वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 26
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (26)
(सीता का करुण-विलाप तथा अपने प्राणों को त्याग देने का निश्चय करना)
प्रसक्ताश्रुमुखी त्वेवं ब्रुवती जनकात्मजा।
अधोगतमुखी बाला विलप्तुमुपचक्रमे ॥१॥
उन्मत्तेव प्रमत्तेव भ्रान्तचित्तेव शोचती।
उपावृत्ता किशोरीव विचेष्टन्ती महीतले॥२॥
जनकनन्दिनी सीता के मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। उन्होंने अपना मुख नीचे की ओर झुका लिया था। वे उपर्युक्त बातें कहती हुई ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन्मत्त हो गयी हों उन पर भूत सवार हो गया हो अथवा पित्त बढ़ जाने से पागलों का-सा प्रलाप कर रही हों अथवा दिग्भ्रम आदि के कारण, उनका चित्त भ्रान्त हो गया हो। वे शोकमग्न हो धरती पर लोटती हुई बछेड़ी के समान पड़ी-पड़ी छटपटा रही थीं। उसी अवस्था में सरलहृदया सीता ने इस प्रकार विलाप करना आरम्भ किया— ॥ १-२॥
राघवस्य प्रमत्तस्य रक्षसा कामरूपिणा।
रावणेन प्रमथ्याहमानीता क्रोशती बलात्॥३॥
‘हाय! इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षस मारीच के द्वारा जब रघुनाथजी दूर हटा दिये गये और मेरी ओर से असावधान हो गये, उस अवस्था में रावण मुझ रोती, चिल्लाती हुई अबला को बलपूर्वक उठाकर यहाँ ले आया॥३॥
राक्षसीवशमापन्ना भय॑माना च दारुणम्।
चिन्तयन्ती सुदुःखार्ता नाहं जीवितुमुत्सहे॥४॥
‘अब मैं राक्षसियों के वश में पड़ी हूँ और इनकी कठोर धमकियाँ सुनती एवं सहती हूँ। ऐसी दशा में अत्यन्त दुःख से आर्त एवं चिन्तित होकर मैं जीवित नहीं रह सकती॥ ४॥
नहि मे जीवितेनार्थो नैवार्थैर्न च भूषणैः।
वसन्त्या राक्षसीमध्ये विना रामं महारथम्॥५॥
‘महारथी श्रीराम के बिना राक्षसियों के बीच में रहकर मुझे न तो जीवन से कोई प्रयोजन है, न धनकी आवश्यकता है और न आभूषणों से ही कोई काम है॥
अश्मसारमिदं नूनमथवाप्यजरामरम्।
हृदयं मम येनेदं न दुःखेन विशीर्यते॥६॥
अवश्य ही मेरा यह हृदय लोहे का बना हुआ है अथवा अजर-अमर है, जिससे इस महान् दुःख में पड़कर भी यह फटता नहीं है॥६॥
धिनामनार्यामसती याहं तेन विना कृता।
मुहूर्तमपि जीवामि जीवितं पापजीविका॥७॥
‘मैं बड़ी ही अनार्य और असती हूँ, मुझे धिक्कार है, जो उनसे अलग होकर मैं एक मुहूर्त भी इस पापी जीवन को धारण किये हूँ। अब तो यह जीवन केवल दुःख देने के लिये ही है॥७॥
चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम्।
रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम्॥८॥
‘उस लोकनिन्दित निशाचर रावण को तो मैं बायें पैर से भी नहीं छू सकती, फिर उसे चाहने की तो बात ही क्या है ? ॥ ८॥
प्रत्याख्यानं न जानाति नात्मानं नात्मनः कुलम्।
यो नृशंसस्वभावेन मां प्रार्थयितुमिच्छति॥९॥
‘यह राक्षस अपने क्रूर स्वभाव के कारण न तो मेरे इनकार पर ध्यान देता है, न अपने महत्त्व को समझता है और न अपने कुल की प्रतिष्ठा का ही विचार करता है। बारम्बार मुझे प्राप्त करने की ही इच्छा करता है। ९॥
छिन्ना भिन्ना प्रभिन्ना वा दीप्ता वाग्नौ प्रदीपिता।
रावणं नोपतिष्ठेयं किं प्रलापेन वश्चिरम्॥१०॥
‘राक्षसियो! तुम्हारे देर तक बकवाद करने से क्या लाभ? तुम मुझे छेदो, चीरो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो, आग में सेंक दो अथवा सर्वथा जलाकर भस्म कर डालो तो भी मैं रावण के पास नहीं फटक सकती॥ १०॥
ख्यातः प्राज्ञः कृतज्ञश्च सानुक्रोशश्च राघवः।
सवृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात्॥११॥
‘श्रीरघुनाथजी विश्वविख्यात ज्ञानी, कृतज्ञ, सदाचारी और परम दयालु हैं तथापि मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं वे मेरे भाग्य के नष्ट हो जानेसे मेरे प्रति निर्दय तो नहीं हो गये? ॥ ११ ॥
राक्षसानां जनस्थाने सहस्राणि चतुर्दश।
एकेनैव निरस्तानि स मां किं नाभिपद्यते॥१२॥
‘अन्यथा जिन्होंने जनस्थान में अकेले ही चौदह हजार राक्षसों को काल के गाल में डाल दिया, वे मेरे पास क्यों नहीं आ रहे हैं? ॥ १२॥
निरुद्धा रावणेनाहमल्पवीर्येण रक्षसा।
समर्थः खलु मे भर्ता रावणं हन्तुमाहवे॥१३॥
‘इस अल्प बलवाले राक्षस रावण ने मुझे कैद कर रखा है। निश्चय ही मेरे पतिदेव समरांगण में इस रावण का वध करने में समर्थ हैं॥ १३॥
विराधो दण्डकारण्ये येन राक्षसपुंगवः।
रणे रामेण निहतः स मां किं नाभिपद्यते॥१४॥
‘जिन श्रीराम ने दण्डकारण्य के भीतर राक्षसशिरोमणि विराध को युद्ध में मार डाला था, वे मेरी रक्षा करने के लिये यहाँ क्यों नहीं आ रहे हैं? ॥ १४॥
कामं मध्ये समुद्रस्य लङ्केयं दुष्प्रधर्षणा।
न तु राघवबाणानां गतिरोधो भविष्यति॥१५॥
‘यह लङ्का समुद्र के बीच में बसी है, अतः किसी दूसरे के लिये यहाँ आक्रमण करना भले ही कठिन हो; किंतु श्रीरघुनाथजी के बाणों की गति यहाँ भी कुण्ठित नहीं हो सकती॥ १५ ॥
किं नु तत् कारणं येन रामो दृढपराक्रमः।
रक्षसापहृतां भार्यामिष्टां यो नाभिपद्यते॥१६॥
‘वह कौन-सा कारण है, जिससे बाधित होकर सुदृढ़ पराक्रमी श्रीराम राक्षस द्वारा अपहृत हुई अपनी प्राणपत्नी सीता को छुड़ाने के लिये नहीं आ रहे हैं। १६॥
इहस्थां मां न जानीते शङ्के लक्ष्मणपूर्वजः।।
जानन्नपि स तेजस्वी धर्षणां मर्षयिष्यति॥१७॥
‘मुझे तो संदेह होता है कि लक्ष्मणजी के ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजी को मेरे इस लङ्का में होने का पता ही नहीं है। मेरे यहाँ होने की बात यदि वे जानते होते तो उनके-जैसा तेजस्वी पुरुष अपनी पत्नी का यह तिरस्कार कैसे सह सकता था? ॥ १७॥
हृतेति मां योऽधिगत्य राघवाय निवेदयेत्।
गृध्रराजोऽपि स रणे रावणेन निपातितः॥१८॥
‘जो श्रीरघुनाथजी को मेरे हरे जाने की सूचना दे सकते थे, उन गृध्रराज जटायु को भी रावण ने युद्ध में मार गिराया था॥ १८॥
कृतं कर्म महत् तेन मां तथाभ्यवपद्यता।
तिष्ठता रावणवधे वृद्धेनापि जटायुषा॥१९॥
‘जटायु यद्यपि बूढ़े थे तो भी मुझपर अनुग्रह करके रावण का वध करने के लिये उद्यत हो उन्होंने बहुत बड़ा पुरुषार्थ किया था॥ १९॥
यदि मामिह जानीयाद् वर्तमानां हि राघवः।
अद्य बाणैरभिक्रुद्धः कुर्याल्लोकमराक्षसम्॥२०॥
‘यदि श्रीरघुनाथजी को मेरे यहाँ रहने का पता लग जाता तो वे आज ही कुपित होकर सारे संसार को राक्षसों से शून्य कर डालते॥२०॥
निर्दहेच्च पुरीं लङ्कां निर्दहेच्च महोदधिम्।
रावणस्य च नीचस्य कीर्तिं नाम च नाशयेत्॥२१॥
‘लङ्कापुरी को भी जला देते, महासागर को भी भस्म कर डालते तथा इस नीच निशाचर रावण के नाम और यश का भी नाश कर देते॥२१॥
ततो निहतनाथानां राक्षसीनां गृहे गृहे।
यथाहमेवं रुदती तथा भूयो न संशयः॥२२॥
‘फिर तो निःसंदेह अपने पतियों का संहार हो जाने से घर-घर में राक्षसियों का इसी प्रकार क्रन्दन होता, जैसे आज मैं रो रही हूँ॥२२॥
अन्विष्य रक्षसां लङ्कां कुर्याद् रामः सलक्ष्मणः।
नहि ताभ्यां रिपुर्दृष्टो मुहूर्तमपि जीवति ॥२३॥
‘श्रीराम और लक्ष्मण लङ्का का पता लगाकर निश्चय ही राक्षसों का संहार करेंगे। जिस शत्रु को उन दोनों भाइयों ने एक बार देख लिया, वह दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता॥ २३॥
चिताधूमाकुलपथा गृध्रमण्डलमण्डिता।
अचिरेणैव कालेन श्मशानसदृशी भवेत्॥२४॥
‘अब थोड़े ही समय में यह लङ्कापुरी श्मशानभूमि के समान हो जायगी। यहाँ की सड़कों पर चिता का धुआँ फैल रहा होगा और गीधों की जमातें इस भूमि की शोभा बढ़ाती होंगी॥२४॥
अचिरेणैव कालेन प्राप्स्याम्येनं मनोरथम्।
दुष्प्रस्थानोऽयमाभाति सर्वेषां वो विपर्ययः॥२५॥
‘वह समय शीघ्र आने वाला है जब कि मेरा यह मनोरथ पूर्ण होगा। तुम सब लोगों का यह दुराचार तुम्हारे लिये शीघ्र ही विपरीत परिणाम उपस्थित करेगा, ऐसा स्पष्ट जान पड़ता है।॥ २५ ॥
यादृशानि तु दृश्यन्ते लङ्कायामशुभानि तु।
अचिरेणैव कालेन भविष्यति हतप्रभा॥२६॥
‘लङ्का में जैसे-जैसे अशुभ लक्षण दिखायी दे रहे हैं, उनसे जान पड़ता है कि अब शीघ्र ही इसकी चमकदमक नष्ट हो जायगी॥२६॥
नूनं लङ्का हते पापे रावणे राक्षसाधिपे।
शोषमेष्यति दुर्धर्षा प्रमदा विधवा यथा॥२७॥
‘पापाचारी राक्षसराज रावण के मारे जाने पर यह दुर्धर्ष लङ्कापुरी भी निश्चय ही विधवा युवती की भाँति सूख जायगी, नष्ट हो जायगी॥२७॥
पुण्योत्सवसमृद्धा च नष्टभी सराक्षसा।
भविष्यति पुरी लङ्का नष्टभी यथांगना॥२८॥
‘आज जिस लङ्का में पुण्यमय उत्सव होते हैं, वह राक्षसों के सहित अपने स्वामी के नष्ट हो जाने पर विधवा स्त्री के समान श्रीहीन हो जायगी॥ २८॥
नूनं राक्षसकन्यानां रुदतीनां गृहे गृहे।
श्रोष्यामि नचिरादेव दुःखार्तानामिह ध्वनिम्॥२९॥
‘निश्चय ही मैं बहुत शीघ्र लङ्का के घर-घर में दुःख से आतुर होकर रोती हुई राक्षस कन्याओं की क्रन्दन-ध्वनि सुनूँगी॥ २९॥
सान्धकारा हतद्योता हतराक्षसपुंगवा।
भविष्यति पुरी लङ्का निर्दग्धा रामसायकैः॥३०॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के सायकों से दग्ध हो जाने के कारण लङ्कापुरी की प्रभा नष्ट हो जायगी। इसमें अन्धकार छा जायगा और यहाँ के सभी प्रमुख राक्षस काल के गाल में चले जायेंगे॥ ३०॥
यदि नाम स शूरो मां रामो रक्तान्तलोचनः।
जानीयाद् वर्तमानां यां राक्षसस्य निवेशने ॥३१॥
‘यह सब तभी सम्भव होगा, जब कि लाल नेत्रप्रान्तवाले शूरवीर भगवान् श्रीराम को यह पता लग जाय कि मैं राक्षस के अन्तःपुर में बंदी बनाकर रखी गयी हूँ॥३१॥
अनेन तु नृशंसेन रावणेनाधमेन मे।
समयो यस्तु निर्दिष्टस्तस्य कालोऽयमागतः॥३२॥
‘इस नीच और नृशंस रावणने मेरे लिये जो समय नियत किया है, उसकी पूर्ति भी निकट भविष्यमें ही हो जायगी॥ ३२॥
स च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुष्टेन वर्तते।
अकार्यं ये न जानन्ति नैर्ऋताः पापकारिणः॥३३॥
‘उसी समय दुष्ट रावण ने मेरे वध का निश्चय किया है। ये पापाचारी राक्षस इतना भी नहीं जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं॥ ३३॥
अधर्मात् तु महोत्पातो भविष्यति हि साम्प्रतम्।
नैते धर्मं विजानन्ति राक्षसाः पिशिताशनाः॥३४॥
‘इस समय अधर्म से ही महान् उत्पात होने वाला है। ये मांसभक्षी राक्षस धर्म को बिलकुल नहीं जानते हैं।
ध्रुवं मां प्रातराशार्थं राक्षसः कल्पयिष्यति।
साहं कथं करिष्यामि तं विना प्रियदर्शनम्॥३५॥
‘वह राक्षस अवश्य ही अपने कलेवे के लिये मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े करा डालेगा। उस समय अपने प्रियदर्शन पति के बिना मैं असहाय अबला क्या करूँगी? ॥ ३५॥
रामं रक्तान्तनयनमपश्यन्ती सुदुःखिता।
क्षिप्रं वैवस्वतं देवं पश्येयं पतिना विना॥३६॥
‘जिनके नेत्रप्रान्त अरुण वर्ण के हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन न पाकर अत्यन्त दुःख में पड़ी हुई मुझ असहाय अबला को पति का चरणस्पर्श किये बिना ही शीघ्र यमदेवता का दर्शन करना पड़ेगा। ३६॥
नाजानाज्जीवतीं रामः स मां भरतपूर्वजः।
जानन्तौ तु न कुर्यातां नोर्त्यां हि परिमार्गणम्॥३७॥
‘भरत के बड़े भाई भगवान् श्रीराम यह नहीं जानते हैं कि मैं जीवित हूँ यदि उन्हें इस बात का पता होता तो ऐसा सम्भव नहीं था कि वे पृथ्वी पर मेरी खोज नहीं करते॥ ३७॥
नूनं ममैव शोकेन स वीरो लक्ष्मणाग्रजः।
देवलोकमितो यातस्त्यक्त्वा देहं महीतले॥३८॥
‘मुझे तो यह निश्चित जान पड़ता है कि मेरे ही शोक से लक्ष्मणके बड़े भाई वीरवर श्रीराम भूतल पर अपने शरीर का त्याग करके यहाँ से देवलोक को चले गये हैं॥ ३८॥
धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनम्॥३९॥
‘वे देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षिगण धन्य हैं, जो मेरे पतिदेव वीर-शिरोमणि कमलनयन श्रीराम का दर्शन पा रहे हैं॥ ३९॥
अथवा नहि तस्यार्थो धर्मकामस्य धीमतः।
मया रामस्य राजर्षेर्भार्यया परमात्मनः॥४०॥
‘अथवा केवल धर्म की कामना रखने वाले परमात्मस्वरूप बुद्धिमान् राजर्षि श्रीराम को भार्या से कोई प्रयोजन नहीं है (इसलिये वे मेरी सुध नहीं ले रहे हैं)॥ ४०॥
दृश्यमाने भवेत् प्रीतिः सौहृदं नास्त्यदृश्यतः।
नाशयन्ति कृतजास्तु न रामो नाशयिष्यति॥४१॥
‘जो स्वजन अपनी दृष्टि के सामने होते हैं, उन्हीं पर प्रीति बनी रहती है। जो आँख से ओझल होते हैं, उनपर लोगों का स्नेह नहीं रहता है (शायद इसीलिये श्रीरघुनाथजी मुझे भूल गये हैं, परंतु यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि) कृतघ्न मनुष्य ही पीठ-पीछे प्रेम को ठुकरा देते हैं। भगवान् श्रीराम ऐसा नहीं करेंगे॥ ४१॥
किं वा मय्यगुणाः केचित् किं वा भाग्यक्षयो हि या हि सीता वराहेण हीना रामेण भामिनी॥४२॥
‘अथवा मुझमें कोई दुर्गुण हैं या मेरा भाग्य ही फूट गया है, जिससे इस समय मैं मानिनी सीता अपने परम पूजनीय पति श्रीराम से बिछुड़ गयी हूँ॥ ४२ ॥
श्रेयो मे जीवितान्मर्तुं विहीनाया महात्मना।
रामादक्लिष्टचारित्राच्छूराच्छत्रुनिबर्हणात्॥४३॥
‘मेरे पति भगवान् श्रीराम का सदाचार अक्षुण्ण है।वे शूरवीर होने के साथ ही शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हैं। मैं उनसे संरक्षण पाने के योग्य हूँ, परंतु उन महात्मा से बिछुड़ गयी। ऐसी दशा में जीवित रहने की अपेक्षा मर जाना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है॥४३॥
अथवा न्यस्तशस्त्रौ तौ वने मूलफलाशनौ।
भ्रातरौ हि नरश्रेष्ठौ चरन्तौ वनगोचरौ॥४४॥
‘अथवा वन में फल-मूल खाकर विचरने वाले वे दोनों वनवासी बन्धु नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण अब अहिंसा का व्रत लेकर अपने अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग कर चुके हैं। ४४॥
अथवा राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना।
छद्मना घातितौ शूरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥४५॥
अथवा दुरात्मा राक्षसराज रावण ने उन दोनों शूरवीर बन्धु श्रीराम और लक्ष्मण को छल से मरवा डाला है॥४५॥
साहमेवंविधे काले मर्तुमिच्छामि सर्वतः।
न च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुःखेऽतिवर्तति॥४६॥
‘अतः ऐसे समय में मैं सब प्रकार से अपने जीवन का अन्त कर देने की इच्छा रखती हूँ; परंतु मालूम होता है इस महान् दुःख में होते हुए भी अभी मेरी मृत्यु नहीं लिखी है॥ ४६॥
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये॥४७॥
‘सत्यस्वरूप परमात्मा को ही अपना आत्मा मानने वाले और अपने अन्तःकरण को वशमें रखने वाले वे महाभाग महात्मा महर्षिगण धन्य हैं, जिनके कोई प्रिय और अप्रिय नहीं हैं॥४७॥
प्रियान्न सम्भवेद् दुःखमप्रियादधिकं भवेत्।
ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम्॥४८॥
जिन्हें प्रिय के वियोग से दुःख नहीं होता और अप्रिय का संयोग प्राप्त होने पर उससे भी अधिक कष्ट का अनुभव नहीं होता—इस प्रकार जो प्रिय और अप्रिय दोनों से परे हैं, उन महात्माओं को मेरा नमस्कार है॥४८॥
साहं त्यक्ता प्रियेणैव रामेण विदितात्मना।
प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम्॥४९॥
‘मैं अपने प्रियतम आत्मज्ञानी भगवान् श्रीराम से बिछुड़ गयी हूँ और पापी रावण के चंगुल में आ फँसी हूँ; अतः अब इन प्राणों का परित्याग कर दूंगी’। ४९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२६॥