RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 11

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकादशः सर्गः (11)

(हनुमान जी का पुनः अन्तःपुर में और उसकी पानभूमि में सीता का पता लगाना, धर्मलोप की आशंका और स्वतः उसका निवारण होना)

अवधूय च तां बुद्धिं बभूवावस्थितस्तदा।
जगाम चापरां चिन्तां सीतां प्रति महाकपिः॥१॥

फिर उस समय इस विचार को छोड़कर महाकपि हनुमान जी अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हुए और वे सीताजी के विषय में दूसरे प्रकार की चिन्ता करने लगे॥

न रामेण वियुक्ता सा स्वप्तुमर्हति भामिनी।
न भोक्तुं नाप्यलंकर्तुं न पानमुपसेवितुम्॥२॥

(उन्होंने सोचा-) ‘भामिनी सीता श्रीरामचन्द्रजी से बिछुड़ गयी हैं। इस दशा में वे न तो सो सकती हैं, न भोजन कर सकती हैं, न शृंगार एवं अलंकार धारण कर सकती हैं, फिर मदिरापान का सेवन तो किसी प्रकार भी नहीं कर सकतीं॥२॥

नान्यं नरमुपस्थातुं सुराणामपि चेश्वरम्।
न हि रामसमः कश्चिद् विद्यते त्रिदशेष्वपि॥३॥

‘वे किसी दूसरे पुरुष के पास, वह देवताओं का भी ईश्वर क्यों न हो, नहीं जा सकतीं। देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं है जो श्रीरामचन्द्रजी की समानता कर सके॥३॥

अन्येयमिति निश्चित्य भूयस्तत्र चचार सः।
पानभूमौ हरिश्रेष्ठः सीतासंदर्शनोत्सुकः॥४॥

‘अतः अवश्य ही यह सीता नहीं, कोई दूसरी स्त्री है।’ ऐसा निश्चय करके वे कपिश्रेष्ठ सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो पुनः वहाँ की मधुशाला में विचरने लगे॥

क्रीडितेनापराः क्लान्ता गीतेन च तथापराः।
नृत्येन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा॥५॥

वहाँ कोई स्त्रियाँ क्रीड़ा करने से थकी हुई थीं तो कोई गीत गाने से। दूसरी नृत्य करके थक गयी थीं और कितनी ही स्त्रियाँ अधिक मद्यपान करके अचेत हो रही थीं॥५॥

मुरजेषु मृदंगेषु चेलिकासु च संस्थिताः।
तथाऽऽस्तरणमुख्येषु संविष्टाश्चापराः स्त्रियः॥ ६॥

बहुत-सी स्त्रियाँ ढोल, मृदंग और चेलिका नामक वाद्यों पर अपने अंगों को टेककर सो गयी थीं तथा दूसरी महिलाएँ अच्छे-अच्छे बिछौनों पर सोयी हुई थीं॥६॥

अंगनानां सहस्रेण भूषितेन विभूषणैः।
रूपसंलापशीलेन युक्तगीतार्थभाषिणा॥७॥
देशकालाभियुक्तेन युक्तवाक्याभिधायिना।
रताधिकेन संयुक्तां ददर्श हरियूथपः॥८॥

वानरयूथपति हनुमान जी ने उस पानभूमि को ऐसी सहस्रों रमणियों से संयुक्त देखा, जो भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित, रूप-लावण्य की चर्चा करने वाली, गीत के समुचित अभिप्राय को अपनी वाणी द्वारा प्रकट करने वाली, देश और काल को समझने वाली, उचित बात बोलने वाली और रतिक्रीड़ा में अधिक भाग लेने वाली थीं॥७-८॥

अन्यत्रापि वरस्त्रीणां रूपसंलापशायिनाम्।
सहस्रं युवतीनां तु प्रसुप्तं स ददर्श ह॥९॥

दूसरे स्थान पर भी उन्होंने ऐसी सहस्रों सुन्दरी युवतियों को सोते देखा, जो आपस में रूप-सौन्दर्य की चर्चा करती हुई लेट रही थीं॥९॥

देशकालाभियुक्तं तु युक्तवाक्याभिधायि तत्।
रताविरतसंसुप्तं ददर्श हरियूथपः॥१०॥

वानरयूथपति पवनकुमार ने ऐसी बहुत-सी स्त्रियों को देखा, जो देश-काल को जानने वाली, उचित बात कहने वाली तथा रतिक्रीड़ा के पश्चात् गाढ़ निद्रा में सोयी हुई थीं॥ १० ॥

तासां मध्ये महाबाहुः शुशुभे राक्षसेश्वरः।
गोष्ठे महति मुख्यानां गवां मध्ये यथा वृषः॥११॥

उन सबके बीच में महाबाहु राक्षसराज रावण विशाल गोशाला में श्रेष्ठ गौओं के बीच सोये हुए साँड़ की भाँति शोभा पा रहा था॥ ११॥

स राक्षसेन्द्रः शुशुभे ताभिः परिवृतः स्वयम्।
करेणुभिर्यथारण्ये परिकीर्णो महाद्विपः॥१२॥

जैसे वन में हाथियों से घिरा हुआ कोई महान् गजराज सो रहा हो, उसी प्रकार उस भवन में उन सुन्दरियों से घिरा हुआ स्वयं राक्षसराज रावण सुशोभित हो रहा था॥ १२॥

सर्वकामैरुपेतां च पानभूमिं महात्मनः।
ददर्श कपिशार्दूलस्तस्य रक्षःपतेहे ॥१३॥
मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च भागशः।
तत्र न्यस्तानि मांसानि पानभूमौ ददर्श सः॥ १४॥

उस महाकाय राक्षसराज के भवन में कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने वह पानभूमि देखी, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगों से सम्पन्न थी। उस मधुशाला में अलग-अलग मृगों, भैंसों और सूअरों के मांस रखे गये थे, जिन्हें हनुमान जी ने देखा ॥ १३-१४ ॥

रौक्मेषु च विशालेषु भाजनेष्वप्यभक्षितान्।
ददर्श कपिशार्दूलो मयूरान् कुक्कुटांस्तथा ॥१५॥
वराहवाध्रीणसकान् दधिसौवर्चलायुतान्।
शल्यान् मृगमयूरांश्च हनुमानन्ववैक्षत॥१६॥

वानरसिंह हनुमान् ने वहाँ सोने के बड़े-बड़े पात्रों में मोर, मुर्गे, सूअर, गेंडा, साही, हरिण तथा मयूरों के मांस देखे, जो दही और नमक मिलाकर रखे गये थे।वे अभी खाये नहीं गये थे॥१५-१६ ।।

कृकलान् विविधांश्छागान् शशकानर्धभक्षितान्।
महिषानेकशल्यांश्च मेषांश्च कृतनिष्ठितान्॥१७॥
लेह्यानुच्चावचान् पेयान् भोज्यान्युच्चावचानि च।
तथाम्ललवणोत्तंसैर्विविधै रागखाण्डवैः॥१८॥

कृकल नामक पक्षी, भाँति-भाँति के बकरे, खरगोश, आधे खाये हुए भैंसे, एकशल्य नामक मत्स्य और भेड़ें ये सब-के-सब राँध-पकाकर रखे हुए थे। इनके साथ अनेक प्रकार की चटनियाँ भी थीं। भाँति-भाँति के पेय तथा भक्ष्य पदार्थ भी विद्यमान थे। जीभ की शिथिलता दूर करने के लिये खटाई और नमक के साथ भाँति-भाँति के राग* और खाण्डव भी रखे गये थे॥ १७-१८॥
* अंगूर और अनार के रस में मिश्री और मधु आदि मिलाने से जो मधुर रस तैयार होता है, वह पतला हो तो ‘राग’ कहलाता है और गाढ़ा हो जाय तो ‘खाण्डव’ नाम धारण करता है। जैसा कि कहा है

सितामध्वादिमधुरो द्राक्षादाडिमयो रसः।
विरलश्चेत् कृतो रागः सान्द्रश्चेत् खाण्डवः स्मृतः॥
महानपुरकेयूरैरपविद्धैर्महाधनैः।
पानभाजनविक्षिप्तैः फलैश्च विविधैरपि॥१९॥
कृतपुष्पोपहारा भूरधिकां पुष्यति श्रियम्।

बहुमूल्य बड़े-बड़े नूपुर और बाजूबंद जहाँ-तहाँ पड़े हुए थे। मद्यपान के पात्र इधर-उधर लुढ़काये हुए थे। भाँति-भाँति के फल भी बिखरे पड़े थे। इन सबसे उपलक्षित होने वाली वह पानभूमि, जिसे फूलों से सजाया गया था, अधिक शोभा का पोषण एवं संवर्धन कर रही थी॥ १९ १/२॥

तत्र तत्र च विन्यस्तैः सुश्लिष्टशयनासनैः॥२०॥
पानभूमिर्विना वह्नि प्रदीप्तेवोपलक्ष्यते।

यत्र-तत्र रखी हुई सुदृढ़ शय्याओं और सुन्दर स्वर्णमय सिंहासनों से सुशोभित होने वाली वह मधुशाला ऐसी जगमगा रही थी कि बिना आग के ही जलती हुई-सी दिखायी देती थी॥ २० १/२॥

बहुप्रकारैर्विविधैर्वरसंस्कारसंस्कृतैः॥ २१॥
मांसैः कुशलसंयुक्तैः पानभूमिगतैः पृथक् ।
दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृतसुरा अपि॥२२॥
शर्करासवमाध्वीकाः पुष्पासवफलासवाः।
वासचूर्णैश्च विविधैर्मुष्टास्तैस्तैः पृथक् पृथक्॥२३॥

अच्छी छौंक-बघार से तैयार किये गये नाना प्रकार के विविध मांस चतुर रसोइयों द्वारा बनाये गये थे और उस पानभूमि में पृथक्-पृथक् सजाकर रखे गये थे। उनके साथ ही स्वच्छ दिव्य सुराएँ (जो कदम्ब आदि वृक्षों से स्वतः उत्पन्न हुई थीं) और कृत्रिम सुराएँ (जिन्हें शराब बनाने वाले लोग तैयार करते हैं) भी वहाँ रखी गयी थीं। उनमें शर्करासव, माध्वीक,२ पुष्पासवरे और फलासव भी थे। इन सबको नाना प्रकार के सुगन्धित चूर्णो से पृथक्-पृथक् वासित किया गया था॥ २१–२३॥ १. शर्करा से तैयार की हुई सुरा ‘शर्करासव’ कहलाती है। २. मधु से बनायी हुई ‘मदिरा’
३. महुआ के फूल से तथा अन्यान्य पुष्पों के मकरन्द से बनायी हुई सुरा को ‘पुष्पासव’ कहते हैं। ४. द्राक्षा आदि फलों के रससे तैयार की हुई ‘सुरा’।

संतता शुशुभे भूमिर्माल्यैश्च बहुसंस्थितैः।
हिरण्मयैश्च कलशैर्भाजनैः स्फाटिकैरपि॥२४॥
जाम्बूनदमयैश्चान्यैः करकैरभिसंवृता।

वहाँ अनेक स्थानों पर रखे हुए नाना प्रकार के फूलों, सुवर्णमय कलशों, स्फटिकमणि के पात्रों तथा जाम्बूनद के बने हुए अन्यान्य कमण्डलुओं से व्याप्त हुई वह पानभूमि बड़ी शोभा पा रही थी॥ २४ १/२ ।।

राजतेषु च कुम्भेषु जाम्बूनदमयेषु च ॥२५॥
पानश्रेष्ठां तथा भूमिं कपिस्तत्र ददर्श सः।

चाँदी और सोने के घड़ों में, जहाँ श्रेष्ठ पेय पदार्थ रखे थे, उस पानभूमि को कपिवर हनुमान जी ने वहाँ अच्छी तरह घूम-घूमकर देखा॥ २५ १/२॥

सोऽपश्यच्छातकुम्भानि सीधोर्मणिमयानि च॥२६॥
तानि तानि च पूर्णानि भाजनानि महाकपिः।

महाकपि पवनकुमार ने देखा, वहाँ मदिरा से भरे हुए सोने और मणियों के भिन्न-भिन्न पात्र रखे गये हैं। २६ १/२॥

क्वचिदर्धावशेषाणि क्वचित् पीतान्यशेषतः॥२७॥
क्वचिन्नैव प्रपीतानि पानानि स ददर्श ह।

किसी घड़े में आधी मदिरा शेष थी तो किसी घड़े की सारी-की-सारी पी ली गयी थी तथा किन्हीं किन्हीं घड़ों में रखे हुए मद्य सर्वथा पीये नहीं गये थे। हनुमान जी ने उन सबको देखा॥२७ १/२॥

क्वचिद् भक्ष्यांश्च विविधान् क्वचित् पानानि भागशः॥२८॥
क्वचिदर्धावशेषाणि पश्यन् वै विचचार ह।

कहीं नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थ और कहीं पीने की वस्तुएँ अलग-अलग रखी गयी थीं और कहीं उनमें से आधी-आधी सामग्री ही बची थी। उन सबको देखते हुए वे वहाँ सर्वत्र विचरने लगे॥ २८ १/२॥

शयनान्यत्र नारीणां शून्यानि बहुधा पुनः।
परस्परं समाश्लिष्य काश्चित् सुप्ता वरांगनाः॥२९॥

उस अन्तःपुर में स्त्रियों की बहुत-सी शय्याएँ सूनी पड़ी थीं और कितनी ही सुन्दरियाँ एक ही जगह एक-दूसरी का आलिंगन किये सो रही थीं॥ २९॥

काचिच्च वस्त्रमन्यस्या अपहृत्योपगुह्य च।
उपगम्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता॥३०॥

निद्रा के बल से पराजित हुई कोई अबला दूसरी स्त्री का वस्त्र उतारकर उसे धारण किये उसके पास जा उसी का आलिंगन करके सो गयी थी॥३०॥

तासामुच्छ्वासवातेन वस्त्रं माल्यं च गात्रजम्।
नात्यर्थं स्पन्दते चित्रं प्राप्य मन्दमिवानिलम्॥३१॥

उनकी साँस की हवा से उनके शरीर के विविध प्रकार के वस्त्र और पुष्पमाला आदि वस्तुएँ उसी तरह धीरे-धीरे हिल रही थीं, जैसे धीमी-धीमी वायु के चलने से हिला करती हैं॥३१॥

चन्दनस्य च शीतस्य सीधोर्मधुरसस्य च।
विविधस्य च माल्यस्य पुष्पस्य विविधस्य च॥३२॥
बहुधा मारुतस्तस्य गन्धं विविधमुदहन्।
स्नानानां चन्दनानां च धूपानां चैव मूर्च्छितः॥३३॥
प्रववौ सुरभिर्गन्धो विमाने पुष्पके तदा।

उस समय पुष्पकविमान में शीतल चन्दन, मद्य, मधुरस, विविध प्रकार की माला, भाँति-भाँति के पुष्प, स्नान-सामग्री, चन्दन और धूप की अनेक प्रकार की गन्धका भार वहन करती हुई सुगन्धित वायु सब ओर प्रवाहित हो रही थी॥ ३२-३३ १/२॥

श्यामावदातास्तत्रान्याः काश्चित् कृष्णा वरांगनाः॥३४॥
काश्चित् काञ्चनवर्णांग्यः प्रमदा राक्षसालये।

उस राक्षसराज के भवन में कोई साँवली, कोई गोरी, कोई काली और कोई सुवर्ण के समान कान्तिवाली सुन्दरी युवतियाँ सो रही थीं॥३४ १/२॥

तासां निद्रावशत्वाच्च मदनेन विमूर्च्छितम्॥३५॥
पद्मिनीनां प्रसुप्तानां रूपमासीद् यथैव हि।

निद्रा के वश में होने के कारण उनका काममोहितरूप मुँदे हुए मुखवाले कमलपुष्पों के समान जान पड़ता था॥

एवं सर्वमशेषेण रावणान्तःपुरं कपिः।
ददर्श स महातेजा न ददर्श च जानकीम्॥३६॥

इस प्रकार महातेजस्वी कपिवर हनुमान् ने रावण का सारा अन्तःपुर छान डाला तो भी वहाँ उन्हें जनकनन्दिनी सीता का दर्शन नहीं हुआ॥ ३६॥

निरीक्षमाणश्च ततस्ताः स्त्रियः स महाकपिः।
जगाम महतीं शंकां धर्मसाध्वसशंकितः॥ ३७॥

उन सोती हुई स्त्रियों को देखते-देखते महाकपि हनुमान् धर्म के भय से शंकित हो उठे। उनके हृदय में बड़ा भारी संदेह उपस्थित हो गया॥ ३७॥

परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम्।
इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति॥ ३८॥

वे सोचने लगे कि ‘इस तरह गाढ़ निद्रा में सोयी हुई परायी स्त्रियों को देखना अच्छा नहीं है। यह तो मेरे धर्म का अत्यन्त विनाश कर डालेगा॥ ३८॥

न हि मे परदाराणां दृष्टिविषयवर्तिनी।
अयं चात्र मया दृष्टः परदारपरिग्रहः॥३९॥

‘मेरी दृष्टि अबतक कभी परायी स्त्रियों पर नहीं पड़ी थी। यहीं आने पर मुझे परायी स्त्रियों का अपहरण करने वाले इस पापी रावण का भी दर्शन हुआ है (ऐसे पापी को देखना भी धर्म का लोप करने वाला होता है) ॥ ३९॥

तस्य प्रादुरभूच्चिन्ता पुनरन्या मनस्विनः।
निश्चितैकान्तचित्तस्य कार्यनिश्चयदर्शिनी॥४०॥

तदनन्तर मनस्वी हनुमान जी के मन में एक दूसरी विचारधारा उत्पन्न हुई। उनका चित्त अपने लक्ष्य में सुस्थिर था; अतः यह नयी विचारधारा उन्हें अपने कर्तव्य का ही निश्चय कराने वाली थी॥ ४०॥

कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः।
न तु मे मनसा किंचिद् वैकृत्यमुपपद्यते॥४१॥

(वे सोचने लगे—) ‘इसमें संदेह नहीं कि रावण की स्त्रियाँ निःशंक सो रही थीं और उसी अवस्था में मैंने उन सबको अच्छी तरह देखा है, तथापि मेरे मन में कोई विकार नहीं उत्पन्न हुआ है। ४१॥

मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने।
शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम्॥४२॥

‘सम्पूर्ण इन्द्रियों को शुभ और अशुभ अवस्थाओं में लगने की प्रेरणा देने में मन ही कारण है; किंतु मेरा वह मन पूर्णतः स्थिर है (उसका कहीं राग या द्वेष नहीं है; इसलिये मेरा यह परस्त्री-दर्शन धर्म का लोप करने वाला नहीं हो सकता) ॥ ४२ ॥

नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम्।
स्त्रियो हि स्त्रीषु दृश्यन्ते सदा सम्परिमार्गणे॥४३॥

‘विदेहनन्दिनी सीता को दूसरी जगह मैं ढूँढ़ भी तो नहीं सकता था; क्योंकि स्त्रियों को ढूँढ़ते समय उन्हें स्त्रियों के ही बीच में देखा जाता है॥४३॥

यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत् परिमार्गते।
न शक्यं प्रमदा नष्टा मृगीषु परिमार्गितुम्॥४४॥

‘जिस जीव की जो जाति होती है, उसीमें उसे खोजा जाता है। खोयी हुई युवती स्त्री को हरिनियों के बीच में नहीं ढूँढ़ा जा सकता है॥४४॥

तदिदं मार्गितं तावच्छुद्धेन मनसा मया।
रावणान्तःपुरं सर्वं दृश्यते न च जानकी॥४५॥

‘अतः मैंने रावण के इस सारे अन्तःपुर में शुद्ध हृदय से ही अन्वेषण किया है। किंतु यहाँ जानकी जी नहीं दिखायी देती हैं’॥ ४५ ॥

देवगन्धर्वकन्याश्च नागकन्याश्च वीर्यवान्।
अवेक्षमाणो हनुमान् नैवापश्यत जानकीम्॥४६॥

अन्तःपुर का निरीक्षण करते हुए पराक्रमी हनुमान् ने देवताओं, गन्धर्वो और नागों की कन्याओं को वहाँ देखा, किंतु जनकनन्दिनी सीता को नहीं देखा॥ ४६॥

तामपश्यन् कपिस्तत्र पश्यंश्चान्या वरस्त्रियः।
अपक्रम्य तदा वीरः प्रस्थातुमुपचक्रमे॥४७॥

दूसरी सुन्दरियों को देखते हुए वीर वानर हनुमान् ने जब वहाँ सीता को नहीं देखा, तब वे वहाँ से हटकर अन्यत्र जाने को उद्यत हुए॥४७॥

स भूयः सर्वतः श्रीमान् मारुतिर्यत्नमाश्रितः।
आपानभूमिमुत्सृज्य तां विचेतुं प्रचक्रमे॥४८॥

फिर तो श्रीमान् पवनकुमारने उस पानभूमि को छोड़कर अन्य सब स्थानों में उन्हें बड़े यत्न का आश्रय लेकर खोजना आरम्भ किया॥४८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकादशः सर्गः॥११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥११॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 11

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: