वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 17 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 17
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (17)
(भयंकर राक्षसियों से घिरी हुई सीता के दर्शन से हनुमान जी का प्रसन्न होना)
ततः कुमुदखण्डाभो निर्मलं निर्मलोदयः।
प्रजगाम नभश्चन्द्रो हंसो नीलमिवोदकम्॥१॥
तदनन्तर वह दिन बीतने के पश्चात् कुमुदसमूह के समान श्वेत वर्णवाले तथा निर्मल रूप से उदित हुए चन्द्रदेव स्वच्छ आकाश में कुछ ऊपर को चढ़ आये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई हंस किसी नील जलराशि में तैर रहा हो॥१॥
साचिव्यमिव कुर्वन् स प्रभया निर्मलप्रभः।
चन्द्रमा रश्मिभिः शीतैः सिषेवे पवनात्मजम्॥२॥
निर्मल कान्तिवाले चन्द्रमा अपनी प्रभा से सीताजी के दर्शन आदि में पवनकुमार हनुमान जी की सहायतासी करते हुए अपनी शीतल किरणों द्वारा उनकी सेवा करने लगे॥२॥
स ददर्श ततः सीतां पूर्णचन्द्रनिभाननाम्।
शोकभारैरिव न्यस्तां भारै वमिवाम्भसि॥३॥
उस समय उन्होंने पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली सीता को देखा, जो जल में अधिक बोझ के कारण दबी हुई नौका की भाँति शोक के भारी भार से मानो झुक गयी थीं॥३॥
दिदृक्षमाणो वैदेहीं हनूमान् मारुतात्मजः।
स ददर्शाविदूरस्था राक्षसी?रदर्शनाः॥४॥
वायुपुत्र हनुमान जी ने जब विदेहकुमारी सीता को देखने के लिये अपनी दृष्टि दौड़ायी, तब उन्हें उनके पास ही बैठी हुई भयानक दृष्टिवाली बहुत-सी राक्षसियाँ दिखायी दीं॥४॥
एकाक्षीमेककर्णां च कर्णप्रावरणां तथा।
अकर्णां शङ्ककर्णां च मस्तकोच्छ्वासनासिकाम्॥५॥
उनमें से किसी के एक आँख थी तो दूसरी के एक कान। किसी-किसी के कान इतने बड़े थे कि वह उन्हें चादर की भाँति ओढ़े हुए थीं। किसी के कान ही नहीं थे और किसी के कान ऐसे दिखायी देते थे मानो खूटे गड़े हुए हों। किसी-किसी की साँस लेने वाली नाक उसके मस्तक पर थी॥५॥
अतिकायोत्तमांगीं च तनुदीर्घशिरोधराम्।
ध्वस्तकेशी तथाकेशी केशकम्बलधारिणीम्॥
किसी का शरीर बहुत बड़ा था और किसी का बहुत उत्तम। किसी की गर्दन पतली और बड़ी थी। किसी के केश उड़ गये थे और किसी-किसी के माथे पर केश उगे ही नहीं थे। कोई-कोई राक्षसी अपने शरीर के केशों का ही कम्बल धारण किये हुए थी॥६॥
लम्बकर्णललाटां च लम्बोदरपयोधराम्।
लम्बोष्ठी चिबुकोष्ठी च लम्बास्यां लम्बजानुकाम्॥७॥
किसी के कान और ललाट बड़े-बड़े थे तो किसी के पेट और स्तन लंबे थे। किसी के ओठ बड़े होने के कारण लटक रहे थे तो किसी के ठोड़ी में ही सटे हुए थे। किसी का मुँह बड़ा था और किसी के घुटने॥७॥
ह्रस्वां दीर्घा च कुब्जां च विकटां वामनां तथा।
कराला भुग्नवक्त्रां च पिंगाक्षी विकृताननाम्॥८॥
कोई नाटी, कोई लंबी, कोई कुबड़ी, कोई टेढ़ीमेढ़ी, कोई बवनी, कोई विकराल, कोई टेढ़े मुँहवाली, कोई पीली आँखवाली और कोई विकट मुँहवाली थीं॥
विकृताः पिंगलाः कालीः क्रोधनाः कलहप्रियाः।
कालायसमहाशूलकूटमुद्गरधारिणीः॥९॥
कितनी ही राक्षसियाँ बिगड़े शरीर वाली, काली, पीली, क्रोध करने वाली और कलह पसंद करने वाली थीं। उन सबने काले लोहे के बने हुए बड़े-बड़े शूल, कूट और मुद्गर धारण कर रखे थे॥९॥
वराहमृगशार्दूलमहिषाजशिवामुखाः।
गजोष्ट्रहयपादाश्च निखातशिरसोऽपराः॥१०॥
कितनी ही राक्षसियों के मुख सूअर, मृग, सिंह, भैंस, बकरी और सियारिनों के समान थे। किन्हीं के पैर हाथियों के समान, किन्हीं के ऊँटोंके समान और किन्हीं के घोड़ों के समान थे। किन्हीं-किन्हीं के सिर कबन्ध की भाँति छाती में स्थित थे; अतः गड्डे के समान दिखायी देते थे। (अथवा किन्हीं-किन्हीं के सिर में गड्ढे थे) ॥ १०॥
एकहस्तैकपादाश्च खरकर्ण्यश्वकर्णिकाः।
गोकर्णीर्हस्तिकर्णीश्च हरिकर्णीस्तथापराः॥११॥
किन्हीं के एक हाथ थे तो किन्हीं के एक पैर। किन्हीं के कान गदहों के समान थे तो किन्हीं के घोड़ों के समान। किन्हीं-किन्हीं के कान गौओं, हाथियों और सिंहों के समान दृष्टिगोचर होते थे॥ ११॥
अतिनासाश्च काश्चिच्च तिर्यङ्नासा अनासिकाः।
गजसंनिभनासाश्च ललाटोच्छ्वासनासिकाः॥ १२॥
किन्हीं की नासिकाएँ बहुत बड़ी थीं और किन्हीं की तिरछी। किन्हीं-किन्हीं के नाक ही नहीं थी। कोई-कोई हाथी की ढूँड़ के समान नाकवाली थीं और किन्हीं किन्हीं की नासिकाएँ ललाट में ही थीं, जिनसे वे साँस लिया करती थीं॥ १२॥
हस्तिपादा महापादा गोपादाः पादचूलिकाः।
अतिमात्रशिरोग्रीवा अतिमात्रकुचोदरीः॥१३॥
किन्हीं के पैर हाथियों के समान थे और किन्हीं के गौओं के समान। कोई बड़े-बड़े पैर धारण करती थीं और कितनी ही ऐसी थीं जिनके पैरों में चोटी के समान केश उगे हुए थे। बहुत-सी राक्षसियाँ बेहद लंबे सिर और गर्दनवाली थीं और कितनों के पेट तथा स्तन बहुत बड़े-बड़े थे॥१३॥
अतिमात्रास्यनेत्राश्च दीर्घजिह्वाननास्तथा।
अजामुखीर्हस्तिमुखीर्गोमुखीः सूकरीमुखीः॥१४॥
हयोष्ट्रखरवकत्राश्च राक्षसी?रदर्शनाः।
किन्हीं के मुँह और नेत्र सीमा से अधिक बड़े थे, किन्हीं-किन्हीं के मुखों में बड़ी-बड़ी जिह्वाएँ थीं और कितनी ही ऐसी राक्षसियाँ थीं, जो बकरी, हाथी, गाय, सूअर, घोड़े, ऊँट और गदहों के समान मुँह धारण करती थीं। इसीलिये वे देखने में बड़ी भयंकर थीं॥ १४ १/२॥
शूलमुद्गरहस्ताश्च क्रोधनाः कलहप्रियाः॥१५॥
कराला धूम्रकेशिन्यो राक्षसीर्विकृताननाः।
पिबन्ति सततं पानं सुरामांससदाप्रियाः॥१६॥
किन्हीं के हाथ में शूल थे तो किन्हीं के मुद्गर। कोई क्रोधी स्वभाव की थीं तो कोई कलह से प्रेम रखती थीं। धुएँ-जैसे केश और विकृत मुखवाली कितनी ही विकराल राक्षसियाँ सदा मद्यपान किया करती थीं। मदिरा और मांस उन्हें सदा प्रिय थे॥ १५-१६॥
मांसशोणितदिग्धांगीमा॑सशोणितभोजनाः।
ता ददर्श कपिश्रेष्ठो रोमहर्षणदर्शनाः॥१७॥
कितनी ही अपने अंगों में रक्त और मांस का लेप लगाये रहती थीं। रक्त और मांस ही उनके भोजन थे। उन्हें देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने उन सबको देखा ॥ १७॥
स्कन्धवन्तमुपासीनाः परिवार्य वनस्पतिम्।
तस्याधस्ताच्च तां देवीं राजपुत्रीमनिन्दिताम्॥ १८॥
लक्षयामास लक्ष्मीवान् हनूमाञ्जनकात्मजाम्।
निष्प्रभां शोकसंतप्तां मलसंकुलमूर्धजाम्॥१९॥
वे उत्तम शाखावाले उस अशोकवृक्ष को चारों ओर से घेरकर उससे थोड़ी दूर पर बैठी थीं और सती साध्वी राजकुमारी सीता देवी उसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ से सटी हुई बैठी थीं। उस समय शोभाशाली हनुमान जी ने जनककिशोरी जानकीजी की ओर विशेष रूप से लक्ष्य किया। उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वे शोक से संतप्त थीं और उनके केशों में मैल जम गयी थी॥ १८-१९॥
क्षीणपुण्यां च्युतां भूमौ तारां निपतितामिव।
चारित्रव्यपदेशाढ्यां भर्तृदर्शनदुर्गताम्॥२०॥
जैसे पुण्य क्षीण हो जाने पर कोई तारा स्वर्ग से टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा हो, उसी तरह वे भी कान्तिहीन दिखायी देती थीं। वे आदर्श चरित्र (पातिव्रत्य)-से सम्पन्न तथा इसके लिये सुविख्यात थीं। उन्हें पति के दर्शनके लिये लाले पड़े थे॥२०॥
भूषणैरुत्तमै नां भर्तृवात्सल्यभूषिताम्।
राक्षसाधिपसंरुद्धां बन्धुभिश्च विनाकृताम्॥२१॥
वे उत्तम भूषणों से रहित थीं तो भी पति के वात्सल्य से विभूषित थीं (पति का स्नेह ही उनके लिये शृंगार था)। राक्षसराज रावण ने उन्हें बंदिनी बना रखा था। वे स्वजनों से बिछुड़ गयी थीं॥ २१॥
वियूथां सिंहसंरुद्धां बद्धां गजवधूमिव।
चन्द्ररेखां पयोदान्ते शारदाभ्रेरिवावृताम्॥२२॥
जैसे कोई हथिनी अपने यूथ से अलग हो गयी हो, यूथपति के स्नेह से बँधी हो और उसे किसी सिंह ने रोक लिया हो। रावण की कैद में पड़ी हुई सीता की भी वैसी ही दशा थी। वे वर्षाकाल बीत जाने पर शरद्ऋतु के श्वेत बादलों से घिरी हुई चन्द्ररेखा के समान प्रतीत होती थीं॥ २२॥
क्लिष्टरूपामसंस्पर्शादयुक्तामिव वल्लकीम्।
स तां भर्तृहिते युक्तामयुक्तां रक्षसां वशे॥२३॥
अशोकवनिकामध्ये शोकसागरमाप्लुताम्।
ताभिः परिवृतां तत्र सग्रहामिव रोहिणीम्॥२४॥
जैसे वीणा अपने स्वामी की अंगुलियों के स्पर्श से वञ्चित हो वादन आदि की क्रिया से रहित अयोग्य अवस्था में मूक पड़ी रहती है, उसी प्रकार सीता पति के सम्पर्क से दूर होने के कारण महान् क्लेश में पड़कर ऐसी अवस्था को पहुँच गयी थीं, जो उनके योग्य नहीं थी। पति के हित में तत्पर रहने वाली सीता राक्षसों के अधीन रहने के योग्य नहीं थीं; फिर भी वैसी दशा में पड़ी थीं। अशोकवाटिका में रहकर भी वे शोक के सागर में डूबी हुई थीं। क्रूर ग्रह से आक्रान्त हुई रोहिणी की भाँति वे वहाँ उन राक्षसियों से घिरी हुई थीं। हनुमान् जी ने उन्हें देखा। वे पुष्पहीन लता की भाँति श्रीहीन हो रही थीं। २३-२४॥
ददर्श हनुमांस्तत्र लतामकुसुमामिव।
सा मलेन च दिग्धांगी वपुषा चाप्यलंकृता।
मृणाली पङ्कदिग्धेव विभाति च न भाति च॥२५॥
उनके सारे अंगों में मैल जम गयी थी। केवल शरीर-सौन्दर्य ही उनका अलंकार था। वे कीचड़ से लिपटी हुई कमलनाल की भाँति शोभा और अशोभा दोनों से युक्त हो रही थीं॥ २५॥
मलिनेन तु वस्त्रेण परिक्लिष्टेन भामिनीम्।
संवृतां मृगशावाक्षीं ददर्श हनुमान् कपिः॥२६॥
मैले और पुराने वस्त्र से ढकी हुई मृगशावकनयनी भामिनी सीता को कपिवर हनुमान् ने उस अवस्था में देखा॥२६॥
तां देवीं दीनवदनामदीनां भर्तृतेजसा।
रक्षितां स्वेन शीलेन सीतामसितलोचनाम्॥२७॥
यद्यपि देवी सीता के मुख पर दीनता छा रही थी तथापि अपने पति के तेज का स्मरण हो आने से उनके हृदय से वह दैन्य दूर हो जाता था। कजरारे नेत्रों वाली सीता अपने शील से ही सुरक्षित थीं॥ २७॥
तां दृष्ट्वा हनुमान् सीतां मृगशावनिभेक्षणाम्।
मृगकन्यामिव त्रस्तां वीक्षमाणां समन्ततः॥२८॥
दहन्तीमिव निःश्वासैर्वृक्षान् पल्लवधारिणः।
संघातमिव शोकानां दुःखस्योर्मिमिवोत्थिताम्॥२९॥
तां क्षमां सुविभक्तांगीं विनाभरणशोभिनीम्।
प्रहर्षमतुलं लेभे मारुतिः प्रेक्ष्य मैथिलीम्॥३०॥
उनके नेत्र मृगछौनों के समान चञ्चल थे। वे डरी हुई मृगकन्या की भाँति सब ओर सशंक दृष्टि से देख रही थीं। अपने उच्छ्वासों से पल्लवधारी वृक्षों को दग्ध-सी करती जान पड़ती थीं। शोकों की मूर्तिमती प्रतिमा-सी दिखायी देती थीं और दुःख की उठी हुई तरंग-सी प्रतीत होती थीं। उनके सभी अंगों का विभाग सुन्दर था। यद्यपि वे विरह-शोक से दुर्बल हो गयी थीं तथापि आभूषणों के बिना ही शोभा पाती थीं। इस अवस्था में मिथिलेशकुमारी सीता को देखकर पवनपुत्र हनुमान् को उनका पता लग जाने के कारण अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ॥ २८–३०॥
हर्षजानि च सोऽश्रूणि तां दृष्ट्वा मदिरेक्षणाम्।
मुमोच हनुमांस्तत्र नमश्चक्रे च राघवम्॥३१॥
मनोहर नेत्रवाली सीता को वहाँ देखकर हनुमान जी हर्ष के आँसू बहाने लगे। उन्होंने मन-ही-मन श्रीरघुनाथजी को नमस्कार किया॥३१॥
नमस्कृत्वाथ रामाय लक्ष्मणाय च वीर्यवान्।
सीतादर्शनसंहृष्टो हनुमान् संवृतोऽभवत्॥३२॥
सीता के दर्शन से उल्लसित हो श्रीराम और लक्ष्मण को नमस्कार करके पराक्रमी हनुमान् वहीं छिपे रहे॥ ३२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तदशः सर्गः॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१७॥
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