वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 3 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 3
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (3)
(लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान् जी का विस्मित होना, निशाचरी लंका का उन्हें रोकना और उनकी मार से विह्वल होकर प्रवेश की अनुमति देना)
स लम्बशिखरे लम्बे लम्बतोयदसंनिभे।
सत्त्वमास्थाय मेधावी हनुमान् मारुतात्मजः॥१॥
निशि लंकां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः।
रम्यकाननतोयाढ्यां पुरीं रावणपालिताम्॥२॥
ऊँचे शिखरवाले लंब (त्रिकूट) पर्वतपर जो महान् मेघों की घटा के समान जान पड़ता था, बुद्धिमान् महाशक्तिशाली कपिश्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान् ने सत्त्वगुण का आश्रय ले रात के समय रावणपालित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह नगरी सुरम्य वन और जलाशयों से सुशोभित थी॥१-२॥
शारदाम्बुधरप्रख्यैर्भवनैरुपशोभिताम्।
सागरोपमनिर्घोषां सागरानिलसेविताम्॥३॥
शरत्काल के बादलों की भाँति श्वेत कान्तिवाले सुन्दर भवन उसकी शोभा बढ़ाते थे। वहाँ समुद्र की गर्जना के समान गम्भीर शब्द होता रहता था। सागर की लहरों को छूकर बहने वाली वायु इस पुरी की सेवा करती थी॥३॥
सुपुष्टबलसम्पुष्टां यथैव विटपावतीम्।
चारुतोरणनिर्वृहां पाण्डुरद्वारतोरणाम्॥४॥
वह अलकापुरी के समान शक्तिशालिनी सेनाओं से सुरक्षित थी। उस पुरी के सुन्दर फाटकों पर मतवाले हाथी शोभा पाते थे। उस पुरी के अन्तर्द्वार और बहिर्टार दोनों ही श्वेत कान्ति से सुशोभित थे॥४॥
भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव।
तां सविद्युद्घनाकीर्णां ज्योतिर्गणनिषेविताम्॥
चण्डमारुतनिर्हादां यथा चाप्यमरावतीम्।
उस नगरी की रक्षा के लिये बड़े-बड़े सर्पो का संचरण (आना-जाना) होता रहता है, इसलिये वह नागों से सुरक्षित सुन्दर भोगवतीपुरी के समान जान पड़ती थी। अमरावतीपुरी के समान वहाँ आवश्यकता के अनुसार बिजलियों सहित मेघ छाये रहते थे। ग्रहों और नक्षत्रों के सदृश विद्युत्-दीपों के प्रकाश से वह पुरी प्रकाशित थी तथा प्रचण्ड वायु की ध्वनि वहाँ सदा होती रहती थी॥ ५ १/२॥
शातकुम्भेन महता प्राकारेणाभिसंवृताम्॥६॥
किङ्किणीजालघोषाभिः पताकाभिरलंकृताम्।
सोने के बने हुए विशाल परकोटे से घिरी हुई लंकापुरी क्षुद्र घंटिकाओं की झनकार से युक्त पताकाओं द्वारा अलंकृत थी॥ ६ १/२ ॥
आसाद्य सहसा हृष्टः प्राकारमभिपेदिवान्॥७॥
विस्मयाविष्टहृदयः पुरीमालोक्य सर्वतः।
उस पुरी के समीप पहुँचकर हर्ष और उत्साह से भरे हुए हनुमान् जी सहसा उछलकर उसके परकोटे पर चढ़ गये। वहाँ सब ओर से लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान जी का चित्त आश्चर्यसे चकित हो उठा॥ ७ १/२॥
जाम्बूनदमयैारैर्वैदूर्यकृतवेदिकैः॥८॥
वज्रस्फटिकमुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितैः।
तप्तहाटकनि,है राजतामलपाण्डुरैः॥९॥
वैदूर्यकृतसोपानैः स्फाटिकान्तरपांसुभिः।
चारुसंजवनोपेतैः खमिवोत्पतितैः शुभैः॥१०॥
सुवर्ण के बने हुए द्वारों से उस नगरी की अपूर्व शोभा हो रही थी। उन सभी द्वारों पर नीलम के चबूतरे बने हुए थे। वे सब द्वार हीरों, स्फटिकों और मोतियों से जड़े गये थे। मणिमयी फर्श उनकी शोभा बढ़ा रही थीं। उनके दोनों ओर तपाये सुवर्ण के बने हुए हाथी शोभा पाते थे। उन द्वारों का ऊपरी भाग चाँदी से निर्मित होने के कारण स्वच्छ और श्वेत था। उनकी सीढ़ियाँ नीलम की बनी हुई थीं। उन द्वारों के भीतरी भाग स्फटिक मणि के बने हुए और धूल से रहित थे। वे सभी द्वार रमणीय सभा-भवनों से युक्त और सुन्दर थे तथा इतने ऊँचे थे कि आकाशमें उठे हुए-से जान पड़ते थे॥८-१०॥
क्रौञ्चबर्हिणसंघुष्टै राजहंसनिषेवितैः।
तूर्याभरणनिर्घोषैः सर्वतः परिनादिताम्॥११॥
वहाँ क्रौञ्च और मयूरों के कलरव गूंजते रहते थे, उन द्वारों पर राजहंस नामक पक्षी भी निवास करते थे। वहाँ भाँति-भाँति के वाद्यों और आभूषणों की मधुर ध्वनि होती रहती थी, जिससे लंकापुरी सब ओर से प्रतिध्वनित हो रही थी॥११॥
वस्वोकसारप्रतिमां समीक्ष्य नगरी ततः।
खमिवोत्पतितां लंकां जहर्ष हनुमान् कपिः॥१२॥
कुबेर की अलका के समान शोभा पाने वाली लंकानगरी त्रिकूट के शिखर पर प्रतिष्ठित होने के कारण आकाश में उठी हुई-सी प्रतीत होती थी। उसे देखकर कपिवर हनुमान् को बड़ा हर्ष हुआ॥ १२ ॥
तां समीक्ष्य पुरी लंकां राक्षसाधिपतेः शुभाम्।
अनुत्तमामृद्धिमतीं चिन्तयामास वीर्यवान्॥१३॥
राक्षसराज की वह सुन्दर पुरी लंका सबसे उत्तम और समृद्धिशालिनी थी। उसे देखकर पराक्रमी हनुमान् इस प्रकार सोचने लगे- ॥ १३॥
नेयमन्येन नगरी शक्या धर्षयितुं बलात्।
रक्षिता रावणबलैरुद्यतायुधपाणिभिः॥१४॥
‘रावण के सैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये इस पुरी की रक्षा करते हैं, अतः दूसरा कोई बलपूर्वक इसे अपने काबू में नहीं कर सकता ॥ १४॥
कुमुदाङ्गदयोर्वापि सुषेणस्य महाकपेः।
प्रसिद्धेयं भवेद् भूमिमॆन्दद्विविदयोरपि॥१५॥
विवस्वतस्तनूजस्य हरेश्च कुशपर्वणः।
ऋक्षस्य कपिमुख्यस्य मम चैव गतिर्भवेत्॥१६॥
‘केवल कुमुद, अंगद, महाकपि सुषेण, मैन्द, द्विविद, सूर्यपुत्र सुग्रीव, वानर कुशपर्वा और वानरसेना के प्रमुख वीर ऋक्षराज जाम्बवान् की तथा मेरी भी पहुँच इस पुरी के भीतर हो सकती है। १५-१६॥
समीक्ष्य च महाबाहो राघवस्य पराक्रमम्।
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत् प्रीतिमान् कपिः॥१७॥
फिर महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मण के पराक्रमका विचार करके कपिवर हनुमान् को बड़ी प्रसन्नता हुई॥ १७॥
तां रत्नवसनोपेतां गोष्ठागारावतंसिकाम्।
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम्॥१८॥
तां नष्टतिमिरां दीपैर्भास्वरैश्च महाग्रहैः।
नगरी राक्षसेन्द्रस्य स ददर्श महाकपिः॥१९॥
महाकपि हनुमान् ने देखा, राक्षसराज रावण की नगरी लंका वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दरी युवती के समान जान पड़ती है। रत्नमय परकोटे ही इसके वस्त्र हैं, गोष्ठ (गोशाला) तथा दूसरे-दूसरे भवन आभूषण हैं। परकोटों पर लगे हुए यन्त्रों के जो गृह हैं, ये ही मानो इस लंकारूपी युवती के स्तन हैं। यह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न है। प्रकाशपूर्ण द्वीपों और महान् ग्रहों ने यहाँ का अन्धकार नष्ट कर दिया है।॥ १८-१९॥
अथ सा हरिशार्दूलं प्रविशन्तं महाकपिम्।
नगरी स्वेन रूपेण ददर्श पवनात्मजम्॥२०॥
तदनन्तर वानरश्रेष्ठ महाकपि पवनकुमार हनुमान् उस पुरी में प्रवेश करने लगे। इतने में ही उस नगरी की अधिष्ठात्री देवी लंका ने अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट होकर उन्हें देखा॥२०॥
सा तं हरिवरं दृष्ट्वा लंका रावणपालिता।
स्वयमेवोत्थिता तत्र विकृताननदर्शना॥२१॥
वानरश्रेष्ठ हनुमान् को देखते ही रावणपालित लंका स्वयं ही उठ खड़ी हुई। उसका मुँह देखने में बड़ा विकट था॥ २१॥
पुरस्तात् तस्य वीरस्य वायुसूनोरतिष्ठत।
मुञ्चमाना महानादमब्रवीत् पवनात्मजम्॥२२॥
वह उन वीर पवनकुमार के सामने खड़ी हो गयी और बड़े जोर से गर्जना करती हुई उनसे इस प्रकार बोली- ॥ २२॥
कस्त्वं केन च कार्येण इह प्राप्तो वनालय।
कथयस्वेह यत् तत्त्वं यावत् प्राणा धरन्ति ते॥२३॥
‘वनचारी वानर! तू कौन है और किस कार्य से यहाँ आया है? तुम्हारे प्राण जबतक बने हुए हैं, तबतक ही यहाँ आने का जो यथार्थ रहस्य है, उसे ठीक-ठीक बता दो॥ २३॥
न शक्यं खल्वियं लंका प्रवेष्टुं वानर त्वया।
रक्षिता रावणबलैरभिगुप्ता समन्ततः॥२४॥
‘वानर ! रावण की सेना सब ओर से इस पुरी की रक्षा करती है, अतः निश्चय ही तू इस लंका में प्रवेश नहीं कर सकता’ ॥ २४॥
अथ तामब्रवीद् वीरो हनुमानग्रतः स्थिताम्।
कथयिष्यामि तत् तत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसे॥२५॥
का त्वं विरूपनयना पुरद्वारेऽवतिष्ठसे।
किमर्थं चापि मां क्रोधान्निर्भर्त्सयसि दारुणे॥२६॥
तब वीरवर हनुमान् अपने सामने खड़ी हुई लंका से बोले—’क्रूर स्वभाववाली नारी! तू मुझसे जो कुछ पूछ रही है, उसे मैं ठीक-ठीक बता दूंगा; किंतु पहले यह तो बता, तू है कौन? तेरी आँखें बड़ी भयंकर हैं। तू इस नगर के द्वार पर खड़ी है। क्या कारण है कि तू इस प्रकार क्रोध करके मुझे डाँट रही है’ ।। २५-२६॥
हनुमद्रचनं श्रुत्वा लंका सा कामरूपिणी।
उवाच वचनं क्रुद्धा परुषं पवनात्मजम्॥ २७॥
हनुमान जी की यह बात सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली लंका कुपित हो उन पवनकुमार से कठोर वाणी में बोली- ॥२७॥
अहं राक्षसराजस्य रावणस्य महात्मनः।
आज्ञाप्रतीक्षा दुर्धर्षा रक्षामि नगरीमिमाम्॥२८॥
‘मैं महामना राक्षसराज रावण की आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाली उनकी सेविका हूँ। मुझपर आक्रमण करना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। मैं इस नगरी की रक्षा करती हूँ॥२८॥
न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरीमिमाम्।
अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया॥२९॥
मेरी अवहेलना करके इस पुरी में प्रवेश करना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है। आज मेरे हाथ से मारा जाकर तू प्राणहीन हो इस पृथ्वी पर शयन करेगा॥ २९॥
अहं हि नगरी लंका स्वयमेव प्लवङ्गम।
सर्वतः परिरक्षामि अतस्ते कथितं मया॥३०॥
‘वानर! मैं स्वयं ही लंका नगरी हूँ, अतः सब ओर से इसकी रक्षा करती हूँ। यही कारण है कि मैंने तेरे प्रति कठोर वाणी का प्रयोग किया है’॥ ३०॥
लंकाया वचनं श्रुत्वा हनुमान् मारुतात्मजः।
यत्नवान् स हरिश्रेष्ठः स्थितः शैल इवापरः॥३१॥
लंका की यह बात सुनकर पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् उसे जीतने के लिये यत्नशील हो दूसरे पर्वत के समान वहाँ खड़े हो गये॥ ३१॥
स तां स्त्रीरूपविकृतां दृष्ट्वा वानरपुङ्गवः।
आबभाषेऽथ मेधावी सत्त्ववान् प्लवगर्षभः॥
लंका को विकराल राक्षसी के रूप में देखकर बुद्धिमान् वानरशिरोमणि शक्तिशाली कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने उससे इस प्रकार कहा— ॥ ३२॥
द्रक्ष्यामि नगरी लंकां साट्टप्राकारतोरणाम्।
इत्यर्थमिह सम्प्राप्तः परं कौतूहलं हि मे ॥३३॥
‘मैं अट्टालिकाओं, परकोटों और नगर द्वारों सहित इस लंका नगरी को देखूगा। इसी प्रयोजन से यहाँ आया हूँ। इसे देखने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल
वनान्युपवनानीह लंकायाः काननानि च।
सर्वतो गृहमुख्यानि द्रष्टुमागमनं हि मे ॥ ३४॥
‘इस लंका के जो वन, उपवन, कानन और मुख्यमुख्य भवन हैं, उन्हें देखने के लिये ही यहाँ मेरा आगमन हुआ है’ ॥ ३४॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लंका सा कामरूपिणी।
भूय एव पुनर्वाक्यं बभाषे परुषाक्षरम्॥३५॥
हनुमान जी का यह कथन सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली लंका पुनः कठोर वाणी में बोली –
मामनिर्जित्य दुर्बुद्धे राक्षसेश्वरपालिताम्।
न शक्यं ह्यद्य ते द्रष्टुं पुरीयं वानराधम॥३६॥
‘खोटी बुद्धिवाले नीच वानर ! राक्षसेश्वर रावण के द्वारा मेरी रक्षा हो रही है। तू मुझे परास्त किये बिना आज इस पुरी को नहीं देख सकता’ ॥ ३६॥
ततः स हरिशार्दूलस्तामुवाच निशाचरीम्।
दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ये यथागतम्॥३७॥
तब उन वानरशिरोमणिने उस निशाचरी से कहा —’भद्रे! इस पुरी को देखकर मैं फिर जैसे आया हूँ, उसी तरह लौट जाऊँगा’ ॥ ३७॥
ततः कृत्वा महानादं सा वै लंका भयंकरम्।
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता॥३८॥
यह सुनकर लंका ने बड़ी भयंकर गर्जना करके वानरश्रेष्ठ हनुमान् को बड़े जोर से एक थप्पड़ मारा॥ ३८॥
ततः स हरिशार्दूलो लंकया ताडितो भृशम्।
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मजः॥३९॥
लंका द्वारा इस प्रकार जोर से पीटे जाने पर उन परम पराक्रमी पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने बड़े जोर से सिंहनाद किया॥३९॥
ततः संवर्तयामास वामहस्तस्य सोऽङ्गुलीः।
मुष्टिनाभिजघानैनां हनुमान् क्रोधर्मूच्छितः ॥ ४०॥
फिर उन्होंने अपने बायें हाथ की अंगुलियों को मोड़कर मुट्ठी बाँध ली और अत्यन्त कुपित हो उस लंका को एक मुक्का जमा दिया॥ ४० ॥
स्त्री चेति मन्यमानेन नातिक्रोधः स्वयं कृतः।
सा तु तेन प्रहारेण विह्वलाङ्गी निशाचरी।
पपात सहसा भूमौ विकृताननदर्शना॥४१॥
उसे स्त्री समझकर हनुमान् जी ने स्वयं ही अधिक क्रोध नहीं किया। किंतु उस लघु प्रहार से ही उस निशाचरी के सारे अंग व्याकुल हो गये। वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस समय उसका मुख बड़ा विकराल दिखायी देता था॥४१॥
ततस्तु हनुमान् वीरस्तां दृष्ट्वा विनिपातिताम्।
कृपां चकार तेजस्वी मन्यमानः स्त्रियं च ताम्॥४२॥
अपने ही द्वारा गिरायी गयी उस लंका की ओर देखकर और उसे स्त्री समझकर तेजस्वी वीर हनुमान् को उस पर दया आ गयी। उन्होंने उस पर बड़ी कृपा की॥
ततो वै भृशमुद्विग्ना लंका सा गद्गदाक्षरम्।
उवाचागर्वितं वाक्यं हनुमन्तं प्लवङ्गमम्॥४३॥
उधर अत्यन्त उद्विग्न हुई लंका उन वानरवीर हनुमान् से अभिमानशून्य गद्गदवाणी में इस प्रकार बोली- ॥४३॥
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम।
समये सौम्य तिष्ठन्ति सत्त्ववन्तो महाबलाः॥४४॥
‘महाबाहो! प्रसन्न होइये। कपिश्रेष्ठ! मेरी रक्षा कीजिये। सौम्य! महाबली सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्र की मर्यादा पर स्थिर रहते हैं (शास्त्र में स्त्री को अवध्य बताया है, इसलिये आप मेरे प्राण न लीजिये)॥
अहं तु नगरी लंका स्वयमेव प्लवङ्गम।
निर्जिताहं त्वया वीर विक्रमेण महाबल॥४५॥
‘महाबली वीर वानर ! मैं स्वयं लंकापुरी ही हूँ, आपने अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर दिया है। ४५॥
इदं च तथ्यं शृणु मे ब्रुवन्त्या वै हरीश्वर।
स्वयं स्वयम्भुवा दत्तं वरदानं यथा मम॥४६॥
‘वानरेश्वर! मैं आपसे एक सच्ची बात कहती हूँ आप इसे सुनिये साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजी ने मुझे जैसा वरदान दिया था, वह बता रही हूँ॥ ४६॥
यदा त्वां वानरः कश्चिद् विक्रमाद् वशमानयेत्।
तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम्॥४७॥
‘उन्होंने कहा था—’जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रमसे वशमें कर ले, तब तुझे यह समझ लेना चाहिये कि अब राक्षसोंपर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है॥४७॥
स हि मे समयः सौम्य प्राप्तोऽद्य तव दर्शनात्।
स्वयम्भूविहितः सत्यो न तस्यास्ति व्यतिक्रमः॥४८॥
‘सौम्य! आपका दर्शन पाकर आज मेरे सामने वही घड़ी आ गयी है। ब्रह्माजी ने जिस सत्य का निश्चय कर दिया है, उसमें कोई उलट-फेर नहीं हो सकता॥४८॥
सीतानिमित्तं राज्ञस्तु रावणस्य दुरात्मनः।
रक्षसां चैव सर्वेषां विनाशः समुपागतः॥४९॥
‘अब सीता के कारण दुरात्मा राजा रावण तथा समस्त राक्षसों के विनाश का समय आ पहुँचा है॥ ४९॥
तत् प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम्।
विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि॥५०॥
‘कपिश्रेष्ठ! अतः आप इस रावणपालित पुरी में प्रवेश कीजिये और यहाँ जो-जो कार्य करना चाहते हों, उन सबको पूर्ण कर लीजिये॥५०॥
प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर पुरीं शुभां राक्षसमुख्यपालिताम्।
यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम्॥५१॥
‘वानरेश्वर! राक्षसराज रावण के द्वारा पालित यह सुन्दर पुरी अभिशाप से नष्टप्राय हो चुकी है। अतः इसमें प्रवेश करके आप स्वेच्छानुसार सुखपूर्वक सर्वत्र सती-साध्वी जनकनन्दिनी सीता की खोज कीजिये’ ॥ ५१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ॥३॥
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