वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 28 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 28
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टाविंशः सर्गः (28)
(विलाप करती हुई सीताका प्राण त्यागके लिये उद्यत होना)
सा राक्षसेन्द्रस्य वचो निशम्य तद् रावणस्याप्रियमप्रियार्ता।
सीता वितत्रास यथा वनान्ते सिंहाभिपन्ना गजराजकन्या॥१॥
पति के विरह के दुःख से व्याकुल हुई सीता राक्षसराज रावण के उन अप्रिय वचनों को याद करके उसी तरह भयभीत हो गयीं, जैसे वन में सिंह के पंजे में पड़ी हुई कोई गजराज की बच्ची॥१॥
सा राक्षसीमध्यगता च भीरुर्वाग्भिर्भृशं रावणतर्जिता च।
कान्तारमध्ये विजने विसृष्टा बालेव कन्या विललाप सीता॥२॥
राक्षसियों के बीच में बैठकर उनके कठोर वचनों से बारम्बार धमकायी और रावण द्वारा फटकारी गयी भीरु स्वभाववाली सीता निर्जन एवं बीहड़ वन में अकेली छूटी हुई अल्पवयस्का बालिका के समान विलाप करने लगीं॥२॥
सत्यं बतेदं प्रवदन्ति लोके नाकालमृत्युर्भवतीति सन्तः।
यत्राहमेवं परिभय॑माना जीवामि यस्मात् क्षणमप्यपुण्या॥३॥
वे बोलीं—’संतजन लोक में यह बात ठीक ही कहते हैं कि बिना समय आये किसी की मृत्यु नहीं होती, तभी तो इस प्रकार धमकायी जाने पर भी मैं पुण्यहीना नारी क्षणभर भी जीवित रह पाती हूँ॥३॥
सुखाद् विहीनं बहुदुःखपूर्णमिदं तु नूनं हृदयं स्थिरं मे।
विदीर्यते यन्न सहस्रधाद्य वज्राहतं श्रृंगमिवाचलस्य॥४॥
‘मेरा यह हृदय सुख से रहित और अनेक प्रकार के दुःखों से भरा होने पर भी निश्चय ही अत्यन्त दृढ़ है। इसीलिये वज्र के मारे हुए पर्वतशिखर की भाँति आज इसके सहस्रों टुकड़े नहीं हो जाते॥४॥
नैवास्ति नूनं मम दोषमत्र वध्याहमस्याप्रियदर्शनस्य।
भावं न चास्याहमनुप्रदातुमलं द्विजो मन्त्रमिवाद्विजाय॥५॥
‘मैं इस दुष्ट रावण के हाथ से मारी जाने वाली हूँ, इसलिये यहाँ आत्मघात करने से भी मुझे कोई दोष नहीं लग सकता। कुछ भी हो, जैसे द्विज किसी शूद्र को वेदमन्त्र का उपदेश नहीं देता, उसी प्रकार मैं भी इस निशाचर को अपने हृदय का अनुराग नहीं दे सकती॥ ५॥
तस्मिन्ननागच्छति लोकनाथे गर्भस्थजन्तोरिव शल्यकृन्तः।
नूनं ममांगान्यचिरादनार्यः शस्त्रैः शितैश्छेत्स्यति राक्षसेन्द्रः॥६॥
‘हाय! लोकनाथ भगवान् श्रीराम के आने से पहले ही यह दुष्ट राक्षसराज निश्चय ही अपने तीखे शस्त्रों से मेरे अंगों के शीघ्र ही टुकड़े-टुकड़े कर डालेगा। ठीक वैसे ही, जैसे शल्यचिकित्सक किसी विशेष अवस्था में गर्भस्थ शिशु के टूक-टूक कर देता है (अथवा जैसे इन्द्र ने दिति के गर्भ में स्थित शिशु के उनचास टुकड़े कर डाले थे)॥६॥
दुःखं बतेदं ननु दुःखिताया मासौ चिरायाभिगमिष्यतो द्रौ।
बद्धस्य वध्यस्य यथा निशान्ते राजोपरोधादिव तस्करस्य॥७॥
‘मैं बड़ी दुःखिया हूँ दुःख की बात है कि मेरी अवधि के ये दो महीने भी जल्दी ही समाप्त हो जायँगे। राजा के कारागार में कैद हुए और रात्रि के अन्त में फाँसी की सजा पाने वाले अपराधी चोर की जो दशा होती है, वही मेरी भी है॥७॥
हा राम हा लक्ष्मण हा सुमित्रे हा राममातः सह मे जनन्यः।
एषा विपद्याम्यहमल्पभाग्या महार्णवे नौरिव मूढवाता॥८॥
‘हा राम! हा लक्ष्मण! हा सुमित्रे! हा श्रीरामजननी कौसल्ये! और हा मेरी माताओ! जिस प्रकार बवंडर में पड़ी हुई नौका महासागर में डूब जाती है, उसी प्रकार आज मैं मन्दभागिनी सीता प्राणसङ्कट की दशा में पड़ी हुई हूँ॥८॥
तरस्विनौ धारयता मृगस्य सत्त्वेन रूपं मनुजेन्द्रपुत्रौ।
नूनं विशस्तौ मम कारणात् तौ सिंहर्षभौ द्वाविव वैद्युतेन॥९॥
‘निश्चय ही उस मृगरूपधारी जीवने मेरे कारण उन दोनों वेगशाली राजकुमारों को मार डाला होगा। जैसे दो श्रेष्ठ सिंह बिजली से मार दिये जायँ, वही दशा उन दोनों भाइयों की हुई होगी॥९॥
नूनं स कालो मृगरूपधारी मामल्पभाग्यां लुलुभे तदानीम्।
यत्रार्यपुत्रौ विससर्ज मूढा रामानुजं लक्ष्मणपूर्वजं च॥१०॥
‘अवश्य ही उस समय काल ने ही मृग का रूप धारण करके मुझ मन्दभागिनी को लुभाया था, जिससे प्रभावित हो मुझ मूढ़ नारी ने उन दोनों आर्यपुत्रों श्रीराम और लक्ष्मण को उसके पीछे भेज दिया था। १०॥
हा राम सत्यव्रत दीर्घबाहो हा पूर्णचन्द्रप्रतिमानवकत्र।
हा जीवलोकस्य हितः प्रियश्च वध्यां न मां वेत्सि हि राक्षसानाम्॥११॥
‘हा सत्यव्रतधारी महाबाहु श्रीराम! हा पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले रघुनन्दन! हा जीवजगत् के हितैषी और प्रियतम! आपको पता नहीं है कि मैं राक्षसों के हाथ से मारी जाने वाली हूँ॥ ११॥
अनन्यदेवत्वमियं क्षमा च भूमौ च शय्या नियमश्च धर्मे।
पतिव्रतात्वं विफलं ममेदं कृतं कृतघ्नेष्विव मानुषाणाम्॥१२॥
‘मेरी यह अनन्योपासना, क्षमा, भूमिशयन, धर्मसम्बन्धी नियमों का पालन और पतिव्रतपरायणता —ये सब-के-सब कृतघ्नों के प्रति किये गये मनुष्यों के उपकार की भाँति निष्फल हो गये॥ १२ ॥
मोघो हि धर्मश्चरितो ममायं तथैकपत्नीत्वमिदं निरर्थकम्।
या त्वां न पश्यामि कृशा विवर्णा हीना त्वया संगमने निराशा॥१३॥
‘प्रभो! यदि मैं अत्यन्त कृश और कान्तिहीन होकर आपसे बिछुड़ी ही रह गयी तथा आपसे मिलने की आशा खो बैठी, तब तो मैंने जिसका जीवनभर आचरण किया है, वह धर्म मेरे लिये व्यर्थ हो गया और यह एकपत्नीव्रत भी किसी काम नहीं आया। १३॥
पितुर्निदेशं नियमेन कृत्वा वनान्निवृत्तश्चरितव्रतश्च।
स्त्रीभिस्तु मन्ये विपुलेक्षणाभिः संरस्यसे वीतभयः कृतार्थः॥१४॥
‘मैं तो समझती हूँ आप नियमानुसार पिता की आज्ञा का पालन करके अपने व्रत को पूर्ण करने के पश्चात् जब वन से लौटेंगे, तब निर्भय एवं सफल मनोरथ हो विशाल नेत्रोंवाली बहुत-सी सुन्दरियों के साथ विवाह करके उनके साथ रमण करेंगे॥१४॥
अहं तु राम त्वयि जातकामा चिरं विनाशाय निबद्धभावा।
मोघं चरित्वाथ तपो व्रतं च त्यक्ष्यामि धिग्जीवितमल्पभाग्याम्॥१५॥
‘किंतु श्रीराम! मैं तो केवल आपमें ही अनुराग रखती हूँ। मेरा हृदय चिरकालतक आपसे ही बँधा रहेगा। मैं अपने विनाश के लिये ही आपसे प्रेम करती हूँ। अबतक मैंने तप और व्रत आदि जो कुछ भी किया है, वह मेरे लिये व्यर्थ सिद्ध हुआ है। उस अभीष्ट फल को न देने वाले धर्म का आचरण करके अब मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा। अतः मुझ मन्दभागिनी को धिक्कार है॥ १५ ॥
संजीवितं क्षिप्रमहं त्यजेयं विषेण शस्त्रेण शितेन वापि।
विषस्य दाता न तु मेऽस्ति कश्चिच्छस्त्रस्य वा वेश्मनि राक्षसस्य॥१६॥
‘मैं शीघ्र ही किसी तीखे शस्त्र अथवा विष से अपने प्राण त्याग दूंगी; परंतु इस राक्षस के यहाँ मुझे कोई विष या शस्त्र देने वाला भी नहीं है’ ॥ १६॥
शोकाभितप्ता बहुधा विचिन्त्य सीताथ वेणीग्रथनं गृहीत्वा।
उद्बद्ध्य वेण्युद्ग्रथनेन शीघ्रमहं गमिष्यामि यमस्य मूलम्॥१७॥
शोक से संतप्त हुई सीता ने इसी प्रकार बहुत कुछ विचार करके अपनी चोटी को पकड़कर निश्चय किया कि मैं शीघ्र ही इस चोटी से फाँसी लगाकर यमलोक में पहुँच जाऊँगी॥ १७॥
उपस्थिता सा मृदुसर्वगात्री शाखां गृहीत्वा च नगस्य तस्य।
तस्यास्तु रामं परिचिन्तयन्त्या रामानुजं स्वं च कुलं शुभांगयाः॥१८॥
तस्या विशोकानि तदा बहूनि धैर्यार्जितानि प्रवराणि लोके।
प्रादुर्निमित्तानि तदा बभूवुः पुरापि सिद्धान्युपलक्षितानि॥१९॥
सीताजी के सभी अंग बड़े कोमल थे। वे उस अशोक-वृक्ष के निकट उसकी शाखा पकड़कर खड़ी हो गयीं। इस प्रकार प्राण-त्याग के लिये उद्यत हो जब वे श्रीराम, लक्ष्मण और अपने कुल के विषय में विचार करने लगीं, उस समय शुभांगी सीता के समक्ष ऐसे बहुत-से लोकप्रसिद्ध श्रेष्ठ शकुन प्रकट हुए, जो शोक की निवृत्ति करने वाले और उन्हें ढाढ़स बँधाने वाले थे। उन शकुनों का दर्शन और उनके शुभ फलों का अनुभव उन्हें पहले भी हो चुका था। १८-१९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टाविंशः सर्गः॥२८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२८॥
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