वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 10 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 10
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
दशमः सर्गः (10)
(हनुमान जी का अन्तःपुर में सोये हुए रावण तथा गाढ़ निद्रा में पड़ी हुई उसकी स्त्रियों को देखना तथा मन्दोदरी को सीता समझकर प्रसन्न होना)
तत्र दिव्योपमं मुख्यं स्फाटिकं रत्नभूषितम्।
अवेक्षमाणो हनुमान् ददर्श शयनासनम्॥१॥
वहाँ इधर-उधर दृष्टिपात करते हुए हनुमान जी ने एक दिव्य एवं श्रेष्ठ वेदी देखी, जिसपर पलंग बिछाया जाता था। वह वेदी स्फटिक मणि की बनी हुई थी और उसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े गये थे। १॥
दान्तकाञ्चनचित्रांगैवैदूर्यैश्च वरासनैः।
महार्हास्तरणोपेतैरुपपन्नं महाधनैः॥२॥
वहाँ वैदूर्यमणि (नीलम)-के बने हुए श्रेष्ठ आसन(पलंग) बिछे हुए थे, जिनकी पाटी-पाये आदि अंग हाथी-दाँत और सुवर्ण से जटित होने के कारण चितकबरे दिखायी देते थे। उन महामूल्यवान् पलंगों पर बहुमूल्य बिछौने बिछाये गये थे। उन सबके कारण उस वेदी की बड़ी शोभा हो रही थी। २॥
तस्य चैकतमे देशे दिव्यमालोपशोभितम्।
ददर्श पाण्डुरं छत्रं ताराधिपतिसंनिभम्॥३॥
उस पलंग के एक भागमें उन्होंने चन्द्रमा के समान एक श्वेत छत्र देखा, जो दिव्य मालाओं से सुशोभित था।
जातरूपपरिक्षिप्तं चित्रभानोः समप्रभम्।
अशोकमालाविततं ददर्श परमासनम्॥४॥
वह उत्तम पलंग सुवर्ण से जटित होने के कारण अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। हनुमान जी ने उसे अशोकपुष्पों की मालाओं से अलंकृत देखा॥४॥
वालव्यजनहस्ताभिर्वीज्यमानं समन्ततः।
गन्धैश्च विविधैर्जुष्टं वरधूपेन धूपितम्॥५॥
उसके चारों ओर खड़ी हुई बहुत-सी स्त्रियाँ हाथों में चँवर लिये उसपर हवा कर रही थीं। वह पलंग अनेक प्रकार की गन्धों से सेवित तथा उत्तम धूप से सुवासित था॥५॥
परमास्तरणास्तीर्णमाविकाजिनसंवृतम्।
दामभिर्वरमाल्यानां समन्तादुपशोभितम्॥६॥
उस पर उत्तमोत्तम बिछौने बिछे हुए थे। उसमें भेड़ की खाल मढ़ी हुई थी तथा वह सब ओर से उत्तम फूलों की मालाओं से सुशोभित था॥६॥
तस्मिञ्जीमूतसंकाशं प्रदीप्तोज्ज्वलकुण्डलम्।
लोहिताक्षं महाबाहुं महारजतवाससम्॥७॥
लोहितेनानुलिप्तांगं चन्दनेन सुगन्धिना।
संध्यारक्तमिवाकाशे तोयदं सतडिद्गुणम्॥८॥
वृतमाभरणैर्दिव्यैः सुरूपं कामरूपिणम्।
सवृक्षवनगुल्माढ्यं प्रसुप्तमिव मन्दरम्॥९॥
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ वराभरणभूषितम्।
प्रियं राक्षसकन्यानां राक्षसानां सुखावहम्॥१०॥
पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः।
भास्वरे शयने वीरं प्रसुप्तं राक्षसाधिपम्॥११॥
उस प्रकाशमान पलंग पर महाकपि हनुमान जी ने वीर राक्षसराज रावण को सोते देखा, जो सुन्दर आभूषणों से विभूषित, इच्छानुसार रूप धारण करने वाला, दिव्य आभरणों से अलंकृत और सुरूपवान् था। वह राक्षस-कन्याओं का प्रियतम तथा राक्षसों को सुख पहुँचाने वाला था। उसके अंगों में सुगन्धित लाल चन्दन का अनुलेप लगा हुआ था, जिससे वह आकाश में संध्याकाल की लाली तथा विद्युल्लेखा से युक्त मेघ के समान शोभा पाता था। उसकी अंगकान्ति मेघ के समान श्याम थी। उसके कानों में उज्ज्वल कुण्डल झिलमिला रहे थे। आँखें लाल थीं और भुजाएँ बड़ी-बड़ी। उसके वस्त्र सुनहरे रंग के थे। वह रात को स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करके मदिरा पीकर आराम कर रहा था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वृक्ष, वन और लता-गुल्मों से सम्पन्न मन्दराचल सो रहा हो॥७–११॥
निःश्वसन्तं यथा नागं रावणं वानरोत्तमः।
आसाद्य परमोद्विग्नः सोपासर्पत् सुभीतवत्॥१२॥
अथारोहणमासाद्य वेदिकान्तरमाश्रितः।
क्षीबं राक्षसशार्दूलं प्रेक्षते स्म महाकपिः॥१३॥
उस समय साँस लेता हुआ रावण फुफकारते हुए सर्प के समान जान पड़ता था। उसके पास पहुँचकर वानरशिरोमणि हनुमान् अत्यन्त उद्विग्न हो भलीभाँति डरे हुए की भाँति सहसा दूर हट गये और सीढ़ियों पर चढ़कर एक-दूसरी वेदी पर जाकर खड़े हो गये। वहाँ से उन महाकपि ने उस मतवाले राक्षससिंह को देखना आरम्भ किया॥ १२-१३॥
शुशुभे राक्षसेन्द्रस्य स्वपतः शयनं शुभम्।
गन्धहस्तिनि संविष्टे यथा प्रस्रवणं महत्॥१४॥
राक्षसराज रावण के सोते समय वह सुन्दर पलंग उसी प्रकार शोभा पा रहा था, जैसे गन्धहस्ती के शयन करने पर विशाल प्रस्रवणगिरि सुशोभित हो रहा हो। १४॥
काञ्चनांगदसंनद्धौ ददर्श स महात्मनः।
विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ॥१५॥
उन्होंने महाकाय राक्षसराज रावण की फैलायी हुई दो भुजाएँ देखीं, जो सोने के बाजूबंद से विभूषित हो इन्द्रध्वज के समान जान पड़ती थीं॥ १५ ॥
ऐरावतविषाणा|रापीडनकृतव्रणौ।
वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षतौ॥१६॥
युद्धकाल में उन भुजाओं पर ऐरावत हाथी के दाँतों के अग्रभाग से जो प्रहार किये गये थे, उनके आघात का चिह्न बन गया था। उन भुजाओं के मूलभाग या कंधेबहुत मोटे थे और उनपर वज्र द्वारा किये गये आघात के भी चिह्न दिखायी देते थे। भगवान् विष्णु के चक्र से भी किसी समय वे भुजाएँ क्षत-विक्षत हो चुकी थीं॥१६॥
पीनौ समसुजातांसौ संगतौ बलसंयुतौ।
सुलक्षणनखांगुष्ठौ स्वंगुलीयकलक्षितौ॥१७॥
वे भुजाएँ सब ओर से समान और सुन्दर कंधोंवाली तथा मोटी थीं। उनकी संधियाँ सुदृढ़ थीं। वे बलिष्ठ और उत्तम लक्षण वाले नखों एवं अंगुष्ठों से सुशोभित थीं। उनकी अंगुलियाँ और हथेलियाँ बड़ी सुन्दर दिखायी देती थीं॥ १७॥
संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ।
विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ॥१८॥
वे सुगठित एवं पुष्ट थीं। परिघ के समान गोलाकार तथा हाथी के शुण्डदण्ड की भाँति चढ़ाव-उतारवाली एवं लंबी थीं। उस उज्ज्वल पलंग पर फैली वे बाँहें पाँच-पाँच फनवाले दो सर्पो के समान दृष्टिगोचर होती थीं॥
शशक्षतजकल्पेन सुशीतेन सुगन्धिना।
चन्दनेन परायेन स्वनुलिप्तौ स्वलंकृतौ॥१९॥
खरगोश के खून की भाँति लाल रंग के उत्तम, सुशीतल एवं सुगन्धित चन्दन से चर्चित हुई वे भुजाएँ अलंकारों से अलंकृत थीं॥ १९॥
उत्तमस्त्रीविमृदितौ गन्धोत्तमनिषेवितौ।
यक्षपन्नगगन्धर्वदेवदानवराविणौ ॥२०॥
सुन्दरी युवतियाँ धीरे-धीरे उन बाँहों को दबाती थीं। उन पर उत्तम गन्ध-द्रव्य का लेप हुआ था। वे यक्ष, नाग, गन्धर्व, देवता और दानव सभी को युद्ध में रुलाने वाली थीं॥ २०॥
ददर्श स कपिस्तस्य बाहू शयनसंस्थितौ।
मन्दरस्यान्तरे सुप्तौ महाही रुषिताविव॥२१॥
कपिवर हनुमान् ने पलंग पर पड़ी हुई उन दोनों भुजाओं को देखा। वे मन्दराचल की गुफा में सोये हुए दो रोषभरे अजगरों के समान जान पड़ती थीं॥ २१॥
ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यामुभाभ्यां राक्षसेश्वरः।
शुशुभेऽचलसंकाशः श्रृंगाभ्यामिव मन्दरः॥२२॥
उन बड़ी-बड़ी और गोलाकार दो भुजाओं से युक्त पर्वताकार राक्षसराज रावण दो शिखरों से संयुक्त मन्दराचल के समान शोभा पा रहा था* ॥ २२॥
* यहाँ शयनागार में सोये हुए रावण के एक ही मुख और दो ही बाँहों का वर्णन आया है। इससे जान पड़ता है कि वह साधारण स्थिति में इसी तरह रहता था। युद्ध आदि के विशेष अवसरों पर ही वह स्वेच्छापूर्वक दस मुख और बीस भुजाओं से संयुक्त होता था।
चूतनागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः।
मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः॥२३॥
तस्य राक्षसराजस्य निश्चक्राम महामुखात्।
शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद् गृहम्॥२४॥
वहाँ सोये हुए राक्षसराज रावण के विशाल मुख से आम और नागकेसर की सुगन्ध से मिश्रित, मौलसिरी के सुवास से सुवासित और उत्तम अन्नरस से संयुक्त तथा मधुपान की गन्ध से मिली हुई जो सौरभयुक्त साँस निकल रही थी, वह उस सारे घर को सुगन्ध से परिपूर्ण-सा कर देती थी॥ २३-२४॥
मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजिता।
मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम्॥२५॥
उसका कुण्डल से प्रकाशमान मुखारविन्द अपने स्थान से हटे हुए तथा मुक्तामणि से जटित होने के कारण विचित्र आभावाले सुवर्णमय मुकुट से और भी उद्भासित हो रहा था॥ २५ ॥
रक्तचन्दनदिग्धेन तथा हारेण शोभिना।
पीनायतविशालेन वक्षसाभिविराजिता॥२६॥
उसकी छाती लाल चन्दन से चर्चित, हारसे सुशोभित, उभरी हुई तथा लंबी-चौड़ी थी। उसके द्वारा उस राक्षसराज के सम्पूर्ण शरीर की बड़ी शोभा हो रही थी॥
पाण्डुरेणापविद्धन क्षौमेण क्षतजेक्षणम्।
महार्हेण सुसंवीतं पीतेनोत्तरवाससा॥२७॥
उसकी आँखें लाल थीं। उसकी कटि के नीचे का भाग ढीले-ढाले श्वेत रेशमी वस्त्र से ढका हुआ था तथा वह पीले रंग की बहुमूल्य रेशमी चादर ओढ़े हुए था॥
माषराशिप्रतीकाशं निःश्वसन्तं भुजंगवत्।
गांगे महति तोयान्ते प्रसुप्तमिव कुञ्जरम्॥२८॥
वह स्वच्छ स्थान में रखे हुए उड़द के ढेर के समान जान पड़ता था और सर्प के समान साँसें ले रहा था। उस उज्ज्वल पलंग पर सोया हुआ रावण गंगा की अगाध जलराशि में सोये हुए गजराज के समान दिखायी देता था॥
चतुर्भिः काञ्चनैर्दीपैर्दीप्यमानं चतुर्दिशम्।
प्रकाशीकृतसर्वांगं मेघ विद्युद्गणैरिव॥२९॥
उसकी चारों दिशाओं में चार सुवर्णमय दीपक जल रहे थे; जिनकी प्रभा से वह देदीप्यमान हो रहा थाऔर उसके सारे अंग प्रकाशित होकर स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। ठीक उसी तरह, जैसे विद्युद्गणों से मेघ प्रकाशित एवं परिलक्षित होता है॥ २९ ॥
पादमूलगताश्चापि ददर्श सुमहात्मनः।
पत्नीः स प्रियभार्यस्य तस्य रक्षःपतेहे ॥३०॥
पत्नियों के प्रेमी उस महाकाय राक्षसराज के घर में हनुमान जी ने उसकी पत्नियों को भी देखा, जो उसके चरणों के आस-पास ही सो रही थीं॥३०॥
शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषणाः।
अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः॥३१॥
वानरयूथपति हनुमान् जी ने देखा, उन रावणपत्नियों के मुख चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे। वे सुन्दर कुण्डलों से विभूषित थीं तथा ऐसे फूलों के हार पहने हुए थीं, जो कभी मुरझाते नहीं थे॥ ३१॥
नृत्यवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः।
वराभरणधारिण्यो निषण्णा ददृशे कपिः॥ ३२॥
वे नाचने और बाजे बजाने में निपुण थीं, राक्षसराज रावण की बाँहों और अंक में स्थान पाने वाली थीं तथा सुन्दर आभूषण धारण किये हुए थीं। कपिवर हनुमान् ने उन सबको वहाँ सोती देखा ॥ ३२॥
वज्रवैदूर्यगर्भाणि श्रवणान्तेषु योषिताम्।
ददर्श तापनीयानि कुण्डलान्यंगदानि च॥३३॥
उन्होंने उन सुन्दरियों के कानों के समीप हीरे तथा नीलम जड़े हुए सोने के कुण्डल और बाजूबंद देखे॥ ३३॥
तासां चन्द्रोपमैर्वक्त्रैः शुभैललितकुण्डलैः।
विरराज विमानं तन्नभस्तारागणैरिव॥३४॥
ललित कुण्डलों से अलंकृत तथा चन्द्रमा के समान मनोहर उनके सुन्दर मुखों से वह विमानाकार पर्यङ्क तारिकाओं से मण्डित आकाश की भाँति सुशोभित हो रहा था॥ ३४॥
मदव्यायामखिन्नास्ता राक्षसेन्द्रस्य योषितः।
तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः॥ ३५॥
क्षीण कटिप्रदेशवाली वे राक्षसराज की स्त्रियाँ मद तथा रतिक्रीड़ा के परिश्रम से थककर जहाँ-तहाँ जो जिस अवस्था में थीं वैसे ही सो गयी थीं॥ ३५ ॥
अंगहारैस्तथैवान्या कोमलैर्नृत्यशालिनी।
विन्यस्तशुभसर्वांगी प्रसुप्ता वरवर्णिनी॥३६॥
विधाता ने जिसके सारे अंगों को सुन्दर एवं विशेष शोभा से सम्पन्न बनाया था, वह कोमलभाव से अंगों के संचालन (चटकाने-मटकाने आदि) द्वारा नाचने वाली कोई अन्य नृत्यनिपुणा सुन्दरी स्त्री गाढ़ निद्रा में सोकर भी वासनावश जाग्रत्-अवस्था की ही भाँति नृत्य के अभिनय से सुशोभित हो रही थी॥ ३६॥
काचिद् वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशते।
महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता॥३७॥
कोई वीणा को छाती से लगाकर सोयी हुई सुन्दरी ऐसी जान पड़ती थी, मानो महानदी में पड़ी हुई कोई कमलिनी किसी नौका से सट गयी हो॥ ३७॥
अन्या कक्षगतेनैव मड्डकेनासितेक्षणा।
प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला॥३८॥
दूसरी कजरारे नेत्रोंवाली भामिनी काँख में दबे हुए मड्डक (लघुवाद्य विशेष)-के साथ ही सो गयी थी।वह ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे कोई पुत्रवत्सला जननी अपने छोटे-से शिशु को गोद में लिये सो रही हो॥ ३८॥
पटहं चारुसर्वांगी न्यस्य शेते शुभस्तनी।
चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी॥३९॥
कोई सर्वांगसुन्दरी एवं रुचिर कुचोंवाली कामिनी पटह को अपने नीचे रखकर सो रही थी, मानो चिरकाल के पश्चात् प्रियतम को अपने निकट पाकर कोई प्रेयसी उसे हृदय से लगाये सो रही हो ॥३९॥
काचिद् वीणां परिष्वज्य सुप्ता कमललोचना।
वरं प्रियतमं गृह्य सकामेव हि कामिनी॥४०॥
कोई कमललोचना युवती वीणा का आलिंगन करके सोयी हुई ऐसी जान पड़ती थी, मानो कामभाव से युक्त कामिनी अपने श्रेष्ठ प्रियतम को भुजाओं में भरकर सो गयी हो॥ ४० ॥
विपञ्ची परिगृह्यान्या नियता नृत्यशालिनी।
निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी॥४१॥
नियमपूर्वक नृत्यकला से सुशोभित होनेवाली एक अन्य युवती विपञ्ची (विशेष प्रकारकी वीणा)-को अंक में भरकर प्रियतम के साथ सोयी हुई प्रेयसी की भाँति निद्रा के अधीन हो गयी थी॥४१॥
अन्या कनकसंकाशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः।
मृदंगं परिविद्ध्यांगैः प्रसुप्ता मत्तलोचना॥४२॥
कोई मतवाले नयनों वाली दूसरी सुन्दरी अपने सुवर्ण-सदृश गौर, कोमल, पुष्ट और मनोरम अंगों से मृदंग को दबाकर गाढ़ निद्रा में सो गयी थी॥ ४२ ॥
भुजपाशान्तरस्थेन कक्षगेन कृशोदरी।
पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा॥४३॥
नशे से थकी हुई कोई कृशोदरी अनिन्द्य सुन्दरी रमणी अपने भुजपाशों के बीच में स्थित और काँख में दबे हुए पणव के साथ ही सो गयी थी॥४३॥
डिण्डिमं परिगृह्यान्या तथैवासक्तडिण्डिमा।
प्रसुप्ता तरुणं वत्समुपगुह्येव भामिनी॥४४॥
दूसरी स्त्री डिण्डिम को लेकर उसी तरह उससे सटी हुई सो गयी थी, मानो कोई भामिनी अपने बालक पुत्र को हृदय से लगाये हुए नींद ले रही हो।
४४॥
काचिदाडम्बरं नारी भुजसम्भोगपीडितम्।
कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता॥४५॥
मदिरा के मद से मोहित हुई कोई कमलनयनी नारी आडम्बर नामक वाद्य को अपनी भुजाओं के आलिंगन से दबाकर प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी। ४५॥
कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी।
वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता॥४६॥
कोई दूसरी युवती निद्रावश जल से भरी हुई सुराही को लुढ़काकर भीगी अवस्था में ही बेसुध सो रही थी। उस अवस्था में वह वसन्त-ऋतु में विभिन्न वर्ण के पुष्पों की बनी और जल के छींटे से सींची हुई माला के समान प्रतीत होती थी॥ ४६॥
पाणिभ्यां च कुचौ काचित् सुवर्णकलशोपमौ।
उपगुह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता॥४७॥
निद्रा के बल से पराजित हुई कोई अबला सुवर्णमय कलश के समान प्रतीत होने वाले अपने कुचों को दोनों हाथों से दबाकर सो रही थी॥४७॥
अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना।
अन्यामालिंग्य सुश्रोणी प्रसुप्ता मदविह्वला॥४८॥
पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली दूसरी कमललोचना कामिनी सुन्दर नितम्बवाली किसी अन्य सुन्दरी का आलिंगन करके मद से विह्वल होकर सो गयी थी॥४८॥
आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः।
निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव॥४९॥
जैसे कामिनियाँ अपने चाहने वाले कामुकों को छाती से लगाकर सोती हैं, उसी प्रकार कितनी ही सुन्दरियाँ विचित्र-विचित्र वाद्यों का आलिंगन करके उन्हें कुचों से दबाये सो गयी थीं॥४९॥
तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे।
ददर्श रूपसम्पन्नामथ तां स कपिः स्त्रियम्॥५०॥
उन सबकी शय्याओं से पृथक् एकान्त में बिछी हुई सुन्दर शय्या पर सोयी हुई एक रूपवती युवती को वहाँ हनुमान जी ने देखा ॥ ५० ॥
मुक्तामणिसमायुक्तैर्भूषणैः सुविभूषिताम्।
विभूषयन्तीमिव च स्वश्रिया भवनोत्तमम्॥५१॥
वह मोती और मणियों से जड़े हुए आभूषणों से भलीभाँति विभूषित थी और अपनी शोभा से उस उत्तम भवन को विभूषित-सा कर रही थी॥५१॥
गौरी कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम्।
कपिर्मन्दोदरी तत्र शयानां चारुरूपिणीम्॥५२॥
स तां दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः।
तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसम्पदा।
हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः॥५३॥
वह गोरे रंग की थी। उसकी अंगकान्ति सुवर्ण के समान दमक रही थी। वह रावण की प्रियतमा और उसके अन्तःपुर की स्वामिनी थी। उसका नाम मन्दोदरी था। वह अपने मनोहर रूप से सुशोभित हो रही थी। वही वहाँ सो रही थी। हनुमान जी ने उसी को देखा। रूप और यौवन की सम्पत्ति से युक्त और वस्त्राभूषणों से विभूषित मन्दोदरी को देखकर महाबाहु पवनकुमार ने अनुमान किया कि ये ही सीताजी हैं। फिर तो ये वानरयूथपति हनुमान् महान् हर्ष से युक्त हो आनन्दमग्न हो गये॥ ५२-५३॥
आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ निदर्शयन् स्वां प्रकृति कपीनाम्॥५४॥
वे अपनी पूँछ को पटकने और चूमने लगे। अपनी वानरों-जैसी प्रकृति का प्रदर्शन करते हुए आनन्दित होने, खेलने और गाने लगे, इधर-उधर आने-जाने लगे। वे कभी खंभों पर चढ़ जाते और कभी पृथ्वी पर कूद पड़ते थे॥५४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे दशमः सर्गः॥१०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में दसवाँ सर्ग पूरा हुआ।१०॥
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