वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 13 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 13
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रयोदशः सर्गः (13)
(सीताजी के नाश की आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता, श्रीराम को सीता के न मिलने की सचना देने से अनर्थ की सम्भावना देख हनुमान का पुनः खोजने का विचार करना)
विमानात् तु स संक्रम्य प्राकारं हरियूथपः।
हनूमान् वेगवानासीद् यथा विद्युद् घनान्तरे॥१॥
वानरयूथपति हनुमान् विमान से उतरकर महल के परकोटे पर चढ़ आये। वहाँ आकर वे मेघमाला के अंक में चमकती हुई बिजली के समान बड़े वेग से इधर-उधर घूमने लगे* ॥ १॥
* घनमाला में विद्युत् की उपमा से यह ध्वनित होता है कि रावण का वह परकोटा इन्द्रनीलमणि का बना हुआ था और उस पर सुवर्ण के समान गौर कान्तिवाले हनुमान जी विद्युत् के समान प्रतीत होते थे।
सम्परिक्रम्य हनुमान् रावणस्य निवेशनान्।
अदृष्ट्वा जानकी सीतामब्रवीद् वचनं कपिः॥२॥
रावण के सभी घरों में एक बार पुनः चक्कर लगाकर जब कपिवर हनुमान जी ने जनकनन्दिनी सीता को नहीं देखा, तब वे मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे – ॥२॥
भूयिष्ठं लोलिता लंका रामस्य चरता प्रियम्।
न हि पश्यामि वैदेहीं सीतां सर्वांगशोभनाम्॥३॥
‘मैंने श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने के लिये कई बार लंका को छान डाला; किंतु सर्वांगसुन्दरी विदेहनन्दिनी सीता मुझे कहीं नहीं दिखायी देती हैं॥३॥
पल्वलानि तटाकानि सरांसि सरितस्तथा।
नद्योऽनूपवनान्ताश्च दुर्गाश्च धरणीधराः॥४॥
लोलिता वसुधा सर्वा न च पश्यामि जानकीम्।
‘मैंने यहाँ के छोटे तालाब, पोखरे, सरोवर, सरिताएँ, नदियाँ, पानी के आस-पास के जंगल तथा दुर्गम पहाड़- सब देख डाले। इस नगर के आसपास की सारी भूमि खोज डाली; किंतु कहीं भी मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ।
इह सम्पातिना सीता रावणस्य निवेशने।
आख्याता गृध्रराजेन न च सा दृश्यते न किम्॥
‘गृध्रराज सम्पाति ने तो सीताजी को यहाँ रावण के महल में ही बताया था। फिर भी न जाने क्यों वे यहाँ दिखायी नहीं देती हैं॥५॥
किं नु सीताथ वैदेही मैथिली जनकात्मजा।
उपतिष्ठेत विवशा रावणेन हृता बलात्॥६॥
‘क्या रावण के द्वारा बलपूर्वक हरकर लायी हुई विदेह-कुलनन्दिनी मिथिलेशकुमारी जनकदुलारी सीता कभी विवश होकर रावण की सेवा में उपस्थित हो सकती हैं (यह असम्भव है)॥६॥
क्षिप्रमुत्पततो मन्ये सीतामादाय रक्षसः।
बिभ्यतो रामबाणानामन्तरा पतिता भवेत्॥७॥
‘मैं तो समझता हूँ कि श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से भयभीत हो वह राक्षस जब सीता को लेकर शीघ्रतापूर्वक आकाश में उछला है, उस समय कहीं बीच में ही वे छूटकर गिर पड़ी हों॥ ७॥
अथवा ह्रियमाणायाः पथि सिद्धनिषेविते।
मन्ये पतितमार्याया हृदयं प्रेक्ष्य सागरम्॥८॥
‘अथवा यह भी सम्भव है कि जब आर्या सीता सिद्धसेवित आकाशमार्ग से ले जायी जाती रही हों, उस समय समुद्र को देखकर भय के मारे उनका हृदय ही फटकर नीचे गिर पड़ा हो॥८॥
रावणस्योरुवेगेन भुजाभ्यां पीडितेन च।
तया मन्ये विशालाक्ष्या त्यक्तं जीवितमार्यया॥९॥
‘अथवा यह भी मालूम होता है कि रावण के प्रबल वेग और उसकी भुजाओं के दृढ़ बन्धन से पीड़ित होकर विशाललोचना आर्या सीता ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया है॥९॥
उपर्युपरि सा नूनं सागरं क्रमतस्तदा।
विचेष्टमाना पतिता समुद्रे जनकात्मजा॥१०॥
‘ऐसा भी हो सकता है कि जिस समय रावण उन्हें समुद्र के ऊपर होकर ला रहा हो, उस समय जनककुमारी सीता छटपटाकर समुद्र में गिर पड़ी हों। अवश्य ऐसा ही हुआ होगा॥ १० ॥
आहो क्षुद्रेण चानेन रक्षन्ती शीलमात्मनः।
अबन्धुभक्षिता सीता रावणेन तपस्विनी॥११॥
अथवा राक्षसेन्द्रस्य पत्नीभिरसितेक्षणा।
अदुष्टा दुष्टभावाभिर्भक्षिता सा भविष्यति॥१२॥
‘अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि अपने शील की रक्षा में तत्पर हुई किसी सहायक बन्धु की सहायता से वञ्चित तपस्विनी सीता को इस नीच रावण ने ही खा लिया हो अथवा मन में दुष्ट भावना रखने वाली राक्षसराज रावण की पत्नियों ने ही कजरारे नेत्रोंवाली साध्वी सीता को अपना आहार बना लिया होगा। ११-१२॥
सम्पूर्णचन्द्रप्रतिमं पद्मपत्रनिभेक्षणम्।
रामस्य ध्यायती वक्त्रं पञ्चत्वं कृपणा गता॥१३॥
‘हाय! श्रीरामचन्द्रजी के पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर तथा प्रफुल्ल कमलदल के सदृश नेत्रवाले मुख का चिन्तन करती हुई दयनीया सीता इस संसार से चल बसीं॥ १३॥
हा राम लक्ष्मणेत्येवं हायोध्ये चेति मैथिली।
विलप्य बहु वैदेही न्यस्तदेहा भविष्यति॥१४॥
‘हा राम! हा लक्ष्मण! हा अयोध्यापुरी! इस प्रकार पुकार-पुकारकर बहुत विलाप करके मिथिलेशकुमारी विदेहनन्दिनी सीता ने अपने शरीर को त्याग दिया होगा॥१४॥
अथवा निहिता मन्ये रावणस्य निवेशने।
भृशं लालप्यते बाला पञ्जरस्थेव सारिका॥१५॥
‘अथवा मेरी समझ में यह आता है कि वे रावण के ही किसी गुप्त गृह में छिपाकर रखी गयी हैं। हाय! वहाँ वह बाला पीजरे में बन्द हुई मैना की तरह बारम्बार आर्तनाद करती होगी॥ १५ ॥
जनकस्य कुले जाता रामपत्नी सुमध्यमा।
कथमुत्पलपत्राक्षी रावणस्य वशं व्रजेत्॥१६॥
‘जो जनक के कुल में उत्पन्न हुई हैं और श्रीरामचन्द्रजी की धर्मपत्नी हैं, वे नील कमल के-से नेत्रोंवाली सुमध्यमा सीता रावण के अधीन कैसे हो सकती हैं ? ॥ १६॥
विनष्टा वा प्रणष्टा वा मृता वा जनकात्मजा।
रामस्य प्रियभार्यस्य न निवेदयितुं क्षमम्॥१७॥
‘जनककिशोरी सीता चाहे गुप्त गृह में अदृश्य करके रखी गयी हों, चाहे समुद् रमें गिरकर प्राणों से हाथ धो बैठी हों अथवा श्रीरामचन्द्रजी के विरह का कष्ट न सह सकने के कारण उन्होंने मृत्यु की शरण ली हो, किसी भी दशा में श्रीरामचन्द्रजी को इस बात की सूचना देना उचित न होगा; क्योंकि वे अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते हैं।
निवेद्यमाने दोषः स्याद् दोषः स्यादनिवेदने।
कथं नु खलु कर्तव्यं विषमं प्रतिभाति मे॥१८॥
‘इस समाचार के बताने में भी दोष है और न बताने में भी दोष की सम्भावना है, ऐसी दशा में किस उपाय से काम लेना चाहिये? मुझे तो बताना और न बताना—दोनों ही दुष्कर प्रतीत होते हैं॥ १८॥
अस्मिन् नेवंगते कार्ये प्राप्तकालं क्षमं च किम्।
भवेदिति मतिं भूयो हनुमान् प्रविचारयन्॥१९॥
‘ऐसी दशा में जब कोई भी कार्य करना दुष्कर प्रतीत होता है, तब मेरे लिये इस समय के अनुसार क्या करना उचित होगा?’ इन्हीं बातों पर हनुमान जी बारम्बार विचार करने लगे॥ १९॥
यदि सीतामदृष्ट्वाहं वानरेन्द्रपुरीमितः।
गमिष्यामि ततः को मे पुरुषार्थो भविष्यति॥२०॥
(उन्होंने फिर सोचा—) ‘यदि मैं सीताजी को देखे बिना ही यहाँ से वानरराज की पुरी किष्किन्धा को लौट जाऊँगा तो मेरा पुरुषार्थ ही क्या रह जायगा? ॥ २० ॥
ममेदं लङ्घनं व्यर्थं सागरस्य भविष्यति।
प्रवेशश्चैव लंकायां राक्षसानां च दर्शनम्॥२१॥
‘फिर तो मेरा यह समुद्रलंघन, लंका में प्रवेश और राक्षसों को देखना सब व्यर्थ हो जायगा॥२१॥
किं वा वक्ष्यति सुग्रीवो हरयो वापि संगताः।
किष्किन्धामनुसम्प्राप्तं तौ वा दशरथात्मजौ॥२२॥
‘किष्किन्धा में पहुँचने पर मुझसे मिलकर सुग्रीव, दूसरे-दूसरे वानर तथा वे दोनों दशरथराजकुमार भी क्या कहेंगे? ॥ २२॥
गत्वा तु यदि काकुत्स्थं वक्ष्यामि परुषं वचः।
न दृष्टेति मया सीता ततस्त्यक्ष्यति जीवितम्॥२३॥
‘यदि वहाँ जाकर मैं श्रीरामचन्द्रजी से यह कठोर बात कह दूँ कि मुझे सीता का दर्शन नहीं हुआ तो वे प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ २३॥
परुषं दारुणं तीक्ष्णं क्रूरमिन्द्रियतापनम्।
सीतानिमित्तं दुर्वाक्यं श्रुत्वा स न भविष्यति॥२४॥
‘सीताजी के विषय में ऐसे रूखे, कठोर, तीखे और इन्द्रियों को संताप देने वाले दुर्वचन को सुनकर वे कदापि जीवित नहीं रहेंगे॥२४॥
तं तु कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा पञ्चत्वगतमानसम्।
भृशानुरक्तमेधावी न भविष्यति लक्ष्मणः॥ २५॥
‘उन्हें संकट में पड़कर प्राणों के परित्याग का संकल्प करते देख उनके प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् लक्ष्मण भी जीवित नहीं रहेंगे॥ २५ ॥
विनष्टौ भ्रातरौ श्रुत्वा भरतोऽपि मरिष्यति।
भरतं च मृतं दृष्ट्वा शत्रुघ्नो न भविष्यति॥२६॥
‘अपने इन दो भाइयों के विनाश का समाचार सुनकर भरत भी प्राण त्याग देंगे और भरत की मृत्यु देखकर शत्रुघ्न भी जीवित नहीं रह सकेंगे॥२६॥
पुत्रान् मृतान् समीक्ष्याथ न भविष्यन्ति मातरः।
कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च न संशयः॥२७॥
‘इस प्रकार चारों पुत्रोंकी मृत्यु हुई देख कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी ये तीनों माताएँ भी निस्संदेह प्राण दे देंगी॥ २७॥
कृतज्ञः सत्यसंधश्च सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
रामं तथागतं दृष्ट्वा ततस्त्यक्ष्यति जीवितम्॥२८॥
‘कृतज्ञ और सत्यप्रतिज्ञ वानरराज सुग्रीव भी जब श्रीरामचन्द्रजी को ऐसी अवस्था में देखेंगे तो स्वयं भी प्राणविसर्जन कर देंगे॥ २८॥
दुर्मना व्यथिता दीना निरानन्दा तपस्विनी।
पीडिता भर्तृशोकेन रुमा त्यक्ष्यति जीवितम्॥२९॥
‘तत्पश्चात् पतिशोक से पीड़ित हो दुःखितचित्त, दीन, व्यथित और आनन्दशून्य हुई तपस्विनी रुमा भी जान दे देगी॥ २९॥
वालिजेन तु दुःखेन पीडिता शोककर्शिता।
पञ्चत्वमागता राज्ञी तारापि न भविष्यति॥३०॥
‘फिर तो रानी तारा भी जीवित नहीं रहेंगी। वे वाली के विरहजनित दुःख से तो पीड़ित थी ही, इस नूतन शोक से कातर हो शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँगी॥३०॥
मातापित्रोविनाशेन सुग्रीवव्यसनेन च।
कुमारोऽप्यंगदस्तस्माद् विजहिष्यति जीवितम्॥३१॥
‘माता-पिता के विनाश और सुग्रीव के मरणजनित संकट से पीड़ित हो कुमार अंगद भी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ ३१॥
भर्तृजेन तु दुःखेन अभिभूता वनौकसः।
शिरांस्यभिहनिष्यन्ति तलैर्मुष्टिभिरेव च ॥३२॥
सान्त्वेनानुप्रदानेन मानेन च यशस्विना।
लालिताः कपिनाथेन प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति वानराः॥
‘तदनन्तर स्वामी के दुःख से पीड़ित हुए सारे वानर अपने हाथों और मुक्कों से सिर पीटने लगेंगे। यशस्वी वानरराज ने सान्त्वनापूर्ण वचनों और दान-मान से जिनका लालन-पालन किया था, वे वानर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥ ३२-३३॥
न वनेषु न शैलेषु न निरोधेषु वा पुनः।
क्रीडामनुभविष्यन्ति समेत्य कपिकुञ्जराः॥३४॥
‘ऐसी अवस्था में शेष वानर वनों, पर्वतों और गुफाओं में एकत्र होकर फिर कभी क्रीड़ा-विहार का आनन्द नहीं लेंगे॥३४॥
सपुत्रदाराः सामात्या भर्तृव्यसनपीडिताः।
शैलाग्रेभ्यः पतिष्यन्ति समेषु विषमेषु च॥३५॥
‘अपने राजा के शोक से पीड़ित हो सब वानर अपने पुत्र, स्त्री और मन्त्रियोंसहित पर्वतों के शिखरों से नीचे सम अथवा विषम स्थानों में गिरकर प्राण दे देंगे।
विषमुद्बन्धनं वापि प्रवेशं ज्वलनस्य वा।
उपवासमथो शस्त्रं प्रचरिष्यन्ति वानराः॥३६॥
‘अथवा सारे विष पी लेंगे या फाँसी लगा लेंगे या जलती आग में प्रवेश कर जायेंगे। उपवास करने लगेंगे अथवा अपने ही शरीर में छुरा भोंक लेंगे॥ ३६॥
घोरमारोदनं मन्ये गते मयि भविष्यति।
इक्ष्वाकुकुलनाशश्च नाशश्चैव वनौकसाम्॥३७॥
‘मेरे वहाँ जाने पर मैं समझता हूँ बड़ा भयंकर आर्तनाद होने लगेगा। इक्ष्वाकुकुल का नाश और वानरों का भी विनाश हो जायगा॥ ३७॥
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्किन्धां नगरीमितः।
नहि शक्ष्याम्यहं द्रष्टुं सुग्रीवं मैथिली विना॥३८॥
‘इसलिये मैं यहाँ से किष्किन्धापुरी को तो नहीं जाऊँगा। मिथिलेशकुमारी सीता को देखे बिना मैं सुग्रीव का भी दर्शन नहीं कर सकूँगा॥ ३८॥
मय्यगच्छति चेहस्थे धर्मात्मानौ महारथौ।
आशया तौ धरिष्येते वानराश्च तरस्विनः॥३९॥
‘यदि मैं यहीं रहूँ और वहाँ न जाऊँ तो मेरी आशा लगाये वे दोनों धर्मात्मा महारथी बन्धु प्राण धारण किये रहेंगे और वे वेगशाली वानर भी जीवित रहेंगे। ३९॥
हस्तादानो मुखादानो नियतो वृक्षमूलिकः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्॥४०॥
‘जानकीजी का दर्शन न मिलने पर मैं यहाँ वानप्रस्थी हो जाऊँगा। मेरे हाथ पर अपने-आप जो फल आदि खाद्य वस्तु प्राप्त हो जायगी, उसी को खाकर रहूँगा या परेच्छा से मेरे मुँह में जो फल आदि खाद्य वस्तु पड़ जायगी, उसी से निर्वाह करूँगा तथा शौच, संतोष आदि नियमों के पालनपूर्वक वृक्ष के नीचे निवास करूँगा॥ ४०॥
सागरानूपजे देशे बहुमूलफलोदके।
चितिं कृत्वा प्रवेक्ष्यामि समिद्धमरणीसुतम्॥४१॥
‘अथवा सागरतटवर्ती स्थान में, जहाँ फल-मूल और जल की अधिकता होती है, मैं चिता बनाकर जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा॥ ४१॥
उपविष्टस्य वा सम्यग् लिंगिनं साधयिष्यतः।
शरीरं भक्षयिष्यन्ति वायसाः श्वापदानि च॥४२॥
‘अथवा आमरण उपवास के लिये बैठकर लिंगशरीरधारी जीवात्मा का शरीर से वियोग कराने के प्रयत्न में लगे हुए मेरे शरीर को कौवे तथा हिंसक जन्तु अपना आहार बना लेंगे॥ ४२ ॥
इदमप्यषिभिर्दृष्टं निर्याणमिति मे मतिः।
सम्यगापः प्रवेक्ष्यामि न चेत् पश्यामि जानकीम्॥४३॥
‘यदि मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ तो मैं खुशी-खुशी जल-समाधि ले लूँगा। मेरे विचार से इस तरह जल-प्रवेश करके परलोकगमन करना ऋषियों की दृष्टि में भी उत्तम ही है॥ ४३॥
सुजातमूला सुभगा कीर्तिमाला यशस्विनी।
प्रभग्ना चिररात्राय मम सीतामपश्यतः॥४४॥
‘जिसका प्रारम्भ शुभ है, ऐसी सुभगा, यशस्विनी और मेरी कीर्तिमालारूपा यह दीर्घ रात्रि भी सीताजी को देखे बिना ही बीत चली॥४४॥
तापसो वा भविष्यामि नियतो वृक्षमूलिकः।
नेतः प्रतिगमिष्यामि तामदृष्ट्वासितेक्षणाम्॥४५॥
‘अथवा अब मैं नियमपूर्वक वृक्षके नीचे निवास करनेवाला तपस्वी हो जाऊँगा; किंतु उस असितलोचना सीताको देखे बिना यहाँसे कदापि नहीं लौटूंगा॥ ४५ ॥
यदि तु प्रतिगच्छामि सीतामनधिगम्य ताम्।
अंगदः सहितः सर्वैर्वानरैर्न भविष्यति॥४६॥
‘यदि सीता का पता लगाये बिना ही मैं लौट जाऊँ तो समस्त वानरोंसहित अंगद जीवित नहीं रहेंगे। ४६॥
विनाशे बहवो दोषा जीवन् प्राप्नोति भद्रकम्।
तस्मात् प्राणान् धरिष्यामि ध्रुवो जीवति संगमः॥४७॥
‘इस जीवन का नाश कर देने में बहुत-से दोष हैं। जो पुरुष जीवित रहता है, वह कभी-न-कभी अवश्य कल्याण का भागी होता है; अतः मैं इन प्राणों को धारण किये रहूँगा। जीवित रहने पर अभीष्ट वस्तु अथवा सुख की प्राप्ति अवश्यम्भावी है’॥४७॥
एवं बहुविधं दुःखं मनसा धारयन् बहु।
नाध्यगच्छत् तदा पारं शोकस्य कपिकुञ्जरः॥४८॥
इस तरह मन में अनेक प्रकार के दुःख धारण किये कपिकुञ्जर हनुमान जी शोक का पार न पा सके।४८॥
ततो विक्रममासाद्य धैर्यवान् कपिकुञ्जरः।
रावणं वा वधिष्यामि दशग्रीवं महाबलम्।
काममस्तु हृता सीता प्रत्याचीर्णं भविष्यति॥४९॥
तदनन्तर धैर्यवान् कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने पराक्रम का सहारा लेकर सोचा-‘अथवा महाबली दशमुख रावण का ही वध क्यों न कर डालूँ। भले ही सीता का अपहरण हो गया हो, इस रावण को मार डालने से उस वैर का भरपूर बदला सध जायगा॥४९॥
अथवैनं समुत्क्षिप्य उपर्युपरि सागरम्।
रामायोपहरिष्यामि पशुं पशुपतेरिव॥५०॥
अथवा इसे उठाकर समुद्र के ऊपर-ऊपर से ले जाऊँ और जैसे पशुपति (रुद्र या अग्नि)-को पशु अर्पित किया जाय, उसी प्रकार श्रीराम के हाथ में इसको सौंप दूं’। ५०॥
इति चिन्तासमापन्नः सीतामनधिगम्य ताम्।
ध्यानशोकपरीतात्मा चिन्तयामास वानरः॥५१॥
इस प्रकार सीताजी को न पाकर वे चिन्ता में निमग्न हो गये। उनका मन सीता के ध्यान और शोक में डूब गया। फिर वे वानरवीर इस प्रकार विचार करने लगे – ॥५१॥
यावत् सीतां न पश्यामि रामपत्नीं यशस्विनीम्।
तावदेतां पुरी लंकां विचिनोमि पुनः पुनः॥५२॥
‘जब तक मैं यशस्विनी श्रीराम-पत्नी सीता का दर्शन न कर लूँगा, तब तक इस लंकापुरी में बारंबार उनकी खोज करता रहूँगा॥५२॥
सम्पातिवचनाच्चापि रामं यद्यानयाम्यहम्।
अपश्यन् राघवो भार्यां निर्दहेत् सर्ववानरान्॥५३॥
‘यदि सम्पाति के कहने से भी मैं श्रीराम को यहाँ बुला ले आऊँ तो अपनी पत्नी को यहाँ न देखने पर श्रीरघुनाथजी समस्त वानरों को जलाकर भस्म कर देंगे॥ ५३॥
इहैव नियताहारो वत्स्यामि नियतेन्द्रियः।
न मत्कृते विनश्येयुः सर्वे ते नरवानराः॥५४॥
‘अतः यहीं नियमित आहार और इन्द्रियों के संयमपूर्वक निवास करूँगा। मेरे कारण वे समस्त नर और वानर नष्ट न हों॥ ५४॥
अशोकवनिका चापि महतीयं महाद्रुमा।
इमामधिगमिष्यामि नहीयं विचिता मया॥५५॥
‘इधर यह बहुत बड़ी अशोकवाटिका है, इसके भीतर बड़े-बड़े वृक्ष हैं। इसमें मैंने अभीतक अनुसंधान नहीं किया है, अतः अब इसी में चलकर ढूँढंगा॥ ५५॥
वसून् रुद्रांस्तथाऽऽदित्यानश्विनौ मरुतोऽपि च।
नमस्कृत्वा गमिष्यामि रक्षसां शोकवर्धनः॥५६॥
‘राक्षसों के शोक को बढ़ाने वाला मैं यहाँ से वसु, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और मरुद्गणों को नमस्कार करके अशोकवाटिका में चलूँगा॥५६॥
जित्वा तु राक्षसान् देवीमिक्ष्वाकुकुलनन्दिनीम्।
सम्प्रदास्यामि रामाय सिद्धीमिव तपस्विने ॥५७॥
‘वहाँ समस्त राक्षसों को जीतकर जैसे तपस्वी को सिद्धि प्रदान की जाती है, इसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के हाथ में इक्ष्वाकुकुल को आनन्दित करने वाली देवी सीता को सौंप दूंगा’। ५७॥
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा चिन्ताविग्रथितेन्द्रियः।
उदतिष्ठन् महाबाहुर्हनूमान् मारुतात्मजः॥५८॥
नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै।
नमोऽस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो नमोऽस्तु चन्द्राग्निमरुद्गणेभ्यः॥५९॥
इस प्रकार दो घड़ी तक सोच-विचारकर चिन्ता से शिथिल इन्द्रियवाले महाबाहु पवनकुमार हनुमान् सहसा उठकर खड़े हो गये (और देवताओं को नमस्कार करते हुए बोले-) ‘लक्ष्मणसहित श्रीराम को नमस्कार है। जनकनन्दिनी सीता देवी को भी नमस्कार है। रुद्र, इन्द्र, यम और वायु देवता को नमस्कार है तथा चन्द्रमा, अग्नि एवं मरुद्गणों को भी नमस्कार है’॥ ५८-५९॥
स तेभ्यस्तु नमस्कृत्वा सुग्रीवाय च मारुतिः।
दिशः सर्वाः समालोक्य सोऽशोकवनिकां प्रति॥६०॥
इस प्रकार उन सबको तथा सुग्रीव को भी नमस्कार करके पवनकुमार हनुमान जी सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात करके अशोकवाटिका में जाने को उद्यत हुए। ६०॥
स गत्वा मनसा पूर्वमशोकवनिकां शुभाम्।
उत्तरं चिन्तयामास वानरो मारुतात्मजः॥६१॥
उन वानरवीर पवनकुमार ने पहले मन के द्वारा ही उस सुन्दर अशोक-वाटिका में जाकर भावी कर्तव्य का इस प्रकार चिन्तन किया॥६१॥
ध्रुवं तु रक्षोबहुला भविष्यति वनाकुला।
अशोकवनिका पुण्या सर्वसंस्कारसंस्कृता॥६२॥
‘वह पुण्यमयी अशोकवाटिका सींचने-कोड़ने आदि सब प्रकार के संस्कारों से सँवारी गयी है। वह दूसरे-दूसरे वनों से भी घिरी हुई है; अतः उसकी रक्षा के लिये वहाँ निश्चय ही बहुत-से राक्षस तैनात किये गये होंगे॥ ६२॥
रक्षिणश्चात्र विहिता नूनं रक्षन्ति पादपान्।
भगवानपि विश्वात्मा नातिक्षोभं प्रवायति॥६३॥
‘राक्षसराज के नियुक्त किये हुए रक्षक अवश्य ही वहाँ के वृक्षों की रक्षा करते होंगे; इसलिये जगत् के प्राणस्वरूप भगवान् वायुदेव भी वहाँ अधिक वेग से नहीं बहते होंगे॥६३॥
संक्षिप्तोऽयं मयाऽऽत्मा च रामार्थे रावणस्य च।
सिद्धिं दिशन्तु मे सर्वे देवाः सर्षिगणास्त्विह॥६४॥
‘मैंने श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि तथा रावण से अदृश्य रहने के लिये अपने शरीर को संकुचित करके छोटा बना लिया है। मुझे इस कार्य में ऋषियोंसहित समस्त देवता सिद्धि–सफलता प्रदान करें। ६४॥
ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् देवाश्चैव तपस्विनः।
सिद्धिमग्निश्च वायुश्च पुरुहूतश्च वज्रभृत्॥६५॥
‘स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा, अन्य देवगण, तपोनिष्ठ महर्षि, अग्निदेव, वायु तथा वज्रधारी इन्द्र भी मुझे सफलता प्रदान करें॥६५॥
वरुणः पाशहस्तश्च सोमादित्यौ तथैव च।
अश्विनौ च महात्मानौ मरुतः सर्व एव च॥६६॥
सिद्धिं सर्वाणि भूतानि भूतानां चैव यः प्रभुः।
दास्यन्ति मम ये चान्येऽप्यदृष्टाः पथि गोचराः॥६७॥
‘पाशधारी वरुण, सोम, आदित्य, महात्मा अश्विनी-कुमार, समस्त मरुद्गण, सम्पूर्ण भूत और भूतों के अधिपति तथा और भी जो मार्ग में दीखने वाले एवं न दीखने वाले देवता हैं, वे सब मुझे सिद्धि प्रदान करेंगे॥६६-६७॥
तदुन्नसं पाण्डुरदन्तमव्रणं शुचिस्मितं पद्मपलाशलोचनम्।
द्रक्ष्ये तदार्यावदनं कदा न्वहं प्रसन्नताराधिपतुल्यवर्चसम्॥६८॥
‘जिसकी नाक ऊँची और दाँत सफेद हैं, जिसमें चेचक आदि के दाग नहीं हैं, जहाँ पवित्र मुसकान की छटा छायी रहती है, जिसके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान सुशोभित होते हैं तथा जो निष्कलंक
कलाधर के तुल्य कमनीय कान्ति से युक्त है, वह आर्या सीता का मुख मुझे कब दिखायी देगा?॥ ६८॥
क्षुद्रेण हीनेन नृशंसमूर्तिना सुदारुणालंकृतवेषधारिणा।
बलाभिभूता ह्यबला तपस्विनी कथं नु मे दृष्टिपथेऽद्य सा भवेत्॥६९॥
‘इस क्षुद्र, नीच, नृशंसरूपधारी और अत्यन्त दारुण होने पर भी अलंकारयुक्त विश्वसनीय वेष धारण करने वाले रावण ने उस तपस्विनी अबला को बलात् अपने अधीन कर लिया है। अब किस प्रकार वह मेरे दृष्टिपथ में आ सकती हैं?’ ॥ ६९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रयोदशः सर्गः॥१३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१३॥
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