वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 1
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (1)
(हनुमान् जी के द्वारा समुद्र का लङ्घन, मैनाक के द्वारा उनका स्वागत, सुरसा पर उनकी विजय तथा सिंहिका का वध,लंका की शोभा देखना)
ततो रावणनीतायाः सीतायाः शत्रुकर्षणः।
इयेष पदमन्वेष्टुं चारणाचरिते पथि॥१॥
तदनन्तर शत्रुओं का संहार करने वाले हनुमान जी ने रावण द्वारा हरी गयी सीता के निवास स्थान का पता लगाने के लिये उस आकाशमार्ग से जाने का विचार किया, जिसपर चारण (देवजातिविशेष) विचरा करते हैं ॥१॥
दुष्करं निष्प्रतिद्वन्द्वं चिकीर्षन् कर्म वानरः।
समुदग्रशिरोग्रीवो गवां पतिरिवाबभौ॥२॥
कपिवर हनुमान जी ऐसा कर्म करना चाहते थे, जो दूसरों के लिये दुष्कर था तथा उस कार्य में उन्हें किसी और की सहायता भी नहीं प्राप्त थी। उन्होंने मस्तक और ग्रीवा ऊँची की। उस समय वे हृष्ट-पुष्ट साँड़ के समान प्रतीत होने लगे॥२॥
अथ वैदूर्यवर्णेषु शाबलेषु महाबलः।
धीरः सलिलकल्पेषु विचचार यथासुखम्॥३॥
फिर धीर स्वभाव वाले वे महाबली पवनकुमार वैदूर्यमणि (नीलम) और समुद्र के जल की भाँति हरी हरी घास पर सुखपूर्वक विचरने लगे॥३॥
द्विजान् वित्रासयन् धीमानुरसा पादपान् हरन्।
मृगांश्च सुबहून् निघ्नन् प्रवृद्ध इव केसरी॥४॥
उस समय बुद्धिमान् हनुमान् जी पक्षियों को त्रास देते, वृक्षों को वक्षःस्थल के आघात से धराशायी करते तथा बहुत-से मृगों (वन-जन्तुओं) को कुचलते हुए पराक्रम में बढ़े-चढ़े सिंह के समान शोभा पा रहे थे।४॥
नीललोहितमाञ्जिष्ठपद्मवर्णैः सितासितैः।
स्वभावसिद्धैर्विमलैर्धातुभिः समलंकृतम्॥५॥
उस पर्वत का जो तलप्रदेश था, वह पहाड़ों में स्वभाव से ही उत्पन्न होने वाली नीली, लाल, मजीठ और कमल के-से रंगवाली श्वेत तथा श्याम वर्णवाली निर्मल धातुओं से अच्छी तरह अलंकृत था॥५॥
कामरूपिभिराविष्टमभीक्ष्णं सपरिच्छदैः।
यक्षकिंनरगन्धर्वैर्देवकल्पैः सपन्नगैः॥६॥
उसपर देवोपम यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और नाग, जो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले थे, निरन्तर परिवारसहित निवास करते थे॥६॥
स तस्य गिरिवर्यस्य तले नागवरायुते।
तिष्ठन् कपिवरस्तत्र ह्रदे नाग इवाबभौ॥७॥
बड़े-बड़े गजराजों से भरे हुए उस पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए कपिवर हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे॥
स सूर्याय महेन्द्राय पवनाय स्वयम्भुवे।
भूतेभ्यश्चाञ्जलिं कृत्वा चकार गमने मतिम्॥८॥
उन्होंने सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा और भूतों (देवयोनिविशेषों) को भी हाथ जोड़कर उस पारजाने का विचार किया॥८॥
अञ्जलिं प्राङ्खं कुर्वन् पवनायात्मयोनये।
ततो हि ववृधे गन्तुं दक्षिणो दक्षिणां दिशम्॥९॥
फिर पूर्वाभिमुख होकर अपने पिता पवनदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात् कार्यकुशल हनुमान जी दक्षिण दिशा में जाने के लिये बढ़ने लगे (अपने शरीर को बढ़ाने लगे) ॥९॥
प्लवगप्रवरैर्दृष्टः प्लवने कृतनिश्चयः।
ववृधे रामवृद्ध्यर्थं समुद्र इव पर्वसु॥१०॥
बड़े-बड़े वानरों ने देखा, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आने लगता है, उसी प्रकार समुद्रलङ्घन के लिये दृढ़ निश्चय करने वाले हनुमान जी श्रीराम की कार्य-सिद्धि के लिये बढ़ने लगे॥१०॥
निष्प्रमाणशरीरः सँल्लिलऋयिषुरर्णवम्।
बाहुभ्यां पीडयामास चरणाभ्यां च पर्वतम्॥११॥
समुद्र को लाँघने की इच्छा से उन्होंने अपने शरीर को बेहद बढ़ा लिया और अपनी दोनों भुजाओं तथा चरणों से उस पर्वत को दबाया॥११॥
स चचालाचलश्चाशु मुहूर्तं कपिपीडितः।
तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत्॥१२॥
कपिवर हनुमान जी के द्वारा दबाये जाने पर तुरंत ही वह पर्वत काँप उठा और दो घड़ी तक डगमगाता रहा। उसके ऊपर जो वृक्ष उगे थे, उनकी डालियों के अग्रभाग फूलों से लदे हुए थे; किंतु उस पर्वत के हिलने से उनके वे सारे फूल झड़ गये॥ १२॥
तेन पादपमुक्तेन पुष्पौघेण सुगन्धिना।
सर्वतः संवृतः शैलो बभौ पुष्पमयो यथा॥१३॥
वृक्षों से झड़ी हुई उस सुगन्धित पुष्पराशि के द्वारा सब ओर से आच्छादित हुआ वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था, मानो वह फूलों का ही बना हुआ हो। १३॥
तेन चोत्तमवीर्येण पीड्यमानः स पर्वतः।
सलिलं सम्प्रसुस्राव मदमत्त इव द्विपः॥१४॥
महापराक्रमी हनुमान जी के द्वारा दबाया जाता हुआ महेन्द्रपर्वत जल के स्रोत बहाने लगा, मानो कोई मदमत्त गजराज अपने कुम्भस्थल से मद की धारा बहा रहा हो॥१४॥
पीड्यमानस्तु बलिना महेन्द्रस्तेन पर्वतः।
रीतीनिवर्तयामास काञ्चनाञ्जनराजतीः॥१५॥
बलवान् पवनकुमार के भार से दबा हुआ महेन्द्रगिरि सुनहरे, रुपहले और काले रंग के जलस्रोत प्रवाहित करने लगा॥१५॥
मुमोच च शिलाः शैलो विशालाः समनःशिलाः।
मध्यमेनार्चिषा जुष्टो धूमराजीरिवानलः॥१६॥
इतना ही नहीं, जैसे मध्यम ज्वाला से युक्त अग्नि लगातार धुआँ छोड़ रही हो, उसी प्रकार वह पर्वत मैनसिलसहित बड़ी-बड़ी शिलाएँ गिराने लगा॥१६॥
हरिणा पीड्यमानेन पीड्यमानानि सर्वतः।
गुहाविष्टानि सत्त्वानि विनेदुर्विकृतैः स्वरैः॥१७॥
हनुमान जी के उस पर्वत-पीडन से पीड़ित होकर वहाँ के समस्त जीव गुफाओं में घुसे हुए बुरी तरह से चिल्लाने लगे॥१७॥
स महान् सत्त्वसन्नादः शैलपीडानिमित्तजः।
पृथिवीं पूरयामास दिशश्चोपवनानि च॥१८॥
इस प्रकार पर्वत को दबाने के कारण उत्पन्न हुआ वह जीव-जन्तुओं का महान् कोलाहल पृथ्वी, उपवन और सम्पूर्ण दिशाओं में भर गया॥१८॥
शिरोभिः पृथुभिर्नागा व्यक्तस्वस्तिकलक्षणैः।
वमन्तः पावकं घोरं ददंशुर्दशनैः शिलाः॥१९॥
जिनमें स्वस्तिक* चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, उन स्थूल फणों से विष की भयानक आग उगलते हुए बड़े-बड़े सर्प उस पर्वत की शिलाओं को अपने दाँतों से डंसने लगे॥ १९॥
* साँप के फन में दिखायी देने वाली नील रेखा को ‘स्वस्तिक’ कहते हैं।
तास्तदा सविषैर्दष्टाः कुपितैस्तैर्महाशिलाः।
जज्वलुः पावकोद्दीप्ता बिभिदुश्च सहस्रधा॥२०॥
क्रोध से भरे हुए उन विषैले साँपों के काटने पर वे बड़ी-बड़ी शिलाएँ इस प्रकार जल उठीं, मानो उनमें आग लग गयी हो। उस समय उन सबके सहस्रों टुकड़े हो गये॥ २०॥
यानि त्वौषधजालानि तस्मिजातानि पर्वते।
विषघ्नान्यपि नागानां न शेकुः शमितुं विषम्॥२१॥
उस पर्वत पर जो बहुत-सी ओषधियाँ उगी हुई थीं, वे विष को नष्ट करने वाली होने पर भी उन नागों के विष को शान्त न कर सकीं॥ २१॥
भिद्यतेऽयं गिरिभूतैरिति मत्वा तपस्विनः।
जस्ता विद्याधरास्तस्मादुत्पेतुः स्त्रीगणैः सह॥२२॥
उस समय वहाँ रहने वाले तपस्वी और विद्याधरों ने समझा कि इस पर्वत को भूतलोग तोड़ रहे हैं, इससे भयभीत होकर वे अपनी स्त्रियों के साथ वहाँ से ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में चले गये॥ २२॥
पानभूमिगतं हित्वा हैममासवभाजनम्।
पात्राणि च महार्हाणि करकांश्च हिरण्मयान्॥२३॥
लेह्यानुच्चावचान् भक्ष्यान् मांसानि विविधानि च।
आर्षभाणि च चर्माणि खड्गांश्च कनकत्सरून्॥२४॥
कृतकण्ठगुणाः क्षीबा रक्तमाल्यानुलेपनाः।
रक्ताक्षाः पुष्कराक्षाश्च गगनं प्रतिपेदिरे॥२५॥
मधुपान के स्थान में रखे हुए सुवर्णमय आसवपात्र, बहुमूल्य बर्तन, सोने के कलश, भाँति-भाँति के भक्ष्य पदार्थ, चटनी, नाना प्रकार के फलों के गूदे, बैलों की खाल की बनी हुई ढालें और सुवर्णजटित मूठवाली तलवारें छोड़कर कण्ठ में माला धारण किये, लाल रंग के फूल और अनुलेपन (चन्दन) लगाये, प्रफुल्ल कमलके सदृश सुन्दर एवं लाल नेत्रवाले वे मतवाले विद्याधरगण भयभीत-से होकर आकाशमें चले गये। २३–२५॥
हारनपुरकेयूरपारिहार्यधराः स्त्रियः।
विस्मिताः सस्मितास्तस्थुराकाशे रमणौः सह ॥२६॥
उनकी स्त्रियाँ गले में हार, पैरों में नूपुर, भुजाओं में बाजूबंद और कलाइयों में कंगन धारण किये आकाश में अपने पतियों के साथ मन्द-मन्द मुसकराती हुई चकित-सी खड़ी हो गयीं॥२६॥
दर्शयन्तो महाविद्यां विद्याधरमहर्षयः।
सहितास्तस्थुराकाशे वीक्षांचक्रुश्च पर्वतम्॥ २७॥
विद्याधर और महर्षि अपनी महाविद्या (आकाश में निराधार खड़े होने की शक्ति)-का परिचय देते हुए अन्तरिक्ष में एक साथ खड़े हो गये और उस पर्वत की ओर देखने लगे॥२७॥
शुश्रुवुश्च तदा शब्दमृषीणां भावितात्मनाम्।
चारणानां च सिद्धानां स्थितानां विमलेऽम्बरे
उन्होंने उस समय निर्मल आकाश में खड़े हुए भावितात्मा (पवित्र अन्तःकरण वाले) महर्षियों, चारणों और सिद्धों की ये बातें सुनीं— ॥२८॥
एष पर्वतसंकाशो हनुमान् मारुतात्मजः।
तितीर्षति महावेगः समुद्रं वरुणालयम्॥२९॥
‘अहा! ये पर्वत के समान विशालकाय महान् वेगशाली पवनपुत्र हनुमान जी वरुणालय समुद्र को पार करना चाहते हैं॥२९॥
रामार्थं वानरार्थं च चिकीर्षन् कर्म दुष्करम्।
समुद्रस्य परं पारं दुष्प्रापं प्राप्तुमिच्छति॥३०॥
‘श्रीरामचन्द्रजी और वानरों के कार्य की सिद्धि के लिये दुष्कर कर्म करने की इच्छा रखने वाले ये पवनकुमार समुद्र के दूसरे तट पर पहुँचना चाहते हैं, जहाँ जाना अत्यन्त कठिन है ॥ ३०॥
इति विद्याधरा वाचः श्रुत्वा तेषां तपस्विनाम्।
तमप्रमेयं ददृशुः पर्वते वानरर्षभम्॥३१॥
इस प्रकार विद्याधरों ने उन तपस्वी महात्माओं की कही हुई ये बातें सुनकर पर्वत के ऊपर अतुलितबलशाली वानरशिरोमणि हनुमान जी को देखा॥३१॥
दुधुवे च स रोमाणि चकम्पे चानलोपमः।
ननाद च महानादं सुमहानिव तोयदः॥३२॥
उस समय हनुमान जी अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने शरीर को हिलाया और रोएँ झाड़े तथा महान् मेघ के समान बड़े जोर-जोर से गर्जना की॥ ३२॥
आनुपूर्व्या च वृत्तं तल्लाङ्गलं रोमभिश्चितम्।
उत्पतिष्यन् विचिक्षेप पक्षिराज इवोरगम्॥३३॥
हनुमान जी अब ऊपर को उछलना ही चाहते थे। उन्होंने क्रमशः गोलाकार मुड़ी तथा रोमावलियों से भरी हुई अपनी पूँछ को उसी प्रकार आकाश में फेंका, जैसे पक्षिराज गरुड़ सर्प को फेंकते हैं॥ ३३॥
तस्य लाङ्गलमाविद्धमतिवेगस्य पृष्ठतः।
ददृशे गरुडेनेव ह्रियमाणो महोरगः॥३४॥
अत्यन्त वेगशाली हनुमान जी के पीछे आकाश में फैली हुई उनकी कुछ-कुछ मुड़ी हुई पूँछ गरुड़ के द्वारा ले जाये जाते हुए महान् सर्प के समान दिखायी देती थी॥
बाहू संस्तम्भयामास महापरिघसंनिभौ।
आससाद कपिः कट्यां चरणौ संचुकोच च॥३५॥
उन्होंने अपनी विशाल परिघ के समान भुजाओं को पर्वत पर जमाया। फिर ऊपरके सब अंगों को इस तरह सिकोड़ लिया कि वे कटि की सीमा में ही आ गये; साथ ही उन्होंने दोनों पैरों को भी समेट लिया॥ ३५ ॥
संहृत्य च भुजौ श्रीमांस्तथैव च शिरोधराम्।
तेजः सत्त्वं तथा वीर्यमाविवेश स वीर्यवान्॥३६॥
तत्पश्चात् तेजस्वी और पराक्रमी हनुमान जी ने अपनी दोनों भुजाओं और गर्दन को भी सिकोड़ लिया। इस समय उनमें तेज, बल और पराक्रमसभी का आवेश हुआ॥ ३६॥
मार्गमालोकयन् दूरादूर्ध्वप्रणिहितेक्षणः।
रुरोध हृदये प्राणानाकाशमवलोकयन्॥३७॥
उन्होंने अपने लम्बे मार्ग पर दृष्टि दौड़ाने के लिये नेत्रों को ऊपर उठाया और आकाश की ओर देखते हुए प्राणों को हृदय में रोका॥३७॥
पद्भ्यां दृढमवस्थानं कृत्वा स कपिकुञ्जरः।
निकुच्य कर्णौ हनुमानुत्पतिष्यन् महाबलः॥३८॥
वानरान् वानरश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत्।
इस प्रकार ऊपर को छलाँग मारने की तैयारी करते हुए कपिश्रेष्ठ महाबली हनुमान् ने अपने पैरों को अच्छी तरह जमाया और कानों को सिकोड़कर उन वानरशिरोमणि ने अन्य वानरों से इस प्रकार कहा— ॥ ३८ १/२॥
यथा राघवनिर्मुक्तः शरः श्वसनविक्रमः॥३९॥
गच्छेत् तद्वद् गमिष्यामि लंकां रावणपालिताम्।
‘जैसे श्रीरामचन्द्रजी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है, उसी प्रकार मैं रावण द्वारा पालित लंकापुरी में जाऊँगा॥ ३९ १/२॥
नहि द्रक्ष्यामि यदि तां लंकायां जनकात्मजाम्॥४०॥
अनेनैव हि वेगेन गमिष्यामि सुरालयम्।
‘यदि लंका में जनकनन्दिनी सीता को नहीं देखूगा तो इसी वेग से मैं स्वर्गलोक में चला जाऊँगा॥ ४० १/२॥
यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः॥४१॥
बद्ध्वा राक्षसराजानमानयिष्यामि रावणम्।
‘इस प्रकार परिश्रम करने पर यदि मुझे स्वर्ग में भी सीता का दर्शन नहीं होगा तो राक्षसराज रावण को बाँधकर लाऊँगा॥ ४१ १/२॥
सर्वथा कृतकार्योऽहमेष्यामि सह सीतया॥४२॥
आनयिष्यामि वा लंकां समुत्पाट्य सरावणाम्।
‘सर्वथा कृतकृत्य होकर मैं सीता के साथ लौटूंगा अथवा रावणसहित लंकापुरी को ही उखाड़कर लाऊँगा’॥
एवमुक्त्वा तु हनुमान् वानरो वानरोत्तमः॥४३॥
उत्पपाताथ वेगेन वेगवानविचारयन्।
सुपर्णमिव चात्मानं मेने स कपिकुञ्जरः॥४४॥
ऐसा कहकर वेगशाली वानरप्रवर श्रीहनुमान जी ने विघ्न-बाधाओं का कोई विचार न करके बड़े वेग से ऊपर की ओर छलाँग मारी उस समय उन वानरशिरोमणि ने अपने को साक्षात् गरुड़ के समान ही समझा॥ ४३-४४॥
समुत्पतति वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः।
संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः॥४५॥
जिस समय वे कूदे, उस समय उनके वेग से आकृष्ट हो पर्वत पर उगे हुए सब वृक्ष उखड़ गये और अपनी सारी डालियों को समेटकर उनके साथ ही सब ओर से वेगपूर्वक उड़ चले॥ ४५ ॥
स मत्तकोयष्टिभकान् पादपान् पुष्पशालिनः।
उद्वहन्नुरुवेगेन जगाम विमलेऽम्बरे॥४६॥
वे हनुमान् जी मतवाले कोयष्टि आदि पक्षियों से युक्त, बहुसंख्यक पुष्पशोभित वृक्षों को अपने महान् वेग से ऊपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश में अग्रसर होने लगे॥ ४६॥
ऊरुवेगोत्थिता वृक्षा मुहूर्तं कपिमन्वयुः।
प्रस्थितं दीर्घमध्वानं स्वबन्धुमिव बान्धवाः॥४७॥
उनकी जाँघों के महान् वेग से ऊपर को उठे हुए वृक्ष एक मुहूर्त तक उनके पीछे-पीछे इस प्रकार गये, जैसे दूर-देश के पथपर जाने वाले अपने भाई-बन्धु को उसके बन्धु-बान्धव पहुँचाने जाते हैं॥४७॥
तमूरुवेगोन्मथिताः सालाश्चान्ये नगोत्तमाः।
अनुजग्मुर्हनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम्॥४८॥
हनुमान जी की जाँघों के वेग से उखड़े हुए साल तथा दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ वृक्ष उनके पीछे-पीछे उसी प्रकार चले, जैसे राजा के पीछे उसके सैनिक चलते हैं॥ ४८॥
सुपुष्पिताग्रैर्बहुभिः पादपैरन्वितः कपिः।
हनूमान् पर्वताकारो बभूवाद्भुतदर्शनः॥४९॥
जिनकी डालियों के अग्रभाग फूलों से सुशोभित थे, उन बहुतेरे वृक्षों से संयुक्त हुए पर्वताकार हनुमान जी अद्भुत शोभा से सम्पन्न दिखायी दिये॥४९॥
सारवन्तोऽथ ये वृक्षा न्यमज्जल्लवणाम्भसि।
भयादिव महेन्द्रस्य पर्वता वरुणालये॥५०॥
उन वृक्षों में से जो भारी थे, वे थोड़ी ही देर में गिरकर क्षारसमुद्र में डूब गये। ठीक उसी तरह, जैसे कितने ही पंखधारी पर्वत देवराज इन्द्र के भय से वरुणालय में निमग्न हो गये थे॥५०॥
स नानाकुसुमैः कीर्णः कपिः साङ्करकोरकैः।
शुशुभे मेघसंकाशः खद्योतैरिव पर्वतः॥५१॥
मेघ के समान विशालकाय हनुमान जी अपने साथ खींचकर आये हुए वृक्षों के अंकुर और कोरसहित फूलों से आच्छादित हो जुगनुओं की जगमगाहट से युक्त पर्वत के समान शोभा पाते थे॥५१॥
विमुक्तास्तस्य वेगेन मुक्त्वा पुष्पाणि ते द्रुमाः।
व्यवशीर्यन्त सलिले निवृत्ताः सुहृदो यथा॥५२॥
वे वृक्ष जब हनुमान जी के वेग से मुक्त हो जाते (उनके आकर्षण से छूट जाते), तब अपने फूल बरसाते हुए इस प्रकार समुद्र के जल में डूब जाते थे, जैसे सुहृद्वर्ग के लोग परदेश जाने वाले अपने किसी बन्धु को दूर तक पहुँचाकर लौट आते हैं। ५२॥
लघुत्वेनोपपन्नं तद् विचित्रं सागरेऽपतत्।
द्रुमाणां विविधं पुष्पं कपिवायुसमीरितम्।
ताराचितमिवाकाशं प्रबभौ स महार्णवः॥५३॥
हनुमान जी के शरीर से उठी हुई वायु से प्रेरित हो वृक्षों के भाँति-भाँति के पुष्प अत्यन्त हल के होने के कारण जब समुद्र में गिरते थे, तब डूबते नहीं थे इसलिये उनकी विचित्र शोभा होती थी। उन फूलों के कारण वह महासागर तारों से भरे हुए आकाश के समान सुशोभित होता था॥ ५३॥
पुष्पौघेण सुगन्धेन नानावर्णेन वानरः।
बभौ मेघ इवोद्यन् वै विद्युद्गणविभूषितः॥५४॥
अनेक रंग की सुगन्धित पुष्पराशि से उपलक्षित वानर-वीर हनुमान जी बिजली-से सुशोभित होकर उठते हुए मेघ के समान जान पड़ते थे॥५४॥
तस्य वेगसमुद्भूतैः पुष्पैस्तोयमदृश्यत।
ताराभिरिव रामाभिरुदिताभिरिवाम्बरम्॥५५॥
उनके वेग से झड़े हुए फूलों के कारण समुद्र का जल उगे हुए रमणीय तारों से खचित आकाश के समान दिखायी देता था॥ ५५ ॥
तस्याम्बरगतौ बाहू ददृशाते प्रसारितौ।
पर्वताग्राद् विनिष्क्रान्तौ पञ्चास्याविव पन्नगौ॥५६॥
आकाश में फैलायी गयी उनकी दोनों भुजाएँ ऐसी दिखायी देती थीं, मानो किसी पर्वत के शिखर से पाँच फनवाले दो सर्प निकले हुए हों॥५६॥
पिबन्निव बभौ चापि सोर्मिजालं महार्णवम्।
पिपासुरिव चाकाशं ददृशे स महाकपिः॥५७॥
उस समय महाकपि हनुमान् ऐसे प्रतीत होते थे, मानो तरङ्गमालाओं सहित महासागर को पी रहे हों। वे ऐसे दिखायी देते थे, मानो आकाश को भी पी जाना चाहते हों॥ ५७॥
तस्य विद्युत्प्रभाकारे वायुमार्गानुसारिणः।
नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ॥५८॥
वायु के मार्ग का अनुसरण करने वाले हनुमान जी के बिजली की-सी चमक पैदा करने वाले दोनों नेत्र ऐसे प्रकाशित हो रहे थे, मानो पर्वत पर दो स्थानों में लगे हुए दावानल दहक रहे हों॥ ५८॥
पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले।
चक्षुषी सम्प्रकाशेते चन्द्रसूर्याविव स्थितौ॥५९॥
पिंगल नेत्रवाले वानरों में श्रेष्ठ हनुमान जी की दोनों गोल बड़ी-बड़ी और पीले रंग की आँखें चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित हो रही थीं॥ ५९॥
मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ।
संध्यया समभिस्पृष्टं यथा स्यात् सूर्यमण्डलम्॥६०॥
लाल-लाल नासिका के कारण उनका सारा मुँह लाली लिये हुए था, अतः वह संध्याकाल से संयुक्त सूर्यमण्डल के समान सुशोभित होता था॥६०॥
लं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते।
अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितम्॥६१॥
आकाश में तैरते हुए पवनपुत्र हनुमान् की उठी हुई टेढ़ी पूँछ इन्द्र की ऊँची ध्वजा के समान जान पड़ती थी॥ ६१॥
लाङ्गलचक्रो हनुमान् शुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः।
व्यरोचत महाप्राज्ञः परिवेषीव भास्करः॥६२॥
महाबुद्धिमान् पवनपुत्र हनुमान् जी की दाढ़ें सफेद थीं और पूँछ गोलाकार मुड़ी हुई थी। इसलिये वे परिधि से घिरे हुए सूर्यमण्डल के समान जान पड़ते थे॥
स्फिग्देशेनातिताम्रेण रराज स महाकपिः।
महता दारितेनेव गिरिगैरिकधातुना॥६३॥
उनकी कमर के नीचे का भाग बहुत लाल था। इससे वे महाकपि हनुमान् फटे हुए गेरू से युक्त विशाल पर्वत के समान शोभा पाते थे॥६३॥
तस्य वानरसिंहस्य प्लवमानस्य सागरम्।
कक्षान्तरगतो वायुर्जीमूत इव गर्जति॥६४॥
ऊपर-ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानरसिंह हनुमान् की काँख से होकर निकली हुई वायु बादल के समान गरजती थी॥६४॥
खे यथा निपतत्युल्का उत्तरान्ताद् विनिःसृता।
दृश्यते सानुबन्धा च तथा स कपिकुञ्जरः॥६५॥
जैसे ऊपर की दिशा से प्रकट हुई पुच्छयुक्त उल्का आकाश में जाती देखी जाती है, उसी प्रकार अपनी पूँछ के कारण कपिश्रेष्ठ हनुमान जी भी दिखायी देते थे॥६५॥
पतत्पतङ्गसंकाशो व्यायतः शुशुभे कपिः।
प्रवृद्ध इव मातङ्गः कक्ष्यया बध्यमानया॥६६॥
चलते हुए सूर्य के समान विशालकाय हनुमान जी अपनी पूँछ के कारण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो कोई बड़ा गजराज अपनी कमर में बँधी हुई रस्सी से सुशोभित हो रहा हो॥६६॥
उपरिष्टाच्छरीरेण च्छायया चावगाढया।
सागरे मारुताविष्टा नौरिवासीत् तदा कपिः॥६७॥
हनुमान जी का शरीर समुद्र से ऊपर-ऊपर चल रहा था और उनकी परछाईं जल में डूबी हुई-सी दिखायी देती थी। इस प्रकार शरीर और परछाईं दोनों से उपलक्षित हुए वे कपिवर हनुमान् समुद्र के जल में पड़ी हुई उस नौका के समान प्रतीत होते थे, जिसका ऊपरी भाग (पाल) वायु से परिपूर्ण हो और निम्नभाग समुद्र के जल से लगा हुआ हो॥६७॥
यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महाकपिः।
स तु तस्याङ्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते॥६८॥
वे समुद्र के जिस-जिस भाग में जाते थे, वहाँ-वहाँ उनके अंग के वेग से उत्ताल तरङ्ग उठने लगती थीं। अतः वह भाग उन्मत्त (विक्षुब्ध)-सा दिखायी देता था॥ ६८॥
सागरस्योर्मिजालानामुरसा शैलवर्मणाम्।
अभिध्नंस्तु महावेगः पुप्लुवे स महाकपिः॥६९॥
महान् वेगशाली महाकपि हनुमान् पर्वतों के समान ऊँची महासागर की तरङ्गमालाओं को अपनी छाती से चूर-चूर करते हुए आगे बढ़ रहे थे॥६९ ॥
कपिवातश्च बलवान् मेघवातश्च निर्गतः।
सागरं भीमनिर्हादं कम्पयामासतुर्भृशम्॥७०॥
कपिश्रेठ हनुमान् के शरीर से उठी हुई तथा मेघों की घटा में व्याप्त हुई प्रबल वायु ने भीषण गर्जना करने वाले समुद्र में भारी हलचल मचा दी॥ ७० ॥
विकर्षन्नर्मिजालानि बृहन्ति लवणाम्भसि।
पुप्लुवे कपिशार्दूलो विकिरन्निव रोदसी॥७१॥
वे कपिकेसरी अपने प्रचण्ड वेग से समुद्र में बहुत सी ऊँची-ऊँची तरङ्गों को आकर्षित करते हुए इस प्रकार उड़े जा रहे थे, मानो पृथ्वी और आकाश दोनों को विक्षुब्ध कर रहे हैं॥ ७१॥
मेरुमन्दरसंकाशानुगतान् सुमहार्णवे।
अत्यक्रामन्महावेगस्तरङ्गान् गणयन्निव॥७२॥
वे महान् वेगशाली वानरवीर उस महासमुद्र में उठी हुई सुमेरु और मन्दराचल के समान उत्ताल तरङ्गों की मानो गणना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। ७२॥
तस्य वेगसमुघुष्टं जलं सजलदं तदा।
अम्बरस्थं विबभ्राजे शरदभ्रमिवाततम्॥७३॥
उस समय उनके वेग से ऊँचे उठकर मेघमण्डल के साथ आकाश में स्थित हुआ समुद्र का जल शरत्काल के फैले हुए मेघों के समान जान पड़ता था।७३॥
तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा।
वस्त्रापकर्षणेनेव शरीराणि शरीरिणाम्॥७४॥
जल हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए साफ-साफ दिखायी देते थे। जैसे वस्त्र खींच लेने पर देहधारियों के शरीर नंगे दीखने लगते हैं। ७४॥
क्रममाणं समीक्ष्याथ भुजगाः सागरंगमाः।
व्योम्नि तं कपिशार्दूलं सुपर्णमिव मेनिरे॥७५॥
समुद्र में विचरने वाले सर्प आकाश में जाते हुए कपिश्रेष्ठ हनुमान जी को देखकर उन्हें गरुड़ के ही समान समझने लगे॥ ७५ ॥
दशयोजनविस्तीर्णा त्रिंशद्योजनमायता।
छाया वानरसिंहस्य जवे चारुतराभवत्॥७६॥
कपिकेसरी हनुमान जी की दस योजन चौड़ी और तीस योजन लम्बी छाया वेग के कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ती थी॥ ७६॥
श्वेताभ्रघनराजीव वायुपुत्रानुगामिनी।
तस्य सा शुशुभे छाया पतिता लवणाम्भसि॥७७॥
खारे पानी के समुद्रमें पड़ी हुई पवनपुत्र हनुमान् का अनुसरण करने वाली उनकी वह छाया श्वेत बादलों की पंक्ति के समान शोभा पाती थी॥ ७७॥
शुशुभे स महातेजा महाकायो महाकपिः।
वायुमार्गे निरालम्बे पक्षवानिव पर्वतः॥७८॥
वे परम तेजस्वी महाकाय महाकपि हनुमान् आलम्बनहीन आकाश में पंखधारी पर्वत के समान जान पड़ते थे॥ ७८॥
येनासौ याति बलवान् वेगेन कपिकुञ्जरः।
तेन मार्गेण सहसा द्रोणीकृत इवार्णवः॥७९॥
वे बलवान् कपिश्रेष्ठ जिस मार्ग से वेगपूर्वक निकल जाते थे, उस मार्ग से संयुक्त समुद्र सहसा कठौते या कड़ाह के समान हो जाता था (उनके वेग से उठी हुई वायु के द्वारा वहाँ का जल हट जाने से वह स्थान कठौते आदि के समान गहरा-सा दिखायी पड़ता था) ॥७९॥
आपाते पक्षिसङ्घानां पक्षिराज इव व्रजन्।
हनुमान् मेघजालानि प्रकर्षन् मारुतो यथा॥८०॥
पक्षी-समूहों के उड़ने के मार्ग में पक्षिराज गरुड़ की भाँति जाते हुए हनुमान् वायु के समान मेघमालाओं को अपनी ओर खींच लेते थे। ८० ॥
पाण्डुरारुणवर्णानि नीलमञ्जिष्ठकानि च।
कपिनाऽऽकृष्यमाणानि महाभ्राणि चकाशिरे॥८१॥
हनुमान जी के द्वारा खींचे जाते हुए वे श्वेत, अरुण, नील और मजीठ के-से रंगवाले बड़े-बड़े मेघ वहाँ बड़ी शोभा पाते थे॥ ८१॥
प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः।
प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च चन्द्रमा इव दृश्यते॥८२॥
वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे। इस तरह छिपते और प्रकाशित होते हुए चन्द्रमा के समान दृष्टिगोचर होते थे। ८२॥
प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा प्लवगं त्वरितं तदा।
ववृषुस्तत्र पुष्पाणि देवगन्धर्वचारणाः॥८३॥
उस समय तीव्रगति से आगे बढ़ते हुए वानरवीर हनुमान जी को देखकर देवता, गन्धर्व और चारण उनके ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। ८३॥
तताप नहि तं सूर्यः प्लवन्तं वानरेश्वरम्।
सिषेवे च तदा वायू रामकार्यार्थसिद्धये॥८४॥
वे श्रीरामचन्द्रजी का कार्य सिद्ध करने के लिये जा रहे थे, अतः उस समय वेग से जाते हुए वानरराज हनुमान् को सूर्यदेव ने ताप नहीं पहुँचाया और वायुदेव ने भी उनकी सेवा की॥ ८४॥
ऋषयस्तुष्टवुश्चैनं प्लवमानं विहायसा।
जगुश्च देवगन्धर्वाः प्रशंसन्तो वनौकसम्॥८५॥
आकाशमार्ग से यात्रा करते हुए वानरवीर हनुमान् की ऋषि-मुनि स्तुति करने लगे तथा देवता और गन्धर्व उनकी प्रशंसा के गीत गाने लगे॥ ८५ ॥
नागाश्च तुष्टवुर्यक्षा रक्षांसि विविधानि च।
प्रेक्ष्य सर्वे कपिवरं सहसा विगतक्लमम्॥८६॥
उन कपिश्रेष्ठ को बिना थकावट के सहसा आगे बढ़ते देख नाग, यक्ष और नाना प्रकार के राक्षस सभी उनकी स्तुति करने लगे॥८६॥
तस्मिन् प्लवगशार्दूले प्लवमाने हनूमति।
इक्ष्वाकुकुलमानार्थी चिन्तयामास सागरः॥८७॥
जिस समय कपिकेसरी हनुमान जी उछलकर समुद्र पार कर रहे थे, उस समय इक्ष्वाकुकुल का सम्मान करने की इच्छा से समुद्र ने विचार किया—॥ ८७॥
साहाय्यं वानरेन्द्रस्य यदि नाहं हनूमतः।
करिष्यामि भविष्यामि सर्ववाच्यो विवक्षताम्॥८८॥
‘यदि मैं वानरराज हनुमान जी की सहायता नहीं करूँगा तो बोलने की इच्छा वाले सभी लोगों की दृष्टि में मैं सर्वथा निन्दनीय हो जाऊँगा॥ ८८ ॥
अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धितः।
इक्ष्वाकुसचिवश्चायं तन्नार्हत्यवसादितुम्॥८९॥
‘मुझे इक्ष्वाकुकुल के महाराज सगर ने बढ़ाया था इस समय ये हनुमान जी भी इक्ष्वाकुवंशी वीर श्रीरघुनाथजी की सहायता कर रहे हैं, अतः इन्हें इस यात्रा में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए ८९॥
तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपिः।
शेषं च मयि विश्रान्तः सुखी सोऽतितरिष्यति॥९०॥
‘मुझे ऐसा कोई उपाय करना चाहिये, जिससे वानरवीर यहाँ कुछ विश्राम कर लें। मेरे आश्रय में विश्राम कर लेने पर मेरे शेष भाग को ये सुगमता से पार कर लेंगे’।
इति कृत्वा मतिं साध्वी समुद्रश्छन्नमम्भसि।
हिरण्यनाभं मैनाकमुवाच गिरिसत्तमम्॥९१॥
यह शुभ विचार करके समुद्र ने अपने जल में छिपे हुए सुवर्णमय गिरिश्रेष्ठ मैनाक से कहा- ॥९१॥
त्वमिहासुरसङ्घानां देवराज्ञा महात्मना।
पातालनिलयानां हि परिघः संनिवेशितः॥९२॥
‘शैलप्रवर! महामना देवराज इन्द्र ने तुम्हें यहाँ पातालवासी असुरसमूहों के निकलने के मार्ग को रोकने के लिये परिघरूप से स्थापित किया है॥ ९२ ॥
त्वमेषां ज्ञातवीर्याणां पुनरेवोत्पतिष्यताम्।
पातालस्याप्रमेयस्य द्वारमावृत्य तिष्ठसि॥९३॥
‘इन असुरों का पराक्रम सर्वत्र प्रसिद्ध है। वे फिर पाताल से ऊपरको आना चाहते हैं, अतः उन्हें रोकने के लिये तुम अप्रमेय पाताललोक के द्वार को बंद करके खड़े हो॥९३॥
तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव शक्तिस्ते शैल वर्धितुम्।
तस्मात् संचोदयामि त्वामुत्तिष्ठ गिरिसत्तम ॥ ९४॥
‘शैल! ऊपर-नीचे और अगल-बगल में सब ओर बढ़ने की तुममें शक्ति है। गिरिश्रेष्ठ! इसीलिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम ऊपर की ओर उठो॥९४ ॥
स एष कपिशार्दूलस्त्वामुपर्येति वीर्यवान्।
हनूमान् रामकार्यार्थी भीमका खमाप्लुतः॥९५॥
‘देखो, ये पराक्रमी कपिकेसरी हनुमान् तुम्हारे ऊपर होकर जा रहे हैं। ये बड़ा भयंकर कर्म करने वाले हैं, इस समय श्रीराम का कार्य सिद्ध करने के लिये इन्होंने आकाश में छलाँग मारी है॥ ९५॥
अस्य साह्यं मया कार्यमिक्ष्वाकुकुलवर्तिनः।
मम इक्ष्वाकवः पूज्याः परं पूज्यतमास्तव॥९६॥
‘ये इक्ष्वाकुवंशी राम के सेवक हैं, अतः मुझे इनकी सहायता करनी चाहिये। इक्ष्वाकुवंश के लोग मेरे पूजनीय हैं और तुम्हारे लिये तो वे परम पूजनीय हैं।
कुरु साचिव्यमस्माकं न नः कार्यमतिक्रमेत्।
कर्तव्यमकृतं कार्यं सतां मन्युमुदीरयेत्॥९७॥
‘अतः तुम हमारी सहायता करो। जिससे हमारे कर्तव्य-कर्म का (हनुमान् जी के सत्काररूपी कार्य का) अवसर बीत न जाय। यदि कर्तव्य का पालन नहीं किया जाय तो वह सत्पुरुषों के क्रोध को जगा देता है॥९७॥
सलिलादूर्ध्वमुत्तिष्ठ तिष्ठत्वेष कपिस्त्वयि।
अस्माकमतिथिश्चैव पूज्यश्च प्लवतां वरः॥९८॥
‘इसलिये तुम पानी से ऊपर उठो, जिससे ये छलाँग मारने वालों में श्रेष्ठ कपिवर हनुमान् तुम्हारे ऊपर कुछ काल तक ठहरें—विश्राम करें वे हमारे पूजनीय अतिथि भी हैं॥९८॥
चामीकरमहानाभ देवगन्धर्वसेवित।
हनूमाँस्त्वयि विश्रान्तस्ततः शेषं गमिष्यति॥९९॥
‘देवताओं और गन्धर्वो द्वारा सेवित तथा सुवर्णमय विशाल शिखर वाले मैनाक! तुम्हारे ऊपर विश्राम करने के पश्चात् हनुमान जी शेष मार्ग को सुखपूर्वक तय कर लेंगे॥ ९९॥
काकुत्स्थस्यानृशंस्यं च मैथिल्याश्च विवासनम्।
श्रमं च प्लवगेन्द्रस्य समीक्ष्योत्थातुमर्हसि॥१००॥
‘ककुत्स्थवंशी श्रीरामचन्द्रजी की दयालुता, मिथिलेशकुमारी सीता का परदेश में रहने के लिये विवश होना तथा वानरराज हनुमान् का परिश्रम देखकर तुम्हें अवश्य ऊपर उठना चाहिये’ ॥ १०० ॥
हिरण्यगर्भो मैनाको निशम्य लवणाम्भसः।
उत्पपात जलात् तूर्णं महाद्रुमलतावृतः॥१०१॥
यह सुनकर बड़े-बड़े वृक्षों और लताओं से आवृत सुवर्णमय मैनाक पर्वत तुरंत ही क्षार समुद्र के जल से ऊपर को उठ गया॥ १०१॥
स सागरजलं भित्त्वा बभूवात्युच्छ्रितस्तदा।
यथा जलधरं भित्त्वा दीप्तरश्मिर्दिवाकरः॥१०२॥
जैसे उद्दीप्त किरणों वाले दिवाकर (सूर्य) मेघों के आवरण को भेदकर उदित होते हैं, उसी प्रकार उस समय महासागर के जल का भेदन करके वह पर्वत बहुत ऊँचा उठ गया॥ १०२॥
स महात्मा मुहूर्तेन पर्वतः सलिलावृतः।
दर्शयामास शृङ्गाणि सागरेण नियोजितः॥१०३॥
समुद्र की आज्ञा पाकर जल में छिपे रहने वाले उस विशालकाय पर्वत ने दो ही घड़ी में हनुमान जी को अपने शिखरों का दर्शन कराया॥ १०३ ॥
शातकुम्भमयैः शृङ्गैः सकिंनरमहोरगैः।
आदित्योदयसंकाशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम्॥१०४॥
उस पर्वत के वे शिखर सुवर्णमय थे। उन पर किन्नर और बड़े-बड़े नाग निवास करते थे। सूर्योदय के समान तेजःपुञ्ज से विभूषित वे शिखर इतने ऊँचे थे कि आकाश में रेखा-सी खींच रहे थे॥ १०४॥
तस्य जाम्बूनदैः शृङ्गैः पर्वतस्य समुत्थितैः।
आकाशं शस्त्रसंकाशमभवत् काञ्चनप्रभम्॥१०५॥
उस पर्वत के उठे हुए सुवर्णमय शिखरों के कारण शस्त्र के समान नील वर्णवाला आकाश सुनहरी प्रभा से उद्भासित होने लगा॥ १०५ ॥
जातरूपमयैः शृ.ओजमानैर्महाप्रभैः।
आदित्यशतसंकाशः सोऽभवद् गिरिसत्तमः॥१०६॥
उन परम कान्तिमान् और तेजस्वी सुवर्णमय शिखरों से वह गिरिश्रेष्ठ मैनाक सैकड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान हो रहा था॥ १०६॥
समुत्थितमसङ्गेन हनूमानग्रतः स्थितम्।
मध्ये लवणतोयस्य विघ्नोऽयमिति निश्चितः॥१०७॥
क्षार समुद्र के बीच में अविलम्ब उठकर सामने खड़े हुए मैनाक को देखकर हनुमान जी ने मन-ही-मन निश्चित किया कि यह कोई विघ्न उपस्थित हुआ है।
स तमुच्छ्रितमत्यर्थं महावेगो महाकपिः।
उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुतः॥१०८॥
अतः वायु जैसे बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार महान् वेगशाली महाकपि हनुमान् ने बहुत ऊँचे उठे हुए मैनाक पर्वत के उस उच्चतर शिखर को अपनी छाती के धक्के से नीचे गिरा दिया। १०८॥
स तदासादितस्तेन कपिना पर्वतोत्तमः।
बुद्ध्वा तस्य हरेर्वेगं जहर्ष च ननाद च॥१०९॥
इस प्रकार कपिवर हनुमान जी के द्वारा नीचा देखने पर उनके उस महान् वेग का अनुभव करके पर्वतश्रेष्ठ मैनाक बड़ा प्रसन्न हुआ और गर्जना करने लगा॥ १०९॥
तमाकाशगतं वीरमाकाशे समुपस्थितः।
प्रीतो हृष्टमना वाक्यमब्रवीत् पर्वतः कपिम्॥११०॥
मानुषं धारयन् रूपमात्मनः शिखरे स्थितः।
तब आकाश में स्थित हुए उस पर्वत ने आकाशगत वीर वानर हनुमान जी से प्रसन्नचित्त होकर कहा।वह मनुष्यरूप धारण करके अपने ही शिखर पर स्थित हो इस प्रकार बोला— ॥ ११० १/२॥
दुष्करं कृतवान् कर्म त्वमिदं वानरोत्तम॥१११॥
निपत्य मम शृङ्गेषु सुखं विश्रम्य गम्यताम्।
‘वानरशिरोमणे! आपने यह दुष्कर कर्म किया है। अब उतरकर मेरे इन शिखरों पर सुखपूर्वक विश्राम कर लीजिये, फिर आगे की यात्रा कीजियेगा॥ १११ १/२॥
राघवस्य कुले जातैरुदधिः परिवर्धितः॥११२॥
स त्वां रामहिते युक्तं प्रत्यर्चयति सागरः।
‘श्रीरघुनाथजी के पूर्वजों ने समुद्र की वृद्धि की थी, इस समय आप उनका हित करने में लगे हैं; अतः समुद्र आपका सत्कार करना चाहता है ॥ ११२ १/२॥
कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः॥११३॥
सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः सम्मानमर्हति।
‘किसी ने उपकार किया हो तो बदले में उसका भी उपकार किया जाय—यह सनातन धर्म है। इस दृष्टि से प्रत्युपकार करने की इच्छा वाला यह सागर आपसे सम्मान पाने के योग्य है (आप इसका सत्कार ग्रहण करें, इतने से ही इसका सम्मान हो जायगा) ॥ ११३ १/२॥
त्वन्निमित्तमनेनाहं बहुमानात् प्रचोदितः॥११४॥
योजनानां शतं चापि कपिरेष खमाप्लुतः।
तव सानुषु विश्रान्तः शेषं प्रक्रमतामिति॥११५॥
‘आपके सत्कार के लिये समुद्र ने बड़े आदर से मुझे नियुक्त किया है और कहा है—’इन कपिवर हनुमान् ने सौ योजन दूर जाने के लिये आकाश में छलाँग मारी है, अतः कुछ देर तक तुम्हारे शिखरों पर ये विश्राम कर लें, फिर शेष भाग का लङ्घन करेंगे’। ११४-११५॥
तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम्।
तदिदं गन्धवत् स्वादु कन्दमूलफलं बहु॥११६॥
तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रान्तोऽथ गमिष्यसि।
‘अतः कपिश्रेष्ठ! आप कुछ देर तक मेरे ऊपर विश्राम कर लीजिये, फिर जाइयेगा। इस स्थान पर ये बहुत-से सुगन्धित और सुस्वादु कन्द, मूल तथा फल हैं वानरशिरोमणे! इनका आस्वादन करके थोड़ी देर तक सुस्ता लीजिये। उसके बाद आगे की यात्रा कीजियेगा॥ ११६ १/२॥
अस्माकमपि सम्बन्धः कपिमुख्य त्वयास्ति वै।
प्रख्यातस्त्रिषु लोकेषु महागुणपरिग्रहः॥११७॥
‘कपिवर! आपके साथ हमारा भी कुछ सम्बन्ध है। आप महान् गुणों का संग्रह करने वाले और तीनों लोकों में विख्यात हैं॥ ११७॥
वेगवन्तः प्लवन्तो ये प्लवगा मारुतात्मज।
तेषां मुख्यतमं मन्ये त्वामहं कपिकुञ्जर॥११८॥
‘कपिश्रेष्ठ पवननन्दन! जो-जो वेगशाली और छलाँग मारने वाले वानर हैं, उन सबमें मैं आपको ही श्रेष्ठतम मानता हूँ॥ ११८॥
अतिथिः किल पूजार्हः प्राकृतोऽपि विजानता।
धर्मं जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान्॥११९॥
‘धर्म की जिज्ञासा रखने वाले विज्ञ पुरुष के लिये एक साधारण अतिथि भी निश्चय ही पूजा के योग्य माना गया है। फिर आप-जैसे असाधारण शौर्यशाली पुरुष कितने सम्मान के योग्य हैं, इस विषय में तो कहना ही क्या है ? ॥ ११९॥
त्वं हि देववरिष्ठस्य मारुतस्य महात्मनः।
पुत्रस्तस्यैव वेगेन सदृशः कपिकुञ्जर॥१२०॥
‘कपिश्रेष्ठ! आप देवशिरोमणि महात्मा वायु के पुत्र हैं और वेग में भी उन्हीं के समान हैं॥ १२० ॥
पूजिते त्वयि धर्मज्ञे पूजां प्राप्नोति मारुतः।
तस्मात् त्वं पूजनीयो मे शृणु चाप्यत्र कारणम्॥१२१॥
‘आप धर्म के ज्ञाता हैं। आपकी पूजा होने पर साक्षात् वायुदेव का पूजन हो जायगा इसलिये आप अवश्य ही मेरे पूजनीय हैं। इसमें एक और भी कारण है, उसे सुनिये॥ १२१॥
पूर्वं कृतयुगे तात पर्वताः पक्षिणोऽभवन्।
तेऽपि जग्मुर्दिशः सर्वा गरुडा इव वेगिनः॥१२२॥
‘तात! पूर्वकाल के सत्ययुग की बात है। उन दिनों पर्वतों के भी पंख होते थे। वे भी गरुड़ के समान वेगशाली होकर सम्पूर्ण दिशाओं में उड़ते फिरते थे॥ १२२॥
ततस्तेषु प्रयातेषु देवसङ्घाः सहर्षिभिः।
भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया॥१२३॥
‘उनके इस तरह वेगपूर्वक उड़ने और आने जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों को उनके गिरने की आशङ्का से बड़ा भय होने लगा॥ १२३ ॥
ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः।
पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः॥ १२४॥
‘इससे सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपने व्रज से लाखों पर्वतों के पंख काट डाले॥ १२४॥
स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट्।
ततोऽहं सहसा क्षिप्तः श्वसनेन महात्मना॥१२५॥
‘उस समय कुपित हुए देवराज इन्द्र वज्र उठाये मेरी ओर भी आये, किन्तु महात्मा वायु ने सहसा मुझे इस समुद्र में गिरा दिया॥ १२५ ॥
अस्मिल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवगोत्तम।
गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः॥१२६॥
‘वानरश्रेष्ठ! इस क्षार समुद्र में गिराकर आपके पिता ने मेरे पंखों की रक्षा कर ली और मैं अपने सम्पूर्ण अंश से सुरक्षित बच गया॥ १२६॥
ततोऽहं मानयामि त्वां मान्योऽसि मम मारुते।
त्वया ममैष सम्बन्धः कपिमुख्य महागुणः॥१२७॥
‘पवननन्दन! कपिश्रेष्ठ! इसीलिये मैं आपका आदर करता हूँ, आप मेरे माननीय हैं। आपके साथ मेरा यह सम्बन्ध महान् गुणों से युक्त है॥ १२७॥
अस्मिन् नेवंगते कार्ये सागरस्य ममैव च।
प्रीतिं प्रीतमनाः कर्तुं त्वमर्हसि महामते॥१२८॥
‘महामते! इस प्रकार चिरकाल के बाद जो यह प्रत्युपकार रूप कार्य (आपके पिता के उपकार का बदला चुकाने का अवसर) प्राप्त हुआ है, इसमें आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी और समुद्र की भी प्रीति का सम्पादन करें (हमारा आतिथ्य ग्रहण करके हमें संतुष्ट करें)॥ १२८॥
श्रमं मोक्षय पूजां च गृहाण हरिसत्तम।
प्रीतिं च मम मान्यस्य प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्॥१२९॥
‘वानरशिरोमणे! आप यहाँ अपनी थकान उतारिये, हमारी पूजा ग्रहण कीजिये और मेरे प्रेम को भी स्वीकार कीजिये। मैं आप-जैसे माननीय पुरुष के दर्शन से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ’॥ १२९॥
एवमुक्तः कपिश्रेष्ठस्तं नगोत्तममब्रवीत्।
प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम्॥१३०॥
मैनाक के ऐसा कहने पर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने उस उत्तम पर्वत से कहा—’मैनाक! मुझे भी आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरा आतिथ्य हो गया अब आप अपने मन से यह दुःख अथवा चिन्ता निकाल दीजिये कि इन्होंने मेरी पूजा ग्रहण नहीं की। १३०॥
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते।
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा॥१३१॥
‘मेरे कार्य का समय मुझे बहुत जल्दी करने के लिये प्रेरित कर रहा है। यह दिन भी बीता जा रहा है। मैंने वानरों के समीप यह प्रतिज्ञा कर ली है कि मैं यहाँ बीच में कहीं नहीं ठहर सकता’ ॥ १३१॥
इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुङ्गवः।
जगामाकाशमाविश्य वीर्यवान् प्रहसन्निव॥१३२॥
ऐसा कहकर महाबली वानरशिरोमणि हनुमान् ने हँसते हुएसे वहाँ मैनाक का अपने हाथ से स्पर्श किया और आकाश में ऊपर उठकर चलने लगे॥ १३२॥
स पर्वतसमुद्राभ्यां बहुमानादवेक्षितः।
पूजितश्चोपपन्नाभिराशीभिरभिनन्दितः॥१३३॥
उस समय पर्वत और समुद्र दोनों ने ही बड़े आदर से उनकी ओर देखा, उनका सत्कार किया और यथोचित आशीर्वादों से उनका अभिनन्दन किया॥ १३३॥
अथोर्ध्वं दूरमागत्य हित्वा शैलमहार्णवौ।
पितुः पन्थानमासाद्य जगाम विमलेऽम्बरे॥१३४॥
फिर पर्वत और समुद्र को छोड़कर उनसे दूर ऊपर उठकर अपने पिता के मार्ग का आश्रय ले हनुमान जी निर्मल आकाश में चलने लगे॥ १३४ ॥
भूयश्चोर्ध्वं गतिं प्राप्य गिरिं तमवलोकयन्।
वायुसूनुर्निरालम्बो जगाम कपिकुञ्जरः॥१३५॥
तत्पश्चात् और भी ऊँचे उठकर उस पर्वत को देखते हुए कपिश्रेष्ठ पवनपुत्र हनुमान जी बिना किसी आधार के आगे बढ़ने लगे॥ १३५॥
तद् द्वितीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम्।
प्रशशंसुः सुराः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः॥१३६॥
हनुमान जी का यह दूसरा अत्यन्त दुष्कर कर्म देखकर सम्पूर्ण देवता, सिद्ध और महर्षिगण उनकी प्रशंसा करने लगे॥ १३६ ॥
देवताश्चाभवन् हृष्टास्तत्रस्थास्तस्य कर्मणा।
काञ्चनस्य सुनाभस्य सहस्राक्षश्च वासवः॥१३७॥
वहाँ आकाश में ठहरे हुए देवता तथा सहस्र नेत्रधारी इन्द्र उस सुन्दर मध्य भागवाले सुवर्णमय मैनाक पर्वत के उस कार्य से बहुत प्रसन्न हुए॥ १३७॥
उवाच वचनं धीमान् परितोषात् सगद्गदम्।
सुनाभं पर्वतश्रेष्ठं स्वयमेव शचीपतिः॥१३८॥
उस समय स्वयं बुद्धिमान् शचीपति इन्द्र ने अत्यन्त संतुष्ट होकर पर्वतश्रेष्ठ सुनाभ नाक से गद्गद वाणी में कहा- ॥ १३८॥
हिरण्यनाभ शैलेन्द्र परितुष्टोऽस्मि ते भृशम्।
अभयं ते प्रयच्छामि गच्छ सौम्य यथासुखम्॥१३९॥
‘सुवर्णमय शैलराज मैनाक! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। सौम्य! तुम्हें अभय दान देता हूँ। तुम सुखपूर्वक जहाँ चाहो, जाओ॥ १३९॥
साह्यं कृतं ते सुमहद् विश्रान्तस्य हनूमतः।
क्रमतो योजनशतं निर्भयस्य भये सति॥१४०॥
‘सौ योजन समुद्र को लाँघते समय जिनके मन में कोई भय नहीं रहा है, फिर भी जिनके लिये हमारे हृदय में यह भय था कि पता नहीं इनका क्या होगा? उन्हीं हनुमान जी को विश्राम का अवसर देकर तुमने उनकी बहुत बड़ी सहायता की है॥ १४०॥
रामस्यैष हितायैव याति दाशरथेः कपिः।
सक्रियां कुर्वता शक्त्या तोषितोऽस्मि दृढं त्वया॥१४१॥
‘ये वानरश्रेष्ठ हनुमान् दशरथनन्दन श्रीराम की सहायता के लिये ही जा रहे हैं। तुमने यथाशक्ति इनका सत्कार करके मुझे पूर्ण संतोष प्रदान किया है’॥ १४१॥
स तत् प्रहर्षमलभद् विपुलं पर्वतोत्तमः।
देवतानां पतिं दृष्ट्वा परितुष्टं शतक्रतुम्॥१४२॥
देवताओं के स्वामी शतक्रतु इन्द्र को संतुष्ट देखकर पर्वतों में श्रेष्ठ मैनाक को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ॥ १४२॥
स वै दत्तवरः शैलो बभूवावस्थितस्तदा।
हनूमांश्च मुहूर्तेन व्यतिचक्राम सागरम्॥१४३॥
इस प्रकार इन्द्र का दिया हुआ वर पाकर मैनाक उस समय जल में स्थित हो गया और हनुमान जी समुद्र के उस प्रदेश को उसी मुहूर्त में लाँघ गये॥ १४३॥
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
अब्रुवन् सूर्यसंकाशां सुरसां नागमातरम्॥१४४॥
तब देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने सूर्यतुल्य तेजस्विनी नागमाता सुरसा से कहा- ॥ १४४॥
अयं वातात्मजः श्रीमान् प्लवते सागरोपरि।
हनूमान् नाम तस्य त्वं मुहूर्तं विघ्नमाचर ॥१४५॥
‘ये पवननन्दन श्रीमान् हनुमान जी समुद्र के ऊपर होकर जा रहे हैं। तुम दो घड़ी के लिये इनके मार्ग में विघ्न डाल दो॥ १४५॥
राक्षसं रूपमास्थाय सुघोरं पर्वतोपमम्।
दंष्ट्राकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभःस्पृशम्॥१४६॥
‘तुम पर्वत के समान अत्यन्त भयंकर राक्षसी का रूप धारण करो। उसमें विकराल दाढ़ें, पीले नेत्र और आकाश को स्पर्श करने वाला विकट मुँह बनाओ॥ १४६॥
बलमिच्छामहे ज्ञातुं भूयश्चास्य पराक्रमम्।
त्वां विजेष्यत्युपायेन विषादं वा गमिष्यति॥१४७॥
‘हमलोग पुनः हनुमान जी के बल और पराक्रम की परीक्षा लेना चाहते हैं। या तो किसी उपाय से ये तुम्हें जीत लेंगे अथवा विषाद में पड़ जायँगे (इससे इनके बलाबल का ज्ञान हो जायगा)’ ॥ १४७॥
एवमुक्ता तु सा देवी दैवतैरभिसत्कृता।
समुद्रमध्ये सुरसा बिभ्रती राक्षसं वपुः॥ १४८॥
विकृतं च विरूपं च सर्वस्य च भयावहम्।
प्लवमानं हनूमन्तमावृत्येदमुवाच ह॥१४९॥
देवताओं के सत्कारपूर्वक इस प्रकार कहने पर देवी सुरसा ने समुद्र के बीच में राक्षसी का रूप धारण किया। उसका वह रूप बड़ा ही विकट, बेडौल और सबके लिये भयावना था। वह समुद्र के पार जाते हुए हनुमान् जी को घेरकर उनसे इस प्रकार बोली- ॥ १४८-१४९॥
मम भक्ष्यः प्रदिष्टस्त्वमीश्वरैर्वानरर्षभ।
अहं त्वां भक्षयिष्यामि प्रविशेदं ममाननम्॥१५०॥
‘कपिश्रेष्ठ! देवेश्वरों ने तुम्हें मेरा भक्ष्य बताकर मुझे अर्पित कर दिया है, अतः मैं तुम्हें खाऊँगी तुम मेरे इस मुँह में चले आओ॥ १५०॥
वर एष पुरा दत्तो मम धात्रेति सत्वरा।
व्यादाय वक्त्रं विपुलं स्थिता सा मारुतेः पुरः॥१५१॥
‘पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मुझे यह वर दिया था।’ ऐसा कहकर वह तुरंत ही अपना विशाल मुँह फैलाकर हनुमान् जी के सामने खड़ी हो गयी॥ १५१॥
एवमुक्तः सुरसया प्रहृष्टवदनोऽब्रवीत्।
रामो दाशरथि म प्रविष्टो दण्डकावनम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या चापि भार्यया॥१५२॥
सुरसा के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने प्रसन्नमुख होकर कहा–’देवि! दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीताजी के साथ दण्डकारण्य में आये थे॥ १५२॥
अन्यकार्यविषक्तस्य बद्धवैरस्य राक्षसैः।
तस्य सीता हृता भार्या रावणेन यशस्विनी॥१५३॥
‘वहाँ परहित-साधन में लगे हुए श्रीराम का राक्षसों के साथ वैर बँध गया। अतः रावण ने उनकी यशस्विनी भार्या सीता को हर लिया॥ १५३॥
तस्याः सकाशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात्।
कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनि॥१५४॥
‘मैं श्रीराम की आज्ञा से उनका दूत बनकर सीताजी के पास जा रहा हूँ। तुम भी श्रीराम के राज्य में निवास करती हो। अतः तुम्हें उनकी सहायता करनी चाहिये॥ १५४॥
अथवा मैथिलीं दृष्ट्वा रामं चाक्लिष्टकारिणम्।
आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते॥१५५॥
‘अथवा (यदि तुम मुझे खाना ही चाहती हो तो) मैं सीताजी का दर्शन करके अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी से जब मिल लूँगा, तब तुम्हारे मुख में आ जाऊँगा—यह तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ’॥ १५५ ॥
एवमुक्ता हनुमता सुरसा कामरूपिणी।
अब्रवीन्नातिवर्तेन्मां कश्चिदेष वरो मम॥ १५६॥
हनुमान जी के ऐसा कहने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली सुरसा बोली—’मुझे यह वर मिला है कि कोई भी मुझे लाँघकर आगे नहीं जा सकता’। १५६॥
तं प्रयान्तं समुद्रीक्ष्य सुरसा वाक्यमब्रवीत्।
बलं जिज्ञासमाना सा नागमाता हनूमतः॥१५७॥
फिर भी हनुमान जी को जाते देख उनके बल को जानने की इच्छा रखने वाली नागमाता सुरसा ने उनसे कहा— ॥ १५७॥
निविश्य वदनं मेऽद्य गन्तव्यं वानरोत्तम।
वर एष पुरा दत्तो मम धात्रेति सत्वरा॥१५८॥
व्यादाय विपुलं वक्त्रं स्थिता सा मारुतेःपुरः।
‘वानरश्रेष्ठ! आज मेरे मुख में प्रवेश करके ही तुम्हें आगे जाना चाहिये। पूर्वकाल में विधाता ने मुझे ऐसा ही वर दिया था।’ ऐसा कहकर सुरसा तुरंत अपना विशाल मुँह फैलाकर हनुमान जी के सामने खड़ी हो गयी॥ १५८ १/२॥
एवमुक्तः सुरसया क्रुद्धो वानरपुंगवः॥१५९॥
अब्रवीत् कुरु वै वक्त्रं येन मां विषहिष्यसि।
इत्युक्त्वा सुरसां क्रुद्धो दशयोजनमायताम्॥१६०॥
दशयोजनविस्तारो हनूमानभवत् तदा।
तं दृष्ट्वा मेघसंकाशं दशयोजनमायतम्।
चकार सुरसाप्यास्यं विंशन योजनमायतम्॥१६१॥
सुरसा के ऐसा कहने पर वानरशिरोमणि हनुमान जी कुपित हो उठे और बोले—’तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो जिससे उसमें मेरा भार सह सको’ यों कहकर जब वे मौन हुए, तब सुरसा ने अपना मुख दस योजन विस्तृत बना लिया। यह देखकर कुपित हुए हनुमान् जी भी तत्काल दस योजन बड़े हो गये। उन्हें मेघ के समान दस योजन विस्तृत शरीर से युक्त हुआ देख सुरसा ने भी अपने मुख को बीस योजन बड़ा बना लिया॥ १५९–१६१॥
हनूमांस्तु ततः क्रुद्धस्त्रिंशद् योजनमायतः।
चकार सुरसा वक्त्रं चत्वारिंशत् तथोच्छ्रितम्॥१६२॥
तब हनुमान जी ने क्रुद्ध होकर अपने शरीर को तीस योजन अधिक बढ़ा दिया। फिर तो सुरसा ने भी अपने मुँह को चालीस योजन ऊँचा कर लिया॥ १६२ ॥
बभूव हनुमान् वीरः पञ्चाशद् योजनोच्छ्रितः।
चकार सुरसा वक्त्रं षष्टिं योजनमुच्छ्रितम्॥१६३॥
यह देख वीर हनुमान् पचास योजन ऊँचे हो गये। तब सुरसा ने अपना मुँह साठ योजन ऊँचा बना लिया॥
तदैव हनुमान् वीरः सप्ततिं योजनोच्छ्रितः।
चकार सुरसा वक्त्रमशीतिं योजनोच्छ्रितम्॥१६४॥
फिर तो वीर हनुमान् उसी क्षण सत्तर योजन ऊँचे हो गये। अब सुरसा ने अस्सी योजन ऊँचा मुँह बना लिया॥ १६४॥
हनूमाननलप्रख्यो नवतिं योजनोच्छ्रितः।
चकार सुरसा वक्त्रं शतयोजनमायतम्॥१६५॥
तदनन्तर अग्नि के समान तेजस्वी हनुमान् नब्बे योजन ऊँचे हो गये। यह देख सुरसा ने भी अपने मुँह का विस्तार सौ योजन का कर लिया * ॥ १६५॥
* १६२ से लेकर १६५ तक के चार श्लोक कुछ टीकाकारों ने प्रक्षिप्त बताये हैं, किंतु रामायणशिरोमणि नामक टीका में इनकी व्याख्या उपलब्ध होती है। अतः यहाँ मूल में इन्हें सम्मिलित कर लिया गया है।
तद्दृष्ट्वा व्यादितं त्वास्यं वायुपुत्रः स बुद्धिमान्।
दीर्घजिवं सुरसया सुभीमं नरकोपमम्॥१६६॥
स संक्षिप्यात्मनः कायं जीमत इव मारुतिः।
तस्मिन् मुहूर्ते हनुमान् बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः॥१६७॥
सुरसा के फैलाये हुए उस विशाल जिह्वा से युक्त और नरक के समान अत्यन्त भयंकर मुँह को देखकर बुद्धिमान् वायुपुत्र हनुमान् ने मेघ की भाँति अपने शरीर को संकुचित कर लिया। वे उसी क्षण अँगूठे के बराबर छोटे हो गये॥ १६६-१६७॥
सोऽभिपद्याथ तद्वक्त्रं निष्पत्य च महाबलः।
अन्तरिक्षे स्थितः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत्॥१६८॥
फिर वे महाबली श्रीमान् पवनकुमार सुरसा के उस मुँह में प्रवेश करके तुरंत निकल आये और आकाश में खड़े होकर इस प्रकार बोले- ॥ १६८॥
प्रविष्टोऽस्मि हि ते वक्त्रं दाक्षायणि नमोऽस्तुते।
गमिष्ये यत्र वैदेही सत्यश्चासीद् वरस्तव॥१६९॥
‘दक्षकुमारी! तुम्हें नमस्कार है। मैं तुम्हारे मुँह में प्रवेश कर चुका। लो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया। अब मैं उस स्थान को जाऊँगा, जहाँ विदेहकुमारी सीता विद्यमान हैं’॥ १६९॥
तं दृष्ट्वा वदनान्मुक्तं चन्द्रं राहुमुखादिव।
अब्रवीत् सुरसा देवी स्वेन रूपेण वानरम्॥१७०॥
राहु के मुख से छूटे हुए चन्द्रमा की भाँति अपने मुख से मुक्त हुए हनुमान जी को देखकर सुरसा देवी ने अपने असली रूप में प्रकट होकर उन वानरवीर से कहा— ॥ १७०॥
अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्।
समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना॥१७१॥
‘कपिश्रेष्ठ! तुम भगवान् श्रीराम के कार्य की सिद्धि के लिये सुखपूर्वक जाओ। सौम्य! विदेहनन्दिनी सीता को महात्मा श्रीराम से शीघ्र मिलाओ’॥ १७१॥
तत् तृतीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम्।
साधुसाध्विति भूतानि प्रशशंसुस्तदा हरिम्॥१७२॥
कपिवर हनुमान जी का यह तीसरा अत्यन्त दुष्कर कर्म देख सब प्राणी वाह-वाह करके उनकी प्रशंसा करने लगे॥ १७२॥
स सागरमनाधृष्यमभ्येत्य वरुणालयम्।
जगामाकाशमाविश्य वेगेन गरुडोपमः॥१७३॥
वे वरुण के निवासभूत अलङ्घय समुद्र के निकट आकर आकाश का ही आश्रय ले गरुड़ के समान वेग से आगे बढ़ने लगे॥ १७३॥
सेविते वारिधाराभिः पतगैश्च निषेविते।
चरिते कैशिकाचारैरावतनिषेविते॥१७४॥
सिंहकुञ्जरशार्दूलपतगोरगवाहनैः।
विमानैः सम्पतद्भिश्च विमलैः समलंकृते॥१७५॥
वज्राशनिसमस्पर्शः पावकैरिव शोभिते।
कृतपुण्यैर्महाभागैः स्वर्गजिद्भिरधिष्ठिते॥१७६॥
वहता हव्यमत्यन्तं सेविते चित्रभानुना।
ग्रहनक्षत्रचन्द्रार्कतारागणविभूषिते॥१७७॥
महर्षिगणगन्धर्वनागयक्षसमाकुले।
विविक्ते विमले विश्वे विश्वावसुनिषेविते॥१७८॥
देवराजगजाक्रान्ते चन्द्रसूर्यपथे शिवे।
विताने जीवलोकस्य वितते ब्रह्मनिर्मिते॥१७९॥
बहुशः सेविते वीरैर्विद्याधरगणैर्वृते।
जगाम वायुमार्गे च गरुत्मानिव मारुतिः॥१८०॥
जो जल की धाराओं से सेवित, पक्षियों से संयुक्त, गानविद्या के आचार्य तुम्बुरु आदि गन्धर्वो के विचरण का स्थान तथा ऐरावत के आने-जाने का मार्ग है, सिंह, हाथी, बाघ, पक्षी और सर्प आदि वाहनों से जुते और उड़ते हुए निर्मल विमान जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जिनका स्पर्श वज्र और अशनि के समान दुःसह तथा तेज अग्नि के समान प्रकाशमान है तथा जो स्वर्गलोक पर विजय पा चुके हैं, ऐसे महाभाग पुण्यात्मा पुरुषों का जो निवासस्थान है, देवता के लिये अधिक मात्रा में हविष्य का भार वहन करने वाले अग्निदेव जिसका सदा सेवन करते हैं, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और तारे आभूषण की भाँति जिसे सजाते हैं, महर्षियों के समुदाय, गन्धर्व, नाग और यक्ष जहाँ भरे रहते हैं, जो जगत् का आश्रयस्थान, एकान्त और निर्मल है, गन्धर्वराज विश्वावसु जिसमें निवास करते हैं, देवराज इन्द्र का हाथी जहाँ चलता-फिरता है, जो चन्द्रमा और सूर्य का भी मङ्गलमय मार्ग है, इस जीवजगत् के लिये विमल वितान (चँदोवा) है, साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ने ही जिसकी सृष्टि की है, जो बहुसंख्यक वीरों से सेवित और विद्याधरगणों से आवृत है, उस वायुपथ आकाश में पवननन्दन हनुमान् जी गरुड़ के समान वेग से चले॥ १७४–१८०॥ ।
हनुमान् मेघजालानि प्राकर्षन् मारुतो यथा।
कालागुरुसवर्णानि रक्तपीतसितानि च ॥१८१॥
वायु के समान हनुमान जी अगर के समान काले तथा लाल, पीले और श्वेत बादलों को खींचते हुए आगे बढ़ने लगे॥ १८१॥
कपिना कृष्यमाणानि महाभ्राणि चकाशिरे।
प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः॥१८२॥
प्रावृषीन्दुरिवाभाति निष्पतन् प्रविशंस्तदा।
उनके द्वारा खींचे जाते हुए वे बड़े-बड़े बादल अद्भुत शोभा पा रहे थे। वे बारम्बार मेघ-समूहों में प्रवेश करते और बाहर निकलते थे। उस अवस्था में बादलों में छिपते तथा प्रकट होते हुए वर्षाकाल के चन्द्रमा की भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी॥ १८२ १/२॥
प्रदृश्यमानः सर्वत्र हनूमान् मारुतात्मजः॥१८३॥
भेजेऽम्बरं निरालम्बं पक्षयुक्त इवाद्रिराट्।
सर्वत्र दिखायी देते हुए पवनकुमार हनुमान् जी पंखधारी गिरिराज के समान निराधार आकाश का आश्रय लेकर आगे बढ़ रहे थे। १८३ १/२ ॥
प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा सिंहिका नाम राक्षसी॥१८४॥
मनसा चिन्तयामास प्रवृद्धा कामरूपिणी।
इस तरह जाते हुए हनुमान जी को इच्छानुसार रूप धारण करने वाली विशालकाया सिंहिका नामवाली राक्षसी ने देखा। देखकर वह मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी- ॥ १८४ १/२॥
अद्य दीर्घस्य कालस्य भविष्याम्यहमाशिता॥१८५॥
इदं मम महासत्त्वं चिरस्य वशमागतम्।
‘आज दीर्घकाल के बाद यह विशाल जीव मेरे वश में आया है। इसे खा लेने पर बहुत दिनों के लिये मेरा पेट भर जायगा’॥ १८५ १/२॥
इति संचिन्त्य मनसा च्छायामस्य समाक्षिपत्॥१८६॥
छायायां गृह्यमाणायां चिन्तयामास वानरः।
समाक्षिप्तोऽस्मि सहसा पङ्गकृतपराक्रमः॥१८७॥
प्रतिलोमेन वातेन महानौरिव सागरे।
अपने हृदय में ऐसा सोचकर उस राक्षसी ने हनुमान् जी की छाया पकड़ ली। छाया पकड़ी जाने पर वानरवीर हनुमान् ने सोचा—’अहो! सहसा किसने मुझे पकड़ लिया, इस पकड़ के सामने मेरा पराक्रम पङ्ग हो गया है। जैसे प्रतिकूल हवा चलने पर समुद्र में जहाज की गति अवरुद्ध हो जाती है, वैसी ही दशा आज मेरी भी हो गयी है’ ॥ १८६-१८७ १/२॥
तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव वीक्षमाणस्तदा कपिः॥१८८॥
ददर्श स महासत्त्वमुत्थितं लवणाम्भसि।
यही सोचते हुए कपिवर हनुमान् ने उस समय अगल-बगल में, ऊपर और नीचे दृष्टि डाली। इतने ही में उन्हें समुद्र के जल के ऊपर उठा हुआ एक विशालकाय प्राणी दिखायी दिया॥ १८८ १/२॥
तद् दृष्ट्वा चिन्तयामास मारुतिर्विकृताननाम्॥१८९॥
कपिराज्ञा यथाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम्।
छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशयः॥१९०॥
उस विकराल मुखवाली राक्षसी को देखकर पवनकुमार हनुमान् सोचने लगे-वानरराज सुग्रीव ने जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीव की चर्चा की थी, वह निःसंदेह यही है॥ १८९-१९० ॥
स तां बुद्ध्वार्थतत्त्वेन सिंहिकां मतिमान् कपिः।
व्यवर्धत महाकायः प्रावृषीव बलाहकः॥१९१॥
तब बुद्धिमान् कपिवर हनुमान जी ने यह निश्चय करके कि वास्तव में यही सिंहिका है, वर्षाकाल के मेघ की भाँति अपने शरीर को बढ़ाना आरम्भ किया। इस प्रकार वे विशालकाय हो गये॥ १९१ ॥
तस्य सा कायमुद्रीक्ष्य वर्धमानं महाकपेः।
वक्त्रं प्रसारयामास पातालाम्बरसंनिभम्॥१९२॥
घनराजीव गर्जन्ती वानरं समभिद्रवत्।
उन महाकपि के शरीर को बढ़ते देख सिंहिका ने अपना मुँह पाताल और आकाश के मध्यभाग के समान फैला लिया और मेघों की घटा के समान गर्जना करती हुई उन वानरवीर की ओर दौड़ी॥ १९२ १/२ ॥
स ददर्श ततस्तस्या विकृतं सुमहन्मुखम्॥१९३॥
कायमानं च मेधावी मर्माणि च महाकपिः।
हनुमान जी ने उसका अत्यन्त विकराल और बढ़ा हुआ मुँह देखा। उन्हें अपने शरीर के बराबर ही उसका मुँह दिखायी दिया। उस समय बुद्धिमान् महाकपि हनुमान् ने सिंहिका के मर्मस्थानों को अपना लक्ष्य बनाया॥
स तस्या विकृते वक्त्रे वज्रसंहननः कपिः॥१९४॥
संक्षिप्य मुहुरात्मानं निपपात महाकपिः।
तदनन्तर वज्रोपम शरीर वाले महाकपि पवनकुमार अपने शरीर को संकुचित करके उसके विकराल मुख में आ गिरे। १९४ १/२॥
आस्ये तस्या निमज्जन्तं ददृशुः सिद्धचारणाः॥१९५॥
ग्रस्यमानं यथा चन्द्रं पूर्ण पर्वणि राहुणा।
उस समय सिद्धों और चारणों ने हनुमान जी को सिंहिका के मुख में उसी प्रकार निमग्न होते देखा, जैसे पूर्णिमा की रात में पूर्ण चन्द्रमा राहु के ग्रास बन गये हों॥
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः॥१९६॥
उत्पपाताथ वेगेन मनःसम्पातविक्रमः।
मुख में प्रवेश करके उन वानरवीर ने अपने तीखे नखों से उस राक्षसी के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर डाला। इसके पश्चात् वे मन के समान गति से उछलकर वेगपूर्वक बाहर निकल आये॥ १९६ १/२ ॥
तां तु दिष्ट्या च धृत्या च दाक्षिण्येन निपात्य सः॥१९७॥
कपिप्रवीरो वेगेन ववृधे पुनरात्मवान्।
दैव के अनुग्रह, स्वाभाविक धैर्य तथा कौशल से उस राक्षसी को मारकर वे मनस्वी वानरवीर पुनः वेग से बढ़कर बड़े हो गये॥ १९७ १/२ ॥
हृतहृत्सा हनुमता पपात विधुराम्भसि।
स्वयंभुवैव हनुमान् सृष्टस्तस्या निपातने॥१९८॥
हनुमान् जी ने प्राणों के आश्रयभूत उसके हृदयस्थल को ही नष्ट कर दिया, अतः वह प्राणशून्य होकर समुद्र के जल में गिर पड़ी। विधाता ने ही उसे मार गिराने के लिये हनुमान जी को निमित्त बनाया था॥ १९८॥
तां हतां वानरेणाशु पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम्।
भूतान्याकाशचारीणि तमूचुः प्लवगोत्तमम्॥
उन वानरवीर के द्वारा शीघ्र ही मारी जाकर सिंहिका जल में गिर पड़ी। यह देख आकाश में विचरने वाले प्राणी उन कपिश्रेष्ठ से बोले- ॥ १९९॥
भीममद्य कृतं कर्म महत्सत्त्वं त्वया हतम्।
साधयार्थमभिप्रेतमरिष्टं प्लवतां वर॥ २००॥
‘कपिवर! तुमने यह बड़ा ही भयंकर कर्म किया है, जो इस विशालकाय प्राणी को मार गिराया है। अब तुम बिना किसी विघ्न-बाधा के अपना अभीष्ट कार्य सिद्ध करो॥
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ॥ २०१॥
‘वानरेन्द्र ! जिस पुरुष में तुम्हारे समान धैर्य, सूझ, बुद्धि और कुशलता—ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती’ ॥ २०१॥
स तैः सम्पूजितः पूज्यः प्रतिपन्नप्रयोजनैः।
जगामाकाशमाविश्य पन्नगाशनवत् कपिः॥२०२॥
इस प्रकार अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने से उन आकाशचारी प्राणियों ने हनुमान जी का बड़ा सत्कार किया। इसके बाद वे आकाश में चढ़कर गरुड़ के समान वेग से चलने लगे॥ २०२॥
प्राप्तभूयिष्ठपारस्तु सर्वतः परिलोकयन्।
योजनानां शतस्यान्ते वनराजी ददर्श सः॥२०३॥
सौ योजन के अन्त में प्रायः समुद्र के पार पहुँचकर जब उन्होंने सब ओर दृष्टि डाली, तब उन्हें एक हरीभरी वनश्रेणी दिखायी दी॥ २०३॥
ददर्श च पतन्नेव विविधद्रुमभूषितम्।
दीपं शाखामृगश्रेष्ठो मलयोपवनानि च ॥ २०४॥
आकाश में उड़ते हुए ही शाखामृगों में श्रेष्ठ हनुमान् जी ने भाँति-भाँति के वृक्षों से सुशोभित लंका नामक द्वीप देखा। उत्तर तट की भाँति समुद्र के दक्षिण तट पर भी मलय नामक पर्वत और उसके उपवन दिखायी दिये॥ २०४॥
सागरं सागरानूपान् सागरानूपजान् द्रुमान्।
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयत्॥२०५॥
समुद्र, सागरतटवर्ती जलप्राय देश तथा वहाँ उगे हुए वृक्ष एवं सागरपत्नी सरिताओं के मुहानों को भी उन्होंने देखा॥ २०५॥
स महामेघसंकाशं समीक्ष्यात्मानमात्मवान्।
निरुन्धन्तमिवाकाशं चकार मतिमान् मतिम्॥२०६॥
मन को वश में रखने वाले बुद्धिमान् हनुमान जी ने अपने शरीर को महान् मेघों की घटा के समान विशाल तथा आकाश को अवरुद्ध करता-सा देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया— ॥ २०६॥
कायवृद्धिं प्रवेगं च मम दृष्ट्वैव राक्षसाः।
मयि कौतूहलं कुर्युरिति मेने महामतिः॥२०७॥
‘अहो! मेरे शरीर की विशालता तथा मेरा यह तीव्र वेग देखते ही राक्षसों के मन में मेरे प्रति बड़ा कौतूहल होगा—वे मेरा भेद जानने के लिये उत्सुक हो जायेंगे।’ परम बुद्धिमान् हनुमान जी के मन में यह धारणा पक्की हो गयी॥ २०७॥
ततः शरीरं संक्षिप्य तन्महीधरसंनिभम्।
पुनः प्रकृतिमापेदे वीतमोह इवात्मवान्॥२०८॥
मनस्वी हनुमान् अपने पर्वताकार शरीर को संकुचित करके पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये। ठीक उसी तरह, जैसे मन को वश में रखने वाला मोहरहित पुरुष अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है॥ २०८॥
तद्रूपमतिसंक्षिप्य हनूमान् प्रकृतौ स्थितः।
त्रीन् क्रमानिव विक्रम्य बलिवीर्यहरो हरिः॥२०९॥
जैसे बलि के पराक्रमसम्बन्धी अभिमान को हर लेने वाले श्रीहरि ने विराटूप तीन पग चलकर तीनों लोकों को नाप लेने के पश्चात् अपने उस स्वरूप को समेट लिया था, उसी प्रकार हनुमान जी समुद्र को लाँघ जाने के बाद अपने उस विशाल रूप को संकुचित करके अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये॥ २०९॥
स चारुनानाविधरूपधारी परं समासाद्य समुद्रतीरम्।
परैरशक्यं प्रतिपन्नरूपः समीक्षितात्मा समवेक्षितार्थः ॥ २१०॥
हनुमान जी बड़े ही सुन्दर और नाना प्रकार के रूप धारण कर लेते थे। उन्होंने समुद्र के दूसरे तट पर, जहाँ दूसरों का पहुँचना असम्भव था, पहुँचकर अपने विशाल शरीर की ओर दृष्टिपात किया। फिर अपने कर्तव्य का विचार करके छोटा-सा रूप धारण कर लिया॥ २१०॥
ततः स लम्बस्य गिरेः समृद्ध विचित्रकूटे निपपात कूटे।
सकेतकोद्दालकनारिकेले महाभ्रकूटप्रतिमो महात्मा॥२११॥
महान् मेघ-समूह के समान शरीर वाले महात्मा हनुमान जी केवड़े, लसोड़े और नारियल के वृक्षों से विभूषित लम्बपर्वत के विचित्र लघु शिखरों वाले महान् समृद्धिशाली शृङ्ग पर कूद पड़े॥ २११॥
ततस्तु सम्प्राप्य समुद्रतीरं समीक्ष्य लंकां गिरिवर्यमूर्ध्नि।
कपिस्तु तस्मिन् निपपात पर्वते विधूय रूपं व्यथयन्मृगद्विजान्॥२१२॥
तदनन्तर समुद्र के तटपर पहुँचकर वहाँ से उन्होंने एक श्रेष्ठ पर्वत के शिखर पर बसी हुई लंका को देखा। देखकर अपने पहले रूप को तिरोहित करके वे वानरवीर वहाँ के पशु-पक्षियों को व्यथित करते हुए उसी पर्वत पर उतर पड़े॥
स सागरं दानवपन्नगायुतं बलेन विक्रम्य महोर्मिमालिनम्।
निपत्य तीरे च महोदधेस्तदा ददर्श लंकाममरावतीमिव॥ २१३॥
इस प्रकार दानवों और साँसे भरे हुए तथा बड़ी बड़ी उत्ताल तरङ्गमालाओं से अलंकृत महासागर को बलपूर्वक लाँघकर वे उसके तट पर उतर गये और अमरावती के समान सुशोभित लंकापुरी की शोभा देखने लगे॥ २१३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ॥१॥
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Pranam, smt Shivangi for this huge effort. Would it be possible to have only the Hindi translation in a plain text file please? The whole of Valmiki Ramayan translated in Hindi in one plain text file?