वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 14 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 14
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चतुर्दशः सर्गः (14)
(हनुमान जी का अशोकवाटिका में प्रवेश करके उसकी शोभा देखना तथा एक अशोकवृक्ष पर छिपे रहकर वहीं से सीता का अनुसन्धान करना)
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा मनसा चाधिगम्य ताम्।
अवप्लुतो महातेजाः प्राकारं तस्य वेश्मनः॥१॥
महातेजस्वी हनुमान् जी एक मुहूर्ततक इसी प्रकार विचार करते रहे। तत्पश्चात् मन-ही-मन सीताजी का ध्यान करके वे रावण के महल से कूद पड़े और अशोकवाटिका की चहारदीवारी पर चढ़ गये॥१॥
स तु संहृष्टसर्वांगः प्राकारस्थो महाकपिः।
पुष्पिताग्रान् वसन्तादौ ददर्श विविधान् द्रुमान्॥
उस चहारदीवारी पर बैठे हुए महाकपि हनुमान् जी के सारे अंगों में हर्षजनित रोमाञ्च हो आया। उन्होंने वसन्त के आरम्भ में वहाँ नाना प्रकार के वृक्ष देखे, जिनकी डालियों के अग्रभाग फूलों के भार से लदे थे॥ २॥
सालानशोकान् भव्यांश्च चम्पकांश्च सुपुष्पितान्।
उद्दालकान् नागवृक्षांश्चूतान् कपिमुखानपि॥३॥
तथाऽऽम्रवणसम्पन्नॉल्लताशतसमन्वितान्।
ज्यामुक्त इव नाराचः पुप्लुवे वृक्षवाटिकाम्॥४॥
वहाँ साल, अशोक, निम्ब और चम्पा के वृक्ष खूब खिले हुए थे। बहुवार, नागकेसर और बन्दर के मुँह की भाँति लाल फल देने वाले आम भी पुष्प एवं मञ्जरियों से सुशोभित हो रहे थे। अमराइयों से युक्त वे सभी वृक्ष शत-शत लताओं से आवेष्टित थे। हनुमान् जी प्रत्यञ्चा से छूटे हुए बाण के समान उछले और उन वृक्षों की वाटिका में जा पहुँचे॥३-४॥
स प्रविश्य विचित्रां तां विहगैरभिनादिताम्।
राजतैः काञ्चनैश्चैव पादपैः सर्वतो वृताम्॥५॥
विहगैगसङ्घश्च विचित्रां चित्रकाननाम्।
उदितादित्यसंकाशां ददर्श हनुमान् बली॥६॥
वह विचित्र वाटिका सोने और चाँदी के समान वर्णवाले वृक्षों द्वारा सब ओर से घिरी हुई थी। उसमें नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे, जिससे वह सारी वाटिका गूंज रही थी। उसके भीतर प्रवेश करके बलवान् हनुमान जी ने उसका निरीक्षण किया। भाँतिभाँति के विहंगमों और मृगसमूहों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। वह विचित्र काननों से अलंकृत थी और नवोदित सूर्य के समान अरुण रंग की दिखायी देती थी॥
वृतां नानाविधैर्वृक्षैः पुष्पोपगफलोपगैः।
कोकिलै ङ्गराजैश्च मत्तैर्नित्यनिषेविताम्॥७॥
फूलों और फलों से लदे हुए नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त हुई उस अशोकवाटिका का मतवाले कोकिल और भ्रमर सेवन करते थे॥७॥
प्रहृष्टमनुजां काले मृगपक्षिमदाकुलाम्।
मत्तबर्हिणसंघुष्टां नानाद्विजगणायुताम्॥८॥
वह वाटिका ऐसी थी, जहाँ जाने से हर समय लोगों के मन में प्रसन्नता होती थी। मृग और पक्षी मदमत्त हो उठते थे। मतवाले मोरों का कलनाद वहाँ निरन्तर गूंजता रहता था और नाना प्रकार के पक्षी वहाँ निवास करते थे॥ ८॥
मार्गमाणो वरारोहां राजपुत्रीमनिन्दिताम्।
सुखप्रसुप्तान् विहगान् बोधयामास वानरः॥९॥
उस वाटिका में सती-साध्वी सुन्दरी राजकुमारी सीता की खोज करते हुए वानरवीर हनुमान् ने घोंसलों में सुखपूर्वक सोये हुए पक्षियों को जगा दिया।
उत्पतद्भिर्द्धिजगणैः पक्षैर्वातैः समाहताः।
अनेकवर्णा विविधा मुमुचुः पुष्पवृष्टयः॥१०॥
उड़ते हुए विहंगमों के पंखों की हवा लगने से वहाँ के वृक्ष अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों की वर्षा करने लगे॥
पुष्पावकीर्णः शुशुभे हनूमान् मारुतात्मजः।
अशोकवनिकामध्ये यथा पुष्पमयो गिरिः॥११॥
उस समय पवनकुमार हनुमान जी उन फूलों से आच्छादित होकर ऐसी शोभा पाने लगे, मानो उस अशोक वन में कोई फूलों का बना हुआ पहाड़ शोभा पा रहा हो॥११॥
दिशः सर्वाभिधावन्तं वृक्षखण्डगतं कपिम्।
दृष्ट्वा सर्वाणि भूतानि वसन्त इति मेनिरे॥१२॥
सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ते और वृक्षसमूहों में घूमते हुए कपिवर हनुमान जी को देखकर समस्त प्राणी एवं राक्षस ऐसा मानने लगे कि साक्षात् ऋतुराज वसन्त ही यहाँ वानरवेश में विचर रहा है॥ १२ ॥
वृक्षेभ्यः पतितैः पुष्पैरवकीर्णाः पृथग्विधैः।
रराज वसुधा तत्र प्रमदेव विभूषिता॥१३॥
वृक्षों से झड़कर गिरे हुए भाँति-भाँति के फूलों से आच्छादित हुई वहाँ की भूमि फूलों के शृंगार से विभूषित हुई युवती स्त्री के समान शोभा पाने लगी। १३॥
तरस्विना ते तरवस्तरसा बहु कम्पिताः।
कुसुमानि विचित्राणि ससृजुः कपिना तदा॥१४॥
उस समय उन वेगशाली वानरवीर के द्वारा वेगपूर्वक बारंबार हिलाये हुए वे वृक्ष विचित्र पुष्पों की वर्षा कर रहे थे॥१४॥
निर्धूतपत्रशिखराः शीर्णपुष्पफलद्रुमाः।
निक्षिप्तवस्त्राभरणा धूर्ता इव पराजिताः॥१५॥
इस प्रकार डालियों के पत्ते झड़ जाने तथा फलफूल और पल्लवों के टूटकर बिखर जाने से नंग-धडंग दिखायी देने वाले वे वृक्ष उन हारे हुए जुआरियों के समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपने गहने और कपड़े भी दावॅ पर रख दिये हों॥ १५॥
हनूमता वेगवता कम्पितास्ते नगोत्तमाः।
पुष्पपत्रफलान्याशु मुमुचुः फलशालिनः॥१६॥
वेगशाली हनुमान जी के हिलाये हुए वे फलशाली श्रेष्ठ वृक्ष तुरंत ही अपने फल-फूल और पत्तों का परित्याग कर देते थे॥ १६॥
विहंगसङ्घहीनास्ते स्कन्धमात्राश्रया द्रुमाः।
बभूवुरगमाः सर्वे मारुतेन विनिर्धताः॥१७॥
पवनपुत्र हनुमान् द्वारा कम्पित किये गये वे वृक्ष फल-फूल आदि के न होने से केवल डालियों के आश्रय बने हुए थे; पक्षियों के समुदाय भी उन्हें छोड़कर चल दिये थे। उस अवस्था में वे सब-के-सब प्राणिमात्र के लिये अगम्य (असेवनीय) हो गये थे।१७॥
विधूतकेशी युवतिर्यथा मृदितवर्णका।
निपीतशुभदन्तोष्ठी नखैर्दन्तैश्च विक्षता॥१८॥
तथा लांगूलहस्तैस्तु चरणाभ्यां च मर्दिता।
तथैवाशोकवनिका प्रभग्नवनपादपा॥१९॥
जिसके केश खुल गये हैं, अंगराग मिट गये हैं, सुन्दर दन्तावली से युक्त अधर-सुधा का पान कर लिया गया है तथा जिसके कतिपय अंग नखक्षत एवं दन्तक्षत से उपलक्षित हो रहे हैं, प्रियतम के उपभोग में आयी हुई उस युवती के समान ही उस अशोकवाटिका की भी दशा हो रही थी। हनुमान जी के हाथ-पैर और पूँछ से रौंदी जा चुकी थी तथा उसके अच्छे-अच्छे वृक्ष टूटकर गिर गये थे; इसलिये वह श्रीहीन हो गयी थी॥ १८-१९ ॥
महालतानां दामानि व्यधमत् तरसा कपिः।
यथा प्रावृषि वेगेन मेघजालानि मारुतः॥२०॥
जैसे वायु वर्षा-ऋतु में अपने वेग से मेघसमूहों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार कपिवर हनुमान् ने वहाँ फैली हुई विशाल लता-वल्लरियों के वितान वेगपूर्वक तोड़ डाले ॥२०॥
स तत्र मणिभूमीश्च राजतीश्च मनोरमाः।
तथा काञ्चनभूमीश्च विचरन् ददृशे कपिः॥२१॥
वहाँ विचरते हुए उन वानरवीर ने पृथक्-पृथक् ऐसी मनोरम भूमियों का दर्शन किया, जिनमें मणि, चाँदी एवं सोने जड़े गये थे॥२१॥
वापीश्च विविधाकाराः पूर्णाः परमवारिणा।
महामणिसोपानरुपपन्नास्ततस्ततः॥२२॥
मुक्ताप्रवालसिकताः स्फाटिकान्तरकुट्टिमाः।
काञ्चनैस्तरुभिश्चित्रैस्तीरजैरुपशोभिताः॥२३॥
उस वाटिका में उन्होंने जहाँ-तहाँ विभिन्न आकारों की बावड़ियाँ देखीं, जो उत्तम जल से भरी हुईं और मणिमय सोपानों से युक्त थीं। उनके भीतर मोती और मूंगों की बालुकाएँ थीं। जल के नीचे की फर्श स्फटिक मणि की बनी हुई थी और उन बावड़ियों के तटों पर तरह-तरह के विचित्र सुवर्णमय वृक्ष शोभा दे रहे थे॥ २२-२३॥
बुद्धपद्मोत्पलवनाश्चक्रवाकोपशोभिताः।
नत्यूहरुतसंघुष्टा हंससारसनादिताः॥२४॥
उनमें खिले हुए कमलों के वन और चक्रवाकों के जोड़े शोभा बढ़ा रहे थे तथा पपीहा, हंस और सारसों के कलनाद गूंज रहे थे॥ २४॥
दीर्घाभिर्दुमयुक्ताभिः सरिद्भिश्च समन्ततः।
अमृतोपमतोयाभिः शिवाभिरुपसंस्कृताः॥ २५॥
अनेकानेक विशाल, तटवर्ती वृक्षों से सुशोभित, अमृत के समान मधुर जल से पूर्ण तथा सुखदायिनी सरिताएँ चारों ओर से उन बावड़ियों का सदा संस्कार करती थीं (उन्हें स्वच्छ जल से परिपूर्ण बनाये रखती थीं) ॥२५॥
लताशतैरवतताः संतानकुसुमावृताः।
नानागुल्मावृतवनाः करवीरकृतान्तराः॥२६॥
उनके तटों पर सैकड़ों प्रकार की लताएँ फैली हुई थीं। खिले हुए कल्पवृक्षों ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था। उनके जल नाना प्रकार की झाड़ियों से ढके हुए थे तथा बीच-बीच में खिले हुए कनेर के वृक्ष गवाक्ष की-सी शोभा पाते थे॥ २६॥
ततोऽम्बुधरसंकाशं प्रवृद्धशिखरं गिरिम्।
विचित्रकूट कूटैश्च सर्वतः परिवारितम्॥२७॥
शिलागृहैरवततं नानावृक्षसमावृतम्।
ददर्श कपिशार्दूलो रम्यं जगति पर्वतम्॥२८॥
फिर वहाँ कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने एक मेघ के समान काला और ऊँचे शिखरों वाला पर्वत देखा, जिसकी चोटियाँ बड़ी विचित्र थीं। उसके चारों ओर दूसरे दूसरे भी बहुत-से पर्वत-शिखर शोभा पाते थे। उसमें बहुत-सी पत्थर की गुफाएँ थीं और उस पर्वत पर अनेकानेक वृक्ष उगे हुए थे। वह पर्वत संसारभर में बड़ा रमणीय था॥
ददर्श च नगात् तस्मान्नदीं निपतितां कपिः।
अंकादिव समुत्पत्य प्रियस्य पतितां प्रियाम्॥२९॥
कपिवर हनुमान् ने उस पर्वत से गिरी हुई एक नदी देखी, जो प्रियतम के अंक से उछलकर गिरी हुई प्रियतमा के समान जान पड़ती थी॥२९॥
जले निपतिताग्रैश्च पादपैरुपशोभिताम्।
वार्यमाणामिव क्रुद्धां प्रमदां प्रियबन्धुभिः॥३०॥
जिनकी डालियाँ नीचे झुककर पानी से लग गयी थीं, ऐसे तटवर्ती वृक्षों से उस नदी की वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो प्रियतम से रूठकर अन्यत्र जाती हुई युवती को उसकी प्यारी सखियाँ उसे आगे बढ़ने से रोक रही हों॥ ३०॥
पुनरावृत्ततोयां च ददर्श स महाकपिः।
प्रसन्नामिव कान्तस्य कान्तां पुनरुपस्थिताम्॥३१॥
फिर उन महाकपि ने देखा कि वृक्षों की उन डालियों से टकराकर उस नदी के जल का प्रवाह पीछे की ओर मुड़ गया है। मानो प्रसन्न हुई प्रेयसी पुनः प्रियतम की सेवा में उपस्थित हो रही हो॥ ३१॥
तस्यादूरात् स पद्मिन्यो नानाद्विजगणायुताः।
ददर्श कपिशार्दूलो हनूमान् मारुतात्मजः॥३२॥
उस पर्वत से थोड़ी ही दूरपर कपिश्रेष्ठ पवनपुत्र हनुमान् ने बहुत-से कमलमण्डित सरोवर देखे, जिनमें नाना प्रकार के पक्षी चहचहा रहे थे॥ ३२॥
कृत्रिमा दीर्घिकां चापि पूर्णां शीतेन वारिणा।
मणिप्रवरसोपानां मुक्तासिकतशोभिताम्॥३३॥
उनके सिवा उन्होंने एक कृत्रिम तालाब भी देखा, जो शीतल जल से भरा हुआ था। उसमें श्रेष्ठ मणियों की सीढ़ियाँ बनी थीं और वह मोतियों की बालुकाराशि से सुशोभित था॥ ३३॥
विविधैर्मृगसङ्गैश्च विचित्रां चित्रकाननाम्।
प्रासादैः सुमहद्भिश्च निर्मितैर्विश्वकर्मणा ॥ ३४॥
काननैः कृत्रिमैश्चापि सर्वतः समलंकृताम्।
उस अशोकवाटिका में विश्वकर्मा के बनाये हुए बड़े-बड़े महल और कृत्रिम कानन सब ओर से उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के मृगसमूहों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस वाटिका में विचित्र वन-उपवन शोभा दे रहे थे॥ ३४ १/२॥
ये केचित् पादपास्तत्र पुष्पोपगफलोपगाः॥३५॥
सच्छत्राः सवितर्दीकाः सर्वे सौवर्णवेदिकाः।
वहाँ जो कोई भी वृक्ष थे, वे सब फल-फूल देने वाले थे, छत्र की भाँति घनी छाया किये रहते थे। उन सबके नीचे चाँदी की और उसके ऊपर सोने की वेदियाँ बनी हुई थीं॥ ३५ १/२॥
लताप्रतानैर्बहुभिः पर्णैश्च बहुभिर्वृताम्॥३६॥
काञ्चनीं शिंशपामेकां ददर्श स महाकपिः।
वृतां हेममयीभिस्तु वेदिकाभिः समन्ततः॥३७॥
तदनन्तर महाकपि हनुमान् ने एक सुवर्णमयी शिंशपा (अशोक)-का वृक्ष देखा, जो बहुत-से लतावितानों और अगणित पत्तों से व्याप्त था। वह वृक्ष भी सब ओर से सुवर्णमयी वेदिकाओं से घिरा था॥ ३६-३७॥
सोऽपश्यद् भूमिभागांश्च नगप्रस्रवणानि च।
सुवर्णवृक्षानपरान् ददर्श शिखिसंनिभान्॥ ३८॥
इसके सिवा उन्होंने और भी बहुत-से खुले मैदान, पहाड़ी झरने और अग्नि के समान दीप्तिमान् सुवर्णमय वृक्ष देखे॥ ३८॥
तेषां द्रुमाणां प्रभया मेरोरिव महाकपिः।
अमन्यत तदा वीरः काञ्चनोऽस्मीति सर्वतः॥३९॥
उस समय वीर महाकपि हनुमान जी ने सुमेरु के समान उन वृक्षों की प्रभा के कारण अपने को भी सब ओर से सुवर्णमय ही समझा॥ ३९ ॥
तान् काञ्चनान् वृक्षगणान् मारुतेन प्रकम्पितान्।
किङ्किणीशतनिर्घोषान् दृष्ट्वा विस्मयमागमत्॥४०॥
सुपुष्पिताग्रान् रुचिरांस्तरुणाङ्करपल्लवान्।
वे सुवर्णमय वृक्षसमूह जब वायु के झोंके खाकर हिलने लगते, तब उनसे सैकड़ों घुघुरुओं के बजने की-सी मधुर ध्वनि होती थी। वह सब देखकर हनुमान जी को बड़ा विस्मय हुआ। उन वृक्षों की डालियों में सुन्दर फूल खिले हुए थे और नये-नये अंकुर तथा पल्लव निकले हुए थे, जिससे वे बड़े सुन्दर दिखायी देते थे॥ ४० १/२॥
तामारुह्य महावेगः शिंशपां पर्णसंवृताम्॥४१॥
इतो द्रक्ष्यामि वैदेहीं रामदर्शनलालसाम्।
इतश्चेतश्च दुःखार्ता सम्पतन्तीं यदृच्छया॥४२॥
महान् वेगशाली हनुमान जी पत्तों से हरी-भरी उस शिंशपा पर यह सोचकर चढ़ गये कि ‘मैं यहीं से श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये उत्सुक हुई उन विदेहनन्दिनी सीता को देलूँगा, जो दुःख से आतुर हो इच्छानुसार इधर-उधर जाती-आती होंगी॥ ४१-४२।।
अशोकवनिका चेयं दृढं रम्या दुरात्मनः।
चन्दनैश्चम्पकैश्चापि बकुलैश्च विभूषिता॥४३॥
इयं च नलिनी रम्या द्विजसङ्घनिषेविता।
इमां सा राजमहिषी नूनमेष्यति जानकी॥४४॥
‘दुरात्मा रावण की यह अशोकवाटिका बड़ी ही रमणीय है। चन्दन, चम्पा और मौलसिरी के वृक्ष इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। इधर यह पक्षियों से सेवित कमलमण्डित सरोवर भी बड़ा सुन्दर है। राजरानी जानकी इसके तट पर निश्चय ही आती होंगी॥ ४३-४४॥
सा रामा राजमहिषी राघवस्य प्रिया सती।
वनसंचारकुशला ध्रुवमेष्यति जानकी॥४५॥
‘रघुनाथजी की प्रियतमा राजरानी रामा सती-साध्वी जानकी वन में घूमने-फिरने में बहुत कुशल हैं। वे अवश्य इधर आयेंगी॥ ४५॥
अथवा मृगशावाक्षी वनस्यास्य विचक्षणा।
वनमेष्यति साद्येह रामचिन्तासुकर्शिता॥४६॥
‘अथवा इस वन की विशेषताओं के ज्ञान में निपुण मृग-शावकनयनी सीता आज यहाँ इस तालाब के तटवर्ती वन में अवश्य पधारेंगी; क्योंकि वे श्रीरामचन्द्रजी के वियोग की चिन्ता से अत्यन्त दुबली हो गयी होंगी (और इस सुन्दर स्थान में आने से उनकी चिन्ता कुछ कम हो सकेगी)॥ ४६॥
रामशोकाभिसंतप्ता सा देवी वामलोचना।
वनवासरता नित्यमेष्यते वनचारिणी॥४७॥
‘सुन्दर नेत्रवाली देवी सीता भगवान् श्रीराम के विरह-शोक से बहुत ही संतप्त होंगी। वनवास में उनका सदा ही प्रेम रहा है, अतः वे वन में विचरती हुई इधर अवश्य आयेंगी॥४७॥
वनेचराणां सततं नूनं स्पृहयते पुरा।
रामस्य दयिता चार्या जनकस्य सुता सती॥४८॥
‘श्रीराम की प्यारी पत्नी सती-साध्वी जनकनन्दिनी सीता पहले निश्चय ही वनवासी जन्तुओं से सदा प्रेम करती रही होंगी। (इसलिये उनके लिये वन में भ्रमण करना स्वाभाविक है, अतः यहाँ उनके दर्शन की सम्भावना है ही)॥४८॥
संध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदी चेमां शुभजलां संध्यार्थे वरवर्णिनी॥४९॥
‘यह प्रातःकाल की संध्या (उपासना)-का समय है, इसमें मन लगाने वाली और सदा सोलह वर्ष की सी अवस्था में रहने वाली अक्षय यौवना जनककुमारी सुन्दरी सीता संध्याकालिक उपासना के लिये इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी॥४९॥
तस्याश्चाप्यनुरूपेयमशोकवनिका शुभा।
शुभायाः पार्थिवेन्द्रस्य पत्नी रामस्य सम्मता॥५०॥
‘जो राजाधिराज श्रीरामचन्द्रजी की समादरणीया पत्नी हैं, उन शुभलक्षणा सीता के लिये यह सुन्दर अशोकवाटिका भी सब प्रकार से अनुकूल ही है।५०॥
यदि जीवति सा देवी ताराधिपनिभानना।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम्॥५१॥
‘यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी’॥
एवं तु मत्वा हनुमान् महात्मा प्रतीक्षमाणो मनुजेन्द्रपत्नीम्।
अवेक्षमाणश्च ददर्श सर्वं सुपुष्पिते पर्णघने निलीनः॥५२॥
ऐसा सोचते हुए महात्मा हनुमान जी नरेन्द्रपत्नी सीता के शुभागमन की प्रतीक्षा में तत्पर हो सुन्दर फूलों से सुशोभित तथा घने पत्तेवाले उस अशोकवृक्ष पर छिपे रहकर उस सम्पूर्ण वन पर दृष्टिपात करते रहे ॥५२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुर्दशः सर्गः॥१४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१४॥
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