वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 16 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 16
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षोडशः सर्गः (16)
(हनुमान जी का मन-ही-मन सीताजी के शील और सौन्दर्य की सराहना करते हुए उन्हें कष्ट में पड़ी देख स्वयं भी उनके लिये शोक करना)
प्रशस्य तु प्रशस्तव्यां सीतां तां हरिपुंगवः।
गुणाभिरामं रामं च पुनश्चिन्तापरोऽभवत्॥१॥
परम प्रशंसनीया सीता और गुणाभिराम श्रीराम की प्रशंसा करके वानरश्रेष्ठ हनुमान जी फिर विचार करने लगे॥
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पपर्याकुलेक्षणः।
सीतामाश्रित्य तेजस्वी हनूमान् विललाप ह॥२॥
लगभग दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करने पर उनके नेत्रों में आँसू भर आये और वे तेजस्वी हनुमान् सीता के विषय में इस प्रकार विलाप करने लगे॥२॥
मान्या गुरुविनीतस्य लक्ष्मणस्य गुरुप्रिया।
यदि सीता हि दुःखार्ता कालो हि दुरतिक्रमः॥
‘अहो! जिन्होंने गुरुजनों से शिक्षा पायी है, उन लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीराम की प्रियतमा पत्नी सीता भी यदि इस प्रकार दुःख से आतुर हो रही हैं तो यह कहना पड़ता है कि काल का उल्लङ्घन करना सभी के लिये अत्यन्त कठिन है॥३॥
रामस्य व्यवसायज्ञा लक्ष्मणस्य च धीमतः।
नात्यर्थं क्षुभ्यते देवी गंगेव जलदागमे॥४॥
‘जैसे वर्षा-ऋतु आने पर भी देवी गंगा अधिक क्षुब्ध नहीं होती हैं, उसी प्रकार श्रीराम तथा बुद्धिमान् लक्ष्मण के अमोघ पराक्रम का निश्चित ज्ञान रखने वाली देवी सीता भी शोक से अधिक विचलित नहीं हो रही हैं।
तुल्यशीलवयोवृत्तां तुल्याभिजनलक्षणाम्।
राघवोऽर्हति वैदेहीं तं चेयमसितेक्षणा॥५॥
‘सीता के शील, स्वभाव, अवस्था और बर्ताव श्रीराम के ही समान हैं। उनका कुल भी उन्हीं के तुल्य महान् है, अतः श्रीरघुनाथजी विदेहकुमारी सीता के सर्वथा योग्य हैं तथा ये कजरारे नेत्रोंवाली सीता भी उन्हीं के योग्य हैं॥
तां दृष्ट्वा नवहेमाभां लोककान्तामिव श्रियम्।
जगाम मनसा रामं वचनं चेदमब्रवीत्॥६॥
नूतन सुवर्ण के समान दीप्तिमती और लोककमनीया लक्ष्मीजी के समान शोभामयी श्रीसीता को देखकर हनुमान जी ने श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया और मन-ही-मन इस प्रकार कहा- ॥
अस्या हेतोर्विशालाक्ष्या हतो वाली महाबलः।
रावणप्रतिमो वीर्ये कबन्धश्च निपातितः॥७॥
‘इन्हीं विशाललोचना सीता के लिये भगवान् श्रीराम ने महाबली वाली का वध किया और रावण के समान पराक्रमी कबन्ध को भी मार गिराया॥ ७॥
विराधश्च हतः संख्ये राक्षसो भीमविक्रमः।
वने रामेण विक्रम्य महेन्द्रेणेव शम्बरः॥८॥
‘इन्हीं के लिये श्रीराम ने वन में पराक्रम करके भयानक पराक्रमी राक्षस विराध को भी उसी प्रकार युद्ध में मार डाला, जैसे देवराज इन्द्र ने शम्बरासुर का वध किया था॥ ८॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्।
निहतानि जनस्थाने शरैरग्निशिखोपमैः॥९॥
खरश्च निहतः संख्ये त्रिशिराश्च निपातितः।
दूषणश्च महातेजा रामेण विदितात्मना॥१०॥
‘इन्हीं के कारण आत्मज्ञानी श्रीरामचन्द्रजी ने जनस्थान में अपने अग्निशिखा के सदृश तेजस्वी बाणों द्वारा भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों को काल के गाल में भेज दिया और युद्ध में खर, त्रिशिरा तथा महातेजस्वी दूषण को भी मार गिराया॥ ९-१०॥
ऐश्वर्यं वानराणां च दुर्लभं वालिपालितम्।
अस्या निमित्ते सुग्रीवः प्राप्तवाँल्लोकविश्रुतः॥११॥
‘वानरों का वह दुर्लभ ऐश्वर्य, जो वाली के द्वारा सुरक्षित था, इन्हीं के कारण विश्वविख्यात सुग्रीव को प्राप्त हुआ है॥ ११॥
सागरश्च मयाऽऽक्रान्तः श्रीमान् नदनदीपतिः।
अस्या हेतोर्विशालाक्ष्याः पुरी चेयं निरीक्षिता॥१२॥
‘इन्हीं विशाललोचना सीता के लिये मैंने नदों और नदियों के स्वामी श्रीमान् समुद्र का उल्लङ्घन किया और इस लंकापुरी को छान डाला है॥ १२॥
यदि रामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत्।
अस्याः कृते जगच्चापि युक्तमित्येव मे मतिः॥१३॥
‘इनके लिये तो यदि भगवान् श्रीराम समुद्रपर्यन्त पृथ्वी तथा सारे संसार को भी उलट देते तो भी वह मेरे विचार से उचित ही होता ॥१३॥
राज्यं वा त्रिषु लोकेषु सीता वा जनकात्मजा।
त्रैलोक्यराज्यं सकलं सीताया नाप्नुयात् कलाम्॥१४॥
‘एक ओर तीनों लोकों का राज्य और दूसरी ओर जनककुमारी सीता को रखकर तुलना की जाय तो त्रिलोकी का सारा राज्य सीता की एक कला के बराबर भी नहीं हो सकता॥ १४॥
इयं सा धर्मशीलस्य जनकस्य महात्मनः।
सुता मैथिलराजस्य सीता भर्तृदृढव्रता॥१५॥
‘ये धर्मशील मिथिलानरेश महात्मा राजा जनक की पुत्री सीता पतिव्रत-धर्म में बहुत दृढ़ हैं॥ १५ ॥
उत्थिता मेदिनी भित्त्वा क्षेत्रे हलमुखक्षते।
पद्मरेणुनिभैः कीर्णा शुभैः केदारपांसुभिः॥१६॥
‘जब हल के मुख (फाल)-से खेत जोता जा रहा था, उस समय ये पृथ्वी को फाड़कर कमल के पराग की भाँति क्यारी की सुन्दर धूलों से लिपटी हुई प्रकट हुई थीं॥१६॥
विक्रान्तस्यार्यशीलस्य संयुगेष्वनिवर्तिनः।
स्नुषा दशरथस्यैषा ज्येष्ठा राज्ञो यशस्विनी॥१७॥
‘जो परम पराक्रमी, श्रेष्ठ शील-स्वभाववाले और युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले थे, उन्हीं महाराज दशरथ की ये यशस्विनी ज्येष्ठ पुत्रवधू हैं॥ १७॥
धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य रामस्य विदितात्मनः।
इयं सा दयिता भार्या राक्षसीवशमागता॥१८॥
‘धर्मज्ञ, कृतज्ञ एवं आत्मज्ञानी भगवान् श्रीराम की ये प्यारी पत्नी सीता इस समय राक्षसियों के वश में पड़ गयी हैं॥ १८॥
सर्वान् भोगान् परित्यज्य भर्तृस्नेहबलात् कृता।
अचिन्तयित्वा कष्टानि प्रविष्टा निर्जनं वनम्॥१९॥
‘ये केवल पतिप्रेम के कारण सारे भोगों को लात मारकर विपत्तियों का कुछ भी विचार न करके श्रीरघुनाथजी के साथ निर्जन वन में चली आयी थीं। १९॥
संतुष्टा फलमूलेन भर्तृशुश्रूषणापरा।
या परां भजते प्रीतिं वनेऽपि भवने यथा॥२०॥
‘यहाँ आकर फल-मूलों से ही संतुष्ट रहती हुई पतिदेव की सेवा में लगी रहीं और वन में भी उसी प्रकार परम प्रसन्न रहती थीं, जैसे राजमहलों में रहा करती थीं॥२०॥
सेयं कनकवर्णांगी नित्यं सुस्मितभाषिणी।
सहते यातनामेतामनर्थानामभागिनी॥२१॥
‘वे ही ये सुवर्ण के समान सुन्दर अंगवाली और सदा मुसकराकर बात करने वाली सुन्दरी सीता, जो अनर्थ भोगने के योग्य नहीं थीं, इस यातना को सहन करती हैं॥२१॥
इमां तु शीलसम्पन्नां द्रष्टुमिच्छति राघवः।
रावणेन प्रमथितां प्रपामिव पिपासितः॥२२॥
यद्यपि रावण ने इन्हें बहुत कष्ट दिये हैं तो भी ये अपने शील, सदाचार एवं सतीत्व से सम्पन्न हैं। (उसके वशीभूत नहीं हो सकी हैं।) अतएव जैसे प्यासा मनुष्य पौंसले पर जाना चाहता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी इन्हें देखना चाहते हैं ॥ २२ ॥
अस्या नूनं पुनर्लाभाद् राघवः प्रीतिमेष्यति।
राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनः प्राप्येव मेदिनीम्॥२३॥
‘जैसे राज्य से भ्रष्ट हुआ राजा पुनः पृथ्वी का राज्य पाकर बहुत प्रसन्न होता है, उसी प्रकार उनकी पुनः प्राप्ति होने से श्रीरघुनाथजी को निश्चय ही बड़ी प्रसन्नता होगी॥ २३॥
कामभोगैः परित्यक्ता हीना बन्धुजनेन च।
धारयत्यात्मनो देहं तत्समागमकाशिणी ॥२४॥
‘ये अपने बन्धुजनों से बिछुड़कर विषयभोगों को तिलाञ्जलि दे केवल भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के समागम की आशा से ही अपना शरीर धारण किये हुए हैं॥२४॥
नैषा पश्यति राक्षस्यो नेमान् पुष्पफलद्रुमान्।
एकस्थहृदया नूनं राममेवानुपश्यति॥२५॥
ये न तो राक्षसियों की ओर देखती हैं और न इन फल-फूलवाले वृक्षों पर ही दृष्टि डालती हैं, सर्वथा एकाग्रचित्त हो मन की आँखों से केवल श्रीराम का ही निरन्तर दर्शन (ध्यान) करती हैं इसमें संदेह नहीं है॥ २५॥
भर्ता नाम परं नार्याः शोभनं भूषणादपि।
एषा हि रहिता तेन शोभनार्हा न शोभते॥२६॥
‘निश्चय ही पति नारी के लिये आभूषण की अपेक्षा भी अधिक शोभा का हेतु है। ये सीता उन्हीं पतिदेव से बिछुड़ गयी हैं, इसलिये शोभा के योग्य होने पर भी शोभा नहीं पा रही हैं॥२६॥
दुष्करं कुरुते रामो हीनो यदनया प्रभुः।
धारयत्यात्मनो देहं न दुःखेनावसीदति ॥ २७॥
‘भगवान् श्रीराम इनसे बिछुड़ जाने पर भी जो अपने शरीर को धारण कर रहे हैं, दुःख से अत्यन्त शिथिल नहीं हो जाते हैं, यह उनका अत्यन्त दुष्करकर्म है। २७॥
इमामसितकेशान्तां शतपत्रनिभेक्षणाम्।
सुखाहीँ दुःखितां ज्ञात्वा ममापि व्यथितं मनः॥२८॥
‘काले केश और कमल-जैसे नेत्रवाली ये सीता वास्तव में सुख भोगने के योग्य हैं। इन्हें दुःखी जानकर मेरा मन भी व्यथित हो उठता है॥ २८॥
क्षितिक्षमा पुष्करसंनिभेक्षणा या रक्षिता राघवलक्ष्मणाभ्याम्।
सा राक्षसीभिर्विकृतेक्षणाभिः संरक्ष्यते सम्प्रति वृक्षमूले॥२९॥
‘अहो! जो पृथ्वी के समान क्षमाशील और प्रफुल्ल कमल के समान नेत्रोंवाली हैं तथा श्रीराम और लक्ष्मण ने जिनकी सदा रक्षा की है, वे ही सीता आज इस वृक्ष के नीचे बैठी हैं और ये विकराल नेत्रोंवाली राक्षसियाँ इनकी रखवाली करती हैं॥ २९ ॥
हिमहतनलिनीव नष्टशोभा व्यसनपरम्परया निपीड्यमाना।
सहचररहितेव चक्रवाकी जनकसुता कृपणां दशां प्रपन्ना॥३०॥
‘हिम की मारी हुई कमलिनी के समान इनकी शोभा नष्ट हो गयी है, दुःख-पर-दुःख उठाने के कारण अत्यन्त पीड़ित हो रही हैं तथा अपने सहचर से बिछुड़ी हुई चकवी के समान पति-वियोग का कष्ट सहन करती हुई ये जनककिशोरी सीता बड़ी दयनीय दशा को पहुँच गयी हैं॥ ३०॥
अस्या हि पुष्पावनताग्रशाखाः शोकं दृढं वै जनयन्त्यशोकाः।
हिमव्यपायेन च शीतरश्मि रभ्युत्थितो नैकसहस्ररश्मिः॥३१॥
‘फूलों के भार से जिनकी डालियों के अग्रभाग झुक गये हैं, वे अशोकवृक्ष इस समय सीतादेवी के लिये अत्यन्त शोक उत्पन्न कर रहे हैं तथा शिशिर का अन्त हो जाने से वसन्त की रात में उदित हुए शीतल किरणों वाले चन्द्रदेव भी इनके लिये अनेक सहस्र किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव की भाँति संताप दे रहे हैं ॥३१॥
इत्येवमर्थं कपिरन्ववेक्ष्य सीतेयमित्येव तु जातबुद्धिः।
संश्रित्य तस्मिन् निषसाद वृक्षे बली हरीणामृषभस्तरस्वी॥३२॥
इस प्रकार विचार करते हुए बलवान् वानरश्रेष्ठ वेगशाली हनुमान जी यह निश्चय करके कि ‘ये ही सीता हैं उसी वृक्ष पर बैठे रहे॥३२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षोडशः सर्गः॥१६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१६॥