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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 18

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (18)

(अपनी स्त्रियों से घिरे हुए रावण का अशोकवाटिका में आगमन और हनुमान जी का उसे देखना)

तथा विप्रेक्षमाणस्य वनं पुष्पितपादपम्।
विचिन्वतश्च वैदेहीं किञ्चिच्छेषा निशाभवत्॥१॥

इस प्रकार फूले हुए वृक्षों से सुशोभित उस वन की शोभा देखते और विदेहनन्दिनी का अनुसंधान करते हुए हनुमान जी की वह सारी रात प्रायः बीत चली। केवल एक पहर रात बाकी रही॥१॥

षडंगवेदविदुषां क्रतुप्रवरयाजिनाम्।
शुश्राव ब्रह्मघोषान् स विरात्रे ब्रह्मरक्षसाम्॥२॥

रात के उस पिछले पहर में छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदों के विद्वान् तथा श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा यजन करने वाले ब्रह्म-राक्षसों के घर में वेदपाठ की ध्वनि होने लगी, जिसे हनुमान जी ने सुना॥२॥

अथ मंगलवादित्रैः शब्दैः श्रोत्रमनोहरैः।
राबोध्यत महाबाहुर्दशग्रीवो महाबलः॥३॥

तदनन्तर मंगल वाद्यों तथा श्रवण-सुखद शब्दों द्वारा महाबली महाबाहु दशमुख रावण को जगाया गया।३॥

विबुध्य तु महाभागो राक्षसेन्द्रः प्रतापवान्।
सस्तमाल्याम्बरधरो वैदेहीमन्वचिन्तयत्॥४॥

जागने पर महान् भाग्यशाली एवं प्रतापी राक्षसराज रावणने सबसे पहले विदेहनन्दिनी सीता का चिन्तन किया। उस समय नींद के कारण उसके पुष्पहार और वस्त्र अपने स्थान से खिसक गये थे॥४॥

भृशं नियुक्तस्तस्यां च मदनेन मदोत्कटः।
न तु तं राक्षसः कामं शशाकात्मनि गुहितुम्॥

वह मदमत्त निशाचर काम से प्रेरित हो सीता के प्रति अत्यन्त आसक्त हो गया था। अतः उस कामभाव को अपने भीतर छिपाये रखने में असमर्थ हो गया॥५॥

स सर्वाभरणैर्युक्तो बिभ्रच्छ्यिमनुत्तमाम्।
तां नगैर्विविधैर्जुष्टां सर्वपुष्पफलोपगैः॥६॥
वृतां पुष्करिणीभिश्च नानापुष्पोपशोभिताम्।
सदा मत्तैश्च विहगैर्विचित्रां परमाद्भुतैः॥७॥
ईहामृगैश्च विविधैर्वृतां दृष्टिमनोहरैः।
वीथीः सम्प्रेक्षमाणश्च मणिकाञ्चनतोरणाम्॥
नानामृगगणाकीर्णां फलैः प्रपतितैर्वृताम्।
अशोकवनिकामेव प्राविशत् संततद्रुमाम्॥९॥

उसने सब प्रकार के आभूषण धारण किये और परम उत्तम शोभा से सम्पन्न हो उस अशोकवाटिका में ही प्रवेश किया, जो सब प्रकार के फूल और फल देने वाले भाँति-भाँति के वृक्षों से सुशोभित थी। नाना प्रकार के पुष्प उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। बहुत-से सरोवरों द्वारा वह वाटिका घिरी हुई थी। सदा मतवाले रहने वाले परम अद्भुत पक्षियों के कारण उसकी विचित्र शोभा होती थी। कितने ही नयनाभिराम क्रीडामृगों से भरी हुई वह वाटिका भाँति-भाँति के मृगसमूहों से व्याप्त थी। बहुत-से गिरे हुए फलों के कारण वहाँ की भूमि ढक गयी थी। पुष्पवाटिका में मणि और सुवर्ण के फाटक लगे थे और उसके भीतर पंक्तिबद्ध वृक्ष बहुत दूर तक फैले हुए थे। वहाँ की गलियों को देखता हुआ रावण उस वाटिका में घुसा॥ ६-९॥

अंगनाः शतमात्रं तु तं व्रजन्तमनुव्रजन्।
महेन्द्रमिव पौलस्त्यं देवगन्धर्वयोषितः॥१०॥

जैसे देवताओं और गन्धर्वो की स्त्रियाँ देवराज इन्द्र के पीछे चलती हैं, उसी प्रकार अशोकवन में जाते हुए पुलस्त्यनन्दन रावण के पीछे-पीछे लगभग एक सौ सुन्दरियाँ गयीं॥ १०॥

दीपिकाः काञ्चनीः काश्चिज्जगृहुस्तत्र योषितः।
वालव्यजनहस्ताश्च तालवृन्तानि चापराः॥११॥

उन युवतियों में से किन्हीं ने सुवर्णमय दीपक ले रखे थे। किन्हीं के हाथों में चँवर थे तो किन्हीं के हाथों में ताड़के पंखे ॥११॥

काञ्चनैश्चैव श्रृंगारैर्जगुः सलिलमग्रतः।
मण्डलाग्रा बृसीश्चैव गृह्यान्याः पृष्ठतो ययुः॥१२॥

कुछ सुन्दरियाँ सोने की झारियों में जल लिये आगे आगे चल रही थीं और कई दूसरी स्त्रियाँ गोलाकार बृसी नामक आसन लिये पीछे-पीछे जा रही थीं। १२॥

काचिद् रत्नमयीं पात्री पूर्णां पानस्य भ्राजतीम्।
दक्षिणा दक्षिणेनैव तदा जग्राह पाणिना॥१३॥

कोई चतुर-चालाक युवती दाहिने हाथ में पेयरस से भरी हुई रत्ननिर्मित चमचमाती कलशी लिये हुए थी॥

राजहंसप्रतीकाशं छत्रं पूर्णशशिप्रभम्।
सौवर्णदण्डमपरा गृहीत्वा पृष्ठतो ययौ॥१४॥

कोई दूसरी स्त्री सोने के डंडे से युक्त और पूर्ण चन्द्रमा तथा राज-हंस के समान श्वेतछत्र लेकर रावण के पीछे-पीछे चल रही थी॥१४॥

निद्रामदपरीताक्ष्यो रावणस्योत्तमस्त्रियः।
अनुजग्मुः पतिं वीरं घनं विद्युल्लता इव ॥१५॥

जैसे बादल के साथ-साथ बिजलियाँ चलती हैं, उसी प्रकार रावण की सुन्दरी स्त्रियाँ अपने वीर पति के पीछे-पीछे जा रही थीं। उस समय नींद के नशे में उनकी आँखें झपी जाती थीं॥ १५ ॥

व्याविद्धहारकेयूराः समामृदितवर्णकाः।
समागलितकेशान्ताः सस्वेदवदनास्तथा॥१६॥

उनके हार और बाजूबंद अपने स्थान से खिसक गये थे। अंगराग मिट गये थे। चोटियाँ खुल गयी थीं और मुखपर पसीने की बूंदें छा रही थीं॥१६॥

घूर्णन्त्यो मदशेषेण निद्रया च शुभाननाः।
स्वेदक्लिष्टांगकुसुमाः समाल्याकुलमूर्धजाः॥१७॥

वे सुमुखी स्त्रियाँ अवशेष मद और निद्रा से झूमती हुई-सी चल रही थीं। विभिन्न अंगों में धारण किये गये पुष्प पसीने से भीग गये थे और पुष्पमालाओं से अलंकृत केश कुछ-कुछ हिल रहे थे॥१७॥

प्रयान्तं नैर्ऋतपतिं नार्यो मदिरलोचनाः।
बहुमानाच्च कामाच्च प्रियभार्यास्तमन्वयुः॥१८॥

जिनकी आँखें मदमत्त बना देने वाली थीं, वे राक्षसराज की प्यारी पत्नियाँ अशोक वन में जाते हुए पति के साथ बड़े आदर से और अनुरागपूर्वक जा रही थीं॥ १८॥

स च कामपराधीनः पतिस्तासां महाबलः।
सीतासक्तमना मन्दो मन्दाञ्चितगतिर्बभौ॥१९॥

उन सबका पति महाबली मन्दबुद्धि रावण काम के अधीन हो रहा था। वह सीता में मन लगाये मन्दगति से आगे बढ़ता हुआ अद्भुत शोभा पा रहा था॥ १९॥

ततः काञ्चीनिनादं च नूपुराणां च निःस्वनम्।
शुश्राव परमस्त्रीणां कपिर्मारुतनन्दनः॥२०॥

उस समय वायुनन्दन कपिवर हनुमान जी ने उन परम सुन्दरी रावणपत्नियों की करधनी का कलनाद और नूपुरों की झनकार सुनी॥२०॥

तं चाप्रतिमकर्माणमचिन्त्यबलपौरुषम्।
द्वारदेशमनुप्राप्तं ददर्श हनुमान् कपिः॥२१॥

साथ ही, अनुपम कर्म करने वाले तथा अचिन्त्य बल-पौरुष से सम्पन्न रावण को भी कपिवर हनुमान् ने देखा, जो अशोकवाटिका के द्वार तक आ पहुँचा था। २१॥

दीपिकाभिरनेकाभिः समन्तादवभासितम्।
गन्धतैलावसिक्ताभिर्धियमाणाभिरग्रतः॥२२॥

उसके आगे-आगे सुगन्धित तेल से भीगी हुई और स्त्रियों द्वारा हाथों में धारण की हुई बहुत-सी मशालें जल रही थीं, जिनके द्वारा वह सब ओर से प्रकाशित हो रहा था॥ २२॥

कामदर्पमदैर्युक्तं जिह्मताम्रायतेक्षणम्।
समक्षमिव कंदर्पमपविद्धशरासनम्॥२३॥

वह काम, दर्प और मद से युक्त था। उसकी आँखें टेढ़ी, लाल और बड़ी-बड़ी थीं। वह धनुषरहित साक्षात् कामदेव के समान जान पड़ता था॥ २३॥

मथितामृतफेनाभमरजोवस्त्रमुत्तमम्।।
सपुष्पमवकर्षन्तं विमुक्तं सक्तमंगदे॥२४॥

उसका वस्त्र मथे हुए दूध के फेन की भाँति श्वेत, निर्मल और उत्तम था। उसमें मोती के दाने और फूल टँके हुए थे। वह वस्त्र उसके बाजूबंद में उलझ गया था और रावण उसे खींचकर सुलझा रहा था॥२४॥

तं पत्रविटपे लीनः पत्रपुष्पशतावृतः।
समीपमुपसंक्रान्तं विज्ञातुमुपचक्रमे॥ २५॥

अशोक-वृक्ष के पत्तों और डालियों में छिपे हुए हनुमान् जी सैकड़ों पत्रों तथा पुष्पों से ढक गये थे। उसी अवस्था में उन्होंने निकट आये हुए रावण को पहचानने का प्रयत्न किया॥ २५ ॥

अवेक्षमाणस्तु तदा ददर्श कपिकुञ्जरः।
रूपयौवनसम्पन्ना रावणस्य वरस्त्रियः॥ २६॥

उसकी ओर देखते समय कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने रावण की सुन्दरी स्त्रियों को भी लक्ष्य किया, जो रूप और यौवन से सम्पन्न थीं॥ २६॥

ताभिः परिवृतो राजा सुरूपाभिर्महायशाः।
तन्मृगद्विजसंघुष्टं प्रविष्टः प्रमदावनम्॥ २७॥

उन सुन्दर रूपवाली युवतियों से घिरे हुए महायशस्वी राजा रावण ने उस प्रमदावन में प्रवेश किया, जहाँ अनेक प्रकार के पशु-पक्षी अपनी-अपनी बोली बोल रहे थे॥२७॥

क्षीबो विचित्राभरणः शङ्ककर्णो महाबलः।
तेन विश्रवसः पुत्रः स दृष्टो राक्षसाधिपः॥ २८॥

वह मतवाला दिखायी देता था। उसके आभूषण विचित्र थे। उसके कान ऐसे प्रतीत होते थे, मानो वहाँ खूटे गाड़े गये हैं। इस प्रकार वह विश्रवामुनि का पुत्र महाबली राक्षसराज रावण हनुमान जी के दृष्टिपथ में आया॥२८॥

वृतः परमनारीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमाः।
तं ददर्श महातेजास्तेजोवन्तं महाकपिः॥ २९॥
रावणोऽयं महाबाहरिति संचिन्त्य वानरः।
सोऽयमेव पुरा शेते पुरमध्ये गृहोत्तमे।
अवप्लुतो महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः॥३०॥

ताराओं से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति वह परम सुन्दरी युवतियों से घिरा हुआ था। महातेजस्वी महाकपि हनुमान् ने उस तेजस्वी राक्षस को देखा और देखकर यह निश्चय किया कि यही महाबाहु रावण है। पहले यही नगर में उत्तम महल के भीतर सोया हुआ था। ऐसा सोचकर वे वानरवीर महातेजस्वीपवनकुमार हनुमान् जी जिस डाली पर बैठे थे, वहाँ से कुछ नीचे उतर आये (क्योंकि वे निकट से रावण की सारी चेष्टाएँ देखना चाहते थे) ॥ २९-३०॥

स तथाप्युग्रतेजाः स निर्धूतस्तस्य तेजसा।
पत्रे गुह्यान्तरे सक्तो मतिमान् संवृतोऽभवत्॥३१॥

यद्यपि मतिमान् हनुमान जी भी बड़े उग्र तेजस्वी थे, तथापि रावण के तेजसे तिरस्कृत-से होकर सघन पत्तों में घुसकर छिप गये॥ ३१॥

स तामसितकेशान्तां सुश्रोणीं संहतस्तनीम्।
दिदृक्षुरसितापांगीमुपावर्तत रावणः॥३२॥

उधर रावण काले केश, कजरारे नेत्र, सुन्दर कटिभाग और परस्पर सटे हुए स्तनवाली सुन्दरी सीता को देखने के लिये उनके पास गया॥ ३२॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।


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Shivangi

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