वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 15 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 15
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चदशः सर्गः (15)
(वन की शोभा देखते हुए हनुमान जी का एक चैत्यप्रासाद (मन्दिर)के पास सीता को दयनीय अवस्था में देखना, पहचानना और प्रसन्न होना)
स वीक्षमाणस्तत्रस्थो मार्गमाणश्च मैथिलीम्।
अवेक्षमाणश्च महीं सर्वां तामन्ववैक्षत॥१॥
उस अशोकवृक्ष पर बैठे-बैठे हनुमान जी सम्पूर्ण वन को देखते और सीता को ढूँढ़ते हुए वहाँ की सारी भूमि पर दृष्टिपात करने लगे॥१॥
संतानकलताभिश्च पादपैरुपशोभिताम्।
दिव्यगन्धरसोपेतां सर्वतः समलंकृताम्॥२॥
वह भूमि कल्पवृक्ष की लताओं तथा वृक्षों से सुशोभित थी, दिव्य गन्ध तथा दिव्य रस से परिपूर्ण थी और सब ओर से सजायी गयी थी॥२॥
तां स नन्दनसंकाशां मृगपक्षिभिरावृताम्।
हर्म्यप्रासादसम्बाधां कोकिलाकुलनिःस्वनाम्॥
मृगों और पक्षियों से व्याप्त होकर वह भूमि नन्दनवन के समान शोभा पा रही थी, अट्टालिकाओं तथा राजभवनों से युक्त थी तथा कोकिल-समूहों की काकली से कोलाहलपूर्ण जान पड़ती थी॥३॥
काञ्चनोत्पलपद्माभिर्वापीभिरुपशोभिताम्।
बह्वासनकुथोपेतां बहुभूमिगृहायुताम्॥४॥
सुवर्णमय उत्पल और कमलों से भरी हुई बावड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। बहुत-से आसन और कालीन वहाँ बिछे हुए थे। अनेकानेक भूमिगृह वहाँ शोभा पा रहे थे॥४॥
सर्वर्तुकुसुमै रम्यैः फलवद्भिश्च पादपैः।
पुष्पितानामशोकानां श्रिया सूर्योदयप्रभाम्॥५॥
सभी ऋतुओं में फूल देने वाले और फलों से भरे हुए रमणीय वृक्ष उस भूमि को विभूषित कर रहे थे। खिले हुए अशोकों की शोभा से सूर्योदयकाल की छटा-सी छिटक रही थी॥५॥
प्रदीप्तामिव तत्रस्थो मारुतिः समुदैक्षत।
निष्पत्रशाखां विहगैः क्रियमाणामिवासकृत्॥६॥
पवनकुमार हनुमान् ने उस अशोक पर बैठे-बैठे ही उस दमकती हुई-सी वाटिका को देखा। वहाँ के पक्षी उस वाटिका को बारंबार पत्रों और शाखाओं से हीन कर रहे थे॥६॥
विनिष्पतद्भिः शतशश्चित्रैः पुष्पावतंसकैः।
समूलपुष्परचितैरशोकैः शोकनाशनैः॥७॥
पुष्पभारातिभारैश्च स्पृशद्भिरिव मेदिनीम्।
कर्णिकारैः कुसुमितैः किंशुकैश्च सुपुष्पितैः॥८॥
स देशः प्रभया तेषां प्रदीप्त इव सर्वतः।
वृक्षों से झड़ते हुए सैकड़ों विचित्र पुष्प-गुच्छों से नीचे से ऊपर तक मानो फूल से बने हुए शोकनाशक अशोकों से, फूलों के भारी भार से झुककर पृथ्वी का स्पर्श-सा करते हुए खिले हुए कनेरों से तथा सुन्दर फूलवाले पलाशों से उपलक्षित वह भूभाग उनकी प्रभा के कारण सब ओर से उद्दीप्त-सा हो रहा था। ७-८ १/२॥
पुंनागाः सप्तपर्णाश्च चम्पकोद्दालकास्तथा॥९॥
विवृद्धमूला बहवः शोभन्ते स्म सुपुष्पिताः।
पुंनाग (श्वेत कमल या नागकेसर), छितवन, चम्पा तथा बहुवार आदि बहुत-से सुन्दर पुष्पवाले वृक्ष, जिनकी जड़ें बहुत मोटी थीं, वहाँ शोभा पा रहे थे॥
शातकुम्भनिभाः केचित् केचिदग्निशिखप्रभाः॥१०॥
नीलाञ्जननिभाः केचित् तत्राशोकाः सहस्रशः।
वहाँ सहस्रों अशोक के वृक्ष थे, जिनमें से कुछ तो सुवर्ण के समान कान्तिमान् थे, कुछ आग की ज्वाला के समान प्रकाशित हो रहे थे और कोई-कोई काले काजल की-सी कान्तिवाले थे॥ १० १/२ ।।
नन्दनं विबुधोद्यानं चित्रं चैत्ररथं यथा॥११॥
अतिवृत्तमिवाचिन्त्यं दिव्यं रम्यश्रियायुतम्।
वह अशोकवन देवोद्यान नन्दन के समान आनन्ददायी, कुबेर के चैत्ररथ वन के समान विचित्र तथा उन दोनों से भी बढ़कर अचिन्त्य, दिव्य एवं रमणीय शोभा से सम्पन्न था॥११ १/२॥
द्वितीयमिव चाकाशं पुष्पज्योतिर्गणायुतम्॥१२॥
पुष्परत्नशतैश्चित्रं पञ्चमं सागरं यथा।
वह पुष्परूपी नक्षत्रों से युक्त दूसरे आकाश के समान सुशोभित होता था तथा पुष्पमय सैकड़ों रत्नों से विचित्र शोभा पाने वाले पाँचवें समुद्र के समान जान पड़ता था॥ १२ १/२॥
सर्वर्तुपुष्पैर्निचितं पादपैर्मधुगन्धिभिः॥१३॥
नानानिनादैरुद्यानं रम्यं मृगगणद्विजैः।
अनेकगन्धप्रवहं पुण्यगन्धं मनोहरम्॥१४॥
शैलेन्द्रमिव गन्धाढ्यं द्वितीयं गन्धमादनम्।
सब ऋतुओं में फूल देने वाले मनोरम गन्धयुक्त वृक्षों से भरा हुआ तथा भाँति-भाँति के कलरव करने वाले मृगों और पक्षियों से सुशोभित वह उद्यान बड़ा रमणीय प्रतीत होता था। वह अनेक प्रकार की सुगन्ध का भार वहन करने के कारण पवित्र गन्ध से युक्त और मनोहर जान पड़ता था। दूसरे गिरिराज गन्धमादन के समान उत्तम सुगन्ध से व्याप्त था। १३-१४ १/२ ॥
अशोकवनिकायां तु तस्यां वानरपुंगवः ॥१५॥
स ददर्शाविदूरस्थं चैत्यप्रासादमूर्जितम्।
मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलासपाण्डुरम्॥१६॥
प्रवालकृतसोपानं तप्तकाञ्चनवेदिकम्।
मुष्णन्तमिव चढूंषि द्योतमानमिव श्रिया॥१७॥
निर्मलं प्रांशुभावत्वादुल्लिखन्तमिवाम्बरम्।
उस अशोकवाटिका में वानर-शिरोमणि हनुमान् ने थोड़ी ही दूर पर एक गोलाकार ऊँचा मन्दिर देखा, जिसके भीतर एक हजार खंभे लगे हुए थे। वह मन्दिर कैलास पर्वत के समान श्वेत वर्ण का था। उसमें मूंगे की सीढ़ियाँ बनी थीं तथा तपाये हुए सोने की वेदियाँ बनायी गयी थीं। वह निर्मल प्रासाद अपनी शोभा से देदीप्यमान-सा हो रहा था। दर्शकों की दृष्टि में चकाचौंध-सा पैदा कर देता था और बहुत ऊँचा होने के कारण आकाश में रेखा खींचता-सा जान पड़ता था॥ १५–१७ १/२॥
ततो मलिनसंवीतां राक्षसीभिः समावृताम्॥१८॥
उपवासकृशां दीनां निःश्वसन्तीं पुनः पुनः।
ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवामलाम्॥१९॥
वह चैत्यप्रासाद (मन्दिर) देखने के अनन्तर उनकी दृष्टि वहाँ एक सुन्दरी स्त्री पर पड़ी, जो मलिन वस्त्र धारण किये राक्षसियों से घिरी हुई बैठी थी। वह उपवास करने के कारण अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती थी तथा बारंबार सिसक रही थी। शुक्लपक्ष के आरम्भ में चन्द्रमा की कला जैसी निर्मल और कृश दिखायी देती है, वैसी ही वह भी दृष्टिगोचर होती थी॥ १८-१९॥
मन्दप्रख्यायमानेन रूपेण रुचिरप्रभाम्।
पिनद्धां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः॥२०॥
धुंधली-सी स्मृति के आधारपर कुछ-कुछ पहचाने जाने वाले अपने रूप से वह सुन्दर प्रभा बिखेर रही थी और धूएँ से ढकी हुई अग्नि की ज्वाला के समान जान पड़ती थी॥२०॥
पीतेनैकेन संवीतां क्लिष्टेनोत्तमवाससा।
सपङ्कामनलंकारां विपद्मामिव पद्मिनीम्॥२१॥
एक ही पीले रंग के पुराने रेशमी वस्त्र से उसका शरीर ढका हुआ था। वह मलिन, अलंकारशून्य होने के कारण कमलों से रहित पुष्करिणी के समान श्रीहीन दिखायी देती थी॥२१॥
पीडितां दुःखसंतप्तां परिक्षीणां तपस्विनीम्।
ग्रहेणांगारकेणेव पीडितामिव रोहिणीम्॥२२॥
वह तपस्विनी मंगलग्रह से आक्रान्त रोहिणी के समान शोक से पीड़ित, दुःख से संतप्त और सर्वथा क्षीणकाय हो रही थी॥ २२॥
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां कृशामनशनेन च।
शोकध्यानपरां दीनां नित्यं दुःखपरायणाम्॥२३॥
उपवास से दुर्बल हुई उस दुःखिया नारी के मुँह पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वह शोक और चिन्ता में मग्न हो दीन दशा में पड़ी हुई थी एवं निरन्तर दुःख में ही डूबी रहती थी॥२३॥
प्रियं जनमपश्यन्तीं पश्यन्तीं राक्षसीगणम्।
स्वगणेन मृगी हीनां श्वगणेनावृतामिव॥२४॥
वह अपने प्रियजनों को तो देख नहीं पाती थी। उसकी दृष्टि के समक्ष सदा राक्षसियों का समूह ही बैठा रहता था। जैसे कोई मृगी अपने यूथ से बिछुड़कर कुत्तों के झुंड से घिर गयी हो, वही दशा उसकी भी हो रही थी॥२४॥
नीलनागाभया वेण्या जघनं गतयैकया।
नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव॥ २५॥
काली नागिन के समान कटि से नीचे तक लटकी हुई एकमात्र काली वेणी के द्वारा उपलक्षित होने वाली वह नारी बादलों के हट जाने पर नीली वनश्रेणी से घिरी हुई पृथ्वी के समान प्रतीत होती थी॥ २५॥
सुखाहाँ दुःखसंतप्तां व्यसनानामकोविदाम्।
तां विलोक्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम्॥२६॥
तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादिभिः।
वह सुख भोगने के योग्य थी, किंतु दुःख से संतप्त हो रही थी। इसके पहले उसे संकटों का कोई अनुभव नहीं था। उस विशाल नेत्रोंवाली, अत्यन्त मलिन और क्षीणकाय अबला का अवलोकन करके युक्तियुक्त कारणों द्वारा हनुमान जी ने यह अनुमान किया कि होन-हो यही सीता है॥ २६ १/२॥
ह्रियमाणा तदा तेन रक्षसा कामरूपिणा॥२७॥
यथारूपा हि दृष्टा सा तथारूपेयमंगना।
इच्छानुसार रूप धारण करने वाला वह राक्षस जब सीताजी को हरकर ले जा रहा था, उस दिन जिस रूप में उनका दर्शन हुआ था, कल्याणी नारी भी वैसे ही रूप से युक्त दिखायी देती है। २७ १/२ ॥
पूर्णचन्द्राननां सुद्धू चारुवृत्तपयोधराम्॥२८॥
कुर्वतीं प्रभया देवी सर्वा वितिमिरा दिशः।
देवी सीता का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर था। उनकी भौहें बड़ी सुन्दर थीं। दोनों स्तन मनोहर और गोलाकार थे। वे अपनी अंगकान्ति से सम्पूर्ण दिशाओं का अन्धकार दूर किये देती थीं॥ २८ १/२ ॥
तां नीलकण्ठी बिम्बोष्ठी सुमध्यां सुप्रतिष्ठिताम्॥२९॥
उनके केश काले-काले और ओष्ठ बिम्बफल के समान लाल थे। कटिभाग बहुत ही सुन्दर था। सारे अंग सुडौल और सुगठित थे॥२९॥
सीतां पद्मपलाशाक्षी मन्मथस्य रतिं यथा।
इष्टां सर्वस्य जगतः पूर्णचन्द्रप्रभामिव॥३०॥
भूमौ सुतनुमासीनां नियतामिव तापसीम्।
निःश्वासबहुलां भीरुं भुजगेन्द्रवधूमिव॥३१॥
कमलनयनी सीता कामदेव की प्रेयसी रति के समान सुन्दरी थीं, पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान समस्तजगत् के लिये प्रिय थीं। उनका शरीर बहुत ही सुन्दर था। वे नियमपरायणा तापसी के समान भूमि पर बैठी थीं। यद्यपि वे स्वभाव से ही भीरु और चिन्ता के कारण बारंबार लंबी साँस खींचती थीं तो भी दूसरों के लिये नागिन के समान भयंकर थीं॥ ३०-३१॥
शोकजालेन महता विततेन न राजतीम्।
संसक्तां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः॥३२॥
वे विस्तृत महान् शोकजाल से आच्छादित होने के कारण विशेष शोभा नहीं पा रही थीं। धूएँ के समूह से मिली हुई अग्निशिखा के समान दिखायी देती थीं। ३२॥
तां स्मृतीमिव संदिग्धामृद्धिं निपतितामिव।
विहतामिव च श्रद्धामाशां प्रतिहतामिव॥३३॥
सोपसर्गां यथा सिद्धिं बुद्धिं सकलुषामिव।
अभूतेनापवादेन कीर्तिं निपतितामिव॥३४॥
वे संदिग्ध अर्थवाली स्मृति, भूतल पर गिरी हुई ऋद्धि, टूटी हुई श्रद्धा, भग्न हुई आशा, विघ्नयुक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि और मिथ्या कलंक से भ्रष्ट हुई कीर्ति के समान जान पड़ती थीं॥ ३३-३४॥
रामोपरोधव्यथितां रक्षोगणनिपीडिताम्।
अबलां मृगशावाक्षीं वीक्षमाणां ततस्ततः॥ ३५॥
अभ्यास न करने से शिथिल (विस्मृत) हुई विद्या के समान क्षीण हुई सीता को देखकर हनुमान जी की बुद्धि संदेह में पड़ गयी॥ ३८॥
दुःखेन बुबुधे सीतां हनुमाननलंकृताम्।
संस्कारेण यथा हीनां वाचमर्थान्तरं गताम्॥३९॥
अलंकार तथा स्नान-अनुलेपन आदि अंगसंस्कार से रहित हुई सीता व्याकरणादिजनित संस्कार से शून्य होने के कारण अर्थान्तर को प्राप्त हुई वाणी के समान पहचानी नहीं जा रही थीं। हनुमान जी ने बड़े कष्ट से उन्हें पहचाना॥ ३९॥
तां समीक्ष्य विशालाक्षीं राजपुत्रीमनिन्दिताम्।
तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादयन्॥४०॥
उन विशाललोचना सती-साध्वी राजकुमारी को देखकर उन्होंने कारणों (युक्तियों)-द्वारा उपपादन करते हुए मन में निश्चय किया कि यही सीता हैं।४०॥
वैदेह्या यानि चांगेषु तदा रामोऽन्वकीर्तयत्।
तान्याभरणजालानि गात्रशोभीन्यलक्षयत्॥४१॥
उन दिनों श्रीरामचन्द्रजी ने विदेहकुमारी के अंगों में जिन-जिन आभूषणों के होने की चर्चा की थी, वे ही आभूषण-समूह इस समय उनके अंगों की शोभा बढ़ा रहे थे। हनुमान जी ने इस बात की ओर लक्ष्य किया। ४१॥
सुकृतौ कर्णवेष्टौ च श्वदंष्ट्रौ च सुसंस्थितौ।
मणिविद्रमचित्राणि हस्तेष्वाभरणानि च॥४२॥
सुन्दर बने हुए कुण्डल और कुत्ते के दाँतों की-सी आकृतिवाले त्रिकर्ण नामधारी कर्णफूल कानों में सुन्दर ढंग से सुप्रतिष्ठित एवं सुशोभित थे। हाथों में कंगन आदि आभूषण थे, जिनमें मणि और मूंगे जड़े हुए थे॥४२॥
श्यामानि चिरयुक्तत्वात् तथा संस्थानवन्ति च।
तान्येवैतानि मन्येऽहं यानि रामोऽन्वकीर्तयत्॥४३॥
तत्र यान्यवहीनानि तान्यहं नोपलक्षये।
यान्यस्या नावहीनानि तानीमानि न संशयः॥४४॥
यद्यपि बहुत दिनों से पहने गये होने के कारण वे कुछ काले पड़ गये थे, तथापि उनके आकार-प्रकार वैसे ही थे। (हनुमान जी ने सोचा-) ‘श्रीरामचन्द्रजी ने जिनकी चर्चा की थी, मेरी समझ में ये वे ही आभूषण हैं। सीताजी ने जो आभूषण वहाँ गिरा दिये थे, उनको मैं इनके अंगों में नहीं देख रहा हूँ। इनके जो आभूषण मार्ग में गिराये नहीं गये थे, वे ही ये दिखायी देते हैं, इसमें संशय नहीं है॥ ४३-४४॥
पीतं कनकपट्टाभं स्रस्तं तदसनं शुभम्।
उत्तरीयं नगासक्तं तदा दृष्टं प्लवंगमैः॥४५॥
भूषणानि च मुख्यानि दृष्टानि धरणीतले।
अनयैवापविद्धानि स्वनवन्ति महान्ति च॥४६॥
‘उस समय वानरों ने पर्वत पर गिराये हुए सुवर्णपत्र के समान जो सुन्दर पीला वस्त्र और पृथ्वी पर पड़े हुए उत्तमोत्तम बहुमूल्य एवं बजने वाले आभूषण देखे थे, वे इन्हीं के गिराये हुए थे। ४५-४६॥
इदं चिरगृहीतत्वाद् वसनं क्लिष्टवत्तरम्।
तथाप्यनूनं तद्वर्णं तथा श्रीमद्यथेतरत्॥४७॥
‘यह वस्त्र बहुत दिनों से पहने जाने के कारण यद्यपि बहुत पुराना हो गया है, तथापि इसका पीला रंग अभी तक उतरा नहीं है। यह भी वैसा ही कान्तिमान् है, जैसा वह दूसरा वस्त्र था॥४७॥
इयं कनकवर्णांगी रामस्य महिषी प्रिया।
प्रणष्टापि सती यस्य मनसो न प्रणश्यति॥४८॥
‘ये सुवर्ण के समान गौर अंगवाली श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी महारानी हैं, जो अदृश्य हो जाने पर भी उनके मन से विलग नहीं हुई हैं। ४८॥
इयं सा यत्कृते रामश्चतुर्भिरिह तप्यते।
कारुण्येनानृशंस्येन शोकेन मदनेन च॥४९॥
‘ये वे ही सीता हैं, जिनके लिये श्रीरामचन्द्रजी इस जगत् में करुणा, दया, शोक और प्रेम-इन चार कारणों से संतप्त होते रहते हैं। ४९॥
स्त्री प्रणष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः।
पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च॥५०॥
‘एक स्त्री खो गयी, यह सोचकर उनके हृदय में करुणा भर आती है। वह हमारे आश्रित थी, यह सोचकर वे दया से द्रवित हो उठते हैं। मेरी पत्नी ही मुझसे बिछुड़ गयी, इसका विचार करके वे शोक से व्याकुल हो उठते हैं तथा मेरी प्रियतमा मेरे पास नहीं रही, ऐसी भावना करके उनके हृदय में प्रेम की वेदना होने लगती है॥५०॥
अस्या देव्या यथारूपमंगप्रत्यंगसौष्ठवम्।
रामस्य च यथारूपं तस्येयमसितेक्षणा॥५१॥
जैसा अलौकिक रूप श्रीरामचन्द्रजी का है तथा जैसा मनोहर रूप एवं अंग-प्रत्यंग की सुघड़ता इन देवी सीता में है; इसे देखते हुए कजरारे नेत्रों वाली सीता उन्हीं के योग्य पत्नी हैं॥५१॥
अस्या देव्या मनस्तस्मिंस्तस्य चास्यां प्रतिष्ठितम्।
तेनेयं स च धर्मात्मा मुहूर्तमपि जीवति॥५२॥
‘इन देवी का मन श्रीरघुनाथजी में और श्रीरघुनाथजी का मन इनमें लगा हुआ है, इसीलिये ये तथा धर्मात्मा श्रीराम जीवित हैं। इनके मुहूर्तमात्र जीवन में भी यही कारण है।
दुष्करं कृतवान् रामो हीनो यदनया प्रभुः।
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति॥५३॥
‘इनके बिछुड़ जाने पर भी भगवान् श्रीराम जो अपने शरीर को धारण करते हैं, शोक से शिथिल नहीं हो जाते हैं, यह उन्होंने अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है’॥ ५३॥
एवं सीतां तथा दृष्ट्वा हृष्टः पवनसम्भवः।
जगाम मनसा रामं प्रशशंस च तं प्रभुम्॥५४॥
इस प्रकार उस अवस्था में सीता का दर्शन पाकर पवनपुत्र हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए। वे मन-ही-मनभगवान् श्रीराम के पास जा पहुँचे—उनका चिन्तन करने लगे तथा सीता-जैसी साध्वी को पत्नी रूप में पाने से उनके सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥५४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चदशः सर्ग॥१५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१५॥
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