वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 27 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 27
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः (27)
(त्रिजटा का स्वप्न, राक्षसों के विनाश और श्रीरघुनाथजी की विजय की शुभ सूचना)
इत्युक्ताः सीतया घोरं राक्षस्यः क्रोधमूर्च्छिताः।
काश्चिज्जग्मुस्तदाख्यातुं रावणस्य दुरात्मनः॥१॥
सीता ने जब ऐसी भयंकर बात कही, तब वे राक्षसियाँ क्रोध से अचेत-सी हो गयीं और उनमें से कुछ उस दुरात्मा रावण से वह संवाद कहने के लिये चल दीं॥ १॥
ततः सीतामुपागम्य राक्षस्यो भीमदर्शनाः।
पुनः परुषमेकार्थमनर्थार्थमथाब्रुवन्॥२॥
तत्पश्चात् भयंकर दिखायी देने वाली वे राक्षसियाँ सीता के पास आकर पुनः एक ही प्रयोजन से सम्बन्ध रखने वाली कठोर बातें, जो उनके लिये ही अनर्थकारिणी थीं, कहने लगीं- ॥२॥
अद्येदानीं तवानार्ये सीते पापविनिश्चये।
राक्षस्यो भक्षयिष्यन्ति मांसमेतद् यथासुखम्॥
‘पापपूर्ण विचार रखने वाली अनार्ये सीते! आज इसी समय ये सब राक्षसियाँ मौज के साथ तेरा यह मांस खायेंगी’ ॥३॥
सीतां ताभिरनार्याभिर्दृष्ट्वा संतर्जितां तदा।
राक्षसी त्रिजटा वृद्धा प्रबुद्धा वाक्यमब्रवीत्॥४॥
उन दुष्ट निशाचरियों के द्वारा सीता को इस प्रकार डरायी जाती देख बूढ़ी राक्षसी त्रिजटा, जो तत्काल सोकर उठी थी, उन सबसे कहने लगी— ॥४॥
आत्मानं खादतानार्या न सीतां भक्षयिष्यथ।
जनकस्य सुतामिष्टां स्नुषां दशरथस्य च॥५॥
‘नीच निशाचरियो! तुमलोग अपने-आपको ही खा जाओ। राजा जनक की प्यारी बेटी तथा महाराज दशरथ की प्रिय पुत्रवधू सीताजी को नहीं खा सकोगी॥ ५॥
स्वप्नो ह्यद्य मया दृष्टो दारुणो रोमहर्षणः।
राक्षसानामभावाय भर्तुरस्या भवाय च॥६॥
‘आज मैंने बड़ा भयंकर और रोमाञ्चकारी स्वप्न देखा है, जो राक्षसोंके विनाश और सीतापति के अभ्युदय की सूचना देनेवाला है’ ॥६॥
एवमुक्तास्त्रिजटया राक्षस्यः क्रोधमूर्च्छिताः।
सर्वा एवाब्रुवन् भीतास्त्रिजटां तामिदं वचः॥७॥
त्रिजटा के ऐसा कहने पर वे सब राक्षसियाँ, जो पहले क्रोध से मूर्च्छित हो रही थीं, भयभीत हो उठीं और त्रिजटा से इस प्रकार बोलीं- ॥७॥
कथयस्व त्वया दृष्टः स्वप्नोऽयं कीदृशो निशि।
तासां श्रुत्वा तु वचनं राक्षसीनां मुखोद्गतम्॥८॥
उवाच वचनं काले त्रिजटा स्वप्नसंश्रितम्।
‘अरी! बताओ तो सही, तुमने आज रात में यह कैसा स्वप्न देखा है?’ उन राक्षसियों के मुख से निकली हुई यह बात सुनकर त्रिजटा ने उस समय वह स्वप्न-सम्बन्धी बात इस प्रकार कही- ॥ ८ १/२॥
गजदन्तमयीं दिव्यां शिबिकामन्तरिक्षगाम्॥९॥
युक्तां वाजिसहस्रेण स्वयमास्थाय राघवः।
शुक्लमाल्याम्बरधरो लक्ष्मणेन समागतः॥१०॥
‘आज स्वप्न में मैंने देखा है कि आकाश में चलने वाली एक दिव्य शिबिका है। वह हाथी दाँत की बनी हुई है। उसमें एक हजार घोड़े जुते हुए हैं और श्वेत पुष्पों की माला तथा श्वेत वस्त्र धारण किये स्वयं श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण के साथ उस शिबिका पर चढ़कर यहाँ पधारे हैं।
स्वप्ने चाद्य मया दृष्टा सीता शुक्लाम्बरावृता।
सागरेण परिक्षिप्तं श्वेतपर्वतमास्थिता॥११॥
रामेण संगता सीता भास्करण प्रभा यथा।
‘आज स्वप्न में मैंने यह भी देखा है कि सीता श्वेत वस्त्र धारण किये श्वेत पर्वत के शिखर पर बैठी हैं और वह पर्वत समुद्र से घिरा हुआ है, वहाँ जैसे सूर्यदेव से उनकी प्रभा मिलती है, उसी प्रकार सीता श्रीरामचन्द्रजी से मिली हैं॥ ११ १/२॥
राघवश्च पुनर्दृष्टश्चतुर्दन्तं महागजम्॥१२॥
आरूढः शैलसंकाशं चकास सहलक्ष्मणः।
‘मैंने श्रीरघुनाथजी को फिर देखा, वे चार दाँतवाले विशाल गजराजपर, जो पर्वत के समान ऊँचा था,लक्ष्मण के साथ बैठे हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। १२ १/२॥
ततस्तु सूर्यसंकाशौ दीप्यमानौ स्वतेजसा॥१३॥
शुक्लमाल्याम्बरधरौ जानकी पर्युपस्थितौ।
तदनन्तर अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होते तथा श्वेत माला और श्वेत वस्त्र धारण किये वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण जानकीजी के पास आये॥ १३ १/२॥
ततस्तस्य नगस्याग्रे ह्याकाशस्थस्य दन्तिनः॥१४॥
भर्चा परिगृहीतस्य जानकी स्कन्धमाश्रिता।
‘फिर उस पर्वत-शिखर पर आकाश में ही खड़े हुए और पति द्वारा पकड़े गये उस हाथी के कंधे पर जानकीजी भी आ पहुँचीं॥ १४ १/२॥
भर्तुरङ्कात् समुत्पत्य ततः कमललोचना॥१५॥
चन्द्रसूर्यो मया दृष्टा पाणिभ्यां परिमार्जती।
‘इसके बाद कमलनयनी सीता अपने पति के अङ्क से ऊपर को उछलकर चन्द्रमा और सूर्य के पास पहुँच गयीं। वहाँ मैंने देखा, वे अपने दोनों हाथों से चन्द्रमा और सूर्य को पोंछ रही हैं उन पर हाथ फेर रही हैं* ॥ १५ १/२॥
*जो स्त्री या पुरुष स्वप्नमें अपने दोनों हाथोंसे सूर्यमण्डल अथवा चन्द्रमण्डलको छू लेता है, उसे विशाल राज्यकी प्राप्ति होती है। जैसा कि स्वप्नाध्यायका वचन है
आदित्यमण्डलं वापि चन्द्रमण्डलमेव वा।
स्वप्ने गृह्णाति हस्ताभ्यां राज्यं सम्प्राप्नुयान्महत्॥
ततस्ताभ्यां कुमाराभ्यामास्थितः स गजोत्तमः।
सीतया च विशालाक्ष्या लङ्काया उपरि स्थितः॥१६॥
तत्पश्चात् जिस पर वे दोनों राजकुमार और विशाललोचना सीताजी विराजमान थीं, वह महान् गजराज लङ्का के ऊपर आकर खड़ा हो गया॥१६॥
पाण्डुरर्षभयुक्तेन रथेनाष्टयुजा स्वयम्।
इहोपयातः काकुत्स्थः सीतया सह भार्यया॥१७॥
शुक्लमाल्याम्बरधरो लक्ष्मणेन सहागतः।
‘फिर मैंने देखा कि आठ सफेद बैलों से जुते हुए एक रथ पर आरूढ़ हो ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी श्वेत पुष्पों की माला और वस्त्र धारण किये अपनी धर्मपत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ यहाँ पधारे हैं।। १७ १/२ ॥
ततोऽन्यत्र मया दृष्टो रामः सत्यपराक्रमः॥१८॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया सह वीर्यवान्।
आरुह्य पुष्पकं दिव्यं विमानं सूर्यसंनिभम्॥१९॥
उत्तरां दिशमालोच्य प्रस्थितः पुरुषोत्तमः।
‘इसके बाद दूसरी जगह मैंने देखा, सत्यपराक्रमी और बल-विक्रमशाली पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ सूर्यतुल्य तेजस्वी दिव्य पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो उत्तर दिशा को लक्ष्य करके यहाँ से प्रस्थित हुए हैं॥ १८-१९ १/२॥
एवं स्वप्ने मया दृष्टो रामो विष्णुपराक्रमः॥२०॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया सह भार्यया।
‘इस प्रकार मैंने स्वप्न में भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी श्रीराम का उनकी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ दर्शन किया॥ २० १/२॥
न हि रामो महातेजाः शक्यो जेतुं सुरासुरैः॥२१॥
राक्षसैर्वापि चान्यैर्वा स्वर्गः पापजनैरिव।
‘श्रीरामचन्द्रजी महातेजस्वी हैं। उन्हें देवता, असुर, राक्षस तथा दूसरे लोग भी कदापि जीत नहीं सकते। ठीक उसी तरह, जैसे पापी मनुष्य स्वर्गलोक पर विजय नहीं पा सकते॥२१ १/२॥
रावणश्च मया दृष्टो मुण्डस्तैलसमुक्षितः॥२२॥
रक्तवासाः पिबन्मत्तः करवीरकृतस्रजः।
विमानात् पुष्पकादद्य रावणः पतितः क्षितौ॥ २३॥
‘मैंने रावण को भी सपने में देखा था। वह मूड़ मुड़ाये तेल से नहाकर लाल कपड़े पहने हुए था। मदिरा पीकर मतवाला हो रहा था तथा करवीर के फूलों की माला पहने हुए था। इसी वेशभूषा में आज रावण पुष्पक विमान से पृथ्वी पर गिर पड़ा था। २२-२३॥
कृष्यमाणः स्त्रिया मुण्डो दृष्टः कृष्णाम्बरः पुनः।
रथेन खरयुक्तेन रक्तमाल्यानुलेपनः॥२४॥
पिबंस्तैलं हसन्नृत्यन् भ्रान्तचित्ताकुलेन्द्रियः।
गर्दभेन ययौ शीघ्रं दक्षिणां दिशमास्थितः॥२५॥
‘एक स्त्री उस मुण्डित-मस्तक रावण को कहीं खींचे लिये जा रही थी। उस समय मैंने फिर देखा, रावण ने काले कपड़े पहन रखे हैं। वह गधे जुते हुए रथ से यात्रा कर रहा था। लाल फूलों की माला और लाल चन्दन से विभूषित था। तेल पीता, हँसता और नाचता था। पागलों की तरह उसका चित्त भ्रान्त और इन्द्रियाँ व्याकुल थीं। वह गधे पर सवार हो शीघ्रतापूर्वक दक्षिण-दिशा की ओर जा रहा था। २४-२५॥
पुनरेव मया दृष्टो रावणो राक्षसेश्वरः।
पतितोऽवाक्शिरा भूमौ गर्दभाद् भयमोहितः॥२६॥
‘तदनन्तर मैंने फिर देखा राक्षसराज रावण गधे से नीचे भूमि पर गिर पड़ा है। उसका सिर नीचे की ओर है (और पैर ऊपर की ओर) तथा वह भय से मोहित हो रहा है॥२६॥
सहसोत्थाय सम्भ्रान्तो भया मदविह्वलः।
उन्मत्तरूपो दिग्वासा दुर्वाक्यं प्रलपन् बहु॥२७॥
दुर्गन्धं दुःसहं घोरं तिमिरं नरकोपमम्।
मलपकं प्रविश्याशु मग्नस्तत्र स रावणः॥२८॥
‘फिर वह भयातुर हो घबराकर सहसा उठा और मद से विह्वल हो पागल के समान नंग-धडंग वेष में बहुत-से दुर्वचन (गाली आदि) बकता हुआ आगे बढ़ गया। सामने ही दुर्गन्धयुक्त दुःसह घोर अन्धकारपूर्ण और नरकतुल्य मल का पङ्क था, रावण उसी में घुसा और वहीं डूब गया॥ २७-२८॥
प्रस्थितो दक्षिणामाशां प्रविष्टोऽकर्दमं ह्रदम्।
कण्ठे बद्ध्वा दशग्रीवं प्रमदा रक्तवासिनी॥२९॥
काली कर्दमलिप्तांगी दिशं याम्यां प्रकर्षति।
एवं तत्र मया दृष्टः कुम्भकर्णो महाबलः॥३०॥
‘तदनन्तर फिर देखा, रावण दक्षिण की ओर जा रहा है। उसने एक ऐसे तालाब में प्रवेश किया है, जिसमें कीचड़ का नाम नहीं है। वहाँ एक काले रंग की स्त्री है, जिसके अंगों में कीचड़ लिपटी हुई है। वह युवती लाल वस्त्र पहने हुए है और रावण का गला बाँधकर उसे दक्षिण-दिशा की ओर खींच रही है। वहाँ महाबली कुम्भकर्ण को भी मैंने इसी अवस्था में देखा है।
रावणस्य सुताः सर्वे मुण्डास्तैलसमुक्षिताः।
वराहेण दशग्रीवः शिशुमारेण चेन्द्रजित्॥३१॥
उष्टेण कुम्भकर्णश्च प्रयातो दक्षिणां दिशम्।
‘रावण के सभी पुत्र भी मूड़ मुड़ाये और तेल में नहाये दिखायी दिये हैं। यह भी देखने में आया कि रावण सूअर पर, इन्द्रजित् सँस पर और कुम्भकर्ण ऊँट पर सवार हो दक्षिण-दिशा को गये हैं। ३१ १/२॥
एकस्तत्र मया दृष्टः श्वेतच्छत्रो विभीषणः॥३२॥
शुक्लमाल्याम्बरधरः शुक्लगन्धानुलेपनः।
‘राक्षसों में एकमात्र विभीषण ही ऐसे हैं, जिन्हें मैंने वहाँ श्वेत छत्र लगाये, सफेद माला पहने, श्वेत वस्त्र धारण किये तथा श्वेत चन्दन और अंगराग लगाये देखा है॥ ३२ १/२॥
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैर्नृत्तगीतैरलंकृतः॥३३॥
आरुह्य शैलसंकाशं मेघस्तनितनिःस्वनम्।
चतुर्दन्तं गजं दिव्यमास्ते तत्र विभीषणः॥३४॥
चतुर्भिः सचिवैः सार्धं वैहायसमुपस्थितः॥३५॥
‘उनके पास शकध्वनि हो रही थी, नगाड़े बजाये जा रहे थे। इनके गम्भीर घोष के साथ ही नृत्य और गीत भी हो रहे थे, जो विभीषण की शोभा बढ़ा रहे थे। विभीषण वहाँ अपने चार मन्त्रियों के साथ पर्वत के समान विशालकाय मेघ के समान गम्भीर शब्द करने वाले तथा चार दाँतों वाले दिव्य गजराजपर आरूढ़ हो आकाश में खड़े थे॥ ३३–३५॥
समाजश्च महान् वृत्तो गीतवादित्रनिःस्वनः।
पिबतां रक्तमाल्यानां रक्षसां रक्तवाससाम्॥३६॥
‘यह भी देखने में आया कि तेल पीने वाले तथा लाल माला और लाल वस्त्र धारण करने वाले राक्षसों का वहाँ बहुत बड़ा समाज जुटा हुआ है एवं गीतों और वाद्यों की मधुर ध्वनि हो रही है॥ ३६॥
लङ्का चेयं पुरी रम्या सवाजिरथकुञ्जरा।
सागरे पतिता दृष्टा भग्नगोपुरतोरणा॥३७॥
‘यह रमणीय लङ्कापुरी घोड़े, रथ और हाथियोंसहित समुद्र में गिरी हुई देखी गयी है। इसके बाहरी और भीतरी दरवाजे टूट गये हैं॥ ३७॥
लङ्का दृष्टा मया स्वप्ने रावणेनाभिरक्षिता।
दग्धा रामस्य दूतेन वानरेण तरस्विना॥३८॥
‘मैंने स्वप्न में देखा है कि रावण द्वारा सुरक्षित लङ्कापुरी को श्रीरामचन्द्रजी का दूत बनकर आये हुए एक वेगशाली वानर ने जलाकर भस्म कर दिया है। ३८॥
पीत्वा तैलं प्रमत्ताश्च प्रहसन्त्यो महास्वनाः।
लङ्कायां भस्मरूक्षायां सर्वा राक्षसयोषितः॥३९॥
‘राख से रूखी हुई लङ्का में सारी राक्षसरमणियाँ तेल पीकर मतवाली हो बड़े जोर-जोर से ठहाका मारकर हँसती हैं॥ ३९॥
कुम्भकर्णादयश्चेमे सर्वे राक्षसपंगवाः।
रक्तं निवसनं गृह्य प्रविष्टा गोमयह्रदम्॥४०॥
‘कुम्भकर्ण आदि ये समस्त राक्षसशिरोमणि वीर लाल कपड़े पहनकर गोबर के कुण्ड में घुस गये हैं। ४०॥
अपगच्छत पश्यध्वं सीतामाप्नोति राघवः।
घातयेत् परमामर्षी युष्मान् सार्धं हि राक्षसैः॥४१॥
‘अतः अब तुमलोग हट जाओ और देखो कि किस तरह श्रीरघुनाथजी सीता को प्राप्त कर रहे हैं। वे बड़े अमर्षशील हैं, राक्षसों के साथ तुम सबको भी मरवा डालेंगे॥४१॥
प्रियां बहुमतां भार्यां वनवासमनुव्रताम्।
भसितां तर्जितां वापि नानुमंस्यति राघवः॥४२॥
‘जिन्होंने वनवास में भी उनका साथ दिया है, उन अपनी पतिव्रता भार्या और परमादरणीया प्रियतमा सीता का इस तरह धमकाया और डराया जाना श्रीरघुनाथजी कदापि सहन नहीं करेंगे॥४२॥
तदलं क्रूरवाक्यैश्च सान्त्वमेवाभिधीयताम्।
अभियाचाम वैदेहीमेतद्धि मम रोचते॥४३॥
‘अतः अब इस तरह कठोर बातें सुनाना छोड़ो; क्योंकि इनसे कोई लाभ नहीं होगा। अब तो मधुर वचन का ही प्रयोग करो। मुझे तो यही अच्छा लगता है कि हमलोग विदेहनन्दिनी सीता से कृपा और क्षमा की याचना करें॥४३॥
यस्या ह्येवंविधः स्वप्नो दुःखितायाः प्रदृश्यते।
सा दुःखैर्बहुभिर्मुक्ता प्रियं प्राप्नोत्यनुत्तमम्॥४४॥
‘जिस दुःखिनी नारीके विषयमें ऐसा स्वप्न देखा जाता है, वह बहुसंख्यक दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम उत्तम प्रिय वस्तु प्राप्त कर लेती है॥४४॥
भर्त्तितामपि याचध्वं राक्षस्यः किं विवक्षया।
राघवाद्धि भयं घोरं राक्षसानामुपस्थितम्॥४५॥
‘राक्षसियो! मैं जानती हूँ, तुम्हें कुछ और कहने या बोलने की इच्छा है; किंतु इससे क्या होगा? यद्यपि तुमने सीता को बहुत धमकाया है तो भी इनकी शरण में आकर इनसे अभय की याचना करो; क्योंकि श्रीरघुनाथजी की ओर से राक्षसों के लिये घोर भय उपस्थित हुआ है॥ ४५॥
प्रणिपातप्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा।
अलमेषा परित्रातुं राक्षस्यो महतो भयात्॥४६॥
‘राक्षसियो! जनकनन्दिनी मिथिलेशकुमारी सीता केवल प्रणाम करने से ही प्रसन्न हो जायँगी। ये ही उस महान् भय से तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ हैं। ४६॥
अपि चास्या विशालाक्ष्या न किंचिदुपलक्षये।
विरूपमपि चांगेषु सुसूक्ष्ममपि लक्षणम्॥४७॥
‘इन विशाललोचना सीता के अंगों में मुझे कोई सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भी विपरीत लक्षण नहीं दिखायी देता (जिससे समझा जाय कि ये सदा कष्ट में ही रहेंगी)॥ ४७॥
छायावैगुण्यमात्रं तु शङ्के दुःखमुपस्थितम्।
अदुःखार्हामिमां देवीं वैहायसमुपस्थिताम्॥४८॥
‘मैं तो समझती हूँ कि इन्हें जो वर्तमान दुःख प्राप्त हुआ है, वह ग्रहण के समय चन्द्रमा पर पड़ी हुई छाया के समान थोड़ी ही देर का है; क्योंकि ये देवी सीता मुझे स्वप्न में विमान पर बैठी दिखायी दी हैं, अतः ये दुःख भोगने के योग्य कदापि नहीं हैं॥४८॥
अर्थसिद्धिं तु वैदेह्याः पश्याम्यहमुपस्थिताम्।
राक्षसेन्द्रविनाशं च विजयं राघवस्य च॥४९॥
‘मुझे तो अब जानकीजी के अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि उपस्थित दिखायी देती है। राक्षसराज रावण के विनाश और रघुनाथजी की विजय में अब अधिक विलम्ब नहीं है॥४९॥
निमित्तभूतमेतत् तु श्रोतुमस्या महत् प्रियम्।
दृश्यते च स्फुरच्चक्षुः पद्मपत्रमिवायतम्॥५०॥
‘कमलदल के समान इनका विशाल बायाँ नेत्र फड़कता दिखायी देता है। यह इस बात का सूचक है कि इन्हें शीघ्र ही अत्यन्त प्रिय संवाद सुनने को मिलेगा॥
ईषद्धि हृषितो वास्या दक्षिणाया ह्यदक्षिणः।
अकस्मादेव वैदेह्या बाहुरेकः प्रकम्पते॥५१॥
‘इन उदारहृदया विदेहराजकुमारी की एक बायीं बाँह कुछ रोमाञ्चित होकर सहसा काँपने लगी है (यह भी शुभ का ही सूचक है) ॥५१॥
करेणुहस्तप्रतिमः सव्यश्चोरुरनुत्तमः।
वेपन् कथयतीवास्या राघवं पुरतः स्थितम्॥५२॥
‘हाथी की सैंड़ के समान जो इनकी परम उत्तम बायीं जाँघ है, वह भी कम्पित होकर मानो यह सूचित कर रही है कि अब श्रीरघुनाथजी शीघ्र ही तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे॥५२॥
पक्षी च शाखानिलयं प्रविष्टः पुनः पुनश्चोत्तमसान्त्ववादी।
सुस्वागतां वाचमुदीरयाणः पुनः पुनश्चोदयतीव हृष्टः॥५३॥
‘देखो, सामने यह पक्षी शाखा के ऊपर अपने घोंसले में बैठकर बारम्बार उत्तम सान्त्वनापूर्ण मीठी बोली बोल रहा है। इसकी वाणी से ‘सुस्वागतम्’ की ध्वनि निकल रही है और इसके द्वारा यह हर्ष में भरकर मानो पुनः-पुनः मंगलप्राप्ति की सूचना दे रहा है अथवा आने वाले प्रियतम की अगवानी के लिये प्रेरित कर रहा है’ ॥ ५३॥
ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुर्विजयहर्षिता।
अवोचद् यदि तत् तथ्यं भवेयं शरणं हि वः॥५४॥
इस प्रकार पतिदेव की विजयके संवाद से हर्ष में भरी हुई लजीली सीता उन सबसे बोलीं-‘यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं अवश्य ही तुम सबकी रक्षा करूँगी’ ॥ ५४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥२७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२७॥
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