्।
किं निमित्तमभूद् वैरं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥ ४१॥
यह सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा—’तुम दोनों भाइयों में वैर पड़ने का क्या कारण है, यह मैं ठीक ठीक सुनना चाहता हूँ॥४१॥
सुखं हि कारणं श्रुत्वा वैरस्य तव वानर।
आनन्तर्याद् विधास्यामि सम्प्रधार्य बलाबलम्॥ ४२॥
‘वानरराज! तुमलोगों की शत्रुता का कारण सुनकर तुम दोनों की प्रबलता और निर्बलता का निश्चय करके फिर तत्काल ही तुम्हें सुखी बनाने वाला उपाय करूँगा॥४२॥
बलवान् हि ममामर्षः श्रुत्वा त्वामवमानितम्।
वर्धते हृदयोत्कम्पी प्रावृड्वेग इवाम्भसः॥४३॥
‘जैसे वर्षाकाल में नदी आदि का वेग बहुत बढ़ जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे अपमानित होने की बात सुनकर मेरा प्रबल रोष बढ़ता जा रहा है और मेरे हृदय को कम्पित किये देता है॥४३॥
हृष्टः कथय विस्रब्धो यावदारोप्यते धनुः।
सृष्टश्च हि मया बाणो निरस्तश्च रिपुस्तव॥ ४४॥
‘मेरे धनुष चढ़ाने के पहले ही तुम अपनी सब बातें प्रसन्नतापूर्वक कह डालो; क्योंकि ज्यों ही मैंने बाण छोड़ा, तुम्हारा शत्रु तत्काल काल के गाल में चला जायगा’॥४४॥
एवमुक्तस्तु सुग्रीवः काकुत्स्थेन महात्मना।
प्रहर्षमतुलं लेभे चतुर्भिः सह वानरैः॥४५॥
महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर सुग्रीव को अपने चारों वानरों के साथ अपार हर्ष हुआ॥ ४५ ॥
ततः प्रहृष्टवदनः सुग्रीवो लक्ष्मणाग्रजे।
वैरस्य कारणं तत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥४६॥
तदनन्तर सुग्रीव के मुख पर प्रसन्नता छा गयी और उन्होंने श्रीराम को वाली के साथ वैर होने का यथार्थ कारण बताना आरम्भ किया॥४६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में आठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८॥
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