वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 30 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 30
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः (30)
(सीताजी से वार्तालाप करने के विषय में हनुमान जी का विचार करना)
हनुमानपि विक्रान्तः सर्वं शुश्राव तत्त्वतः।
सीतायास्त्रिजटायाश्च राक्षसीनां च तर्जितम्॥१॥
पराक्रमी हनुमान जी ने भी सीताजी का विलाप, त्रिजटाकी स्वप्नचर्चा तथा राक्षसियों की डाँट-डपट— ये सब प्रसंग ठीक-ठीक सुन लिये॥१॥
अवेक्षमाणस्तां देवी देवतामिव नन्दने।
ततो बहुविधां चिन्तां चिन्तयामास वानरः॥२॥
सीताजी ऐसी जान पड़ती थीं मानो नन्दनवन में कोई देवी हों। उन्हें देखते हुए वानरवीर हनुमान जी तरह-तरह की चिन्ता करने लगे- ॥२॥
यां कपीनां सहस्राणि सुबहून्ययुतानि च।
दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते सेयमासादिता मया॥३॥
“जिन सीताजी को हजारों-लाखों वानर समस्त दिशाओं में ढूँढ़ रहे हैं, आज उन्हें मैंने पा लिया॥३॥
चारेण तु सुयुक्तेन शत्रोः शक्तिमवेक्षता।
गूढेन चरता तावदवेक्षितमिदं मया॥४॥
राक्षसानां विशेषश्च पुरी चेयं निरीक्षिता।
राक्षसाधिपतेरस्य प्रभावो रावणस्य च॥५॥
‘मैं स्वामी द्वारा नियुक्त दूत बनकर गुप्तरूप से शत्रु की शक्ति का पता लगा रहा था। इसी सिलसिले में मैंने राक्षसों के तारतम्य का, इस पुरी का तथा इस राक्षसराज रावण के प्रभाव का भी निरीक्षण कर लिया॥ ४-५॥
यथा तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः।
समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकांक्षिणीम्॥६॥
‘श्रीसीताजी असीम प्रभावशाली तथा सब जीवों पर दया करने वाले भगवान् श्रीराम की भार्या हैं। ये अपने पतिदेव का दर्शन पाने की अभिलाषा रखती हैं, अतः इन्हें सान्त्वना देना उचित है॥६॥
अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम्।
अदृष्टदुःखां दुःखस्य न ह्यन्तमधिगच्छतीम्॥७॥
‘इनका मुख पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर है। इन्होंने पहले कभी ऐसा दुःख नहीं देखा था, परंतु इस समय दुःखका पार नहीं पा रही हैं। अतः मैं इन्हें आश्वासन दूंगा॥७॥
यदि ह्यहं सतीमेनां शोकोपहतचेतनाम्।
अनाश्वास्य गमिष्यामि दोषवद् गमनं भवेत्॥८॥
‘ये शोक के कारण अचेत-सी हो रही हैं, यदि मैं इन सती-साध्वी सीता को सान्त्वना दिये बिना ही चला जाऊँगा तो मेरा वह जाना दोषयुक्त होगा॥ ८॥
गते हि मयि तत्रेयं राजपुत्री यशस्विनी।
परित्राणमपश्यन्ती जानकी जीवितं त्यजेत्॥९॥
‘मेरे चले जाने पर अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर ये यशस्विनी राजकुमारी जानकी अपने जीवन का अन्त कर देंगी॥९॥
यथा च स महाबाहुः पूर्णचन्द्रनिभाननः।
समाश्वासयितुं न्याय्यः सीतादर्शनलालसः॥१०॥
‘पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी भी सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हैं। जिस प्रकार उन्हें सीता का संदेश सुनाकर सान्त्वना देना उचित है, उसी प्रकार सीता को भी उनका संदेश सुनाकर आश्वासन देना उचित होगा॥१०॥
निशाचरीणां प्रत्यक्षमक्षमं चाभिभाषितम्।
कथं नु खलु कर्तव्यमिदं कृच्छ्रगतो ह्यहम्॥११॥
‘परंतु राक्षसियों के सामने इनसे बात करना मेरे लिये ठीक नहीं होगा। ऐसी अवस्था में यह कार्य कैसे सम्पन्न करना चाहिये, यही निश्चय करना मेरे लिये सबसे बड़ी कठिनाई है॥ ११॥
अनेन रात्रिशेषेण यदि नाश्वास्यते मया।
सर्वथा नास्ति संदेहः परित्यक्ष्यति जीवितम्॥१२॥
‘यदि इस रात्रि के बीतते-बीतते मैं सीता को सान्त्वना नहीं दे देता हूँ तो ये सर्वथा अपने जीवन का परित्याग कर देंगी, इसमें संदेह नहीं है॥ १२ ॥
रामस्तु यदि पृच्छेन्मां किं मां सीताब्रवीद्वचः।
किमहं तं प्रतिब्रूयामसम्भाष्य सुमध्यमाम्॥१३॥
‘यदि श्रीरामचन्द्रजी मुझसे पूछे कि सीता ने मेरे लिये क्या संदेश भेजा है तो इन सुमध्यमा सीता से बात किये बिना मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा॥ १३॥
सीतासंदेशरहितं मामितस्त्वरया गतम्।
निर्दहेदपि काकुत्स्थः क्रोधतीवेण चक्षुषा॥१४॥
‘यदि मैं सीता का संदेश लिये बिना ही यहाँ से तुरंत लौट गया तो ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीराम अपनी क्रोधभरी दुःसह दृष्टि से मुझे जलाकर भस्म कर डालेंगे॥ १४॥
यदि वोद्योजयिष्यामि भर्तारं रामकारणात्।
व्यर्थमागमनं तस्य ससैन्यस्य भविष्यति॥१५॥
‘यदि मैं इन्हें सान्त्वना दिये बिना ही लौट जाऊँ और श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये अपने स्वामी वानरराज सुग्रीव को उत्तेजित करूँ तो वानरसेना के साथ उनका यहाँ तक आना व्यर्थ हो जायगा (क्योंकि सीता इसके पहले ही अपने प्राण त्याग देंगी) ॥ १५॥
अन्तरं त्वहमासाद्य राक्षसीनामवस्थितः।
शनैराश्वासयाम्यद्य संतापबहुलामिमाम्॥१६॥
‘अच्छा तो राक्षसियों के रहते हुए ही अवसर पाकर आज मैं यहीं बैठे-बैठे इन्हें धीरे-धीरे सान्त्वना दूंगा; क्योंकि इनके मन में बड़ा संताप है॥ १६॥
अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः।
वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्॥१७॥
‘एक तो मेरा शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है, दूसरे मैं वानर हूँ। विशेषतः वानर होकर भी मैं यहाँ मानवोचित संस्कृत-भाषा में बोलूंगा॥ १७ ॥
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति॥१८॥
‘परंतु ऐसा करने में एक बाधा है, यदि मैं द्विज की भाँति संस्कृत-वाणी का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जायँगी॥ १८ ॥
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता॥१९॥
‘ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिये, जिसे अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता बोलती है, अन्यथा इन सती-साध्वी सीता को मैं उचित आश्वासन नहीं दे सकता॥ १९॥
सेयमालोक्य मे रूपं जानकी भाषितं तथा।
रक्षोभिस्त्रासिता पूर्वं भूयस्त्रासमुपैष्यति॥२०॥
‘यदि मैं सामने जाऊँ तो मेरे इस वानररूप को देखकर और मेरे मुख से मानवोचित भाषा सुनकर ये जनकनन्दिनी सीता, जिन्हें पहले से ही राक्षसों ने भयभीत कर रखा है और भी डर जायँगी॥ २०॥
ततो जातपरित्रासा शब्दं कुर्यान्मनस्विनी।
जानाना मां विशालाक्षी रावणं कामरूपिणम्॥२१॥
‘मन में भय उत्पन्न हो जाने पर ये विशाललोचना मनस्विनी सीता मुझे इच्छानुसार रूप धारण करने वाला रावण समझकर जोर-जोर से चीखने चिल्लाने लगेंगी॥
सीतया च कृते शब्दे सहसा राक्षसीगणः।
नानाप्रहरणो घोरः समेयादन्तकोपमः॥२२॥
‘सीता के चिल्लाने पर ये यमराज के समान भयानक राक्षसियाँ तरह-तरह के हथियार लेकर सहसा आ धमकेंगी॥
ततो मां सम्परिक्षिप्य सर्वतो विकृताननाः।
वधे च ग्रहणे चैव कुर्युर्यत्नं महाबलाः॥२३॥
‘तदनन्तर ये विकट मुखवाली महाबलवती राक्षसियाँ मुझे सब ओर से घेरकर मारने या पकड़ लेने का प्रयत्न करेंगी॥ २३॥
तं मां शाखाः प्रशाखाश्च स्कन्धांश्चोत्तमशाखिनाम्।
दृष्ट्वा च परिधावन्तं भवेयुः परिशङ्किताः॥२४॥
‘फिर मुझे बड़े-बड़े वृक्षों की शाखा-प्रशाखा और मोटी-मोटी डालियों पर दौड़ता देख ये सब-की-सब सशङ्क हो उठेगी॥२४॥
मम रूपं च सम्प्रेक्ष्य वने विचरतो महत्।
राक्षस्यो भयवित्रस्ता भवेयुर्विकृतस्वराः॥२५॥
‘वन में विचरते हुए मेरे इस विशाल रूप को देखकर राक्षसियाँ भी भयभीत हो बुरी तरहसे चिल्लाने लगेंगी॥
ततः कुर्युः समाह्वानं राक्षस्यो रक्षसामपि।
राक्षसेन्द्रनियुक्तानां राक्षसेन्द्रनिवेशने ॥२६॥
‘इसके बाद वे निशाचरियाँ राक्षसराज रावण के महल में उसके द्वारा नियुक्त किये गये राक्षसों को बुला लेंगी॥ २६॥
ते शूलशरनिस्त्रिंशविविधायुधपाणयः।
आपतेयुर्विमर्देऽस्मिन् वेगेनो गकारणात्॥ २७॥
‘इस हलचल में वे राक्षस भी उद्विग्न होकर शूल, बाण, तलवार और तरह-तरह के शस्त्रास्त्र लेकर बड़े वेग से आ धमकेंगे॥२७॥
संरुद्धस्तैस्तु परितो विधमे राक्षसं बलम्।
शक्नुयां न तु सम्प्राप्तुं परं पारं महोदधेः॥२८॥
‘उनके द्वारा सब ओर से घिर जाने पर मैं राक्षसों की सेना का संहार तो कर सकता हूँ; परंतु समुद्र के उस पार नहीं पहुँच सकता॥ २८॥
मां वा गृह्णीयुरावृत्य बहवः शीघ्रकारिणः।
स्यादियं चागृहीतार्था मम च ग्रहणं भवेत्॥२९॥
‘यदि बहुत-से फुर्तीले राक्षस मुझे घेरकर पकड़ लें तो सीताजी का मनोरथ भी पूरा नहीं होगा और मैं भी बंदी बना लिया जाऊँगा॥ २९॥
हिंसाभिरुचयो हिंस्युरिमां वा जनकात्मजाम्।
विपन्नं स्यात् ततः कार्यं रामसुग्रीवयोरिदम्॥३०॥
‘इसके सिवा हिंसा में रुचि रखने वाले राक्षस यदि इन जनकदुलारी को मार डालें तो श्रीरघुनाथजी और सुग्रीव का यह सीता की प्राप्तिरूप अभीष्ट कार्य ही नष्ट हो जायगा॥३०॥
उद्देशे नष्टमार्गेऽस्मिन् राक्षसैः परिवारिते।
सागरेण परिक्षिप्ते गुप्ते वसति जानकी॥३१॥
‘यह स्थान राक्षसों से घिरा हुआ है। यहाँ आने का मार्ग दूसरों का देखा या जाना हुआ नहीं है तथा इस प्रदेश को समुद्र ने चारों ओर से घेर रखा है। ऐसे गुप्त स्थान में जानकी जी निवास करती हैं॥३१॥
विशस्ते वा गृहीते वा रक्षोभिर्मयि संयुगे।
नान्यं पश्यामि रामस्य सहायं कार्यसाधने॥३२॥
‘यदि राक्षसों ने मुझे संग्राम में मार दिया या पकड़ लिया तो फिर श्रीरघुनाथजी के कार्य को पूर्ण करने के लिये कोई दूसरा सहायक भी मैं नहीं देख रहा हूँ।
विमृशंश्च न पश्यामि यो हते मयि वानरः।
शतयोजनविस्तीर्णं लक्षयेत महोदधिम्॥३३॥
‘बहुत विचार करनेपर भी मुझे ऐसा कोई वानर नहीं दिखायी देता है, जो मेरे मारे जानेपर सौ योजन विस्तृत महासागरको लाँघ सके॥३३॥
कामं हन्तुं समर्थोऽस्मि सहस्राण्यपि रक्षसाम्।
न तु शक्ष्याम्यहं प्राप्तुं परं पारं महोदधेः॥३४॥
‘मैं इच्छानुसार सहस्रों राक्षसों को मार डालने में समर्थ हूँ; परंतु युद्ध में फँस जाने पर महासागर के उस पार नहीं जा सकूँगा॥३४॥
असत्यानि च युद्धानि संशयो मे न रोचते।
कश्च निःसंशयं कार्यं कुर्यात् प्राज्ञः ससंशयम्॥३५॥
‘युद्ध अनिश्चयात्मक होता है (उसमें किस पक्ष की विजय होगी, यह निश्चित नहीं रहता) और मुझे संशययुक्त कार्य प्रिय नहीं है। कौन ऐसा बुद्धिमान् होगा, जो संशयरहित कार्य को संशययुक्त बनाना चाहेगा॥ ३५॥
एष दोषो महान् हि स्यान्मम सीताभिभाषणे।
प्राणत्यागश्च वैदेह्या भवेदनभिभाषणे॥३६॥
‘सीताजी से बातचीत करने में मुझे यही महान् दोष प्रतीत होता है और यदि बातचीत नहीं करता हूँ तो विदेहनन्दिनी सीता का प्राणत्याग भी निश्चित ही है। ३६॥
भूताश्चार्था विरुध्यन्त देशकालविरोधिताः।
विक्लवं दूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा॥ ३७॥
अविवेकी या असावधान दूत के हाथ में पड़ने पर बने-बनाये काम भी देश-काल के विरोधी होकर उसी प्रकार असफल हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदय होने पर सब ओर फैले हुए अन्धकार का कोई वश नहीं चलता, वह निष्फल हो जाता है॥ ३७॥
अर्थानान्तरे बुद्धिनिश्चितापि न शोभते।
घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः॥३८॥
‘कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में स्वामी की निश्चित बुद्धि भी अविवेकी दूत के कारण शोभा नहीं पाती है; क्योंकि अपने को बड़ा बुद्धिमान् या पण्डित समझनेवाले दूत अपनी ही नासमझी से कार्य को नष्ट कर डालते हैं॥ ३८॥
न विनश्येत् कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं मम।
लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्॥३९॥
कथं नु खलु वाक्यं मे शृणुयान्नोद्रिजेत च।
इति संचिन्त्य हनुमांश्चकार मतिमान् मतिम्॥४०॥
‘फिर किस प्रकार यह काम न बिगड़े, किस तरह मुझसे कोई असावधानी न हो, किस प्रकार मेरा समुद्र लाँघना व्यर्थ न हो जाय और किस तरह सीताजी मेरी सारी बातें सुन लें, किंतु घबराहट में न पढ़ें-इन सब बातों पर विचार करके बुद्धिमान् हनुमान् जी ने यह निश्चय किया॥ ३९-४०॥
राममक्लिष्टकर्माणं सुबन्धुमनुकीर्तयन्।
नैनामुढेजयिष्यामि तद्बन्धुगतचेतनाम्॥४१॥
‘जिनका चित्त अपने जीवन-बन्धु श्रीराम में ही लगा है, उन सीताजी को मैं उनके प्रियतम श्रीराम का जो अनायास ही महान् कर्म करनेवाले हैं, गुण गा-गाकर सुनाऊँगा और उन्हें उद्विग्न नहीं होने दूंगा॥ ४१ ॥
इक्ष्वाकूणां वरिष्ठस्य रामस्य विदितात्मनः।
शुभानि धर्मयुक्तानि वचनानि समर्पयन्॥४२॥
‘मैं इक्ष्वाकुकुलभूषण विदितात्मा भगवान् श्रीराम के सुन्दर, धर्मानुकूल वचनों को सुनाता हुआ यहीं बैठा रहूँगा॥
श्रावयिष्यामि सर्वाणि मधुरां प्रब्रुवन् गिरम्।
श्रद्धास्यति यथा सीता तथा सर्वं समादधे॥४३॥
‘मीठी वाणी बोलकर श्रीराम के सारे संदेशों को इस प्रकार सुनाऊँगा, जिससे सीता का उन वचनों पर विश्वास हो। जिस तरह उनके मन का संदेह दूर हो, उसी तरह मैं सब बातों का समाधान करूँगा’॥४३॥
इति स बहुविधं महाप्रभावो जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः।
मधुरमवितथं जगाद वाक्यं द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्॥४४॥
इस प्रकार भाँति-भाँति से विचार करके अशोकवृक्ष की शाखाओं में छिपकर बैठे हुए महाप्रभावशाली हनुमान जी पृथ्वीपति श्रीरामचन्द्रजी की भार्या की ओर देखते हुए मधुर एवं यथार्थ बात कहने लगे॥ ४४ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रिंशः सर्गः॥३०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्डमें तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३०॥
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